________________
(ए)
ग्रहण करा; परंतु किसी संयमी गुरुके पास चारित्रो पसंपत् यर्थात् फेरके दीक्षा लीनी नहीं, यरु पहेले तो इनका गुरु प्रमोदविजयजी यती थे, सोतो कुछ संयमी नहीं थे यह बात मारवाडके बहोत श्रावक श्री तरेसें जानते है. तो फेर असंयती के पास दीक्षा लेके क्रिया उधार करणा यह जैनमतके शास्त्रोंसें विरुद्ध है.
इसी वास्ते तो श्रीवत्रस्वामी शाखायां चांड्कुले कौटिक बृहद् तपगवालंकार नहारक श्रीजग सूरिजी महाराजे अपकों शिथिलाचारी जानके चैत्रवाल गीय श्री देवनड्गणि संयमी के समीप चा रित्रोपसंपद् अर्थात् फेरके दीक्षा लीनी. इस हेतुसेंतो श्री जगच्चं सूरिजी महाराजके परम संवेगी श्रीदेवेंइस् रिजी शिष्यें श्रीधर्मरत्नग्रंथकी टीकाकी प्रशस्तिमें य पने बृहद् का नाम बोडके अपने गुरु श्रीजगन्चं सूरिजी कों चैत्रवाल गछीय लिखा. सो यह पाठ है. क्रमशचैत्रा वालक, गछे कविराजराजिननसीव ॥ श्री भुवन चंड्सूरिगुरुरुदियाय प्रवरतेजाः ॥ ४ ॥ तस्य विनेयः प्रशमै, कमंदिरं देवनगलिपूज्यः ॥ शुचिस मयकनक निकषो, बनूव नूविदितभूरिगुणः ॥ ५ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org