SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७८ चतुर्थस्तुति निर्णयः । के यह हमारे साथ धूर्तता करता है वा नहीं क रता है ? यह बात कुछ बनिये समजते नही. परंतु रत्नविजयजीकूं साधु नाम धरायकें ऐसे ऐसे बल पटके काम करणे उचित नहीं है. हमा री तो यह परम मित्रतासें शिक्षा है, मानना न मा नना तो रत्नविजयजी के अधीन है. तथा रत्नविजयजीकूं इस संघाचारवृत्तिका तात्प र्यार्थिनी मालुम नही हूया होगा नही तो अपने म तकी हानिकारक चिट्ठी इस पुस्तकमें काहेकों ल गवाता ? तथा आवश्यककी अर्थ दीपिकाका पाठ लिखते है ॥ तथा सम्यग्दृष्टोऽर्हत्पादिका देवा देव्यश्वेत्येक शेषादेवा धरणीं बिकायादयो ददतु प्रयवंतु समा धिं चित्तस्वास्थ्यं समाधिर्हि मूलं सर्वधर्माणां स्कंध 5 व शाखानां शाखा वा पुष्पं वा फलस्य, बीजं वांकुर स्य चित्तस्वास्थ्यं विना विशिष्टानुष्ठानस्यापि कष्टानुप्रा यत्वात् समाधिव्याधिनिर्विधुर्यता तन्निरोधश्च तदेतुको पसर्गनिवारणेन स्यादिति तत्प्रार्थनाबोधिं परलोके जि नधर्मप्राप्तिः यतः सावयघरंमिवरहुआ चेडने नाण दंसणसमे ॥ मित्तमोदि अमई, माराया चक्कवट्ट । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003675
Book TitleChaturthstuti Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy