Book Title: Bolte Chitra
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I चालले चित्र national e Mi Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aww.jainelibrary.org श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री atest E 4 . - . Haiono -- ---- -- HAR THE UP S : - T . . . TV ' -. - ... -.. .. -- - - - ~ - - - - - -मनन FFES SATTAl-. HTRA - - - - - - - - - . - - - - - - Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तारकगुरु- ग्रन्थमाला का १२वां पुष्प बोलते चित्र लेखक परम श्रद्धय पण्डित प्रवर प्रसिद्धवक्ता राजस्थान केसरी श्री पुष्कर मुनि जी महाराज के सुशिष्य देवेन्द्र मुनि शास्त्री, साहित्यरत्न प्रकाशक श्री तारकगुरु जैन ग्रन्थालय पदराडा (उदयपुर) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक : बोलते चित्र लेखक : देवेन्द्र मुनि शास्त्री प्रकाशक : श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय पदराडा, जिला-उदयपुर (राजस्थान) मूल्य : एक रुपया पचास पैसा प्रकाशन तिथि : अक्षय तृतीया वि० सं० २०२८ मुद्रक श्यामसुन्दर शर्मा श्री प्रिन्टर्स, राजामण्डी, आगरा-२ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिनके निर्मल वात्सल्य की विचार ज्योति प्राप्त कर मैंने संयम-साधना स्वीकार की जिनकी पवित्र प्रेरणा और आशीर्वाद से ज्ञान-साधना की ओर कदम बढ़ाया उन्हीं परमादरणीया, परमश्रद्ध या ___ मातेश्वरी सती शिरोमणि प्रज्ञामूर्ति श्री प्रभावती जी महाराज के कर कमलों में -देवेन्द्र मुनि Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय कहानी भावों की अभिव्यक्ति का एक मधुर प्रकार है, श्रेष्ठतम शैली है, जो मानव मन को अत्यन्त तीव्र भावचेतना के साथ गुदगुदाकर बहुत ही शीघ्र प्रभावित करती है। कहानी-साहित्य में जो यह विशेषता है वह विशेषता अन्य साहित्य की विधाओं में नहीं है। यही कारण है कि कहानी साहित्य विश्व की अमूल्य निधि है। कहानी के मधुर स्वरों में जब मानवीय चेतना की झंकार झंकृत होती है तब वह कहानी जीवन का संगीत बन जाती है। देवेन्द्र मुनि जी शास्त्री की कहानियों में वही जीवन संगीत मुखरित है। प्रत्येक कहानी जीवन के उस विराट् सत्य को उजागर कर रही है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारी हार्दिक कामना और भावना है कि इस प्रकार के प्रेरक साहित्य से बालक-बालिकाएं युवक-युवतियाँ, वृद्ध और वृद्धाएं अपने जीवन निर्माण की पवित्र प्रेरणा व उच्च संस्कार प्राप्त करें। यह तभी संभव है जब इस प्रकार का कहानी साहित्य प्रत्येक साक्षर व्यक्ति के हाथों में पहुँचे, किन्तु हमारा अपना वर्षों का अनुभव है कि समाज जितना अन्य व्यर्थ के कार्यों में अर्थ व्यय करता है उसका शतांश भी अच्छे साहित्य के लिए खर्च नहीं करता। वह मांग कर खाना, पीना और पहनना पसन्द नहीं करता, किन्तु खेद है कि पुस्तके मांग कर पढ़ना पसन्द करता है। जिसके फलस्वरूप जीवन निर्माण की प्रेरणा देने वाला साहित्य जिस रूप में चित्ताकर्षक प्रकाशित होना चाहिए उस रूप में प्रकाशित नहीं हो पाता। अर्थसहयोगियों के उदार सहयोग के अभाव में साहित्य को हम जितना सस्ता देना चाहते हैं उस रूप में भी हम नहीं दे पाते हैं। आज दिन-दूनी रात चौगुनी महंगाई बढ़ रही है, जिसके कारण प्रकाशन बहुत ही मंहगे पड़ने लग गये हैं तथापि साहित्य के प्रचार हेतु हमारा यही प्रयास है कि लागत मूल्य पर ही पुस्तकें दी जाएँ। हमारी अगली योजना है कि बालकों व महिलाओं के लिए बड़े अक्षरों में रंगीन सचित्र कहानियाँ प्रकाशित करें, यह योजना काफी खर्चीली है, यदि अर्थ सहयोगियों ___ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पूर्ण रूप से सहयोग मिला तो हम इस योजना को शीघ्र ही मूर्त रूप देंगे। ___अभी कुछ दिनों पूर्व ग्रन्थालय की ओर से देवेन्द्र मुनि जी द्वारा लिखित 'फूल और पराग' तथा 'खिलती कलियाँ मुस्कराते फूल' प्रकाशित हुई थीं। दोनों ही कहानियाँ की पुस्तकें विज्ञ पाठकों के अतिरिक्त जन साधारण में भी अत्यधिक लोकप्रिय सिद्ध हुई। पत्रपत्रिकाओं ने व मूर्धन्य साहित्यकारों ने उसका स्वागत किया, वह अत्यन्त उत्साह जनक है। हमें आशा ही नहीं, अपितु दृढ़ विश्वास है कि प्रस्तुत पुस्तक का पाठक ललक कर स्वागत करेंगे। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - लेखक की कलम से जीवन क्या है ? इस प्रश्न पर विश्व के मूर्धन्य मनीषियों ने गंभीर चिन्तन-मनन किया है। उन्होंने विविध परिभाषाएं निर्माण की हैं । जीवन की सैकड़ों परिभाषाएं आज तक बन चुकी हैं और नित्य-नवीन परिभाषाएं बन रही हैं। जीवन एक है, उसको प्रत्येक व्यक्ति अपनी दृष्टि से देखने का प्रयास करता है। जब किसी वस्तु को विभिन्न दृष्टियों से देखने का प्रयास किया जाता है तब वह वस्तु एक होकर भी अनेक हो जाती है । वीर की परिभाषा में, जीवन एक साहस है । डरपोक की परिभाषा में जीवन एक रोना है। खिलाड़ी की परिभाषा में जीवन एक खेल है। कवि की परिभाषा में जीवन एक सुन्दर काव्य है। तार्किक की परिभाषा में जीवन एक उलझन है। चिन्तक की परिभाषा में जीवन सुख और दुःख का संमिश्रण है। साहित्यकार की परिभाषा al Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में जीवन एक गुलाब का फूल है, जिसमें तीक्ष्ण काँटा भी रहा हुआ है। योगी की परिभाषा में जीवन एक सागर है जिसमें बहुमूल्य रत्न भी हैं और कंकड़-पत्थर भी। अनुभवी की परिभाषा में जीवन अमृत भी है और विष भी। ____एक साधक ने जिज्ञासा प्रस्तुत की-कि जीवनम् ? जीवन क्या है ? ___ समाधान दिया गया—दोषविवर्जितं यत् ? दूषणों से शून्य होकर और गुण सम्पन्न बनकर जीवित रहना ही वस्तुतः जीवन है। सन्त तुकराम ने कहा-मानव शरीर सुवर्ण कलश के समान है उसमें विलास की सुरा न भरकर सेवा की सुधा भरो। ___जीवन का अर्थ स्वयं जीवित रहना, इतना ही नहीं है किन्तु दूसरों को भी जीवित रहने में सहयोग देना, स्वयं भी आगे बढ़ने की प्रेरणा देना है। स्वेड मार्डेन ने लिखा-आनन्द और उल्लास ही जीवन है। यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात ने कहा है-अच्छे जीवन में ज्ञान और भावना का, तथा बुद्धि और सुख दोनों का संमिश्रण होता है। महादेवी वर्मा ने लिखा है-जीवन जागरण है, सुषुप्ति नहीं। उत्थान है, पतन नहीं। धरती के तमसाच्छन्न अंधकारमय पथ से गुजरकर दिव्य ज्योति से साक्षात्कार करना है, जहाँ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर द्वन्द्व और संघर्ष कुछ भी नहीं है । जड़, चेतन के बिना विकास शून्य है और चेतन जड़ के बिना आकार शून्य है। इन दोनों की क्रिया और प्रतिक्रिया ही जीवन है। शेक्सपियर ने लिखा है-क्षणिक प्रकाश देने वाले दीपक बुझो, जीवन तो केवल चलती-फिरती छाया है। ___ कला जीवन के लिए है किन्तु जीवन कला से भी बढ़कर है। जीवन के धरातल पर जिस कला का विकास हुआ है, वही सच्ची कला है। कला के सम्बन्ध में शरद्चन्द्र ने लिखा है-जो असुन्दर है, जो अनैतिक है जो अकल्याण है, वह किसी तरह कला नहीं है । धर्म नहीं है। प्रस्तुत पुस्तक में उन्हीं जीवनदर्शन के महान् कलाकारों के वे मधुर प्रसंग हैं, जो यथार्थवाद के साथ आदर्शवाद को लिए हुए हैं । एक विचारक ने लिखा हैप्राचीन महापुरुषों के जीवन से अपरिचित रहना जीवन भर निरन्तर बाल्य अवस्था में रहना है । इनमें किसी व्यक्ति विशेष के ही प्रसंग नहीं है, किन्तु ग्रन्थों को पढ़ते समय जो भी प्रसंग मेरे मन को भाए हैं उनको मैंने चित्रित किया है, इन प्रसंगों में एक भी प्रसंग यदि किसी के दिल को परिवर्तन कर सका तो मैं अपना प्रयत्न सार्थक समदूंगा। फूल और पराग, खिलती कलियाँः मुस्कराते फूल के पश्चात् यह तीसरा कहानी-संग्रह प्रकाशित हो रहा है। 'बुद्धि के चमत्कार' और 'प्रतिध्वनि' ये दो संग्रह भी प्रेस Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में जा चुके हैं । अन्य संग्रह भी यथा समय प्रकाशित होंगे। परम श्रद्ध य सद्गुरूवर्य राजस्थान केसरी प्रसिद्ध वक्ता पं० प्रवर श्री पुष्कर मुनि जी म० के शुभाशीर्वाद से ही मैं निरन्तर गति-प्रगति कर रहा हूं। अतः इनके महान् उपकार को मैं किस प्रकार विस्मृत कर सकता हूं। साथ ही पं० प्रवर शोभाचन्द्र जी भारिल्ल ने पाण्डुलिपि को पढ़कर मुझे उत्साह वर्धक प्रेरणा दी है और स्नेहमूर्ति 'सरस' जी ने प्रूफ संशोधन व साज सज्जा कर मेरे भार को हलका ही नहीं किया, अपितु पुस्तक को मुद्रण कला की दृष्टि से भी अधिकाधिक सुन्दर बनाने का प्रयास किया है। उन सभी का मैं आभार मानता हूं। श्री वर्धमान स्था. जैन उपाश्रय -देवेन्द्र मुनि दादर बम्बई-२८ महावीर जयन्ती १९७१ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ वीर कौन ? २ नाम की व्यर्थता ३ सनत्कुमार ४ साधना ५ देश प्रेम ६ त्याग वृत्ति ७ परतंत्र नहीं रह सकता सत्यनिष्ठा ६ जीवन का महत्त्व १० पराई वस्तु ११ पंच १२ दौलत अंधी होती है १३ गंदगी मिटाना .... .... अनुक्रम १ ३ ५ Vvv ह १२ १४ १६ १६ २२ २४ २७ २६ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ अकान, mr UM १४ सहयोग ही जीवन है १५ कुणाल की आंखें अकाल मृत्यु पर विजय फूट १८ जनता की आह १६ सेवा का आदर्श २० राष्ट्र का गौरव २१ साहित्य रुचि २२ ब्रह्मचर्य का प्रभाव २३ साहित्य निर्माण २४ प्रेम से परिवर्तन २५ आनन्दघन निस्पृहता २७ बोध पाठ २८ विमल की वीरता २६ अहिंसा की विजय जीवन दान ३१ सिर का मूल्य ३२ उदात्त वृत्ति ३३ कुमारपाल की वीरता ३४ चावल को गर्म करता हूँ ३५ वागी की महत्ता ३६ तृष्णा ३७ प्राणोत्सर्ग २६ ३० Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ धन का उपयोग ३६ सर्वश्रेष्ठ शास्ता ४० बुद्धि का चमत्कार ४१ सम्पत्ति का विभाग ४२ यह कैसा भोजन ४३ जीवन समर्पण ४४ गुनाह ४५ विकास का मूल ४६ परिवर्तन १४ TDP **** .... **** .... .... १०७ १०६ ११२ ११५ ११७ ११६ १२२ १२४ १२६ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर कौन ? भगवान् महावीर भारतीय संस्कृति के जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं । उनके जीवन की तेजस्वी किरणें आज भी जगमगारही हैं। इन चरम तीर्थङ्कर का साधनाकाल विघ्न बहुल रहा है । भयंकर से भयंकर कष्ट उन्हें भोगने पड़े। रोमांचकारी वेदनाएं उन्हें सहन करनी पड़ी। साधना का पहला दिन था। एकान्त शान्त कान्त कानन में वृक्ष के नीचे प्रभु ध्यान-मुद्रा में अवस्थित थे। एक ग्वाल बैलों को लेकर आया। प्रभु के पास ही बैलों को छोड़कर वह गाँव में चला गया। पुनः लौटकर उसने देखा बैल वहाँ नहीं थे । वह बैलों को ढूंढने के लिए जंगल में चला गया। रात भर इधर-उधर ढूँढता रहा पर बैल न मिले । वह लौटकर वहीं आता है जहाँ भगवान् महावीर ध्यान में खड़े थे । सन्निकट की झाड़ियों में से बैल भी निकल कर आ जाते हैं । ग्वाल के मन में शंका हो जाती है कि बैल इसी ने छिपाए थे। वह क्रोधावेश में आपे से Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ बोलते चित्र बाहर हो गया । महावीर पर ढेलों, पत्थरों और रस्सी आदि से प्रहार करने लगा। उसी समय शक्रेन्द्र वहाँ आये । उन्होंने भगवान् से नम्र निवेदन किया-प्रभो ! साधनाकाल में आपको महान् कष्ट आने वाले हैं । अनुमति दीजिए प्रभो ! मैं सेवा में रहकर आपके संकटों का निवारण करता रहूँ । महावीर ने कहा- देवेन्द्र ! कोई भी तीर्थङ्कर दूसरों के सहारे केवल ज्ञान प्राप्त नहीं करता । जो दूसरों के सहारे सफलता चाहता है वह कायर है, वीर नहीं । वीर वह है जो निज के पुरुषार्थ से सिद्धि प्राप्त करता है। * Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम की व्यर्थता भरतक्षेत्र के छहों खण्डों पर अपनी विजय-वैजयन्ती फहराकर चक्रवर्ती भरत ऋषभकूट के पास पहुँचे। गर्व से उनका सिर उन्नत था। मन में विचार तरंगित हो रहे थे कि आज तक जो कार्य दूसरे न कर सके वह कार्य मैंने किया। ऋषभकूट पर नाम लिखने के लिए काकिनी रत्न लेकर वे पहुँचे। पर देखते ही उनके नेत्र ढके से रह गये । उस शिला पर ऐसा कोई स्थान नहीं था जिस पर नाम न लिखा हो । पूर्वकाल के असंख्य चक्रवर्तियों ने उस पर अपना-अपना नाम अंकित किया था। भरत चक्रवर्ती विचार करने लगे-छह खण्डों को जीतने के पश्चात् भी मुझे अपना नाम लिखने के लिए जगह नहीं मिल रही है। उन्होंने उसी समय एक चक्रवर्ती का नाम मिटाया और उस स्थान पर अपना नाम लिख दिया । नाम लिखते समय चक्रवर्ती भरत के मन एक विचार कौंध गया कि जैसे मैंने दूसरे चक्रवर्ती के नाम को Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलते चित्र मिटाकर अपना नाम लिखा है वैसे ही दूसरा चक्रवर्ती भी किसी दिन मेरा नाम मिटाकर अपना नाम लिखेगा। जिस नाम की शोभा को बढ़ाने के लिए मैंने छह खण्ड जीते वह नाम कितना अस्थायी है। भरत की आँखों से अश्रु ढुलक पड़े। जो भी चक्रवर्ती छह खण्डों को जीत कर ऋषभकूट पर्वत पर नाम लिखने को जाता है । और दूसरे चक्रवर्ती का नाम मिटाकर अपना नाम लिखता है तब उसका अहं गल कर पानी-पानी हो जाता है । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनत्कुमार सम्राट् सनत्कुमार सत्ता, महत्ता और प्रभुता से मुख मोडकर सच्चे सन्त बने । सुन्दर राजप्रासादों में रमणियों के साथ क्रीडा करने में जो आनन्द उपलब्ध नहीं हुआ, वह आनन्द आत्मभाव में रमण करने में होरहा था। जो आनन्द मखमल के मुलायम गद्दों पर सोने में नहीं मिला वह आनन्द भूमि पर हाथ का सिरहाना देकर सोने में मिल रहा था। जो आनन्द संगीत की सुमधुर स्वर-लहरियों में नहीं मिला वह आनन्द डॉस और मच्छर की गुनगुनाहट में मिल रहा था। जो सुख चक्रवर्ती अवस्था में नहीं था, वह सुख साधु बनने पर उपलब्ध हो रहा था। उनका तन मन सभी प्रसन्न था। उग्र तपश्चरण करते हुए उनका शरीर सूख रहा था । जिसके सौन्दर्य की प्रशंसा इन्द्र ने मुक्तकंठ से की थी, जिसके रूप को निहारने के लिए स्वर्ग से दो देव आये थे, आज तन का वह रूप नहीं रहा । आत्म-सौन्दर्य इतना अधिक बढ़ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलते चित्र गया कि तन का सौन्दर्य उसके सामने फीका पड़ गया। शरीर पोषक तत्त्वों के अभाव में अनेक शारीरिक रोग उद्भूत हो गये । पर शरीर में दुस्सह वेदना होने पर भी मन उसी प्रकार प्रसन्न था। देवों ने घोरतपस्वी सनत्कुमार की शारीरिक स्थिति देखी । वह अपार वेदना उनसे देखी न जा सकी। उन्होंने वैद्य का रूप बनाया और मुनि सनत्कुमार के पास आये । उपकार के लिए आज्ञा मांगी । किन्तु सनत्कुमार मुनि मौन रहे । पुनः पुनः प्रार्थना करने पर सनत्कुमार मुनि ने अपने मुंह से जरा - सा थूक लेकर दक्षिण हाथ की कनिष्ठा अंगुली में लगाया कि कनिष्ठा अंगुली सूर्य की तरह चमकने लगी। देवता तो देखते ही चकित हो गये ! मुनि की लार में ऐसी गजब की शक्ति है ! यह शक्ति तो दवाइयों में भी नहीं है ! देवों ने प्रार्थना की-सन्तप्रवर ! आपके कफ, मलमूत्र, प्रस्वेद और थूक में इतनी चामत्कारिक शक्ति रही हुई है तथापि आप सोलह महारोगों से क्यों कष्ट पा रहे हैं ? । सनत्कुमार ने मंद-मंद मुस्कराते हुए कहा-तन में भले ही व्याधियां हों पर मेरा मन पूर्ण स्वस्थ है । तन की व्याधियां जितनी भयंकर नहीं है उतनी मन की ब्याधियां भयंकर होती हैं। किये कर्मों को भोगे विना मुक्ति कहां है ? Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना पर्युषण का पावन पर्व था। मुनिगण उग्र तपः-साधना कर रहे थे, किसी के आठ दिन, किसी के दस दिन और किसी के एक महीने का उपवास था। कुरगडु मुनि की हार्दिक इच्छा तप करने की थी पर क्षुधा वेदनीय के अत्यधिक सताने के कारण वह तप नहीं कर सकता था। संवत्सरी जैसे महान् पर्व के दिन भी वह भूखा नहीं रह सकता था । वह कहीं से रूखा भात लेकर आया । उसने उन दीर्घतपस्वी मुनियों के सामने 'साहु हुज्जामि तारिओ' के रूप में अभ्यर्थना की कि आप मुझे तारें अर्थात् इसे ग्रहण करें। तपस्वी मुनियों ने पात्र में भात देखा। उनका हृदय ग्लानि से भर गया। उनके मन में विचार आयाकितना कायर है यह-जो संवत्सरी पर्व के दिन भी आहार करने के लिए छटपटा रहा है। घृणा से उन तपस्वियों ने उसके पात्र में यूंक दिया। लाल नेत्र कर उसे फट Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलते चित्र कारते हुए कहा-तुझे शर्म नहीं आती, संवत्सरी जैसे पवित्र पर्व पर उपवास करना चाहिए था पर तू आहार के लिए मर रहा है ! कूरगडु मुनि सोच रहा था-मैं कैसा अधम है ! अन्न का कीड़ा, एक दिन भी मैं भूखा नहीं रह सकता। आज मुझे उपवास करना चाहिए था, पर मैं उपवास न कर सका । रूखा भात लाया, पर मेरे अहोभाग्य हैं कि तपस्वी मुनियों ने कृपा कर इसमें थूक दिया ! यह थूकना नहीं, घी डालना है। आज तू धन्य हो गया, तपस्वी मुनियों के थूक में तो गजब की शक्ति रही हुई है ! मुझे आज प्रसादी मिली है। ___ समभाव की भावना उत्तरोत्तर बढ़ रही थी। कवल मुंह की ओर बढ़ रहा था पर मन अन्यत्र था। चिन्तन करते करते घनघाती कर्म नष्ट हो गये, केवल ज्ञान और केवल दर्शन का दिव्य आलोक जगमगा उठा । अनशन का अभिमान करने वाले महान् तपस्वी देखते रह गये । उन्हें तब समझ में आया कि समभाव की साधना ही महान् है । विषम भाव की आग जिस तप में सुलग रही है वह तप नहीं, ताप है, संताप है, परिताप है। तप वही है जिसमें समभाव की सुर सरिता बह रही हो। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५। देश प्रेम जापान और रूस के बीच भयंकर युद्ध चल रहा था । कहाँ जापान वामन की तरह छोटा सा देश, और कहाँ विराट्काय रूस । उस समय जापान की सरकार ने देश के युवकों को सेना में भर्ती होने के लिए आह्वान किया । एक वृद्ध माता ने अपने प्यारे इकलौते पुत्र को कहा- वत्स ! देश के लिए तेरे जैसे युवकों की जरूरत है । तू मेरी चिन्ता छोड़ और ररंगक्षेत्र में जाकर, शेर की तरह जूझ कर मातृभूमि की महिमा बढ़ा | पुत्र ने कहा- माँ ! मैं तुम्हारे आदेश का पालन करने के लिए तैयार हूँ, पर मेरे सामने दो प्रश्न है । पहला यह है कि इस वृद्ध अवस्था में तुम्हारी कौन सेवा करेगा ? दूसरा जब तक घर का दूसरा संरक्षक न हो तब तक सेना में भर्ती नहीं किया जा सकता । ह Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलते चित्र ___वृद्धा माँ ने कहा-पुत्र ! तू इसी समय सेनापति के पास जा । उससे कहना कि मेरी माता मुझे सहर्ष अनुमति दे रही है अतः आप मुझे सेना में भर्ती करें। यदि सेनापति चाहेगा तो मैं लिखित रूप में और यदि चाहेगा तो प्रत्यक्ष में आकर सम्मति दे दूंगी। माता के आग्रह से पुत्र सेनापति के पास गया । उसने अपनी और माता की इच्छा सेनापति के सामने रखी। सेनापति ने इन्कार करते हुए कहा-तू अपनी माँ का इकलौता पुत्र है। उसका आधार स्तंभ है। भले ही उसकी इच्छा हो, किन्तु कानून के अनुसार हम सेना में प्रवेश नहीं दे सकते तुम्हारी माता का देशप्रेम अभिनन्दनीय है। पुत्र ने लौटकर सारी स्थिति माता से निवेदन की। जब यह बात वृद्ध माता ने सुनी तो उसे अपार दुःख हुआ । सोचा मेरे कारण मेरे पुत्र को देश सेवा का अवसर नहीं मिल रहा है। वृद्धा माता ने कुछ क्षणों तक सोच कर कहापुत्र ! अब मेरा शरीर कुछ क्षणों का ही मेहमान है । मेरी अन्तिम इच्छा यही है कि तू जी-जान से देश की सेवा करना । सेनापति से कहना कि अब मेरी माँ इस संसार में नहीं है, इसलिए नियमानुसार सेना में भर्ती हो सकता हूं। वृद्धा के शब्द पूर्ण नहीं हुए थे, कि उसने अपने हाथ से पेट में छुरा भोंक लिया। सदा के लिए आँखें मुंद गई । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देश प्रेम माता की उत्तरक्रिया करके युवक सेना में भर्ती हुआ। रणक्षेत्र में पहुँचकर उसने जो कमाल दिखलाया वह चकित कर देने वाला था । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्याग वृत्ति पंजाब के लाला हंसराज जी बड़े मस्त प्रकृति के व्यक्ति थे। उन्होंने एक कालेज बनाने के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया था। एक धनाड्य ने सुना कि हंसराज जी कालेज के लिए काफी श्रम कर रहे हैं। उनको कुछ मदद देनी चाहिए। वे मदद देने के लिए प्रातःकाल उनके घर पर पहुँचे । सर्दी खूब तेज गिर रही थी। हंसराज जी एक फटा कम्बल ओढ़े एकाग्रचित्त से पुस्तक पढ़ रहे थे। उसने हंसराज जी के शरीर पर एक जीर्ण-शीर्ण कम्बल है। उसमें भी अनेक स्थलों पर थेगड़ियाँ लगी हैं। धनाड्य व्यक्ति को दया आ गई और वह चुपचाप उलटे पैरों लौट गया। बाजार में जाकर दो बढ़िया कम्बल खरीद कर लाया। और बोला-आपकी कम्बल फट गई है उसके बदले में ये नवीन कम्बल लीजिए। लाला हंसराज ने कहा-मैं आपकी उदारवृत्ति के Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ त्याग वृत्ति लिए आभारी हूं। किन्तु मैंने दृढ़ प्रतिज्ञा ग्रहण कर रखी है कि किसी की दी हुई वस्तु का मैं उपयोग नहीं करूंगा। मेरा कम्बल भले ही पुराना हो गया है, पर इसमें अभी भी अनेक कारियाँ लग सकती हैं और मेरे जीवन के अन्त तक शीतनिवारण के लिए यह उपयोग में आ सकता है। आपके दिल को दर्द न हो एतदर्थ आपकी यह प्रेम पूर्वक दी हुई भेंट मैं इस शर्त पर स्वीकार कर सकता हूँ कि कालेज के छात्रावास में जो विद्यार्थी गरीब हों उसके उपयोग में आ सकें। मन से स्वीकार की हुई त्याग-वृत्ति को गरीबी समझने वाले श्रीमन्त का अभिमान गल गया। वह उनकी सेवा-भावना से अत्यधिक प्रभावित हुआ। उसने हंसराज जी की प्रेरणा के बिना ही कालेज के लिए लाखों रुपये दान दिये। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परतन्त्र नहीं रह सकता ईश्वी सन् १८५८ में स्वातंत्र्य संग्राम की चिनगारियां यत्र-तत्र उछलने लगीं । भारत के वीर भारत माता को स्वतंत्र करने के लिए जूझने लगे। हंसते और मुस्कराते हुए प्रारण समर्पित करने लगे। उन्होंने विदेशी ध्वज के स्थान पर राष्ट्र ध्वज फहराया। राष्ट्र ध्वज के गौरव की रक्षा के लिए देश के नौजवानों को कितना बलिदान देना पड़ा हैं, यह एक छोटे से प्रसंग से जाना जा सकता है। कानपुर और लखनऊ के पास मानगंज एक नन्हा सा कस्बा है । वहाँ के युवकों ने विदेशी ध्वज के स्थान पर राष्ट्र ध्वज फहरा दिया। उन्होंने कहा-जान भले ही चली जाये, किन्तु शान नहीं जाने देंगे। ___अंग्रेजी शासकों को जब यह समाचार मिला तो उनके क्रोध का पार न रहा । इधर राष्ट्रध्वज फहरा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परतन्त्र नहीं रह सकता रहा था, उस किले को ही अंग्रेजों ने तोड़ दिया और सैकड़ों युवकों को खत्म कर दिया। । उसी समय एक वृद्ध व्यक्ति भव्य-भवन में से बाहर निकला। उसकी आँखों में देशाभिमान का तेज चमक रहा था। अंग्रेज अफसर ने पूछा-यदि तुम अपना घर और परिवार बचाना चाहते हो तो बताओ किस-किस ने इस कार्य में भाग लिया है। वृद्ध ने कहा-घर चाहे कितना ही बढ़िया व मजबूत क्यों न हो किन्तु एक दिन गिरने वाला है। परिवार के सदस्य भी अमर बनकर नहीं आये हैं। मैं यह देखने के लिए नहीं आया हूँ और न तुमसे प्राणों की भीख मांगने ही आया हूं। मैं तो यह जानने के लिए आया था कि मेरे पाँच पुत्रों में से तीन पुत्र तो राष्ट्रध्वज की रक्षा करते हुए अमर हो गए हैं। यह मैंने अपनी आँखों से देखा है। किन्तु दो पुत्र युद्ध क्षेत्र में शहीद हुए हैं या तुम्हारे कारागृह में चले गये हैं ? ____ अंग्रेज अफसर वृद्ध की वीरोचित बात सुनकर स्तब्ध रह गया। उसके मन में यह विश्वास हो गया कि जहाँ के वीरों में ऐसी भावना है वह देश लम्बे समय तक परतंत्र नहीं रह सकता। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यनिष्ठा बंगाल के प्रसिद्ध विचारक अश्विनीकुमार दत्त के बाल्यजीवन का एक प्रेरक प्रसंग है। बाल्यकाल में ही अश्विनीकुमार की बुद्धि बहुत तीक्ष्ण थी। वे सहज रूप में कठिन से कठिन विषय को याद कर लेते थे। अध्यापक उनकी कुशाग्र बुद्धि से प्रभावित थे। उनके पिता ने अध्यापक से कहा-प्रतिवर्ष दो कक्षाएँ उत्तीर्ण कराई जाएँ तो कैसा रहेगा। __ अध्यापक ने स्वीकृति प्रदान की। परिणाम स्वरूप दो वर्ष में उन्होंने चार कक्षाएँ उत्तीर्ण की। फिर माध्यमिक शिक्षण प्रारम्भ हुआ। जब वे एस. एस. सी. तक पहुंचे तब उनकी उम्र केवल चौदह वर्ष की थी। उस समय बंगाल में यह नियम था कि कम से कम सोलह वर्ष की उम्र के बिना कोई भी छात्र मैट्रिक में नहीं बैठ सकता। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यनिष्ठा अश्विनीकुमार के पिता ने एक अनुभवी अध्यापक से परामर्श किया। अध्यापक ने बताया-आप प्रवेश-पत्र में चौदह वर्ष की उम्र के स्थान पर सोलह वर्ष की उम्र लिख दें। कोई भी अधिकारी इतनी गहराई से अन्वेषण करने वाला नहीं है । कदाचित् कुछ गड़बड़ हो गयी तो मैं अगला मार्ग निकाल दूगा । ___अश्विनीकुमार ने स्पष्ट इन्कार किया कि हमें असत्य का आचरण नहीं करना चाहिए, किन्तु माता-पिता के आदेश से उन्हें वह बात माननी पड़ी। फिर भी उनका मन गवाही नहीं दे रहा था। बिना किसी विघ्न-बाधा के वे कालेज में भर्ती हो गये किन्तु उनके मन में सन्तोष नहीं था। रह-रह कर असत्य का तीक्ष्ण काँटा उनके मन में खटक रहा था। कालेज का समय पूर्ण होने पर वे सीधे प्रिंसिपल के पास गये और अथ से लेकर इति तक तक सम्पूर्ण वृत्तान्त निवेदन किया ! प्रिंसिपल ने गहराई से विचार कर कहा-यह सत्य है कि नियम को भंग कर तुमने अपराध किया है किन्तु तुमने मेरे समक्ष बिना किसी की प्रेरणा के अपराध को स्वीकार किया । पश्चात्ताप पाप-प्रक्षालन की श्रेष्ठ औषध है । मैं तुम्हारी सत्यनिष्ठा को देखकर बहुत प्रसन्न हूँ। मैं तुम्हें दण्ड मुक्त करता हूं। अश्विनीकुमार के स्थान पर दूसरा कोई विद्यार्थी Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलते चित्र होता तो उसे प्रिन्सिपल के कथन से सन्तोष हो जाता । किन्तु अश्विनीकुमार के मन का समाधान नहीं हुआ । वह सोचने लगा-मुझे पाप का प्रायश्चित्त करना ही चाहिए। अपराध किया है तो उसकी सजा भोगनी ही चाहिए। यदि किसी ने चोरी की है, चोरी को उसने स्वीकार कर लिया है किन्तु चोरी का माल यदि अपने पास ही रखा, तो वस्तु का मालिक भले ही उस अपराध को क्षमा कर दे किन्तु क्या इतने मात्र से ही चोर अपराध से मुक्त हो गया ? ऐसा नहीं हो सकता । क्षमा माँगने के साथ ही चक्रवृद्धि ब्याज के साथ पुनः माल को लौटाया जाय तभी पाप से मुक्ति हो सकती है। उन्होंने मन में पूर्ण निश्चय किया कि दो वर्ष तक वे कालेज का अध्ययन नहीं करेंगे ! उसके पश्चात् ही वे अगला अध्ययन करेंगे । उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार वैसा ही किया ! तभी जाकर उन्हें शान्ति हुई । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 जीवन का महत्त्व महर्षि रमरण अपने हाथ से पत्तलें बनाने का कार्य कर रहे थे । उस समय एक युवक ने आकर उनके चरणों में नमस्कार किया । महर्षि ने युवक के चेहरे को गहराई से देखा । उस पर प्रसन्नता की नहीं, विषाद की रेखायें उभर रही थीं । महर्षि ने अपनी वाणी में स्नेहसुधा घोलते हुये कहा - तुम्हारा चेहरा उदास क्यों है ? युवक पहले तो बात टालता रहा पर अन्त में महर्षि के आग्रह से उसने बताया - वह अध्यापक है । आमदनी कम और खर्चा अधिक है - कुछ कर्जा भी होगया है । घर में जाता हूँ तो पत्नी परेशान करती है कि अमुक वस्तु की आवश्यकता है। बाजार में जाता हूँ तो मांगने वाले रुपयों की मांग करते हैं । मैं घबरा गया हूँ । घर से यह निश्चय करके निकला हूँ कि पहले महर्षि के दर्शन करूंगा और फिर किसी कुए में गिर कर अपने जीवन को समाप्त कर दूंगा । १६ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलते चित्र रमण ने कहा- क्या तुम मेरा एक कार्य करोगे ? युवक ने कहा- कहिए ! क्या आज्ञा है ? महर्षि रमण ने कहा- देखो ! मैंने जो ये पत्तलें बनाई हैं इन सभी को इकट्ठी कर कचरे में डाल आओ-फिर अपन दोनों शान्ति से बैठकर बात करेंगे । २० युवक ने कहा- महात्मन् ! ये पत्तलें आपने कितने श्रम से बनाई हैं ? इतने अच्छे पत्तल क्या कचरा में डालने के लिए हैं ? आप आज्ञा देवें तो मैं व्यवस्थित कर इन्हें भोजनालय में रखदूं । महर्षि- इन्हें आप कचरा में डाल देंगे तो विशेष नुक्सान नहीं होगा । युवक- नुक्सान की तो कोई बात नहीं, किन्तु इनको बनाने के लिए आपको जंगल में से खाखरा के पत्र इकट्ठे करने होते हैं, नीम की सलियाँ इधर उधर से एकत्रित करनी होती हैं । पत्रों को व्यवस्थित करना होता है । इसमें कितना श्रम होता है, यह तो वही जान सकता है जो कार्य करता है । इसलिए इन पर जब तक भोजन न करें तब तक यों ही कचरापट्टी में फेंक देना उचित नहीं है । महर्षि रमरण - आप तो बड़े समझदार हैं, फिर मुझे समझ में नहीं आया कि आप स्वयं भयंकर भूल क्यों करने जा रहे हैं ? युवक - कौन सी भूल ? Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ जीवन का महत्त्व महर्षि रमरण - आप अभी मृत्यु को वरण करने की बात कर रहे थे न ? मानव को यह अनमोल जीवन राह चलते सहसा उपलब्ध नहीं हुआ है । भारत के तत्त्वदर्शियों ने बताया है कि जब आत्मा अनन्त पुण्य का पुञ्ज एकत्र करता है तब मानव शरीर मिलता है । इस शरीर का सदुपयोग न करके इसे यों ही गंवा देना क्या बुद्धिमत्ता है ? सुख और दुःख तो धूप और छाया की तरह जीवन में आते रहते हैं। उनसे घबराना उचित नहीं है । कष्ट जीवन रूपी सुवर्ण को निखारने के लिए आता है । कष्ट जीवन का अभिशाप नहीं, वरदान है । इन पत्तलों से तो जीवन का अधिक मूल्य है । युवक - महर्षि के चरणों में गिर पड़ा - 'गुरुदेव ! आपने मुझे सही मार्ग दर्शन दिया है ।' Xx Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराई वस्तु रांका और बांका-दोनों पति-पत्नी धर्म परायण थे । प्रामाणिकता और अपने पुरुषार्थ से जो भी वस्तु उपलब्ध होती उसी में वे सन्तोष करते थे। प्रातःकाल वे दोनों जंगल में जाते और जो सूखी लकड़ियाँ उपलब्ध होती उनकी भारी बाँधकर ले आते। उसे बेचकर अपनी आजीविका चलाते थे। एक दिन किसी दयालू व्यक्ति ने सोचा-ये दोनों वृद्ध हैं । इनको जंगल में इधर-उधर भटक कर लकड़ियाँ इकट्ठी करनी होती हैं। मैं लकड़ियाँ इकट्ठी कर भारी बाँध कर रख दूं तो इनको सुविधा होगी। यदि मैं उनके सामने यह कार्य करूंगा तो वे कदापि मेरी सेवा स्वीकार नहीं करेंगे। ___ उसने भारी बाँधकर तैयार रख दी और स्वयं वृक्ष की ओट में छिप गया। रांका और बांका दोनों जंगल में पहुँचे । बांका ने दो लकड़ियों की बंधी हुई भारियाँ देखीं। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराई वस्तु उसने कहा-नाथ ! आज अपना श्रम बच गया है। ये देखो भारियाँ तैयार हैं। भक्त रांका ने सुना, उसके मन को आघात लगा। उसने कहा-भारियाँ भले ही तैयार हों, पर ये हमारी नहीं हम इन्हें कैसे छू सकते हैं ? हमें परिश्रम से बचने में नहीं, किन्तु परिश्रम करने में आनन्द अनुभव करना चाहिए । उस दिन वे जंगल में इधर उधर खूब घूमे किन्तु भाग्य योग से कहीं पर सूखी लकड़ियाँ नहीं मिलीं। सायंकाल दोनों को खाली हाथ घर लौटना पड़ा और दूसरे दिन उपवास करना पड़ा। रांका ने कहा-देखा न ! पराई वस्तु पर जरासी नजर बिगाड़ी कि उसका फल तत्काल मिल गया । यदि उन लकड़ियों का उपयोग कर लेते तो न जाने कितना कष्ट भोगना पड़ता। बांका को अपनी भूल प्रतीत हुई। भविष्य में किसी की भी वस्तु को नहीं छूने की उसने प्रतिज्ञा ग्रहण की। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ | पंच कलकत्ता के सेठ लक्ष्मीनारायण जी मुरोदिया बहुत सज्जन व्यक्ति थे । व्यापार के क्षेत्र में प्रामाणिकता की ऐसी गहरी छाप उन्होंने डाली थी कि आबाल वृद्ध सभी उन पर पूर्ण विश्वास करते थे । वे ऐसे बुद्धिमान् थे कि किसी परिवार में जब कभी कुछ वैमनस्य हो जाता तो शीघ्र ही अपनी बुद्धि पटुता से उसे सुलझा देते थे । एक बार दो भाइयों में एक अंगूठी को लेकर संघर्ष हो गया । उन्होंने उस संघर्ष को मिटाने के लिए लक्ष्मीनारायण जी को पंच नियुक्त किया । लक्ष्मीनारायणजी ने कहा- एक भाई अंगूठी ले लो और दूसरा उस अंगूठी की जितनी कीमत हो वह ले ले । पर दोनों भाईयों में से कोई भी इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था - दोनों अंगूठी ही लेने पर तुले थे । तब लक्ष्मीनारायण जी ने कहा- आप दोनों शान्ति २४ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच रखें। हम एक दो दिन में आपका फैसला कर देंगे। उन्होंने गुप्त रूप से अपने ही पैसे से उसी प्रकार की एक नवीन अंगूठी बनवा ली और वे बड़े भाई के पास गये । उसके हाथ में अंगूठी चमक रही थी। उन्होंने कहादेखो ! यह अंगूठी ही तुम दोनों भाइयों के मध्य संघर्ष का कारण है । जब तुम इसे पहनते हो तब तुम्हारा छोटा भाई इसे देखकर प्राइमस की तरह भभक उठता है । मेरी प्रार्थना है कि अंगूठी भले ही तुम अपने पास रखो, किन्तु कम से कम पाँच वर्ष तक इसे मत पहनना । तुम इसे अभी अपनी तिजोरी में रख दो। लक्ष्मीनारायण की बात उसको पसन्द आयी और उसने अंगूठी उसी समय तिजोरी में रख दी। वहाँ से वे सीधे ही छोटे भाई के पास गये। अपनी जेब से अंगूठी निकाल कर देते हुए कहा-तुम जिस अंगूठी के लिए झगड़ रहे थे वह संभालो। पर शर्त यह है कि तुम इसे अभी कम से कम पाँच वर्ष तक पहनना मत, क्योंकि तुम्हारे बड़े भाई देखेंगे तो इन्हें ईर्ष्या होगी। __ छोटे भाई ने भी उनके प्रस्ताव को स्वीकर किया। दोनों भाइयों का संघर्ष समाप्त हो गया। पाँच वर्ष की अवधि समाप्त हो गई। दोनों ही भाइयों ने अंगूठी पहनी दोनों के हाथों में एक सदृश अंगूठियाँ चमकने लगीं। दोनों ही आश्चर्य चकित हो गये । अन्त में उन्हें मालूम हुआ.कि, लक्ष्मीनारायण जी ने उनके Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ बोलते चित्र झगड़े को शान्त करने के लिए अपने पैसे से नवीन अंगूठी बनवाई। जब वे उनकी अंगूठी उन्हें लौटाने गये तब उन्होंने कहा-मैं तुम दोनों से बड़ा हूँ। तुम दोनों में संप बना रहे, यही मेरी मंगल कामना है। वस्तुतः पंचों को इसी प्रकार दिलदार होना चाहिए। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलत अंधी होती है तैमूरलंग एक अत्याचारी बादशाह था। वह युद्धप्रेमी होने के साथ संगीत प्रेमी भी था। जब वह युद्ध से थक जाता तब संगीत-कला का आनन्द लूटता था। एक दिन उसका मन किसी कार्य में नहीं लग रहा था। उसकी इच्छा हुई कि संगीत सुनकर मन बहलाया जाय । उसने अनुचरों को किसी अच्छे संगीतज्ञ को बुलाने का आदेश दिया। ___ अनुचर गये और उस प्रान्त की एक प्रसिद्ध गायिका को लेकर आये । गायिका अत्यन्त गरीब थी किन्तु उसके गले में ऐसा जादू था कि सुनने वाला मंत्र मुग्ध हो जाता था। तैमूरलंग ने उसका गायन सूना, मुग्ध हो गया। उसने उसी समय उस वृद्धा गायिका को एक हजार रुपए का पुरस्कार दिया। २७ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ बोलते चित्र बुढ़िया जब जाने लगी तब तैमूरलंग ने उसे अपने पास बिठाया और पूछा-तुम्हारा नाम क्या है ? बुढ़िया-दौलत ! दौलत नाम सुनकर बादशाह को हँसी आ गई । उसने परिहास पूर्वक पूछा-तुम तो अंधी हो, क्या दौलत भी अंधी होती है। क्यों नहीं जहाँपनाह ! दौलत तो हमेशा से अंधी ही है । अंधी होने के कारण ही तो वह लंगड़े आदमी के पास गई है । अंधी बुढ़िया ने परिहास का उत्तर परिहास में दिया। बादशाह तैमूरलंग बुढ़िया के इस व्यंग भरे उत्तर को सुनकर अप्रसन्न न हुआ। उसने बुढ़िया की हाजिर जबाबी पर खुश होकर दस हजार का पुरस्कार प्रदान किया। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ गंदगी मिटाना बात उस युग की है जिस युग में तक्षशिला शिक्षा के केन्द्र के रूप में विश्व विश्रुत थी । चार विद्यार्थियों ने अध्ययन पूर्ण किया। वे आचार्य देव का आशीर्वाद लेने के लिए पहुँचे । आचार्य देव ने कहा शिष्यो ! जहाँ कहीं गंदगी देखो उसे मिटाते रहना । किञ्चित् मात्र भी उपेक्षा न करना । यही मेरी अन्तिम शिक्षा है। इसे कभी विस्मृत न करना । विद्यार्थियों ने आचार्य के चरणों में नमस्कार किया, और वे अपनी जन्मभूमि की ओर चलने के लिए आश्रम से बाहर निकले । उन्होंने देखा आश्रम के द्वार पर एक कुष्ठ रोगी बैठा हुआ है । उसके शरीर पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं, मवाद निकल रहा था । एक स्नातक ने उसे देखा । घृणा से उसने दूसरी दिशा में मुँह ही नहीं फेरा किन्तु उसके शरीर पर थूक भी दिया । और आगे बढ़ गया । २६ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलते चित्र दूसरे ने अपशब्द से उसका स्वागत किया । तीसरा उसे ठोकर मारकर हटाने का प्रयास करने लगा । ३० चतुर्थ स्नातक ने अपने साथियों से कहा- आप लोग इस प्रकार अमानवीय व्यवहार क्यों कर रहे हैं ? क्या गुरूजी की शिक्षा इसी प्रकार हवा में उड़ाने के लिए है ? गुरुजी ने अन्तिम शिक्षा दी थी कि गंदगी मिटाना, क्या आप लोगों ने उसका रहस्य नहीं समझा ? गंदगी को इधर से उधर फेक देना तो गंदगी को स्थानान्तरित करना है, मिटाना नहीं । आप आनन्द से जाइए, मैं तो पूर्ण स्वस्थ कर ही आगे बढ़ सकूंगा । तीन विद्यार्थी आगे बढ़ गये पर वह वहीं पर रुक गया । उसने रोगी का उपचार किया । नाना प्रकार की जड़ी बूटियाँ लाकर लेप किया। कुछ ही दिनों में रोगी पूर्ण स्वस्थ हो गया । उस विद्यार्थी की कीर्ति चारों ओर फैल गई । आज चारों ओर विषमता की गंदगी फैल रही है । प्रश्न यह है कि विद्यार्थी वर्ग गन्दगी को मिटाने का कार्य कर रहा है या बढ़ाने का ? x Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोग ही जीवन हैं भयानक जंगल में एक झौंपड़ी थी उसमें एक संन्यासी रहता था, जो स्वभाव से बड़ा फक्कड़ था। जो भी मिल जाता उसी में सन्तोष कर लेता था। एकबार रात्रि में बहुत जोर की वर्षा हुई । वह झौंपड़ी का दरवाजा बन्द कर सो रहा था। अचानक किसी ने द्वार खटखटाया । संन्यासी ने सोचा-इस समय कौन आया है, कहीं कोई जंगली जानवर तो नहीं है, ऐसे तूफान और मूसलाधार वर्षा में इस जंगल में कौन आ सकता है, वह उठा और दरवाजा खोलकर देखा-सामने एक मानव है। वर्षा से उसके कपड़े तरबतर हो रहे थे। ठण्डी हवा का मारा काँप रहा था। संन्यासी को देखते ही उसने कहामहाराज ! मैं रास्ता भूलकर इधर आगया हूँ ! वर्षा से बचने के लिए आसपास में कोई स्थान नहीं है। विश्राम के लिए ठौर मिल जाय तो जीवन भर उपकार मानगा । सूर्योदय होने पर चला जाऊँगा। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलते चित्र संन्यासी ने आत्मीयता व्यक्त करते हुए कहा - चिन्ता मत करो । यह कुटिया तुम्हारी ही है, अन्दर आजाओ । इस कुटिया में एक आदमी लेट सकता है, दो आदमी अच्छी तरह से बैठ सकते है, आओ, हम दोनों सुख पूर्वक बैठेगे | ३२ साधु ने बड़े प्रेम से उसको अन्दर लिया । * द्वार बन्द कर दोनों आराम से बैठ गये । कुछ समय व्यतीत होने पर फिर दरवाजे पर थपकियाँ लगीं । सन्यासी ने द्वार खोला । पूर्व की तरह ही भीगता हुआ आदमी काँप रहा था । उसने भी रात्रि विश्राम के लिए निवेदन किया । संन्यासी ने कहा - प्रसन्नता से अन्दर आजाओ, इसमें अहसान की कोई बात नहीं है । संकट के समय किसी का भी सहयोग करना मानव का कर्तव्य है । इस कुटिया में एक आदमी लेट सकता है, दो आदमी बैठ सकते हैं, तीन आदमी खड़े रह सकते हैं । तीन आदमी का एक साथ रहना बड़ा सौभाग्य है । आओ अन्दर हम तीनों खड़े रहेंगे। तीनों अन्दर खड़े हो गये । कुछ समय पश्चात् फिर द्वार को खटखटाने की आवाज आयी । संन्यासी ने द्वार खोलकर देखा कि एक व्यक्ति पूर्ववत् ही द्वार पर खड़ा ठिठुर रहा है । संन्यासी ने कहा – तुम अन्दर आकर खड़े रहो। मैं बाहर खड़ा रहूँगा । तुम बहुत देर से ठिठुरते रहे हो, अब मैं ठिठुरन का अनुभव करूँगा । अन्दर तीन से अधिक मनुष्य खड़े Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोग ही जीवन है ३३ नहीं रह सकते । संन्यासी ने उस व्यक्ति को अन्दर लिया और स्वयं झोंपड़ी के बाहर खड़ा हो गया । वह रात भर सर्दी में खड़ा रहा, पर दूसरे के कष्ट निवारण में अद्भुत आनन्द का अनुभव उसे हो रहा था । सहयोग मानव का कर्तव्य है । प्रायः मानव दूसरों से सहयोग तो चाहता है पर दूसरों के लिए उत्सर्ग करना नहीं चाहता । उसे सदा स्मरण रखना चाहिए कि मानवसमाज की नींव पारस्परिक सहयोग ही है । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुणाल की आंखें मौर्यवंश के सम्राट अशोक की दो रानियाँ थीं। बड़ी रानी के लड़के का नाम कुणाल था । कुणाल सुन्दर सुशील और सदाचारी था। सम्राट् उसको बहुत ही प्रेम करते थे। छोटी रानी तिष्य रक्षिता कुणाल के अतिशय सुन्दर रूप को देखकर मुग्ध हो गई। समय पाकर एकान्त में उसने अपने हृदय की बात कुणाल से कही। कुणाल तो अपनी सौतेली माँ की यह बात सुनकर अवाक् रह गया ! उसे विचार आया कि मेरा यह रूप किस काम का जो माता के मन में भी निकृष्ट पाप भावना उत्पन्न करता है। उसने विनम्र शब्दों में कहा-माता ! मैं तुम्हारा पुत्र हूँ, पुत्र के सामने इस प्रकार की बात कहना अनुचित है। तिष्यरक्षिता विकारों के वशीभूत थी ! उसने कहा"कुणाल ! मैं तुम्हारे मुँह से माँ शब्द सुनना नहीं चाहती। मैं तुम्हारे लिए कितने दिनों से बेचैन हूँ। तुम एक बार Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुणाल की आंखें मेरे रूप और यौवन को निहार कर तो देखो ।” तिष्यरक्षिता उस युग की असाधारण सुन्दरी थी । उसे अपने रूप पर गर्व था । पर कुणाल ने स्पष्ट कहा -- " माता ! पुत्र का धर्म माता की माता के रूप में उपासना करना है, अन्य रूप में नहीं ।" चोट खाई हुई नागिन की तरह तिष्यरक्षिता फुफ्कार उठी- "कुरणाल! तू मेरा अपमान कर रहा है । नारी अपने प्रेम के खातिर पुरुष के चरणों में सब कुछ अर्पण कर सकती है और प्रेम को ठुकरा देने पर वह उसका भयानक बदला लेना भी जानती है। मालूम होता है कि तुझे अपने इन कमल-नेत्रों पर गर्व है जिसके कारण मेरे रूप को ध्यान से नहीं देख रहा है । किन्तु समय आने पर तेरी ये आँखें नहीं रहेंगी ।" ३५ इस घटना के कुछ समय बाद तिष्यरक्षिता को बदला लेने का अवसर मिल गया । तक्षशिला की प्रजा ने भयंकर विद्रोह कर दिया था। उस विद्रोह को नष्ट करने के लिए स्वयं सम्राट् जाना चाहते थे । पर तिष्यरक्षिता के कहने से उन्होंने कुणाल को भेज दिया । तिष्यरक्षिता समझती थी कि कुणाल वहाँ के विद्रोह को दबा नहीं सकेगा और बुरी मौत मारा जायेगा । किन्तु तिष्यरक्षिता की इच्छा पूर्ण नहीं हुई । कुणाल ने विद्रोह को शान्त कर दिया । सम्राट् की आज्ञा से वह तक्षशिला का राज्यपाल बन गया । कुणाल अपनी धर्म-पत्नी कंचना के साथ वहीं आनन्द से रहने लगा । