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६५ चतुर्थस्तुतिनिर्णयः । रहेण मिणा ॥ ११ ॥ तो सविसेसंतुघा, कु बेरदत्ता तहिं विणिम्मे ॥ गयण यलमषु लि हंतं, सुकिंकिणी जाल कयसोहं ॥१॥ जिणवर सुपा सबप्पडिम, पडिम समलंकियं अई विसालं ॥ उत्ता ए नयण प्पण,पिन्जणिव तिय मेहला कलियं ॥१३॥ वरसबरयण मश्य, सुमेरु नाम कियं महाथूनं ॥ तं द हुँ विहिय मणो, समुणि वंदर तहिं देवो ॥१४॥ थूनरयण मनुय, नूयं दळूण मिज दिीवि ॥ तश्याह रि सुकरिसा, जायाजिण सासणे जत्ता ॥१५॥ श्यंत मिथूनरयणे, सुपास जिण काल संनवंमि सया ॥ सुर किद्यमाण पिरकण,खणंमि सुबहू गन कालो॥१६॥ इतरंमि खवगो, सुदंसयो नाम नग्गतवचरणो ॥ विहरश्वसुहावलए, मदुराखव गुत्ति सुपसिको ॥१७॥ जवणे कुबेरदत्ता, संलिन सोकयाइ चनमासे॥आया वणाइ निरठ, उक्करतवचरण किसियंगो ॥ १७॥ त . तिव्वतवाकंपियहियया सा देवया नण सुमुणे ॥ मह कह सुकिंपि कचं,जेणं तं लदु पसाहेमि॥ १५ ॥ मुनिराह अनूचियन्न, किं मह कचं असंजई शतप ॥ साहमए तुह कवं, असंजई विधुवंहोही ॥ २० ॥ इय जणि अणुचियवय, सवण उप्पन्नमन्त्रुविवसमणा
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