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(१५) अब सकल देश निवासी श्रावकादि चतुर्विध श्रीसंघकों हमारी यह प्रार्थना है के पडिक्कमणेमें चार थोयों कहेनेकी रूढी यद्यपि परंपरासें चली बाती है, सो कोई मतलबी पुरुष अपना किसी प्रकारका मतलब साधनेके लीये चार थोयोंके बदले में तीन अ थवा दो किंवा एकज थोय कहेनेकी प्ररूपणा जो करते है उनका कहेना जो विवेकी जाणकार पुरुष है उनके हृदय में तो प्रवेश नही कर शक्ता, परंतु कितनेक अझ अरु अल्पसमजवाले नोले लोक है न नके हृदयमें कदापि प्रवेशनी कर शक्ता है, तो नन नोले लोकोंकों ये ग्रंथका नपदेश हो जावेगा. जिस्से उनको पूर्वोक्त मतवादीयोंका उपदेश परानव न कर शकेगा. ऐसा उपकार बुझिसे यह महाराज श्रीमद् यात्मारामजी आनंदविजयजीने जो इस विषय पर ग्रंथ बनाया, सो हम उपवाय कर प्रसिह कीया है. इस्सें श्रीजिनशासनकी यथार्थ प्रवृत्ति जो परंपरासें च लीआती है सो अंखमित रहो अरु बदुल संसारी हो नेकीबीक न रखने वाले मतिनेदक जनोकी जो जैन मतसें विपरीत प्रवृत्ति है सो खंमित हो जा. यह ह मारा आशीर्वाद है. किंबहुना.
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