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलते चित्र कुछ दिनों के पश्चात् सम्राट अशोक बीमार हो गए। अनेक उपचार किए गए पर उनकी व्याधि नहीं मिटी । अन्त में तिष्यरक्षिता ने अपने बुद्धि कौशल से महाराजा की चिकित्सा की। सम्राट् पूर्ण स्वस्थ होगए। रुग्ण अवस्था में तिष्यरक्षिता ने सम्राट की अत्यधिक सेवा की जिसके कारण सम्नाट की वह कृपा पात्री बन गई। कोई भी कार्य सम्राट् उससे बिना पूछे नहीं करने लगे। एक दिन समय पाकर तिष्यरक्षिता ने सम्राट् से राजमुद्रा ले ली और पूर्व लिखे हुए आज्ञा पत्र पर धोखे से उनके हस्ताक्षर करवा लिए। उस आज्ञा पत्र में लिखा था-कुणाल की आँखें निकाल दी जाय और साथ ही उसको राज्य से निष्कासित कर दिया जाय। आज्ञा-पत्र तक्षशिला के प्रधान मन्त्री के नाम पर था। ___ जब वह पत्र तक्षशिला के प्रधान मन्त्री को मिला तो उसे पढ़कर दंग रह गया । उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि सम्राट अपने प्रिय-पुत्र को इस प्रकार कठोर दण्ड दे सकते हैं। पर पत्र पर राजमुद्रा आदि होने से शंका को अवकाश ही नहीं था। प्रधानमंत्री ने सकुचाते हुए वह पत्र कुणाल के हाथ में दिया। कुणाल-पितृ-भक्त पुत्र था। पिता की आज्ञा का उल्लंघन वह नहीं कर सकता था। उसने उसी समय प्रधानमंत्री को कहा-आप इसी समय राजाज्ञा का पालन करें। प्रधानमंत्री ने गहराई से सोचकर कहा- यह राजाज्ञा कदापि नहीं हो सकती। इसमें किसी प्रकार का धोखा है। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुणाल की आंखें कुणाल- नहीं, बिल्कुल नहीं। ये हस्ताक्षर मेरे पिता के ही हैं, यह उन्हीं की आज्ञा है, और इस आज्ञा का पालन शीघ्र होना चाहिए । प्रधान मंत्री इस प्रकार का दुस्साहस करने से घबरा रहा था । कुणाल ने अपने ही हाथों से अपनी आँखें फोड़ लीं और उसी समय राजभवन को छोड़कर प्रस्थित होने लगा। उसने अपनी पत्नी कंचना को समझाया कि तू मेरे साथ न चल, पर वह कहाँ माननेवाली थी। दोनों ने भिक्षुक का वेष धारण किया, और राजभवन को छोड़कर चल दिये । तक्षशिला निवासियों ने उनको अश्र भरी विदाई दी। तक्षशिला के प्रधान मंत्री ने प्रस्तुत घटना की सूचना सन्नाट को दी। पर महारानी तिष्यरक्षिता ने वह पत्र ही बीच में गायब कर दिया । महाराज अशोक को कोई भी सूचना नहीं मिली। तक्षशिला से विदा होकर कुणाल और उसकी पत्नी दोनों ही गाँवों व नगरों में घूमने लगे। दोनों गायन कला में प्रवीण थे । स्वर दोनों का अत्यन्त मधुर था। जब वे गाने लगते, तब सैकड़ों आदमी उनके आस पास खड़े हो जाते । उन्हें खाने पीने की वस्तु सहज ही मिल जाती। एक दिन घूमते-घामते वे पाटलिपुत्र पहुँचे । राजमहल के पास वे ठहर गये । सुबह का सुहावना समय था । कुणाल ने वही अपना पुराना राग छेड़ दिया जो उसे बहुत ही प्रिय था। सम्राट अशोक की ज्यों ही नींद खुली त्यों ही Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलते चित्र कुणाल के गीतों की पंक्तियां कानों में गिरीं । आवाज परिचित लगी । स्मरण आया कि इस गीत को तो मेरा पुत्र कुणाल गाया करता था। उसी समय सम्राट् ने अनुचर को भेजकर कुणाल और कंचना को बुलवाया । किन्तु उनकी शान्त-सूरत इतनी बदल चुकी कि सम्राट् उनकों सहसा पहचान न सके। मगर वार्तालाप के प्रसंग में सम्राट् ने कुणाल का स्वर पहचान लिया । सम्राट् ने उनसे कहा- सच बताओ कि तुम कौन हो ? मुझे लगता है कि तुम मेरे पुत्र कुणाल हो । कुणाल ने कहा - पिताजी ! मैं आपका ही पुत्र हूँ । ३८ यह सुनते ही सम्राट् ने कुणाल को अपनी छाती से लगाया । आँखों से आँसू बरसाते हुए कहा- पुत्र ! तुम्हारी यह दशा कैसे हुई ? कुणाल ने सारी घटना बतादी । सम्राट् ने शीघ्र ही पता लगाया कि यह राजाज्ञा किसने दी थी ? ज्ञात हुआ तिष्यरक्षिता ने । सम्राट् ने आदेश दिया कि तिष्यरक्षिता की आँखे निकाल कर उसको जीते जी जमीन में गाड़ दिया जाये । कुणाल के आन्तर नेत्र खुले हुए थे उसके मन में माता तिष्यरक्षिता के प्रति तनिक मात्र भी विरोध की भावना नहीं थी । उसने सम्राट् से प्रार्थना की- पिताजी ! माँ से जो भूल हुई है वह अनजान में हुई है । कौन ऐसी माँ होगी जो इस प्रकार व्यवहार करे ! आप उनको क्षमा करदे । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुणाल की आंखें ३६ सम्राट् ने कुणाल की प्रार्थना पर महारानी को क्षमा कर दिया । तिष्यरक्षिता ने कहा-पुत्र ! तू मानव नहीं, देव है । मैंने भयंकर भूल की पर तूने विराट् हृदय का परिचय दिया। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकाल मृत्यु पर विजय महात्मा बुद्ध अपने पूर्व जन्म में काशी देश के किसी ग्रामाधिपति के घर पैदा हुए थे। उनका नाम धम्मपाल था। अध्ययन के लिए वे तक्षशिला गये। बिना किसी भेदभाव के पांच सौ विद्यार्थी एक आचार्य के नेतृत्व में विद्यार्जन कर रहे थे। __ अचानक शिक्षाचार्य का नौजवान लड़का मर गया। सारे आश्रम में शोक छा गया। धम्मपाल को छोड़ कर सभी विद्यार्थी शोकाकुल थे। उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे । धम्मपाल ने अपने साथियों से पूछा-आप उदास क्यों हैं । विद्यार्थियों ने कहा-क्या तुझे पता नहीं है कि अपने आचार्य का जवान पुत्र मर गया है। धम्मपाल ने दृढ़ता के साथ कहा-सहपाठियों ! आप मिथ्या बोल रहे हैं । वृद्ध होने से पहले कोई मरता ही नहीं है। सभी साथियों को आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा ४० Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकाल मृत्यु पर विजय क्या तुम्हारी कुलपरम्परा में कोई मरता ही नहीं है ? धम्मपाल - सात पीढ़ियों का इतिहास मुझे ज्ञात है, जिसमें कोई भी व्यक्ति युवावस्था में नहीं मरा है । साथियों ने शिक्षाचार्य के समक्ष यह चर्चा की। आचार्य ने धम्मपाल से पूछा किन्तु उसने प्रथम बात ही दोहराई । आचार्य को लगा - यह असत्य बोल रहा है उसके कथन की वास्तविकता जानने के लिए आचार्य आश्रम का भार किसी योग्य विद्यार्थी को सौंप कर धम्मपाल के पिता के पास गये । सिसकियाँ भरते हुए, आँसू पोंछते हुए उन्होंने कहा - धम्मपाल बड़ा ही मेधावी और योग्य लड़का था । किन्तु दुर्भाग्य है कि वह क्रूर काल का कवल बन गया । धम्मपाल के पिता ने मुस्कराते हुए कहा - आचार्य देव ! अन्य कोई व्यक्ति मरा होगा, मेरा लड़का मर ही नहीं सकता । आचार्य देव कुछ हड्डियाँ साथ ले गये थे । वे दिखाते हुए बोले- देखिए ये हड्डियाँ आपके सामने प्रस्तुत हैं । पिता - ये हड्डियाँ किसी अन्य की होंगी, मुझे विश्वास है कि मेरा लड़का मर नहीं सकता । आचार्य - राजन् ! आप कौन से ऐसे नियम व्रत रखते हैं, ऐसी कौन सी श्र ेष्ठ चर्या का आचरण करते हैं जिससे आपके तरुण पुत्र नहीं मरते ? धम्मपाल के पिता ने कहा- हमारे वंशानुक्रम से सभी सदस्य मर्यादा का पालन करते हैं, कोई भी मिथ्या Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलते चित्र भाषण नहीं करता । अनर्थ हिंसा नहीं करता। दान देने के पूर्व, दान देते समय और दान देने के पश्चात् हमारे पारिवारिक व्यक्तियों के चेहरे सदा प्रफुल्लित रहते हैं। किसी को पश्चात्ताप नहीं होता। अपनी पत्नी के अतिरिक्त सभी स्त्री जाति को माता और बहिन की दृष्टि से देखते हैं। हमारे परिवार की महिलाएँ भी धर्म परायण हैं । वे स्वप्न में भी पर पुरुष की इच्छा नहीं करती, इसलिए हमारे यहाँ कोई अकाल में और असमय में नहीं मरता । जैसे वर्षा में छाताधारी की रक्षा छाता करता है वैसे ही धर्मनिष्ठ की रक्षा धर्म करता है। वस्तुतः धर्म द्वारा रक्षित मेरा पुत्र धम्मपाल, आनन्द में है, आप ये हड्डियाँ किसी अन्य की ले आये हैं। शिक्षाचार्य विस्मित थे। धर्म पर दृढ़ विश्वास होने के कारण ही इन्होंने अकाल मृत्यु पर विजय प्राप्त की है । शिक्षाचार्य ने धम्मपाल के पिता से क्षमा मांगते हुए कहा-धम्मपाल बड़े आनन्द में है, वह जीवित है। धम्मपाल के कहने से मेरे मन में शंका हो गई थी उसे मिटाने के लिए ही मैं आया था। आप और आपके पारिवारिक जन धन्य हैं जिनके मन में धर्म पर इतनी गहरी आस्था है। M Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ | फूट गंगा के किनारे एक गाँव था । वह गाँव आधा लिच्छिवियों का था और आधा अजातशत्रु का । उस गाँव के पर्वत की तलहटी में बहुमूल्य सुगन्धित वस्तुएं पैदा होती थी । अजातशत्रु उनको लेने की सोचता पर लिच्छिवी उसके पूर्व ही वहां पहुँच जाते और वे वस्तुएँ ले लेते थे । प्रतिवर्ष ऐसा ही होता था । लिच्छिवियों की यह करतूत देखकर अजातशत्रु मन ही मन कुढ़ता था । वह जानता था कि लिच्छिवियों से युद्ध करना खतरे से खाली नहीं है । एक दिन अजातशत्रु ने अपने महामंत्री वर्षकार को बुलाकर कहा- तुम तथागत बुद्ध के पास जाओ, उनको नमस्कार कर कुशलक्षेम पूछना और कहना - भगवन् ! मगध का राजा अजातशत्रु लिच्छिवियों पर आक्रमण ४३ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलते चित्र करना चाहता है। उसके पश्चात् तथागत जो कहें वह मुझे आकर कहना। उस समय तथागत बुद्ध- गृध्रकूट पर्वत पर विचरण कर रहे थे । महामंत्री वर्षकार वहां पहुँचा । अभिवादन कर उसने अजातशत्रु का सन्देश सुनाया। उस समय आनन्द को सम्बोधित कर तथागत बुद्ध ने कहा___ आनन्द, क्या तुमने सुना है-जब तक लिच्छिवी लोग किसी बात का निर्णय करने के लिए सम्मेलन करते रहेगें तब तक उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। 'जब तक वे लोग एक मत होकर सम्मेलन-या बैठकें करते हैं, एक मत होकर उठते-बैठते हैं, अपना कर्तव्य पालन करते हैं, तब तक उनका कोई भी कुछ बिगाड़ नहीं सकता। __ जहाँ तक वे नियम और नीति-विरुद्ध कार्य नहीं करते, नियम और नीति को भंग नहीं करते, तब तक उनका कोई कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता। जब तक वे वृद्धों का आदर व बहुमान करते हैं, उनकी आज्ञा के अनुसार चलते हैं तब तक उनका कोई कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता। जब तक वे पर-स्त्रियों पर व कुमारिकाओं पर कुदृष्टि नहीं डालते तब तक उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूट जब तक वे साधु-सन्तों की रक्षा करते हैं तब तक उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता। तथागत ने वर्षकार को सम्बोधित कर कहा-जब तक ये बातें लिच्छिवियों में रहेंगी, वे उनका पालन करते रहेंगे, तब तक उनका कोई भी बाल-बांका नहीं कर सकता। वर्षकार ने कहा- भगवन् ! आपका कथन सत्य है। इन बातों में से एक भी बात. लिच्छिवियों की रक्षा करने के लिए पर्याप्त हैं । अजातशत्रु उन्हें नहीं हरा सकता। वर्षकार तथागत का अभिवादन कर चल दिया। सभी बातें अजातशत्रु से कहीं। राजा ने कहा- हमारे पास इतने हाथी और घोड़े नहीं हैं जो हम लिच्छिवियों को रिश्वत देकर उन्हें वश में कर सकें । ऐसी स्थिति में उनमें परस्पर फूट डाल कर ही उन्हें जीत सकते हैं । वर्षकार- राजन् ! षड्यंत्र रचना चाहिए। आप परिषद में लिच्छिवियों के सम्बन्ध में चर्चा उठाइए । मैं उस समय लिच्छिवियों का पक्ष लेकर कहूंगा कि आपको उनसे क्या लेना देना ? वे भी तो राजा हैं। आप उन्हें खेती और व्यापार द्वारा जीविका कमाने दें। उस समय आप सभासदों से कहिए कि हम जब कभी लिच्छिवियों के सन्बन्ध में कुछ कहते हैं तो यह मंत्री विरोध करता है । इसके बाद मैं लिच्छिवियों को उपहार प्रेषित करूंगा, इस बात को लेकर आप मुझ पर राजद्रोह का आरोप Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलते चित्र लगाकर, शिर मुंडवाकर मुझे नगर बाहर निकाल दें। उस समय मैं रोष में कहूँगा कि मुझे नगर के सभी रहस्य ज्ञात हैं, एतदर्थ मैं अपमान का बदला लूगा । राजा ने वैसा ही किया। मंत्री पर राजद्रोह का आरोप लगाया और उसे नगर से बाहर निकाल दिया। मंत्री वर्षकार लिच्छिवियों की ओर चल दिया। लिच्छिवियों को जब यह वृत्त ज्ञात हुआ तब उन्होंने एक सभा बुलाई। कितनों ने कहा- वर्षकार धूर्त है, उसे गंगा पार नहीं करने देना चाहिए। कुछ लोगों ने विरोध करते हुए कहा-हमारा पक्ष लेने के कारण ही उसे निकाला गया है, एतदर्थ उसे आने देना चाहिए । वर्षकार लिच्छिवियों के राज्य में पहुँचा । उसने नमक मिर्ची लगाकर विस्तार से बताया कि उसका किस तरह अपमान किया गया है। लिच्छिवियों ने कहा-बड़ा कठोर दंड दिया है, यह तो प्रत्यक्ष ही अन्याय है। हम आपको मंत्री पद पर आसीन करना चाहते हैं । आप इस पद को स्वीकार करें। वर्षकार यही चाहता था। वह लिच्छिवियों के बीच रहने लगा। न्याय आदि करता और राजकुमारों को शिक्षा देता। एक दिन उसने एक लिच्छिवी को एकान्त में ले जाकर पूछा, क्या तुम खेती करते हो ? Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूट ४७ लिच्छिवी-जी हाँ. वर्षकार-दो बैलों से ? लिच्छिवी-जी हाँ. दूर खड़ा दूसरा लिच्छिवी यह देख रहा था। बाद में उसने उससे पूछा-मंत्री तुम से क्या पूछ रहे थे ? उसने कहा-दो बैलौ से खेतों करने की बात पूछ रहे थे। किन्तु दूसरे लिच्छिवी को इस उत्तर से सन्तोष नहीं हुआ। उसने सोचा यह असली बात छिपा रहा है । बात कुछ दूसरी होनी चाहिए। फिर दूसरे राजकुमार को एकान्त में ले जाकर पूछामैंने सुना है कि तुम गरीब हो ? राजकुमार-यह आपको किसने कहा ? एक लिच्छिवी ने बताया था। दूसरे दिन किसी अन्य राजकुमार को एकान्त में लेजाकर पूछा-हमने सुना हैं कि तुम कायर हो ? उसके पूछने पर मंत्री ने अन्य लिच्छिवी का नाम बता दिया। इस प्रकार तीन वर्ष में एक से दूसरे को भिड़ाकर लिच्छिवी राजाओं में ऐसी फूट डालदी कि दो राजाओं का एक दूसरे से मिलना, एक दूसरे से वार्तालाप करना, Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ बोलते चित्र तथा साथ में जाना बन्द हो गया । मंत्री ने एक दिन खतरे की भेरी बजाई मगर कोई भी नहीं आया। वे सोचने लगे हम क्यों जाएँ शूरवीर हो वह जाए। ___मंत्री ने विचार किया आक्रमण करने का यह सुनहरा अवसर है । उसने अजातशत्रु को गुप्त रूप से सन्देश भिजवा दिया । अजातशत्रु ने चढ़ाई करदी । भेरी बजाई गई कि शत्रु को गंगा पार न करने दिया जाय, किन्तु लिच्छवी कहने लगे जो शूरवीर हों, वे जाएँ । हम क्यों जाएँ ? अजातशत्रु बेरोकटोक लिच्छिवियों के राज्य में आ गया । पुनः भेरी बजाई गई कि शत्रु वैशाली में प्रवेश न करे । द्वार बंद कर उसका सामना किया जाय ! पर इसके लिए भी कोई तैयार नहीं हुआ । अन्त में अजातशत्रु ने नगर में प्रवेश किया, और अपनी विजयपता का वैशाली पर फहरा दी। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ जनता की आह एक समय तुर्किस्तान का बादशाह अपने पूर्वजों का इतिहास पढ़ रहा था। उसे ध्यान आया कि हमारे सभी पूर्वजों ने बहुत कम समय तक राज्य किया है । भारतवर्ष का जब इतिहास पढ़ा तो जानकर वह चकित हो गया कि हिन्दुस्तान के राजाओं ने लम्बे समय तक राज्य किया है । उसने दीर्घकाल के रहस्य को जानने के लिए अपने वजीर को भारतवर्ष भेजा। वजीर और उसके साथी भारत में आये। उन्होंने देहली के राजा को बादशाह का पत्र दिया और पूछा कि भारतवर्ष के राजा लोग दीर्घजीवी क्यों होते हैं। राजा ने चिन्तन के पश्चात् कहा-कुछ दिन आप ठहरिए, फिर उत्तर दिया जायेगा। बजीर और उनके साथियों के रहने के लिए एक भव्य-भवन खोल दिया गया। सभी प्रकार की व्यवस्था कर दी गई। कुछ दिनों के पश्चात् वजीर पुनः राजा के पास गया Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० बोलते चित्र और उसने अपने प्रश्न का उत्तर चाहा। राजा ने कहा-आप बहुत शीघ्रता कर रहे हैं । आप जिस मकान में ठहरे हुए हैं उस मकान के पास एक विराट् वट वृक्ष है। जब वह सूख जायेगा तब आपको उत्तर दिया जायेगा। _____ वजीर हताश होकर अपने निवास स्थान पर आया। उसने अपने साथियों से बादशाह की बात कही। सभी निरुत्साह हो गए। सोचने लगे--कब यह वृक्ष सूखेगा और कब हमें उत्तर मिलेगा। सोते, बैठते, उठते, खाते, पीते, सब यह विचार करते कि कब वह सूखेगा और कब हमें अपने देश जाने की आज्ञा मिलेगी। उन सभी की आहों से वह वट वृक्ष छः माह में सूख गया। ___अब वजीर प्रसन्नता से झूमता हुआ राजा के पास गया और वट वृक्ष के सूखने की बात कही । अपने प्रश्न का उत्तर मांगा। राजा ने कहा-वजीर जी, मैंने आपके प्रश्न का उत्तर दे दिया है। जिस प्रकार वह हरा-भरा वट वृक्ष आपकी आहों से सूख गया है, उसी प्रकार आपके बादशाह प्रजा की आहों से जल्दी उखड़ जाते हैं। वे परोपकार आदि कार्य नहीं करते हैं। प्रजा उनसे रुष्ट होकर दुराशीष देती है। इसी कारण वे लम्बे समय तक राज्य नहीं कर पाते । भारत के राजा दान, परोपकार आदि कार्य करते Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनता की आह हैं, प्रजा को हर प्रकार की सुख सुविधाएँ देते हैं जिससे यहाँ की प्रजा उन्हें शुभाशीष देती है और वे दीर्घायु होते हैं। वजीर ने अपने देश पहुँच कर बादशाह को सारी बात सुनादी। बादशाह ने अपने जीवन को परिवर्तित कर दिया। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ सेवा का आदर्श तथागत बुद्ध और उनके प्रधान शिष्य आनन्द बैठे वार्तालाप कर रहे थे। उसी समय पवन के तीव्र झौंके के साथ विहार में से तीव्र दुर्गन्ध आयी। बुद्ध ने पूछा- आनन्द, यह दुर्गन्ध कहाँ से आ रही है । आनन्द उसी क्षण गया। लौटकर उसने बतायाभगवन् ! एक श्रमण उदर-वेदना से ग्रस्त है। उसे दस्तों की शिकायत है। उसका सम्पूर्ण शरीर विष्टा से लथपथ हो गया है। वस्त्र गन्दे हो गये हैं। मक्खियाँ भिनभिना रहीं है । यह दुर्गन्ध वहीं से आ रही है। बुद्ध-आनन्द ! क्या उसकी कोई परिचर्या नहीं करता ? 'नहीं भगवन् ! मुझे पहले ज्ञात नहीं था। ज्ञात होता तो परिचारक की व्यवस्था कर देता।' _ 'अच्छा तो आनन्द, हम स्वयं वहाँ चलें ।' ५२ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवा का आदर्श ५३ आनन्द के साथ बुद्ध रोगी श्रमण के निकट पहुँचे । उन्होंने रुग्ण भिक्षुक के सिर पर हाथ रख कर पूछाश्रमण ! तुझे क्या व्याधि है ? तेरे पास परिचारक क्यों नहीं है ? ___ रुग्ण भिक्ष क ने निवेदन किया- भगवन् ! मेरे पेट में असह्य पीड़ा है, अतिसार की शिकायत है। मैंने आज तक किसी भिक्ष क की सेवा नहीं की तो मेरी सेवा कौन करे ? बुद्ध ने कहा- आनन्द ! शीघ्र उष्ण जल ले आओ। आनन्द जल ले आया। तब दोनों ने उसके शरीर को स्वच्छ किया । उसे स्वच्छ वस्त्र पहनाए । तत्पश्चात् बुद्ध अन्य श्रमणों के पास पहुँचे। पूछाहमारे विहार में कोई श्रमरग व्याधि ग्रस्त तो नहीं है ? श्रमणों ने कहा- भगवन् ! एक श्रमण रुग्ण है, जिसके पेट में दर्द है। बुद्ध-तो इस श्रमण की कौन भिक्ष सेवा करता है ? सभी श्रमण एक दूसरे का मुंह देखने लगे। तभी एक श्रमण ने साहस कर कहा- भगवन् ! उसने आज तक किसी श्रमण की सेवा नहीं की हैं। ऐसी स्थिति में उसकी सेवा कौन करे ? तथागत ने गंभीर होकर कहा-श्रमणो! तुम्हारी कोई सेवा करता है इसलिए तुम उसकी सेवा करो, यह Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ बोलते चित्र तो व्यापार वृत्ति है । यह लेन-देन का व्यवहार संसारी मानवों के लिए भले उचित लगे किन्तु श्रमरणों के लिए नहीं । जो श्रमण सेवा से जी चुराता है वह श्रमण धर्म से च्युत होता है । मैं तुम्हारी सेवा नहीं करता फिर भी तुम मेरी सेवा क्यों करते हो ? भगवन् ! आप तो समस्त संसार की सेवा करते हैं । बुद्ध-तो श्रमरण क्या जगत की सेवा नहीं करता ? जो तुम्हारी व्यक्तिगत सेवा करे उसे ही तुम सेवा मानते हो । आज से मैं उन भिक्षुओं की सेवा स्वीकार नहीं करूंगा जो रुग्ण भिक्षुओं की सेवा नहीं करेगा । मेरी सेवा का उसे ही अधिकार होगा जो रुग्ण भिक्षुओं की सेवा करेगा | रुग्ण भिक्षुओं की सेवा ही मेरी सेवा है । दूसरे दिन से सभी भिक्षु उसकी सेवा में लग गये और वह भिक्षु पूर्ण स्वस्थ हो गया। फिर कभी बुद्ध को सेवा के लिए किसी भिक्षुक को प्रेरणा देने की आवश्यकता नहीं रही । * Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० राष्ट्र का गौरव रशिया के उद्धारक, लेनिन का नाम किसने नहीं सुना ? वे गरीबों के तारणहार थे, दीनों के सहायक थे, अनाथों के नाथ थे, राष्ट्र के सच्चे संरक्षक थे । लेनिन एक बार अस्वस्थ हो गये । साधारण उपचार किया गया, पर बीमारी घटने के बदले बढ़ती रही । उनकी बीमारी से रशिया का प्रत्येक नागरिक चिन्तित था। बड़े-बड़े डाक्टर आए। उन्होंने रोग का निदान किया । बहुमूल्य औषधियों का नुस्खा लिखा । लेनिन ने नुस्खे को देखकर स्पष्ट शब्दों में इन्कारी करते हुए डाक्टरों से कहा- जो दवाइयाँ मेरे गरीब देशवासियों को प्राप्त नहीं हो सकती ऐसी बहुमूल्य औषधियाँ मैं नहीं ले सकता। भले ही मेरी मृत्यु हो जाय ! मृत्यु की मुझे किञ्चित् मात्र भी भीति नहीं है । लेनिन के साथियों ने, अभिभावकों ने विविध दृष्टियों ५५ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ बोलते चित्र सेलेनिन को समझाया कि अपने लिए नहीं, किन्तु देशवासियों के लिए आपको बहुमूल्य औषधियाँ लेनी चाहिए। आपका जीवन सभी का जीवन है । लेनिन की पत्नी क्रप्सकाया थी । उसने भी कहानाथ ! आपको कम से कम मेरे लिए औषधियाँ लेनी चाहिए । लेनिन का एक ही उत्तर था- मेरा कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है । मैं अपने देश के दीन दुःखियों में समा गया हूँ। जो सुविधाएँ उन्हें समुपलब्ध नहीं उन्हें मैं लूं, क्या यह देश द्रोह नहीं है ? लेनिन की अस्वस्थता प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी । उसे देखकर सभी चिन्तित थे । क्रप्सकाया अच्छी तरह जानती थी कि लेनिन अपने निश्चय से कभी विचलित होने वाले नहीं है । कोई भी प्रलोभन उन्हें डिगा नहीं सकता । उसने गुप्त रूप से डाक्टरों से बहुमूल्य औषधियाँ ली और उन्हें मिलाकर उसने स्पेशल बिस्कुट बनाए । वह बिस्कुट चाय के साथ लेनिन को देने लगी । बिस्कुटों के साथ बहुमूल्य औषधियाँ ज्यों ही लेनिन के शरीर में गईं, उन्होंने अपना अद्भुत चमत्कार दिखाना प्रारम्भ किया । लेनिन का स्वास्थ्य दिन प्रतिदिन सुधरने लगा । कुछ ही दिनों में वे पूर्ण स्वस्थ हो गये । दो वर्ष का दीर्घकाल बीत गया । एक दिन Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ राष्ट्र का गौरव क्रप्सकाया और लेनिन बैठे हुए थे। वार्तालाप के प्रसंग में कप्सकाया ने लेनिन के सामने बिस्कुटों में मिलाई गई औषधियों का रहस्य प्रकट कर दिया। क्रूप्सकाया ने सोचा था कि यह बात सुनकर लेनिन प्रसन्न होंगे । पर यह सुनते ही लेनिन के तेजस्वी चेहरे पर क्रोध की रेखाएँ उभर आयीं। वह बिना कुछ कहे उठ खड़े हुए। उन्होंने उसी समय वकील को बुलाया। न्यायालय में कुप्सकाया पर केस दायर किया। राष्ट्रीय सम्पत्ति के दुरुपयोग का अभियोग उस पर लगाया गया । कप्सकाया प्रथम तो उसे मजाक ही समझती रही पर जब उसे सही स्थिति का ज्ञान हुआ तो उसके आश्चर्य का पार न रहा । न्यायालय में केस चला। अन्त में न्यायमूर्ति ने कप्सकाया को अपराधी मानकर तीन मास की सजा सुना दी। कानून की दृष्टि से वह निर्दोष मुक्त नहीं हो सकती थी। लेनिन अपने विचारों पर सुमेरू की तरह दृढ़ थे। न्यायाधीश ने निर्णय के अन्त में अपनी ओर से दो पंक्तियाँ और लिखीं-'इस महान् नारी को हम सजा तो करते हैं, परन्तु लेनिन को बचाकर रशिया की जनता पर इसने महान् उपकार किया है। रशियन प्रजा के कोटि कोटि आशीर्वाद प्राप्त किये हैं। अतः हम इसकी सजा को माफ करते हैं।' लेनिन के चेहरे पर लम्बे समय के पश्चात् पुनः Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ राष्ट्र का गौरव प्रसन्नता की रेखाएँ चमकीं। जो स्व की चिन्ता को छोड़ कर सर्वजन की चिन्ता करता है वही महान् है। ऐसे ही व्यक्ति राष्ट्र के सच्चे गौरव हैं। al Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य रुचि रात्रि के बारह बजे का समय, दिल्ली में सर्वत्र सन्नाटा छाया हुआ था। बादशाह अकबर बिस्तर पर लेटे-लेटे करवट बदल-बदल कर नींद लेने का प्रयास कर रहे थे, पर नींद आ नहीं रही थी। वे उठ बैठे। उसी समय द्वारपाल को बुलाने के लिए घण्टी बजाई। द्वारपाल हाथ जोड़कर बादशाह के सामने उपस्थित हुआ, कहिए क्या आदेश है । बादशाह-आज मेरी नींद उड़ गई है, और जल्दी आती नहीं जान पड़ती। ___ द्वारपाल ने नम्र निवेदन करते हुए कहा-जहाँपनाह ! कभी-कभी खाली पेट भी नींद नहीं आती है । आज्ञा प्रदान करें तो सुगन्धित मिठाइयों के थाल मगाऊँ, चाहें तो नमकीन वस्तुएँ लाऊं या फल आदि मंगाये जायें ? बादशाह- द्वारपाल ! मैं पशु नहीं हूँ जो रात-दिन चरता रहूँ। मानव को उतना ही खाना चाहिए जितना ५६ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलते चित्र स्वास्थ्य के लिए अनुकूल हो अधिक आहार करने से तन बिगड़ता है। क्षमा कीजिए ! कल ही लखनऊ की दो प्रख्यात नृत्य करने वाली गणिकाएं आयी हैं। वे इतना सुन्दर नृत्य करती हैं कि देखने वाला मुग्ध हो जाता है। उनके हाव, भाव और कटाक्ष गजब के होते हैं। नीरस से नीरस व्यक्ति के हृदय में भी सरसता का संचार हो जाता है। वे इतना बढ़िया गाती हैं कि सुनने वाला झूम उठता है, वे ऐसी बातें करती हैं कि सुनने वालों के हँसी के फव्वारे छूट जाते हैं, चिन्ताएँ कपूर की तरह उड़ जाती है। आज्ञा हो तो उन्हें हाजिर करूँ ? द्वारपाल ने द्वितीय उपाय प्रस्तुत किया। बादशाह अकबर ने लम्बा निःश्वास छोड़ते हुए कहावर्षों से मेरे पास रहने पर भी तू अब तक मेरी मनोभावना को नहीं पहचान सका ! मेरे मानस का अध्ययन नहीं कर सका। अकबर न तो रस-लोलुपी है, और न बासना का गुलाम ही है। वह तो साहित्य रसिक है । साहित्य की चर्चा में उसे जो आनन्द आता है वह दूसरी वस्तुओं में नहीं आता। तू इसी समय खानखाना के घर जा और उसे कह कि राजतरंगिणी का फारसी अनुवाद करने को दिया गया था, वह तैयार हो गया हो तो, उसे लेकर इसी समय मेरे पास आए । मेरा मन इस समय उसका भाषान्तर सुनने के लिए छटपटा रहा है । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य रुचि ६१ यह थी बादशाह अकबर की साहित्यिक रुचि, जिसके कारण सैकड़ों संस्कृत और प्राकृत के ग्रन्थ फारसी में अनुदित किये गये । * Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य का प्रभाव मांडवगढ़ के राजा जयसिंह की रानी लीलावती अत्यन्त रूपवती थी । राजा उसके रूप पर मुग्ध था। रानी की भरी जवानी थी। उसके शरीर में भयंकर दाहज्वर हुआ । सारा शरीर तप्त अंगारे की तरह जलने लगा। राजा ने कुशल से कुशल वैद्य बुलाये । बढ़िया से बढ़िया औषधियाँ दी, पर रानी रोग मुक्त न हो सकी। सैकड़ों पुड़ियाँ फांकने पर भी वह उसी प्रकार कराहती रही । चन्दन आदि का लेप लगाने पर भी शान्ति का अनुभव नहीं हुआ। काढ़े पीने पर भी कुछ फर्क महसूस न हुआ। राजा जयसिंह रानी की रुग्णता देखकर हैरान था। उसे कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। रानी की वेदना से वह स्वयं व्यथित था। रानी राजा के उदास चेहरे को देखकर मुरझा जाती थी। __ एक दिन रानी ने अपनी प्रतिभासम्पन्न दासी से ६२ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यनिष्ठा ६३ पूछा- क्या ऐसा कोई उपाय है जिससे मैं रोग मुक्त हो सकूं । दासी ने दृढ़ता के साथ कहा — गुरुदेव के मुखारविन्द से मैंने सुना है कि ब्रह्मचर्य जीवन की महान् शक्ति है । देव, दानव, गंधर्व, यक्ष और राक्षस सभी ब्रह्मचारी के चरणों में झुकते हैं । आपको ध्यान होगा, मांडवगढ़ के महामंत्री पेथडकुमार पूर्ण ब्रह्मचारी हैं । अभी उनकी बत्तीस वर्ष की उम्र है किन्तु ब्रह्मचर्य का अपूर्व तेज उनके चेहरे पर चमक रहा है । ब्रह्मचर्य के दिव्य प्रभाव से जो असंभव हैं वह भी संभव हो जाता है । जो कार्य चामत्कारिक रसायन नहीं कर सकती वह ब्रह्मचर्य के अलौकिक तेज से सहज हो सकता है । मुझे विश्वास है कि उग्र ब्रह्मचारी पेथडकुमार के ओढ़ने की साल को आप मंगा कर ओढ़े तो अवश्य ही रोगमुक्त हो सकती हैं । दासी के कहने से रानी ने पेथडकुमार के ओढ़ने की साल मंगाई । ओढ़ते ही शरीर में पसीना-पसीना हो गया, और रानी दाह ज्वर से मुक्त हो गई । यह है ब्रह्मचर्य का प्रबल प्रभाव । X Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ वीरों का भूषण राजा भीमदेव के महामंत्री विमलशाह जैन श्रावक थे । वे स्वभाव से बड़े ही उदार प्रकृति के थे। उन्होंने अठारह करोड़ रुपए आबू में खर्च किये थे। श्रावक होने के नाते किसी भी निरपराध प्राणी को सताना वे पाप मानते थे। ___ महामंत्री विमल की सवारी निकल रही थी। शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित होकर वे रणक्षेत्र में युद्ध के लिए जा रहे थे । मार्ग में खड़ा हुआ ग्वालिनों का समूह महामंत्री विमल को देखकर हँस पड़ा। ग्वालिनें आपस में चर्चा करने लगीं-जीवों की रक्षा करने वाला, पानी को भी छानकर पीने वाला यह कायर व्यक्ति कैसे युद्ध करेगा? - विमल के कर्ण-कुहरों में ये शब्द गिरे। उन्होंने सवारी वहीं पर रोकी। रास्ते के पास ही एक झोंपड़ी ६४ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरों का भूषण में एक ग्वालिन दही का मंथन कर रही थी, मंथन करते समय वह इधर-उधर झूम रही थी । झूमती हुई ग्वालिन के कानों में मोती का आभूषण था । उसे विमल ने बाण से वींध दिया । जीवों की रक्षा करने वाला श्रावक कैसा धनुर्धर है, यह उसने प्रत्यक्ष बता दिया। __ युद्ध के मैदान में विमलशाह ने ऐसा वीरत्व दिखाया कि शत्रुओं के छक्के छूट गये। एक नहीं, अनेकों युद्धों में उन्होंने विजय-पताका फहराई। उन्होंने यह सिद्ध किया कि अहिंसा कायरों का नहीं, वीरों का भूषण है। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ साहित्य निर्माण आचार्य हरिभद्र का मुख गुलाब के फूल की तरह सदा खिला रहता था। जो भी आता, उनकी मधुर मुस्कान से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। लल्लिग नामक श्रावक उनका परम भक्त था। वह उनके दर्शन के लिए पहुँचा तो देखा आचार्यदेव के चेहरे पर प्रतिदिन की तरह चमक नहीं थी। लल्लिग ने सोचा-कीर्ति, कामिनी, और कलदार के त्यागी को आज कौन सी व्यथा सता रही है ? उसने अत्यन्त नम्र शब्दों में आचार्य श्री से पूछा-भगवन् ! मैं आपका श्रावक हूं, वर्षों से आपके निकट सम्पर्क में रहा हूँ। मैंने अनुभव किया है शारीरिक वेदना के समय भी आप सदा मुस्कराते रहे हैं, पर आज जैसी सुस्ती पहले कभी नहीं देखी। मैं इस चिन्ता का कारण जानना चाहता हूँ। बिना जाने उसे मिटाया नहीं जा सकता। मैं आपकी आन्तरिक चिन्ता को देख नहीं सकता। हरिभद्र ने कहा-श्रावक ! मैं साहित्य निर्माण करना Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ साहित्य निर्माण चाहता हूँ । दिन का अधिक से अधिक समय साहित्यिक कार्य में ही लगाता हूँ पर रात्रि का समय तो यों ही चला जाता है मेरी हार्दिक इच्छा है कि रात में भी कुछ सर्जन का कार्य किया जाय, परन्तु घनान्धकार में वह संभव नहीं है । दीपक का प्रकाश श्रमण मर्यादा के प्रतिकूल है, अतः मैं उसका उपयोग नहीं कर सकता । जीवन लघु है और कार्य विराट, इस जीवन में यह विराट् कार्य कैसे सम्पन्न होगा, यही एक चिन्ता है। __ लल्लिग ने सुना, वह एक क्षण विचार में पड़ गया । दूसरे ही क्षण उसके गुलाबी होठों पर आशा की ज्योति चमकने लगी। उसने कहा-गुरुदेव ! मैं ऐसा प्रयास करूंगा कि आप दीपक के बिना भी रात में अच्छी तरह लिख-पढ़ सकें। हरिभद्र ने आश्चर्य पूर्वक पूछा-लल्लिग ! मैं बिना दीपक रात में कैसे लिख-पढ़ सकूगा।। गुरुदेव ! मैं एक ऐसा तेजस्वी रत्न लाऊँगा जो रात में दीपक की तरह प्रकाश करता है । उस निर्मल प्रकाश में आप सरलता से लिख-पढ़ सकेंगे। कुछ ही दिनों में लल्लिग अपनी सारी सम्पत्ति को बेचकर एक तेजस्वी रत्न खरीद कर ले आया। उपाश्रय उस रत्न के प्रकाश से जगमगा उठा । अब आचार्य हरिभद्र उसके प्रकाश में साहित्य निर्माण का कार्य करने लगे । उन्होंने विशाल साहित्य का सृजन किया। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ प्रेम से परिवर्तन मुहम्मद पैगम्बर उपदेश देने के लिए प्रतिदिन मदीना के बाहर खजुरी के एक वृक्ष के नीचे जाया करते थे। उनके उपदेश को सुनने के लिए भक्त वृन्द वहाँ पर उपस्थित होता था। जिस मार्ग से मुहम्मद उपदेश देने के लिए जाते थे उसी मार्ग पर एक यहूदी स्त्री रहती थी। जब मुहम्मद उसके पास से निकलते तो वह द्वष वश मुहम्मद पर धूल फेंकती, पत्थर व ढेले मारती तथा मुह से गालियों की वर्षा करती । भक्तों ने मुहम्मद से निवेदन किया--आप अन्य मार्ग से जाइए ताकि यह स्त्री आपको कष्ट न दे सके। मुहम्मद ने मुस्कराते हुए कहा--जब यह अपना स्वभाव नहीं बदलती है तो मैं अपना स्वभाव कैसे बदल दं । वे प्रतिदिन उसी मार्ग से निकलते और वह प्रतिदिन Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम से परिवर्तन उसी तरह उनसे पेश आती। छह महीने पूर्ण हुए। एक दिन मुहम्मद प्रतिदिन के मार्ग से उपदेश देने जा रहे थे । उनकी आँखों से प्रेम की वर्षा हो रही थी। वे उस बहिन के मकान के पास पहुंचे पर आज न तो धूल की वर्षा हई, न पत्थर, न काँटे आदि ही आए । मुहम्मद ने इधर-उधर देखा पर वह बहिन दिखलाई नहीं दी। उनके कदम आगे बढ़ने के बजाय वहीं रुक गये। उन्होंने उस मकान में रहने वाले अन्य व्यक्तियों से पूछा-वह बहिन कहाँ है, जो मुझे प्रतिदिन पुरस्कार प्रदान करती है ? । उसने बताया-आज उस बहिन को ज्वर आ गया है, उसे घबराहट हो रही है। मुहम्मद सीधे ही सीढ़ियाँ चढ़कर उस बहिन के पास पहुँचे । साथ वाले शिष्यों ने इन्कारी की-आप ऊपर न जाइए, वह आप पर मिथ्या आरोप लगाएगी। ___ मुहम्मद ने शिष्यों को कहा-मेरी बहिन बीमार हो और मैं जाकर उसकी सार संभाल न लूं, यह कहाँ तक उचित है ? ____ मुहम्मद ने उस बहिन के कमरे में प्रवेश किया। उसके तप्त शिर पर हाथ रखकर कहा-मेरी प्यारी बहिन ! तुम्हारा स्वास्थ्य कैसा है ? तुम्हारी वेदना को जानकर मेरा मन दुःखी हो रहा है । बताओ ! मैं तुम्हारी क्या सेवा कर सकता हूँ? Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलते चित्र मुहम्मद के स्नेह - स्निग्ध शब्दों को सुनकर यहूदी स्त्री अपने बिस्तर से उठ बैठी । मुहम्मद के चरणों में गिरकर अपने अपराधों की क्षमा याचना करने लगी- 'भगवन् ! मैंने तुम्हें पहचाना नहीं, तुम इन्सान नहीं, भगवान् हो । आज से तुम मेरे गुरु हो ।' ७० उसका हृदय मुहम्मद के प्रति श्रद्धा और भक्ति से भर गया । * Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दघन अध्यात्मयोगी आनन्दघन तीन दिन के उपवास के पश्चात् भिक्षा के लिए निकले। पर उन्हें देखकर गृहस्थी लोग अपना दरवाजा बन्द कर लेते। तीन चार घरों पर वे गये, किन्तु उन्हें सत्कार के स्थान पर दुत्कार मिला। भिक्षा के स्थान पर शिक्षा मिली। किसी ने कहा-यह कैसा साधु है, यह तो अर्धमत्त है। किसी ने कहा-यह तो भमता भूत है। ___ आनन्दघन तो अपनी मस्ती में झूम रहे थे। उन्हें तनिक मात्र भी ग्लानि नहीं थी। प्रसंशा और निन्दा दोनों को वे विष समझते थे-एक मीठा विष, दूसरा कटुक विष । वे निजानन्द की मस्ती में अलमस्त होकर गाने लगे आशा ओरन की क्या कीजे ज्ञान सुधारस पीजे । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलते चित्र भौतिक पदार्थों की आशा कभी भी निराशा में परिरगत हो सकती है, पर निष्काम वृत्ति कभी निराशा में नहीं बदल सकती । निष्काम साधक लाभ-अलाभ, सुखदुख, यहाँ तक कि जीवन-मरण के प्रसंगों पर भी समभाव में ही वर्तता है । * ७२ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निस्पृहता आइन्स्टाइन आधुनिक विज्ञान के पिता कहलाते हैं। उनका गणित सिद्धान्त ई एम सी सम्पूर्ण अणुविज्ञान की उत्पत्ति का मूल है। कहा जाता है-अणु, हाईड्रोजन और कोबाल्ट बम उसी के आधार से बनाये गये हैं। वह हमेशा आराम कुर्सी पर बैठकर विश्व के रहस्य का अन्वेषण-गवेषण किया करते थे। उनका जीवन एकदम सादा था। जब उन्हें इजराइल के प्रमुख पद को स्वीकार करने के लिए कहा गया तब उन्होंने स्पष्ट शब्दों में इन्कारी करते हुए कहा-विश्व के प्रलोभनों के बीच मैं नहीं रह सकता। मैं तो एकान्तशान्त वातावरण में रहकर के निसर्ग की महासत्ता का अद्भुत गरिगत शोधन करूंगा। प्रकृति के महारहस्य को को जन-जन के समक्ष प्रकट करना मेरा जीवन लक्ष्य है । कुबेरपति रोकफेलर ने आइन्स्टाइन के सम्बन्ध में बहुत कुछ सुना किन्तु उनसे प्रत्यक्ष परिचय नहीं हुआ। ७३ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलते चित्र बिना परिचय के भी रोकफेलर ने ४५००० डालर का चैक आइन्स्टाइन को भेंट स्वरूप भेजा। साथ ही पत्र में लिखा-'जिनके पैरों के जूते भी मैं उठाने योग्य नहीं हूं उस महान् विभूति आइन्स्टाइन को यह मेरी श्रद्धामय भेंट ।' आइन्स्टाइन को वह चैक मिला, किन्तु उन्होंने उसे बँटाया नहीं। वे जो पुस्तक पढ़ रहे थे उसमें पन्ने की स्मृति के लिए उसे निशान रूप से लगा दिया। वह चैक एक पुस्तक से दूसरी पुस्तक में लगता रहा । प्रस्तुत प्रसंग से स्पष्ट हो जाता है कि आइन्स्टाइन कितने निस्पृह थे ! Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोध पाठ सुबह की सुहावनी धूप चारों ओर फैल रही थी। राजमार्ग पर मानवों की भीड़ बढ़ रही थी। एक वृद्ध लकड़ी के सहारे चल रहा था। सामने से जवानी के जोश में चलता युवक आया और वृद्ध से टकरा गया । युवक सशक्त था उसके शरीर की नसों में नया खून दौड़ रहा था । आवेश में आकर उसने उस वृद्ध के गाल पर तमाचा मार दिया। वृद्ध ने हाथ जोड़कर उस युवक से निवेदन किया, महानुभाव ! आपको ज्ञात होना चाहिए कि मैं अंधा हूं। मुझे दिखाई नहीं देता है । कृपा कर बताइए आपको कहाँ पर चोट लगी है ? मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ । वृद्ध की मधुर मुस्कान और कथन के अद्भुत और आकर्षक ढंग से युवक पानी-पानी हो गया। वह वृद्ध के चरणों में गिर पड़ा। बोला-क्षमा करें, शान्ति का उपदेश तो मैंने बहुत सुना है पर तुम्हारे जैसा व्यक्ति मैंने नहीं ७५ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ बोलते चित्र देखा । तुम्हारी शान्ति ने मेरे जीवन को ही बदल दिया है । क्रोध का प्रसंग उपस्थित होने पर भी क्रोध न करना ही तो क्षमा की सही परिभाषा है । उस अंधे वृद्ध की क्षमा ने युवक को जो बोध पाठ दिया वह हजार-हजार पुस्तकें पढ़ने पर भी नहीं मिल सकता । ¤ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ विमल को वीरता वसन्तोत्सव मनाया जा रहा था। गुर्जरपति भीम की उपस्थिति में गुजरात के सुप्रसिद्ध तीरंदाज अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे थे । पाटर की प्रजा उन वीरों को गौरव की दृष्टि से देख रही थी । उल्लास के क्षरणों में कार्यक्रम चल रहा था । अन्त में एक दूर स्थान पर लक्ष्य बनाया गया और उद्घोषणा की गई कि जो उस लक्ष्य को बींधेगा उसे पुरस्कार प्रदान किया जायेगा । यह तीरंदाजों की कसौटी थी । एक के पश्चात् दूसरे तीरंदाज आते गये, पर कोई भी उस निशान को वींध नहीं सका । इतने में एक अपरिचित युवक वहाँ आया । उसका भव्य - भाल, दिव्य नेत्र, लम्बी भुजाएँ, विशाल वक्षस्थल तथा तेजस्वी चेहरे को देखकर भीमदेव प्रभावित हुआ । उसके कंधे पर धनुष्य टंगा था । उसने कहा- युवक ! क्या तुझे भी अपनी कला दिखलानी है ? युवक ने ७७ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ बोलते चित्र स्वीकृति दी। वह चार कदम आगे आया, उसने शरीर को व्यवस्थित किया, धनुष्य को झुकाकर लाक्षणिक रीति से तीर को छोड़ा, तीर लक्ष्य को वींधकर अदृश्य हो गया। तीर की खोज करने के लिए भीमदेव ने एक सैनिक को पैदल भेजना चाहा। तब युवक ने कहा राजन् ! तीर की तलाश के लिए आप किसी घुड़सवार को भेजिए । पैदल जाने वाला व्यक्ति सायंकाल तक भी लौटकर आ नहीं सकेगा। घुड़सवार को भेजा गया। वह तीर को लाया और बोला यह तीर यहाँ से छह मील दूरी पर मिला। आश्चर्य-चकित राजा ने युवक का नाम तथा परिचय पूछा। युवक ने कहा-लोग मुझे विमल कहकर पुकारते हैं । वर्ण की दृष्टि से मैं वैश्य हूँ और धर्म की दृष्टि से जैन हूँ । कुछ दिनों के पश्चात् पाटण की प्रजा ने सुना विमल महामंत्री बना है। उसकी वीरता, धीरता, और गंभीरता देखकर जनता चकित थी। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ अहिंसा की विजय आचार्य हेमचन्द्र के प्रबल प्रभाव से गुजरात के तेजस्वी सम्राट् कुमारपाल के अन्तर्मानस में अहिंसा की निर्मल गंगा प्रवाहित होने लगी। जिस समय अंग, बंग कलिंग आदि के ब्राह्मण भी माँसाहार करते थे उस समय सौराष्ट्र के शूद्र कहलाने वाले व्यक्ति भी माँसाहार से नफरत करते थे। ___ एक दिन गुर्जरेश्वर के कुटुम्ब में एक समस्या उपस्थित हुई । कुमारपाल की कुलदेवी कंटकेश्वरी के चरणों में पहले नवरात्रि के समय सप्तमी, अष्टमी और नवमी को सैकड़ों पशुओं की बलि चढ़ाई जाती थी। माताजी के वार्षिकोत्सव के दिन ज्यों-ज्यों सन्निकट आ रहे थे त्योंत्यों क्षत्रियों के दिल मुरझा रहे थे चौलुक्य क्षत्रिय माता की कृपा से जितने निर्भय थे, उतने ही उसके कोप से काँप रहे थे। उनकी दृढ़ धारणा थी कि माताजी यदि कुपित हो गई तो चौलुक्य वंश का एक दिन में नाश हो जायेगा। सभी के हृदयाकाश में भय की घटाएं उमड़ ७६ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० बोलते चित्र घुमड़ कर घहराने लगी। कुमारपाल का निश्चय मेरु के समान था। अहिंसा के लिए वह सर्वस्व त्याग ने को प्रस्तुत था। उसे कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र पर पूर्ण विश्वास था कि वे उन्हें सही पथ-प्रदर्शन करेंगे। आश्विन शुक्ला छठ के दिन पाटण के प्राङ्गण में विराट् सभा का आयोजन था। सभी प्रधान पुरुष उपस्थित हुए। उचित समय पर आचार्य हेमचन्द्र का भी आगमन हुआ। सभी ने उनका हृदय से स्वागत किया। आचार्य देव योग्य आसन पर आरूढ़ हुए। __ आचार्य ने सभा - सदस्यों को सम्बोधित करते हुए कहा-माता का भोग अवश्य देना चाहिए। बिना भोग दिये काम नहीं चलने का। इस वर्ष पशुओं के साथ मिठाई भी विशेष रूप से चढ़ानी चाहिए। माता को प्रसन्न रखना अत्यन्त आवश्यक है। ___आचार्य देव के भाषण सुनकर मांसभक्षी पुजारियों के हृदय नाचने लगे। