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चतुर्थस्तुति निर्णयः ।
स्कारपूर्वकं प्रवर्तमानानां च देवताविषयशुननावस मूह विघ्नव्यपोहत्वेन प्रारब्धशास्त्रे प्रवृत्तिरपि प्रतिह तप्रसरा स्यात् । यतः प्रथमं मंगलोपन्यासः ।
अनिधेयं चात्र मुख्यवृत्त्या चतुर्थस्तुति निर्ण य एव, निरनिधेये ( मंमूकजटाकेशगणनसं ख्यायामिव ) न प्रेावतां प्रवृत्तिः । संबंधश्वा त्र वाच्यवाचकजावो नाम व्यक्त एव, प्र योजनं तु चतुर्थस्तुतिसंशयगत पतितानां जनानामुद्धरणम् - इति ।
॥ यह वर्त्तमान कालमें रत्नविजयजी थरु धनवि जयजीने प्रतिक्रमणेकी व्यादिकी चैत्यवंदनमें तीन थुइ कनेका पंथ चलाया है, सो जैनमतके शास्त्रा नुसार नही है, तिसका निर्णय लिखते हैं.
प्रथम जो रत्न विजयजी तीन थुकी थापना क रते हैं सो हमने श्रावकोंके मुखसे इसी माफक सु नो हैं. एक बृहत्कल्पकी गाथा, दूसरी व्यवहार सू त्रकी गाथा, तीसरी यावश्यक सूत्रका पारिठावणि या समितिका पाठ, चोथी पंचाशकवृत्ति यह चार ग्रंथोंके पाठानुसार करते हैं. तिनमेंजी पंचाशकट त्तिका पाठ अपनी श्रद्धाकों बहुत पुष्टिकारक मानते
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