SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थस्तुति निर्णयः । ११ सिद्धा इत्यादि इसी वास्ते इहां बहुवचन दीया है., नही तो दिवचन देते पतंति ऐसी बहुवचन रूप कि या है. " सेसाजदिष्ठा ” शेष थुइयां जैसी इवा हो वे तैसें कहे, यह श्रावश्यक चूर्णिके वचनका प्रमा ए है. नच तत्र नियम इति ॥ नतछ्याख्यानं क्रियते इति ॥ ऐसा कहन कहते हुए. श्रीहरिजसू रिपूज्य ऐसें ज्ञापन करते है के जो पाठ यहां चैत्यवंदनामें अपनी यथेासें कहते है, तिसका व्याख्यान हम नही करते है, जो पाठ चैत्यवंदनामें निश्चयसें कहने योग्य है, तिसका व्याख्यान करते है. तिसके व्या ख्यान करनेसें वेयावच्चगराणं इत्यादि सूत्रकानी व्याख्यान करा ॥ तथा चोक्तं ॥ ऐसें यह पढके यावत् वैयावच्च गराणं इत्यादि पढे । इस कहनेसें वेयावञ्चगराणं ३ त्यादि अवश्य पढने योग्यही है, यह सिद्ध हुआ: जेकर वेयावञ्चगराणं यह पाठ अवश्य पढने योग्य न होता तो श्रीहरिजसूरिजी अपनी प्रतिज्ञाप्रमा ऐ इस पाठका व्याख्यान न करते. जेकर यह " वें यावञ्चगराणं " पाठाधिकारकों नविंतादि अधिकारकी तरें के आचार्य पढते, केइ न पढते, तब तो याह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003675
Book TitleChaturthstuti Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy