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चतुर्थ स्तुति निर्णयः ।
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देवदेवताका कायोत्सर्ग और तिनकी दो थुइ कहनी ऐसा कथन उपर के पाठमैं है .
तथा संवत् १९४३ के फाल्गुन चातुर्मासमें रत्न विजयजी, राजधनपुर नगर में थे तिस समयमें एक श्रावकके घरमें ताडपत्रोंपर लिखी हुई संघाचार ना मा लघुनायकी वृत्तिथी तिसकूं रत्नविजयजीनें वां ची और कहने लगेके देखो इस वृत्तिमेंजी तीन चुइ है इस्में हमारा मत सिद्ध है. तब तिनके पास जा नेवाले श्रावकोंने एक चिट्ठी लिखके तिस पुस्तकके पत्रेपर चेपदीनी तिस चिट्ठीकी नकल हम यहां लिखतें हैं |
संघाचार जायना पाना २९५ मां त्रण थो यो कही बे ते टीकाकारें कही वे सिद्धाबुदाणंनी कही वे ॥ तारे नरंव नारिवा ॥ वेयावञ्चगराणं क हेतुं ते कुोपड्व उडाववाने वास्ते पानुं ( ३०४ )
इस चिट्ठी के लेखसें रत्नविजयजीका कहना सब मिथ्या है ऐसा सिद्ध होता है. क्योंके सुननेवाला बिन बिचार वाले होते वो कुछ संस्कृत प्राकृत भाषा तो पढे नही है. तिनकों जो कोई जिसतरें बहका देवे तिसतरें वो बहक जाते हैं. अब देखोके जिस
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