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चतुर्थस्तुतिनिर्णयः। १३७ योत्सर्ग अरु घुइ कहनी निषेध करता है तिसकों श्रीजैनधर्मकी पंक्तिमें क्योंकर गिनना चाहीयें, अर्था त् नहीज गिनना चाहीयें. क्योंकि जैनमतमें सूर्यस मान श्रीहरिजश्वरिकत पंचाशक सूत्रका मूल, औ र नवांगी वृत्तिकारक श्रीअनयदेवसूरिकत पंचाशक को टीकामें तप करके सम्यग्दृष्टी देवतायोंके प्रतिमा की पूजा करनी जैसा प्रगटपणे कहा है. तो जैसे श्रीहरिनश्सूरि और अनयदेवसूरि जो यह पंचम कालमें सकल शास्त्रोंके पारंगामी थे, जो संपूर्ण श्रुत झानी कहाते थे तिनो महा पुरुषोंका बचन जो न माने तो क्या तिस अज्ञ जीवकों समजाने वास्ते श्रीमहाविदेह देत्रसे को केवलझानके धरने वाले के वली जगवान आवेगा? हम बहुत दिलगिरीसें लिख ते हैंकि यह जो तुम नवीन मतका अंकूर उत्पन्न क रनेकी चाहना रखते हो की सम्यगदृष्टी देवतादिक का कायोत्सर्ग न करना अरु थुश्यांनी न कहनीयां सो किस शास्त्रमें ऐसा लेख देख कर कहते हो? किस शास्त्रमें ऐसा पाठ लिखा है कि सम्यगदृष्टी देवतायों का कायोत्सर्ग करनेसें अरु नोक। थुश्यां कहनेसें पाप लगता है ? सो हमकों बतादो.
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