SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११४ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। जैनमतमें महाज्ञानी थे तिनके सम्मत जो चार थुइ श्रुतदेवता, देवदेवताका कायोत्सर्ग करणेरूप मत है तिसकों उबापके स्वकपोलकल्पित मतके जालमें फसातें है. यह काम सम्यग्दृष्टि अरु नवजी रुयोंका नहीं है. • तथा रत्नविजयजी, धनविजयजीने श्रीजगचंसरि जीको अपना पाचार्यपट्ट परंपरायमेंमाना है.और ति नके शिष्य श्रीदेवेंइसरिजीने चैत्यवंदननाष्यमें और ति नके शिष्य श्रीधर्मघोष सूरिजीने तिसनाष्यकी संघाचार वृत्तिमें चार थुइसें चैत्यवंदनाकी सिदि पूर्वपद उत्तर पद करके अन्जी तरेसे निश्चित करी है, जिसका स्व रूप हम उपर लिख आए है.तिसकों नही मानते इस्से अपनेही आचार्योंकों असत्यनाषी मानते है, तो फेर रत्नविजयजी,धन विजयजी यहनी सत्यनाषी क्यों कर सिम होवेगें? जे कर रत्नविजयजी अरु धनविजयजी अंचलग के मतका सरणा लेते होवेगे तो सोनी अयुक्त है. क्योकि अंचलगबके मतवाले तो चारोंही शुइन ही मानते है, वे तो लोगस्स, पुरकरवर, सिक्षाएं बु दाणं, यह तीन थुश्कों मानते है. अन्य नही. यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003675
Book TitleChaturthstuti Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy