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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ५३ शब्दात् क्षेत्रनवनदेवतापरिग्रहः । इति गाथार्थः ॥
इस प्रकारे श्रीहरिनइस रिजीने पंचवस्तु शास्त्र में आचरणासें श्रुतदेवता और देव देवताका कायोत्स गे करना कहा है, तो यह श्रुतदेवता अरु देत्रदेव ताका कायोत्सग्गंकरण रूप याचरणा पूर्वधारियों के समयमेंनी चलती थी तिस्का स्वरूप विचारामृत संग्रह ग्रंथकी सादीसें नपर लिख आये है. तो पूर्व धारियोंकी आचरणाका निषेध करना यह महा अ नर्थका मूल है, निषेध करनेवाले रत्नविजयादि ऐसे नही सोचते होवेगे के, हम तुबबुधिवाले होकर पू बंधारियोंकी आचरणाका निषेध करके कौनसी प्रतिमें जावेगे!!
तथा श्रीवृंदारुवृत्तिका पाठ लिखते है. एवमेतत्प त्विोपचितपुण्यसंनार नचितेष्वौचित्यप्रवृत्त्यर्थमिद माह वेयावञ्चगराणमित्यादि । वैयावृत्त्यकराणां प्रव घनाथै व्याप्टतनावानां गोमुखयदादीनां शांतिकरा पणां सर्वलोकस्य सम्यग्दृष्टिविषये समाधिकराणां एषां संबंधिना षष्ठया सप्तम्यर्थत्वादेतहिषयं वा आश्रित्य करोमि ॥ कायोत्सर्ग अत्र वंदरावत्तियाए इत्यादि न प्रयते तेषामविरतत्वात् अन्यत्रोसितेनेत्यादि पूर्वव
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