SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थस्तुति निर्णयः । १ ए रियावहिनं पडिक्कमिनं व्यविहि परिधावलिया ए का उग्गो कीरता हे मंगल पष्ठ तव अन्ने विदो व ए हायंते कहंति नवस्सए वि एवं चेश्य वंदण वयति ॥ कल्पचतुर्थोद्देशकसामान्यचूर्णौ ॥ कल्प विशेष चूर्णि कल्पवृहद्भाष्यावश्यक वृत्तिरुद्भिरन्यथा व्याख्यातं । यत चैत्यवंदनानंतरमजितशांतिस्तवो जणनीयो नो चेत्तदा तस्य स्थानेऽन्यदपि हीयमानं स्तुतित्रयं नानीयमिति । तथाहि चेश्य घर गाहा | चेश्य घर गति चेश्याइं वंदित्ता संति ॥ निमित्तं श्र कियसंतिबन परियहिवर तिन्नि वायुती न परिहा यंती व कट्टियंति तव श्रागंतु प्रायरिय सगासे वि हि परिछावणीयाए काउस्सगो कीरइ. कल्प विशेष चू० उ०४ तथा चेश्य घरुवस्स एवा, यागम्मुस्सग्ग गुरुसमीवंम ॥ विहि विगिंचणी याए, संति निमि तं यतो तब ॥ १ ॥ परिहायमालियान, तिन्नि शु ईन हवंति नियमेण ॥ यजियसंतिष्ठगमा, श्यानक मसो तहिं नेन ॥ २ ॥ कल्पवृहद्भाष्ये तथा उहाला ई दोसान, हवंति तवेव कावसग्गंमि श्रागम्मुवस्स यं गुरु सगासे विहि ए उस्सग्गो कोइ जोधा त वेव किमिति का सग्गो न कीरइ नन्नइ उहालाई दो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003675
Book TitleChaturthstuti Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy