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________________ चतुर्षस्तुतिनिर्णयः। ५७ तथा तदारुवृत्ति पातः ॥ तत्र देवसिकादिप्रतिक्रम गविधिरमून्यो गाथान्योवसेयः, तत्रेदं देवसिकं । जि ए मुणिवंदण अश्या, रुस्सगो पुत्ति वंदणियालोए ॥ सुत्तं वंदण खामण, वंदण तिनेव उस्सग्गो ॥ १ ॥ चरणे सपनाणे, नळोबाउन्निश्काकोअ॥ सुअदेव या पुस्सग्गा, पुत्ती वंदण थुई थुत्तं ॥ २॥ इत्यादि. शहां वृंदारूवृत्तिमें प्रतिक्रमेणेकी आदिमें चैत्यवंद ना और श्रुतदेवताका देवदेवताका कायोत्सर्ग क रणा कहा है अरु थुश्नी कहनी. तथा चैत्यवंदन लघु नाष्ये ॥सुदिहिसुर समरणा चरिमे ॥ ४५ ॥ अर्थः-चैत्यवंदनाके बारमें अधिका रमें सम्यकदृष्टी देवताका कायोत्सर्ग करना और थुश् कहनी. तथा प्रतिक्रमणागर्मित हेतु ग्रंथमें कह्या है सो पाठ लिखतें हैं ॥ अथ चावश्यकारंजे साधुः श्राव कश्रादौ श्रीदेवगुरुवंदनं विधत्ते, सर्वमप्यनुष्ठानं श्रीदे वगुरुवंदनबहुमानादिनक्तिपूर्वकं सफल नवतीति आह च ॥ विणयाहीयाविळा, दिति फलं इह परे थलोगंमि ॥ न फलंति विणयहीणा,सस्साणिवतो व हीणाणि ॥ ए ॥ नत्ती जिणवराणं, खिङति पुवसं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003675
Book TitleChaturthstuti Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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