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१३४ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। सामायिय उस्स, ग्गसुत्त मुच्चरिय कास्सग्गनि ॥ चिंत उडोअचरि, त्तयश्यार सुक्षिकए ॥ ६ ॥ विहिणा पारीअ (अयं लोगस्स झ्यात्मकश्चारित्रशुस्यु त्सर्गः॥ १ ॥) समत्तस्स ६ सुदिहेतं च पढश्नको अं॥ तह सबलोथ अरिहंत चे बाराहणुस्सग्गं ॥७॥ का उक्लोअगरं, चिंतिय पारे सुझसम्मत्तो॥ (अयं दर्शनस्य लो० ॥ १॥२) ॥ पुरकरवरदीवढं, कढ सुत्र सोहणनिमित्तं ॥ ७॥ पुण पणविसोस्सासं, उस्स ग्गं कुणपारए विहिणा॥ (अयं ज्ञानस्यलो ०१॥३॥) तो सयल कुसल किरिया, फलाण सिधाण पढश्थय ॥ए॥ अहसुअसमिबिहे, सुअदेवीए करे उस्सग्गं॥ चिंतेइ नमुक्कारं, सुण वदेव तीर थुई ॥ १० ॥ एवं खित्तसुरीए, उस्सग्गं कुण सुण देइ थुई ॥ पढिकण पंचमंगल, मुवविसई पमऊ संमासे ॥ ११ ॥ इति पंचममावश्यकम् ॥ ५॥ पुत्वविहिणेव पेहिय, पुत्तिं दाकण वंदणं गुरुणो ॥ इति पष्ठमावश्यकम् ॥ ६॥ लामो अणुसहिति, नणियं जाणुहितो नगइ ॥१५॥ गुरुथुइ गहणे थुइ ति,नि वक्ष्माणरकरस्सरा पढई ॥ सक्कडवं श्रपढिय, कुण पबित्त नस्सग्गं ॥१३॥ एवं ता देवसिय ॥ इति दैवसिक प्रतिक्रमण विधिः॥१॥
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