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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। २७ ॥ २७ ॥ संविग्न गीतार्थ विधिके रसिये अतिशय करके गीतार्थसूरि पुरुष जे पूर्व होगए है, ते सूत्र वि रुच नवनेद चैत्यवंदनाकी समाचारी कैसे प्ररूपणा करते ॥ २७ ॥ इस वास्ते हे सौम्य इस तेरी कही गाथासें चौथी शुश्का निषेध और तीन धुश्की चैत्य वंदना सिम नही होती है. तो फेर तुं क्युं हा रू पीये जालमे फसता है।
तथा पक्षांतरें इस तिन्निवा इत्यादि गाथाका अ र्थ श्रीसंघाचार नाष्यवृत्तिमें श्रीधर्मघोषाचार्ये पैसा करा है । तथाच संघाचार वृत्तिः ॥ उनिगंधमलस्सा वि, तणु रप्पे सहाणिया॥ नननवा नवहोचेव, तेण तिनचेए ॥ १ ॥ तिन्निवा कट्टई जाव, शुश्न तिसि लोया ॥ ताव तब अणुन्नायं, कारणेण परेणवि ॥ २ ॥ एतयो वार्थः साधवश्चैत्यगृहे न तिष्ठति अ थवा चैत्यवंदनांते शक्रस्तवाद्यनंतरं तिस्त्रः स्तुतीः श्लोकत्रयप्रमाणाः प्रणिधानार्थ यावत्कुर्वते. प्रति क्रमणानंतरं मंगलार्थ स्तुतित्रयपाठवत् तावञ्चैत्य हे साधूनामनुज्ञातं निष्कारणं न परतः ॥
जापाः-इन दोनो गाथांका लावार्थ यह है।साधुका शरीर छुर्गधरूप उधवाला होनेसें चैत्यगृहमें मर्यादा
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