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विजयजी की गुरुपरंपरा तो बहु पेढीयोंसें संयम र हित थी इस वास्ते जेकर रत्नविजयजी यात्महितार्थी होवे तो, इनकों पक्षपात बोडके अवश्यमेव किसी संयमी गुरु समीपे दीक्षा लेके क्रिया उद्धार करणा चाहिये, क्योंके धनविजयजीनें अपनी बनाइ पूजा में जो गुर्वावली लिखी है सो ऐसी है १ देवसूरि, प्रसूरि, ३ रत्नसूर, ४ मासूरि, ५ देवेंइरि, ६ कल्याणसूरि, ७ प्रमोद, अरु विजयराजेंइसूरि इनकी तीसरी चौथी पेढीवाले तो संयमी नहीं थे इस वास्ते रत्नविजयजी कों नवीन गुरुके पाससे सं यम लेके क्रिया उधार करना चाहियें जेकर पूर्वोक्त रीतीसें क्रिया उधार न करेगें तो जैनमतके शास्त्रोंकी श्रावाले इनकों जैनमतके साधु क्योंकर मानेगे ?
इत्यादि रत्नविजयजी रु धनविजयजीकों मिथ्या वरूप area सें निकालके सम्यक्त्वरूप शुद्ध मार्ग पर चढाने में हितकारक, ऐसा करुणाजनक उपदेश श्रीमन्महाराज श्रीयात्मारामजी के मुखसें सुनके हम सब श्रावकमंगल बहोत यानंदित नये, उसी बख त हम निश्चय कर ररका के जब महाराज साहेब चार स्तुतिके निर्णयका ग्रंथ बनाकर हमकों देवेगें,
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