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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ६७ विकत्वात्सिःचूर्णिकारेण तथैव व्याख्यातत्वान्निश्ची यते तच्च देवसस्कियंतिसूत्रप्रामाण्यात् ॥
इस उपर लिखे हुए पाठकी नाषा लिखते है ॥ चरम कहेते बारमे अधिकारमें वेयावञ्चगराणमित्यादि कायोत्सर्गका करनां तिसकी स्तुति पर्यंतमें देनीक्योंके यह सम्यकदृष्टि देवताके साथ उचित प्रवृत्तिरूप हो नेसें धर्मकों अवस्थानुरूप व्यापारके अनावसे गुण अनावकी आपत्ति होनेसें एक पासें औचित्य स्थापी यें और एक पासें गुणांकी कोटी स्थापीयें औचित्यके विना सर्व गुण विषकी तरें आचरण करेंगे ॥१॥ __ अनौचित्यप्रवृत्त होनेसें यद्यपि महान्पुरुष मथुरा दपक था तोनि कुबेरदत्ता सम्यक्दृष्टिणी देवीके सा थ अनौचित्यप्रवृत्ति करनेसें मिजामिक्कड देना पड़ा ॥ आह च ॥ रकसे ले कर राजा पर्यंत जे पुरुष औचि त्यप्रवृत्ति करनी नही जानते है, अरु वे पुरुष प्रनु ता ठकुराइके तां चाहते है, परं ते पुरुष बुद्धिमानो के खिलोने है ॥ १ ॥ इहां यह तात्पर्य है के सदाका ल अपनी परकी अवस्था अनुरूप नचित प्रवृत्ति करकें प्रवृत्त होना चाहियें सदा औचित्य प्रवृत्ति करके सर्वत्र प्रवर्त्तना चाहियें यह तात्पर्यार्थ है । इस क
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