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________________ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ११ रू जीवोंकों होता है, परंतु स्वयंनष्ट अपरनाशकाकों तो स्वप्नेमेंनी जैसी नावना नही आती है. इस वास्ते हे नोले श्रावको तुम जो आपना आत्मका क व्याण श्वक हो, अरु परनवमें उत्तमगति, उत्तम कुल, पाकर बोधबीजकी सामग्री प्राप्त करणेके अनि लाषी होवो तो तरन तारन श्रीजिनमतसम्मत असे जैनमतके हजारो पूर्वाचार्योंका मत जो चार थुश्यों का है तिनको बोडके दृष्टी रागसें किसी जैनानासके वचनपर श्रदा ररकके श्रीजिनमतसें विरुप जो तीन युश्योंका मत है. तिनकों कदापि काले अंगीकार क रण तो दूर रहो; परंतु इनकों अंगीकार करणेका त र्कनी अपने दिलमें मत करो, क्योंके जो धर्म साध न करना होता है सो सब नगवान्के वचनपर शुद्ध श्रया ररकनेसें होता है, इसी वास्ते जो श्रमामें विक ल्प हो जावे तो फेर जैसे महासमुश्में सुलटा जहाज चलते चलते उलटा हो जावे तो उन जहाजमें बैठ नेवालेका कहा हाल होवे ! तिसी तरें यहांनी जानना चाहीयें. इस वास्ते आप कोकी देखा देखीसें किंवा किसी हेतु मित्रके पर सरागदृष्टी होनेसें मृगपाशके न्यायें तीन शुरूप पाशमें मत पडना.इस्से बहोत सा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003675
Book TitleChaturthstuti Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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