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चतुर्थस्तु तिनिर्णयः ।
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अस्य जाषा ॥ साधुयोंकों एक अहोरात्रमें सा तवार चैत्यवंदा करनी और श्रावकोंकों तीनवार, पांचवार यरु सातवार करनी, तिसमें प्रथम सा धुयोंकों एक अहोरात्रमें सातवार चैत्यवंदना कि सतरेंसे होवे सो कहते है || पडि० ॥ एक प्रजातके प्रतिक्रमणेके पर्यंतमें, दूसरी तदपीछे श्रीजिनमंदिर में जाकर करनी, तदपीछे तीसरी जोजन समयमें, तदपीछे चौथी जोजन करके पीछे चैत्यवंदना करके प्रत्याख्यान करे, पांचमी संध्याके प्रतिक्रमणेकी या दिमें प्रारंभ में, बही रात्रिमें सोनेके समयमें, सात मी सूतां नया पीछे करनी यह साधुयोंके चैत्यवं दन करनेका वखत कह्या और श्रावकतो जो उन यकालमें प्रतिक्रमणा करता होवे सो तो साधुकी त रें सात वार चैत्यवंदना करे, अरु जो पडिक्कमला न करे सो पांचवार चैत्यवंदना करे, और जघन्यसें ज धन्य तीनवार करे. इस पाठ में पडिक्कमकी साद्यं तमें चार थुकी चैत्यवंदना करनी कही है ॥ १ ॥ इसी तरे श्री अजितदेवसूरि अर्थात् वादीदेवसूरिजिन का करा चौरासी सहस्र (८४०००) श्लोक प्रमाण स्यााद रत्नाकर ग्रंथ है, तिनोकी करी यतिदिनच
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