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चतुर्थ स्तुति निर्णयः ।
मानने वालेनी किसतरेंसें सुइजन कह सकते है ? क्योंकी श्रीस्थानांग सूत्रकी वृत्ति यहनी सूत्रों का पांच अंगमेंसें एक अंग है तो फेर वृत्तिमें करा हुया क थनी इनोकों माननेमें जब अनुकूल नहीं होता है तब तो जिस कथनसें इनोंका मत सिद्ध हो जावे वो कथन जिस ग्रंथ में होवे तिस कथनकोंही मानो परंतु उसी ग्रंथ में इनोका मत त्रोडनेवाला कथन होवे, वो कथन नहीं मानना चाहियें ! इसी तरें जो ढूंढीयोकी माफक जहां अपनेकों अनुकूल होवे सो बचन सत्य और जो अपनेकों प्रतिकूल होवे सो ब चन असत्य कह देनेके तुल्य वाणी बन जाती है.
हमारा कहना यह है की कुतर्क करनेवाला, शास्त्र कारोंका लेखकों जुग ठहराने वास्ते कोट्यावधि कु युक्तियों करो, परंतु महागंजीर खाशयवाजे यरु स मुझ जैसी बुद्धिवाले पूर्वाचार्योंने जो शास्त्रोंकी रच ना करी है तिनका स्खलित वचनका किसी कुतर्की तुमति वाले जोकोसें पराभव नही हो सक्ता है, किंतु पराजव करने वाला यापही यापसें स्खलन हो जाता है. जो शास्त्रों की अपेक्षा बोडके अपनी कु युक्तियों से नवीन मत निकालनेका उद्यम करनेको
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