SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1. Ե चतुर्थस्तुति निर्णयः । बोले. यथा कदापि देखने में न यावनेसें देवताही नही है, जेकर होवेंगेजी तो वेजी विट पुरुष अर्थात् अ त्यंत कामी पुरुषकी तरें, कामासक्त होनेसें, किस का मके है ? तथा वो देव अविरति है, तिनसें हमारा क्या प्रयोजन है तथा जिनकी यांखो मिचती नही है इस वास्ते चेष्टा करके रहित होनेसें मृततुल्य पुरुषके समान है, जैनशासनमें किसीजी काममें नही आते है, इत्यादि अनेक प्रकारसें पूर्वोक्त देवतायोंका वर्णवाद बोले सो जीव ऐसा महामोहनीय कर्म बांधे कि जिसके प्रजावसें जैनधर्म तिस जीवकों प्राप्त होना दुर्लन हो जावे क्योंके यहां टीकाकार श्री जयदेवसूरिजी उत्तर देते है. देवता है तिनके करे नुग्रह उपघातके देखनेसें, और कामासक्त जो दें वता है, सो शाता वेदनीय और मोहनीय कर्मके न दसें है, विरति कर्मके उदयसें वे विरति नही है, और जो यांख नही मीचते है सो देवनवके स्व नावसें है, और जो अनुत्तर विमानवासी देव निवे ष्ट चेष्टारहित है, वे देव कृतकृत्य हुए है अर्थात् उन कुबनी बाकी करना नही है, इस वास्ते निश्चेष्ट और जो तीर्थकी प्रभावना नहीं करते है सो का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org "
SR No.003675
Book TitleChaturthstuti Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy