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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। वता जे चैत्यवंदनादिकके उपचारमें निकट हुए हैं, वे देवता सादिपणा अंगीकार करते है. क्योंके चैत्य वंदनामें तिन देवतायोंका कायोत्सर्ग करणा और तिनकी थुइ कहनी यह उपचार करिये हैं, अन्य को उपचार तहां संनवे नही है, और हमने अन्य को श्रवणनी नही करा है. तब तो यह सिम दूया के चैत्यवंदनामें सम्यकदृष्टि देवताका कायोत्सर्ग क रणा, और तिनकी शुश् साधु, साध्वी, श्रावक, श्रा विकाकों अवश्यमेव कहनी चाहिये; अन्यथा अ पर उपचार तो तिनका कोई है नही. तिस वास्ते तिनका सादी होनाजी सिम नही होवेगा, चूर्णिका र तैसेही व्याख्यान करणेसें निश्चय करते है, सो पाठ यह है. “ देवसस्कियं” इति सूत्र प्रामास्यात् ॥
तथा ३०४ के पत्रेका पाठ ॥ तथा प्रवचनसुराः सम्यग्दृष्टयो देवास्तेषां स्मरणार्थ वैयावत्यकरेत्यादि विशेषणहारेणोपबृंहणार्थ दुशेपश्व विशवणादिकते तत्तगुणप्रशंसया प्रोत्साहनार्थमित्यर्थः । यह तत्कर्त व्यानां वैयावृत्त्यादीनां प्रमादादिना श्लथीनतानां प्रवृत्त्यर्थमश्लथीनूता नतु स्थैर्याय च स्मरणात् ज्ञा पनात् तदर्थ सारणार्थ वा प्रवचनप्रनावनादौ हित
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