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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ४३ नेद्यं सासणसुरेहिं ॥ ७३ ॥ संघस्सगा पायं, वडा सामबमिह सुराणंपि ॥ जहसीमंधरमूले, गमणे मा हिनवि वायंमि ॥४॥जरका एवा सम.सीमंधर सामिपायमूलंमि ॥ नयणं देवी एकयं, कास्सग्गे ण सेसाणं ॥ ५ ॥ एमाहिं कारणेहिं, साहम्मिय सुरवराण वचनं ॥ पुत्वपुरिसेहिं कीरइ, न वंदणादेन मुस्सुग्गो ॥७६ ॥ पुत्वपुरिसाणमग्गो, वचंतो नेय चु कर सुमग्गा ॥ पानण नावसुधि, सुच्च मिला विगप्पेहिं ॥ ७ ॥
इनकी नाषा लिखते है ॥ वैयावृत्त्य कहियें जि नमंदिरकी रक्षा करनी, परिस्थापनादि जिनमतका कार्य करना, शांति सो जिननवनमें प्रत्यनीकके करे दए नपसर्गोका निवारण करना ॥ ७६ ॥ सम्यक्ह ष्टि श्रीसंघ तिसकों दो प्रकारकी समाधिके करनेवा से ऐसा शील कहते स्वनाव है जिन साधर्मी देवता योंका ॥ ७७ ॥ तिनकू सन्मान देनेके वास्ते अन्न बनससियाए आदि धागार करनेसें अबमें कायोत्सर्ग करता हूं॥७॥ इहांको कहे के अविर ति देवतायोंका कायोत्सर्ग करना यह हम श्रावक और साधुयोंकों की क संगत नही है ॥ ७ ॥ क्यों के गुणहीनकू वंद
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