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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। ५५ अतिम्हि श्चाई, पढई उहनविन विहिणा ॥ ५ ॥ दाकण वंदणं तो,पणगाई सुज सुखा मए तिमि॥ किश कम्म करिब था, यरिबमाईगाहातिगं पढए ॥१०॥ श्य सामाश्य उस्स,ग्ग सुत्तमुच्चरित्र काउस्सग्गहिन॥ चिंतनलोयगं. चरित्त अध्यारे मक्षिकए ॥११॥ विहिणा पारिथ संमत्त सुदिहेतुं च पढ उजोध॥ तह सबलोग अरहं, त चेश्याराहणुस्सग्गं ॥ १ ॥ का उलोअगरं, चिंतिअपारेसु सम्मत्तो ॥ पुरकर वरदीवडूं, कट्टर सुहण निमित्तं ॥ १३ ॥ पुणपणवी स्सुस्सासं, उस्सग्गं कुण पारण विहिणा ॥ तो स यल कुशल किरिया, फलाणसिक्षाण पढथयं ॥१४॥ अहसुथ समिति हे, सुधदेवीए करेइ नस्सग्गं ॥ चिंते नमुक्कार,सुण व दे व ती थु॥१५॥एवं खेत्त सुरीए, उसग्गं कुण सुण देश थुइ ॥ पडिकण पंच मंगल, मुवविसई पमङसमासे ॥ १६ ॥ पुत्वविहिणे वपेदिथ, पुत्तिं दाऊण वंदणं गुरुणो ॥ बामो अ पुसलिं, तिलणियजास्यूहिं तो ताई ॥ १७ ॥ गुरुथुइ गहणे शुइतिमि वक्ष्माण रकरस्सरा पढई ॥ सक्कल वथवं पढि,अ कुणा पवित्त स्सगं ॥१॥ हो जाषा यह वृंदारुवृत्ति श्रावकके आवश्यककी टी
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