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________________ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १२५ राश्मवि एवमेव नवरितहिं पढमं दान मिजामि उक्कडं पढ सक्कलयं ॥ १॥ उघ्यि करेइ विहिणा, उस्सग्गं चिंतए अनजोकं ॥ अयं ज्ञानस्य कायोत्सर्गः लोग ॥१॥ बियं दसणसुदिशाअयं द्वितीयो दर्शनस्य लो॥ १॥चिंतएतबश्ममेव ॥ २ ॥ तश्ए निसाश्यारं, जहक्कम चिंतिकण पारे ॥ इति तृतीयश्चारित्रस्य लो ॥ १३ ॥ इति प्रथममावश्यकम् ॥१॥ सिक्वयं पडित्ता, पमहसंमास मवविस (अतिहितीयमावश्य कम् ॥॥) पुत्वं च पुत्ति पेहण वंदण मालोय (इति तृतीयमावश्यकम् ॥३॥) सुत्तपढणं च ॥ वंदण खा मण वंदण गाहतिगपढण (इति चतुर्थमावश्यकम् ॥ ॥४॥) नस्सग्गो॥४॥ तनयचिंता संजम, जोगा ए न हो जणमेहाणी ॥ तं पडिवजामि तवं,जम्मासं तान कान मलं ॥ ५॥ एमाश् श्गुणतीसुण, यं पीन सहो न पंच मासमवि ॥ एवं चन तिन मासं, न समबो एगमासंपि॥ ६ ॥ जातंपि तेर सुण चन, ती सइ माश्न उहाणीए ॥ जा चउबंनो आयं बिलाई जापोरिसी नमोवा ॥ ७ ॥ जं सकतं हियए, धरेत्तु (इति पंचममावश्यकम् ॥५॥ पेहणपोत्तिं दानं वंदण मसढो तं चिय पञ्चरकए विहिणा ॥ ॥ इति षष्ठमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003675
Book TitleChaturthstuti Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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