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________________ चतुर्थस्तुति निर्णयः । १३५ सर्गतादि हेतु करके, प्रतिपत्ति तप रूप उपचार क रके, तथा इस वक्त रूपसें कषायादि निरोध प्रधान तपसें, पाठांतर करके ऐसे वक्तकरण करके, मार्गानु सारी होनेसें, सिद्ध पंथके अनुकूल अध्यवसायसें, " चरणं चारित्रं " प्राप्तका कथन करा हुआ चारित्र संयम बहुत महानुनाव जीवोंकों पूर्वकालमें प्राप्त हया है. इति गाथार्थः ॥ तथा सवंगसुंदरं इत्यादि दो गाथाकी व्याख्या ॥ सर्वांग सुंदर है जिस तप विशेषसें सो सर्वांग सुं दर तप यहां तथा शब्द जो है सो समुच्चयार्थमें है. तथा जो रुजाणां रोगोंका अभाव होना उनकों नि रुज कहेना सोइ शिखाकी तरें शिखा प्रधान फल करके जिहां है सो निरुजशिखातप जानना तथा परमोत्तम भूषण नरण होवें जिससेती सो परम नूप तप जानना चकार समुच्चयार्थमें है. तथा जो श्रागमिक कालमें मनवंबित फलकी सिद्धि करे सो सौभाग्य कल्पवृक्ष तप जानना. इस उक्त तपसें अरु अन्य प्रकारके तपसें क्या फल होवे सो बतलाते है. कहे हैं जो तपके नेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003675
Book TitleChaturthstuti Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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