________________
चतुर्थ स्तुति निर्णयः ।
१९
स्तवन एक, जयवीयराय, यह कहनेसें उत्कृष्ट जघन्य सातमा नेद ॥ ७ ॥ आठ थुई, दो वार चैत्यस्तवादि दमक, यह कहनेसें उत्कृष्ट मध्यम आठमा नेद ॥ ८॥ स्तोत्र, प्रणिपात दमक, प्रणिधान तीन, इनो करके सहित थुई, दो बार चैत्यस्तवादि दंमक, यह क नेसें उत्कृष्टोत्कृष्ट नवमा जेद ॥ ए ॥ नाष्यं ॥ ए सा नवप्पयारा, यश्न्ना वंदणा जिएमयंमि ॥ का लोचियकारीणं, अणग्गहाणं सुहा सव्वा ॥ ६० ॥ अ स्यार्थः- यह पूर्वोक्त नव प्रकारें, नवनेदें, चैत्यवंदना श्री जनमत में याची है, श्राग्रहरहित पुरुष उचित कालमें जिसकालमें जैसी चैत्यवंदना करणी उचित जाणे, तिस कालमें तैसी चैत्यवंदना करे, तो सर्व न वद शुभ है, मोफलके दाता है ॥ ६० ॥ जाष्यं ॥ नक्कोसा तिविहाविदु, कायद्या सत्तिन उजय कालं ॥ सङ्केहिन सविसेसं, जम्हा तेसिं इमं सुतं ॥ ६१ ॥ र्थ :- उत्कृष्ट तीन जेदकी चैत्यवंदना, शक्तिके हूए उ जय कालमें करनी योग्य है. पुनः श्रावकोंनें तो स विसेस अर्थात्, विशेष सहित करनी चाहियें, क्योंके ? श्रावकों के वास्ते जैसा सूत्र कहा है ॥ ६१ ॥ नाष्यं ॥ वंद जयन कालं, पि चेश्याई ययथुई परमो ॥ जि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org