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________________ ११७ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। तिक्रमणे प्रारंनमें चार धुसें चैत्यवंदना करनी कही है. श्रुतदेवता अरु देवदेवताका कायोत्सर्ग कर ना और इन दोनोकी थुश्योंनी कहनी कही है. तथा श्रीमपाध्याय श्रीयशोविजयगणिजीयें पां च प्रतिक्रमणेका हेतुगनित विधि लिखी है, तिस का पाठ लिखते हैं ॥ पढम अहिगारें वंड नाव जि ऐसरू रे॥बीजे दवजिणंद त्रीजे रे,त्रीजे रे, ग चेश्य ग्वणा जियो रे ॥१॥ चोथे नामजिन तिदुयण उव णा जिना नमुं रे ॥ पंचमें बतिम वंडरे, वंडरे वि हरमान जिन केवली रे ॥ २ ॥ सत्तम अधिकारें सु य नाणं वंदियें रें, अध्मी धुइ सिधाण नवमे रे, न वमे रे, थुइ तिबाहिव वीरनीरे॥३॥ दशमे उऊयंत शुश् वलिय ग्यारमें रे, चार आठ दश दोय वंदो रे, वंदोरे, श्रीअष्टापदजिन कह्या रे ॥ ४ ॥ बारमे स म्यादृष्टी सुरनी समरणा रे,ए बार अधिकार नावो रे,नावोरे, देव वांदतां नविजना रे॥५॥ वां बु श्व कारि समस श्रावको रे, खमासमण चनदे श्रावक रे, श्रावक रे, जावक सुजस इस्युं नवं रे ॥ ६ ॥ तिबाधिप वीर वंदन रैवत मंझन, श्रीनेमि नति तिब सार ॥ चतुरनर ॥ अष्टापद नति करी सुय दें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003675
Book TitleChaturthstuti Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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