________________
चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ७३ बुदि करके सूत्रका रहस्य चिंतन करणा, और श्रुत घोंकी सेवा करणी योग्य है, कदाग्रहरहित प्रवर्तना चा हियें. और अपनी शक्त्यनुकूल यत्न करना चाहियें ॥ __ ऐसें दूसरा, दसवा अरु अग्यारहवा यह तीन व
के शेष प्रथमादिसें लेकर बारमे अधिकार पर्यंत न व अधिकार गुरु परंपराके उपदेशमें आये हुए ललि तविस्तरामें व्याख्यान कर गए है. -तहां सिमा इति सिहं आदि शब्दसें पाक्षिक सू त्रकी चूादि ग्रहण करनी, तहां पादिकसूत्रमें ऐ सा सूत्र है “ देवसस्कियत्ति” ॥ अत्र चूर्णिः ॥ विर तिके अंगीकार करणके कालमें चैत्यवंदनादि उपचा रकें अर्थात् चैत्यवंदनामें सम्यक्दृष्टि देवताका का योत्सर्ग करणे और शुश्के पतनरूप उपचारके कर ऐसें अवश्यमेव यथा संनिहित देवता निकट होता है, इस वास्ते देवसस्कियं ऐसा पाठ पढते हैं, यह इहां नावार्थ है. । गणधरोंने प्रथम दृढताके वास्ते पांचकी सादिसे धर्मानुष्ठान प्रतिपादन करा है. लोकमेंनी दृढ व्यव हार, पंचोंकी सादिसें करा देखने में तैसेही आता है. तहां पाक्षिकसूत्र में देवताजी सादी कहे हैं, ते दे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org