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२५ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। णवर पडिमागरधू, व पुप्फगंधचणुयुतो ॥ ६ ॥ अर्थः- श्रावकजन उनयकालमें स्तोत्र स्तुति करके उत्कृष्ट चैत्यवंदना करे, कैसा श्रावक जिनप्रतिमाकी अगर, धूप, पुष्प, गंध करके पूजा करने में अति उद्य म संयुक्त होवे ॥ ६॥ नाष्यं ॥ सेसा पुणबप्नेया, कायवा देस काल मासद्य ॥ समणेहिं सावएहिं, चे श्य परिवाडि मासु ॥ ६३ ॥ अर्थः- शेष जघन्यके तीन अरु मध्यमके तीन मिलकेननेद चैत्यवंदनाके जो रहे है, सो देश काल देखके साधु श्रावकनें चैत्य परिवाडी आदिमें करणे आदि शब्दसें मृतक साधुके पर ठव्या पी. जो चैत्यवंदना करीयें है तिसमें करणे॥३॥
इस वास्ते हे सौम्य बहा नेद तीन शुश्सें जो चैत्यवंदना करनेका है, सो चैत्यपरिवाडिमें करणेका है, ए परमार्थ है, अरु तुम जो कल्पनाष्यकी इस गाथाकू बालंबन करके चौथी थुश्का तथा प्रतिक्रम
की आद्यंत चैत्यवंदनाकी चोथी थुइका निषेध क रते हो, सो तो दहिंके बदले कर्पास नदण करते हो ! इस्से यहनी जानने में थाता है के जैनमतके शा स्त्रोंकानी तुमको यथार्थ बोध नही है,तो फेर चौथी शुश्का निषेध करनाजी तुमकों उचित नही है ॥ जणि
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