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि अहिंसा के परमोपासक आचार्य देव हिंसा का किस प्रकार समर्थन कर रहे हैं। कुछ क्षण रुक कर फिर आचार्य देव ने कहा-बलि देनी चाहिए, परन्तु रक्त से सने हाथों से नहीं। जो माताजी को बकरे आदि चढ़ाना चाहते हैं वे जीवित ही चढ़ावें। माता के मन्दिर में सभी को जीवित ही रख Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा की विजय ८१ दिया जाए। हम लोगों ने इतने समय तक मुर्दों का भोग चढ़ाया है, अब मुर्दों को, नहीं जीवितों का भोग चढ़ाना है । जीवित भोग को प्राप्त कर माताजी अधिक प्रसन्न होंगी । सभी जीवित बकरे माताजी के मन्दिर में पूर दिये गये । रात्रि भर भक्त - गरण मन्दिर के बाहर जागरण करते रहे । सप्तमी का प्रभात असीम उत्कंठा लेकर आया । माता के मन्दिर का द्वार खुला 1 रात्रि में बलि का क्या हुआ, यह देखने के लिए विराट् जन समूह उमड़ पड़ा । द्वार खुलते ही बकरे, बें-बें करते हुए बाहर निकल आये । पूर्ण प्रेम से विभोर होकर कुमारपाल ने माता को नमन किया और प्रजा को सम्बोधित कर कहा - बताइए ! बलि किसको चाहिए ? माताजी को या पुजारियों को ? माता वात्सल्य की मूर्ति है। वह अपने प्यारे पुत्रों को कभी मार नहीं सकती, पुजारी ही अपनी रस-लोलुपता के लिए उन्हें मारते हैं । पुजारियों के चेहरे फीके पड़ गये । कुमारपाल के चेहरे पर अपूर्व प्रसन्नता नाचने लगी । हिंसा पर अहिंसा की यह महान् विजय थी । * Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन दान फ्रांस के मार्सेल्स नगर में ई. स. १७२० में भयंकर प्लेग प्रारम्भ हुआ। मक्खियों की तरह पटापट मानव मरने लगे । श्मशान में मुर्दो के ढेर लगने लगे। न उन्हें जलाने वोला मिलता था और न दफनाने वाला ही। डाक्टरों के सभी उपचार निरर्थक सिद्ध हए । रुग्ण व्यक्तियों को जो डाक्टर देखने जाते वे स्वयं रोग ग्रस्त हो जाते । रोग के निदान के हेतु डाक्टरों की एक विराट सभा हुई। सभी ने एक मत से निर्णय किया-प्रस्तुत रोग सामान्य चिकित्सा से ठीक होने वाला नहीं है। इस रोग से जो व्यक्ति मृत्यु प्राप्त हुए हैं उनके कीटाणुओं की खोज करनी चाहिये तभी रोग का सही निदान हो सकता है । किन्तु जटिल प्रश्न था प्लेग से मृत व्यकति की शल्य चिकित्सा कौन करे ! यह तो साक्षात् मृत्यु को निमंत्रण देना था। सभी को अपना जीवन प्यारा था, कोई भी डाक्टर इस कार्य के लिये प्रस्तुत न हुआ । ८२ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन दान ८३ पर एक युवक डाक्टर खड़ा हुआ, उसका नाम हेनरी गायन था। सभी उसकी ओर आशा से देखने लगे कि यह कौनसी नवीन शोध लाया है । उसने कहा-जब तक हम अपने जीवन का मोह नही छोडेंगे दूसरों को जीवन दान नहीं दे सकेंगे दूसरों को जीवन दान देने के लिये प्रथम स्वयं को जीवन दान देना होगा। हजारों लाखों व्यक्तियों को बचाने के लिये मैं प्रस्तुत हूँ। मेरा यह वसीयतनामा लीजिए-मैं एकाकी हूँ, मेरा कोई परिवार नहीं है । यह मेरी सम्पत्ति प्लेग के रोगियों के उपचार हेतु खर्च करें। वृद्ध डाक्टर उस युवक डाक्टर के साहस को देखकर ठगे से रह गये। वह शीघ्र ही ऑपरेशन खन्ड में गया प्लेग से मृत्यु प्राप्त व्यक्ति की शल्य चिकित्सा की, रोग का सही निदान किया। किन कारणों से प्लेग के जन्तु शरीर पर हमला करते हैं उनकी चिकित्सा किस प्रकार हो सकती है इस पर उस ने टिप्पणियां लिखीं और वे टिप्पणियां रासायनिक द्रव्यों में रखी जिसके स्पर्श करने पर भी रोग का असर ने हो सके। उसने अपना कार्य पूर्ण किया किन्तु उसका सम्पूर्ण शरीर प्लेग से ग्रस्त हो गया। उसके मन में शोध का कार्य पूर्ण कर लेने का सन्तोष था । हेनरी गायन स्वयं मर गया पर प्लेग से मरने वाले हजारों-लाखों व्यक्तियों को जीवन दान दे गया। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ सिर का मूल्य महाराज प्रियदर्शी जितने तेजस्वी सम्राट थे उतने ही प्रकृति से नम्र भी थे। वे जहाँ भी श्रमणों को देखते उनके चरणों में अपना सिर भुका देते । यह बात उनके प्रधान अमात्य यश को पसन्द नहीं थी। उसने एक दिन प्रियदर्शी को नम्रता से निवेदन करते हुए कहा-इन भिक्षुओं में प्रत्येक जाति के साक्षर और निरक्षर सभी प्रकार के लोग होते हैं अतः प्रत्येक के चरणों में नमस्कार करना आपके गौरव के प्रतिकूल हैं । नमस्कार करना ही हो तो किसी योग्य पात्र को करना चाहिये। महाराज प्रियदर्शी उस समय मौन रहे मानो अमात्य की बात उन्होंने सुनी न हो । एक दिन प्रियदर्शी को सूचना मिली कि किसी व्यक्ति ने किसी का सिर काट दिया है। प्रियदर्शी ने उसी समय अपने एक विश्वस्त कर्मचारी को भेजकर वह सिर मंगा लिया साथ ही कसाई खाने से बकरा आदि पशुओं के ८४ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ सिर का मूल्य सिर मंगा लिये गये । तत्पश्चात् अमात्य यश को आदेश दिया कि इन सभी मस्तिष्कों को नगर के मुख्य द्वार पर जाकर बेचो | यश को यद्यपि यह अधम कार्य पसन्द नहीं था तथापि महाराज के आदेश को शिरोधार्य कर वह नगर के मुख्य द्वार पर जाकर बैठ गया । सायंकाल तक पशुओं के सिर बिक गये पर मानव का वह मस्तिष्क किसी ने भी नहीं खरीदा। अमात्य ने बिना मूल्य ही उसे देना चाहा पर उसे लेने को कोई तैयार नहीं हुआ । घृणा से सबने मुंह फेर दिया । सायंकाल अमात्य यश राजप्रासाद में पहुंचा । प्रियदर्शी ने पूछा- क्या सभी सिर बिक गये । नहीं, पशुओं के तो सभी सिर मांसहारी लोग ले गये, पर मानव का सिर बिना मूल्य भी कोई न ले गया । मानव का सिर क्र. र से क्रूर व्यक्तियों को भी पसन्द नहीं है, अमात्य ने अपनी बात पूर्ण की। प्रियदर्शी क्या इसी एक सिर से लोग घृणा करते हैं या सभी मानवों के सिर से लोग घृणा करते हैं ? भगवन् ! इसी मानव के सिर से नहीं । अपितु हर एक मानव के सिर से लोग घृणा करते हैं ? अमात्य ने धीरे से कहा । राजा ने बात को जरा आगे बढ़ाते हुए कहा- कल्पना करो, कभी मेरा सिर कटने का प्रसंग आये तो क्या लोग उसका भी इसी प्रकार तिरस्कार करेंगे ? Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलते चित्रे अमात्य उत्तर देने के पूर्व काँप उठा । स्वेद बिन्दुएँ उसके सिर पर चमकने लगी । ८६ प्रियदर्शी - महामात्य ! घबराओ नहीं, जो सत्य हो उसे प्रकट करो । हाँ महाराज ! बात तो यही है । प्रियदर्शी ने अपनी बात स्पष्ट करते हुए कहा - मरने के पश्चात मेरे सिर की भी यही स्थिति होने वाली है तो फिर जीते जी यदि यह सिर में श्रमरणों के चरणों में झुकाऊ तो उसमें मेरा कौनसा गौरव कम होने वाला है ? इसमें तुम्हें कौनसी बुराई मालूम हुई । जाति से भले ही वे किसी भी जाति में रहे हों, किन्तु वे श्रमण तो हैं ही न ! महामात्य के पास इसका कुछ भी उत्तर नहीं था । *x Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ | उदात्त वृत्ति भारतीय संस्कृति विश्व की एक महान् संस्कृति है । उसकी हजार-हजार विशेषताएँ हैं । विशेषताओं के कारण ही यह संस्कृति विकराल आँधी और तूफान के समय भी जीवित रही है, जब कि अन्य संस्कृतियाँ नष्ट हो गई । मेरी दृष्टि से भारतीय संस्कृति की मूल विशेषता है उसकी उदात्त भावना । अकबर के पुत्र सलीम ने मेवाड़ पर आक्रमण किया । घोड़ों को खाने के लिए चने आदि की आवश्यकता थी । सलीम ने सेनापति को आदेश दिया कि जाओ, खेतों में से हरे चने काट कर ले आओ । अधिकारी कुछ सिपाहियों को लेकर जंगल में पहुँचा । चारों ओर पहाड़ियाँ थी । मध्याह्न का समय था । चिलचिलाती धूप गिर रही थी । इधर-उधर खेत तो दिखलाई दे रहे थे पर कहीं पर भी आदमी दिखलाई नहीं दे रहे थे । चने के खेत कहाँ है यह वह जानना चाहता था । ८७ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ बोलते चित्र इतने में खेत के सन्निकट एक नन्ही सी झोंपड़ी उसे दिखलाई दी। जाकर झौंपड़ी का द्वार खटखटाया। अन्दर से एक वृद्ध किसान बाहर आया । अधिकारी ने कहा-हमारे घोड़ों के लिए चने की आवश्यकता है। हमारे साथ चलो और कोई खेत बताओ। यह सुनते ही वृद्ध किसान का मुंह चिन्ता से पीला पड़ गया। उसने अपनी चिन्ता छिपाते हुए कहा-अच्छा तो तुम मेरे साथ चलो। अधिकारी उस वृद्ध की मनोभावना को जानना चाहता था, पर जान नहीं सका। वह उसी के पीछे-पीछे चल दिया। कुछ दूर जाने पर रास्ते के किनारे ही एक बहुत सुन्दर चने का खेत दिखलाई दिया। अधिकारी ने आदेश दिया-रुक जाओ, आगे जाने की आवश्यकता नहीं है। ये शब्द कर्ण-कुहरों में गिरते ही वृद्ध रुक गया। उसने कहा-यहाँ नहीं, आगे चलिए, इससे भी सुन्दर और बढ़िया खेत दिखलाता हूँ। . अधिकारी ने गरजते हुए कहा-क्या तू मजाक करना चाहता है । जो हमें चाहिए था वह हमें मिल गया है। आगे चलने की आवश्यकता नहीं है ! अब तेरा पथ-प्रदर्शन नहीं चाहिए । तू प्रसन्नता से जा सकता है । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदात्त वृत्ति ८६ वृद्ध ने अपनी दुग्ध धवल दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा-मैं इतना बूढ़ा हो गया हूँ, क्या तुम्हारे साथ मजाक करूगा ? तुम आगे चलो, सुन्दर खेत बताऊंगा। वृद्ध की तेजस्वी वाणी से प्रभावित होकर वे सभी आगे बढे । कुछ दूर जाने पर एक अत्यन्त सुन्दर खेत आया, उसमें चने लहलहा रहे थे, वृद्ध ने उस खेत की ओर संकेत किया और कहा-तुम्हें जितने चने चाहिए इस खेत में से ले सकते हो। . सिपाही खेत में घुसे और कुछ क्षणों में अपनी इच्छा के अनुसार खेत काटकर चने के ढेर कर दिये। जो खेत पहले हरा-भरा दिखलाई दे रहा था वह अब उजाड़ हो गया। विदाई लेते समय अधिकारी ने वृद्ध किसान से पूछापहले हमने जो खेत देखा था, वह नजदीक था। पाक भी अच्छा था, पर तुमने वह पाक हमें नहीं लेने दिया, क्या इसमें तुम्हारा कुछ स्वार्थ था ? किस लिए यहाँ तक खींच लाए ? ___ वृद्ध ने अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा-स्वार्थ तो प्रत्येक वस्तु में रहा हुआ है, भले ही वह देह का न हो आत्मा का हो । पहले जो खेत आपने देखा था वह मेरा नहीं, पडौसी का था। यह खेत मेरा है, इसीलिए मैं आप को यहाँ तक लाया हूं। अधिकारी के आश्चर्य का पार नहीं रहा, कहा-क्या Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलते चित्र यह खेत तुम्हारा है ? किसान ने स्वीकृति सूचक सिर हिलाते हुए कहामुझे मालूम था कि तुम जो भी माल ले जाओगे वह बिना पैसे दिये ले जाओगे। फिर मैं अपने पड़ोसी को हानि में क्यों डालू? मैं साथ में रहूँ और तुम मेरे पड़ोसी को लूटो, इससे तो यही श्रेयस्कर है कि मैं स्वयं लूटा जाऊं। मेरा सर्वस्व लुट गया है तथापि मुझे प्रसन्नता है कि मैं अपने पड़ौसी के प्रति कर्तव्यनिष्ठ रहा हूं। अधिकारी गहराई से सोचने लगा-जिस देश के किसानों में भी इस प्रकार की उदात्तवृत्ति हो उस देश को जीतना कठिन ही नहीं कठिनतर है । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ ३ कुमारपाल को वीरता पूरणराय ने गुजरात की धर्मप्रधान संस्कृति का भयंकर अपमान किया। गुर्जरेश्वर कुमारपाल का खून खौल उठा। उसे अपमान का फल चखाने के लिये, धर्म और संस्कृति की रक्षा करने के लिये वे उत्साह के साथ युद्ध के मैदान में आये । बिजली की तरह तलवारें चमकने लगीं। भाले नृत्य करने लगे । बड़े-बड़े वीरों के भी कदम कुमारपाल का रुद्र-रूप देखकर लड़खड़ाने लगे। विरोधी समझ न सका कि जो पशुओं को पानी छानकर पिलाता है, प्रमार्जनी से जो चींटियों की भी रक्षा करता है, ऐसा दयालु नरसंहारकारी युद्ध में किस प्रकार जूझ रहा है ! उसके प्रबल-पराक्रम को देखकर वह ठगा सा रह गया। उसे विश्वास होगया कि वह युद्ध में कुमारपाल से जीत नहीं सकेगा। तब उसने भेद नीति से काम लिया। कुमारपाल की सेना रिश्वत लेकर पीछे हटने लगी। संध्या का समय हुआ। प्रतिदिन प्रतिक्रमण करना Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ बोलते चित्र कुमारपाल का नियम था। प्रतिक्रमण के बिना वह रह नहीं सकता था। उसने महावत पर दृष्टि डाली। - राजा के अन्तर्मानस को समझने वाले महावत से कुछ भी छिपा न रह सका। उस वृद्ध महावत की आंखों में आंसू आ गये। उसने कहा-राजन् ! इस समय हम आपत्तियों की घड़ी में से गुजर रहे हैं। हमारे सैनिक अपने कर्तव्य को विस्मृत कर चुके हैं। किस ओर से हमारे उपर हमला हो कहा नहीं जा सकता । अतः मेरा निवेदन है कि धर्मक्रियाएंसमरांगण में नहीं किन्तु राजमहल में हो। राजर्षि कुमारपाल ने कहा-महावत यह तो धर्मयुद्ध हैं । लघु से लघु जीव की रक्षा करना मेरा परम कर्तव्य है । मैंने मानवों के सामने तलवार उठाई है उसका मूल कारण अपराधी को यह बता देना है कि मैं कायर नहीं हूँ। जैन अन्याय के सामने घुटने नहीं टेकता। विजय और पराजय जीवन के दो पहलू हैं। मुझे विजय मैं प्रसन्नता नहीं, पराजय मैं खिन्नता नहीं। मैं समय पर अपना धार्मिक कृत्य अवश्य करूंगा। ___उसने हाथी पर बैठे हुए ही सांध्य प्रतिक्रमण किया। प्रतिक्रमण पूरा होने पर पुनः हाथ में भाला लिया और युद्ध करने लगा। उसे युद्ध में वीरतापूर्वक लड़ते देखकर प्रतिकूल बने हुए सैनिक भी अनुकूल हो गये । राजा आगे बढ़ा। कुमारपाल का भाला सीधा ही राजा पूरणराय की छातीपर लगा और वह पृथ्वी पर गिरपड़ा । पूररगराय ने Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ कुमारपाल की वीरता कुमारपाल की। शरण स्वीकार की विजयी राजर्षि कुमारपाल ने उसे अभयदान देकर मुक्त कर दिया। जन-जन के अन्तर्हृदय के तार झनझना उठे-'धन्य ! धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिये युद्ध करने वाले महावीर के परम भक्त गुर्जरेश्वर कुमारपाल की जय ! Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ चाँवल को गर्म करता हूँ क्षितिमोहन बाबू की पत्नी बड़ी उग्र स्वभाव की थी और क्षितिबाबू शरद के चाँद की तरह शीतल थे । वे क्रोध का प्रसंग उपस्थित होने पर भी मुस्कराते रहते थे । एक दिन किसी आवश्यक कार्य में व्यस्त रहने से सायं - काल कुछ विलम्ब से वे घर पर पहुँचे । उनकी पत्नी आग बबूला हो उठी । उनके आते ही गरजते हुए उसने कहातुम तो देश सेवा के पीछे पागल बन रहे हो । भोजन का समय बीत जाता है । भोजन ठंडा हो जाता है तथापि तुम्हें भान नहीं है ! लो अब ठण्डे चावल खाओ । यह कहकर उसने ठण्डे चावल की थाली सामने रख दी । क्षितिबाबू ने मुस्कराते हुए थाली हाथ में ली वे उसे पत्नी के सिर पर रखने लगे । पत्नी ने पूछा- यह क्या कर रहे हो ? बाबू ने उसी प्रकार हँसते हुए कहा- जरा भात गरम ६४ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ चाँवल को गर्म करता हूँ कर रहा हूँ । तुम्हारे सिर में इतनी गर्मी है कि सारा मुंह तुम्हारा लाल सुर्ख हो रहा है, तो क्या मेरा भात गर्म नहीं होगा ! पति के प्रेम से पगे हुए शब्दों को सुनकर पत्नी पानीपानी हो गई । कपूर की तरह उसका क्रोध उड़ गया । उसने उसी समय मन ही मन प्रतिज्ञा ग्रहण की कि मैं भविष्य में कभी क्रोध नहीं करूंगी । क्रोध को क्षमा से जीतो । क्रोध यदि ज्वाला है तो क्षमा वह जलधारा है जो उसे शान्त कर देती है । रक्त से सने हुए वस्त्र रक्त से नहीं, पानी से ही साफ होंगे । * Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ | वाणी की महत्ता एक युवक सम्राट् ने प्रातःकाल के समय स्वप्न देखा कि उसके सभी दाँत गिर गये हैं । स्वप्न देखते ही सम्राट् उठ बैठा ! वह मन ही मन सोचने लगा- यह तो बड़ा अशुभ स्वप्न है । दाँत गिर जाने से तो मुंह की शोभा हो नष्ट हो जाती है । उसने उसी समय स्वप्न - विशेषज्ञों को बुलाया। दो महान् स्वप्न शास्त्र के ज्ञाता पण्डित राजसभा में उपस्थित हुए । राजा ने उनके सामने स्वप्न की बात कही । एक स्वप्न विशेषज्ञ ने कहा- यह स्वप्न तो बहुत ही भयंकर है, आपके दाँत गिर जाने का अर्थ है - आपका सम्पूर्ण परिवार मृत्यु के शररण हो जाय । आप अपनी आँखों से टुकुर-टुकुर देखा करेंगे और आपके परिवार के सदस्य दनादन मरते जायेंगे आप उनकी रक्षा नहीं कर सकेंगे । स्वप्न विशेषज्ञ की बात सुनकर सारी सभा में ६६ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ वारणी की महत्ता सन्नाटा छा गया। राजा का मुख म्लान हो गया। दूसरे स्वप्न विशेषज्ञ की ओर राजा ने देखा। उसने कहा-राजन् ! मैं इस स्वप्न के सम्बन्ध में गहराई से चिन्तन करूंगा और इसका फलादेश कल बताऊँगा। दूसरे दिन ठीक समय पर वह राजसभा में उपस्थित हुआ। उसने मधुर वाणी से राजा को सम्बोधित कर कहा-राजन् ! इस स्वप्न के सम्बन्ध में आपके मन में जो गलत धारणा हो गई है वह मन से निकाल दीजिए। यह स्वप्न आपके दीर्घ आयुष्य का प्रतीक है। आप लम्बे समय तक शासन करेंगे । आपके परिवार का कोई भी सदस्य आपको अपने सामने मरते हुए नहीं देखेगा। आपकी उम्र खूब लम्बी है। दीर्घायुष्य ही स्वप्न का फलादेश है। फलादेश को सुनकर राजा प्रसन्न हुआ। राजा ने प्रसन्नता से उसे पुरस्कार दिया । विद्वान वाणी की महत्ता के सम्बन्ध में सोच रहे थे। फलादेश एक ही होने पर भी वाणी के विवेक से एक को पुरस्कार मिला और दूसरे को तिरस्कार मिला। ____ मानव की वाणी में एक अनोखा जादू है । वह अमृत को जहर बना देता है और जहर को अमृत । जो मानव वाणी की महत्ता को समझ लेता है वह नरक सदृश संसार को भी स्वर्ग बना लेता है । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ 1 तृष्णा रात्रि का समय था । चारों ओर गहरा अंधकार छाया हुआ था । आकाश में उमड़ घुमड़ कर घनघोर घटाएं आ रही थीं और गंभीर गर्जना कर हजार-हजार धारा के रूप में बरस रही थीं । सन्- सन् करता हुआ तेज पवन चल रहा था । राजगृह की सड़कें और गलियां पानी से भर गई थीं । Am महाराजा श्रेणिक और महारानी चेलना राजप्रासाद के गवाक्ष में बैठे हुए वर्षा को देख रहे थे। बिजली चमकी, उसके निर्मल प्रकाश में महारानी चेलना ने देखा - कुछ ही दूरी पर एक वृद्ध पानी में खड़ा थर्थर् काँप रहा है और पानी में से लकड़ियाँ खींच रहा है। रानी के आश्चर्य का पार न रहा । ऐसे समय में यह व्यक्ति क्या कर रहा है । महारानी ने आक्षेप की भाषा में कहा- राजन् ! देख लिया आपका कल्याणकारी राज्य । एक ओर गगनचुम्बी अट्टालिकाओं में विराट् वैभव अठखेलियां कर रहा है, ६८ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृष्णा ६९ दूसरी ओर देखिये उस व्यक्ति को तन ढकने के लिए वस्त्र नहीं है । पेट भरने के लिए इस काल-रात्रि में वह मजदूरी कर रहा है । इसे कल्याणकारी राज्य कहा जाय या काल-राज्य ? मगधराज श्रेणिक महारानी के कथन को न समझ सका कि वह किस वृद्ध व्यक्ति के सम्बन्ध में कह रही है। उसी समय पुनः बिजली चमकी। महारानी ने पानी में से लकड़ियां निकालने वाले व्यक्ति की ओर संकेत किया। ___ महाराजा ने उसी समय द्वारपाल को बुलाया और कहा-जो व्यक्ति पानी में खड़ा लकड़ियां निकाल रहा है उसे बुलाकर लाओ। द्वारपाल ने उस वृद्ध व्यक्ति को उपस्थित किया, जिसके शरीर पर लज्जा निवारण के लिये केवल कौपीन मात्र वस्त्र था। राजा श्रेणिक ने पूछा-आयुष्मन् ! तुम कौन हो? क्या उदर पूर्ति के लिये तुम्हारे पास अन्न नहीं है ? तुम अर्धरात्रि में, भयंकर वर्षा में इतना श्रम क्यों कर रहे हो ? वृद्ध ने सभ्यता से नमस्कार करके कहा-राजन् मेरे पास अन्न तो बहुत है पर एक कमी है जिसके लिए मुझे रात दिन श्रम करना पड़ता है ! राजा-वह क्या है ? वृद्ध-राजन् ! मेरे पास एक बहुत सुन्दर बैल है, किन्तु दूसरा बैल न होने से जोड़ी अधूरी है । उसकी पूर्ति Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० बोलते चित्र के लिए रात को नदी में चन्दन की जो लकड़ियाँ आती हैं । उन्हें इकट्ठी करके बेचता हूँ । राजा ने आदेश दिया - बैल - शाला में से बढ़िया से बैल, जो इस वृद्ध को पसन्द हो, दे दिया जाय । और प्रातः काल पुनः मेरे सामने इसे उपस्थित किया जाय । प्रातःकाल होने पर वृद्ध को राजा श्रेणिक के सामने उपस्थित किया गया । राजा ने वृद्ध से पूछा- तुन्हें बैल मिल गया ? उसने कहा- राजन् ! मेरे जैसा बैल आपकी बैलशाला में नहीं है । राजा को आश्चर्य हुआ— मेरी बैल शाला में इसके बैल जैसा बैल नहीं है । श्रेणिक ने कहा - अच्छा, तो तुम अपना बैल दिखाओ ! वृद्ध - राजन् ! मेरा बैल यहाँ आ सकता नहीं । यदि आपको देखना है तो मेरी झौंपड़ी पर पधारिए । राजा बैल को देखने की भावना से उसके साथ चल दिया । सात मंजिल का एक भव्य भवन आया । उस वृद्ध ने कहा – मेरी यही झोंपड़ी है । राजा उसके पीछे-पीछे चलता हुआ सातवें मंजिल पर पहुँचा, उसने वस्त्र से आच्छादित रत्न जड़ित एक स्वर्ण बैल दिखलाया । उसमें बहुमूल्य रत्न जगमगा रहे थे । राजा तो ठगा सा रह गया । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृष्णा १०१ उस वृद्ध ने कहा-इसमें छप्पन करोड़ के रत्न हैं। दूसरा बैल उसी तरह का था, पर उसमें रत्न अपूर्ण जड़े हुए थे। राजा सोचने लगा-मेरे खजाने में भी ऐसे बहुमूल्य रत्न नहीं हैं । ऐसे रत्नों का स्वामी होकर भी चन्दन की लकड़ियाँ चुनने के लिए यह आधी रात में श्रम करता है। उसी समय श्रेणिक को भगवान् महावीर के मंगलमय वचन स्मरण हो आये कि तृष्णा आकाश के समान अनन्त है । उसकी पूर्ति कभी सम्भव नहीं है । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ प्राणोत्सर्ग कपिलवस्तु पर श्रावस्ती के राजा विड्डभ ने आक्रमरण किया। उसके भय से कपिलवस्तु का अग्रणी भाग गया। विजयी राजा विड्डभ ने किले को तोड़कर नगर में प्रवेश किया। उसने सैनिकों को आदेश देते हुए कहाआज का सुनहरा दिन विश्वासघात और अपमान का बदला लेने का है। तुम जितनी भी सम्पत्ति लूट सको, लूटो । कोई व्यक्ति तुम्हारे कार्य में विघ्न उपस्थित करता है तो उसे मार दो, यही विजयोत्सव है। कपिलवस्तु के महानाम ने सुना। वह चिन्तन करने लगा, सत्ता और सम्पत्ति के लिए मानव किस प्रकार दानवीय कृत्य करने को प्रस्तुत हो जाता है ! मैं नगर निवासियों का करुण-क्रन्दन सुन नहीं सकता। उसे कुछ स्मरण आया और वह सीधा ही राजा के पास पहुँचा। राजा ने महानाम का स्वागत किया और उसे बैठने के लिए योग्य आसन भी दिया। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणोत्सर्ग १०३ महानाम ने पूछा-राजन् ! क्या आप मुझे पहचानते हैं ? राजा-महानाम ! आपको कौन नहीं पहचानता ? ज्ञान की दृष्टि से, चारित्र की दृष्टि से, संस्कार और सभ्यता की दृष्टि से आप सभी नगरजनों में महान् हैं। एतदर्थ ही पौरजन आपको महानाम से सम्बोधित करते हैं । कपिलवस्तु के निवासियों की तरह मैं भी आपका हृदय से स्वागत करता हूं। महानाम-राजन ! मैं यह जानना चाहता हूं कि आपका और मेरा कुछ सम्बन्ध है ? राजा ने अतीत की गहराई में प्रवेश किया। उसे स्मरण आया-श्रावस्ती के राजा प्रसेनजित ने कपिलवस्तु से एक कन्या की याचना की थी। अभिमानी नागरिक इन्कार हो गए थे। वातावरण युद्ध में परिवर्तित होने वाला था । उस समय इस महानाम ने अपनी दासी पुत्री देकर प्रसेनजित के क्रोध को शान्त किया था। उसी दासी पुत्री का पुत्र मैं हूँ । जब मैं अवस्था में छोटा था तब ननिहाल आया था। तब महानाम ने मुझे एक वर्ष तक का अध्ययन कराया था । सम्बन्ध की दृष्टि से ये मेरे नाना हैं । और अध्ययन कराने की दृष्टि से मेरे विद्या गुरु हैं । इस प्रकार इनके साथ मेरे दो सम्बन्ध हैं। विडम ने कहा-आपके साथ मेरे दो सम्बन्ध हैं-नाना और विद्या गुरु का। ___ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ बोलते चित्र महानाम-राजन् ! मैं यही बात तुम्हें स्मरण कराने के लिए आया था। विद्याभ्यास की पूर्णाहुति पर तुमने मुझे गुरुदक्षिणा के लिए कहा था। उस समय मैंने कहा था-तुम अभी अपने पास ही रखो, जब मुझे गुरुदक्षिणा की आवश्यकता होगी, माँग लूंगा।। . राजा--मैं समझ गया । आप न माँगे तो भी मैं देने के लिए प्रस्तुत हूं। आप निरिंचत रहें। राजा ने उसी समय सेनापति को बुलाकर आदेश दिया-लूटने वाले सैनिक कहीं महानाम के घर पर न पहुँच जाएँ, यह ध्यान रखना। ये गुरुदक्षिणा माँगने आये हैं अतः इनकी रक्षा करना मेरा परम पवित्र कर्तव्य है। कपिलवस्तु पर मेरा पुराना वैर है, उसका बदला अवश्य लिया जाय पर महानाम का घर पूर्ण रूप से सुरक्षित रहे। महानाम ने बीच में ही बात काटते हुए कहाराजन् ! मैं ऐसा स्वार्थी नहीं हूँ। मैं अपने घर के लिए नहीं, नगर निवासियों के लिए अभय चाहता हूँ। गुरुदेव ! आप मिथ्या आग्रह न करें। जिस अपमान की आग में मैं वर्षों से झुलस रहा हूँ वह आग नगरनिवासियों को झुलसा कर ही शान्त होगी–विडुभ ने अपनी बात का स्पष्टीकरण करते हुए कहा महानाम-मैं यह हत्याकांड देख नहीं सकता। मेरे खातिर ही यह बंद कर दो। राजा--गुरुदेव ! मुझे स्मरण है कि आप जलक्रीड़ा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणोत्सर्ग १०५ बहुत ही सुन्दर करते हैं। आप इस तालाब में जब तक डुबकी लगाकर पानी के अन्दर रहेंगे तब तक कोई भी सैनिक लूट-पाट व हत्या नहीं करेगा। जो नगर को छोड़कर भागना चाहेगा उसे सहर्ष भागने दिया जायेगा। कहिए आपको यह स्वीकार है ? महानाम-हाँ, मुझे स्वीकार हैं। जितना रक्तपात कम हो, उतना ही अच्छा । उसे स्मरण आया-एक दिन महापुरुष ने कहा था-पानी दूसरों की प्यास बुझाता है, फल दूसरों की भूख मिटाते हैं, वृक्ष दूसरों को छाया देते हैं, चन्दन घिसा जाकर भी दूसरों को शीतलता देता है । गन्ना पीला जाकर भी रस देता है, पर मानव क्या देता है ? आज कपिलवस्तु के नागरिकों के लिए मुझे भी जीवनदान देना है। राजा विड्डम ने सोचा-यह वृद्ध आठ दस क्षण श्वासोच्छ वास को रोक सकेगा। तब तक नागरिक कहाँ तक भाग सकते हैं । गुरुदेव के वचन का भी पालन होगा और मेरी वैर-अग्नि भी शान्त हो जायेगी और राजा ने घोषणा की कि जहाँ तक महानाम जल में डुबकी लगा कर रहेंगे वहाँ तक सभी को अभयदान दिया जाता है। ___सैकड़ों पौरजन महानाम के पास आकर खड़े हो गये । महानाम ने पानी में प्रवेश किया। सभी लोग टकटकी लगाकर देख रहे थे कि महानाम अभी बाहर निकलें, अभी बाहर निकलें। पर घण्टे के घण्टे व्यतीत हो गए, Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ महानाम बाहर नहीं आये | विभ और उसके सैनिक चकित हो गए। विभ को निश्चय हो गया मेरे गुरु, नाना ने कपिलवस्तु की रक्षा के लिए अपने प्रारण समर्पित कर दिये हैं । बोलते चत्र आज्ञा पाकर सैनिक तालाब में घुसे महानाम का मृत देह तालाब में जो कीर्तिस्तंभ था उसके साथ उत्तरीय वस्त्र से बंधा हुआ था । वे शव को लेकर बाहर आये । सभी के हृदय की वीणा के तार झनझना उठे - धन्य हैं महामना महानाम, जिन्होंने अपने आपको समर्पित कर नगर की रक्षा की है । हजारों-लाखों के प्राण बचाए ! * Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन का उपयोग मध्याह्न का समय था । चिलचिलाती धूप गिर रहीं थी। आवश्यक सामान लेकर महा कवि कालिदास बाजार से लौट रहे थे । उन्होंने देखा-सामने से एक गरीब व्यक्ति आ रहा है । उसके पैरों में जूते नहीं हैं । तप्त तवे सी भूमि पर वह कभी दौड़ रहा है, कभी छाया में रुक रहा है, कभी लड़खड़ाते कदमों में चल रहा है। उस दीन की दयनीय अवस्था देखकर कवि का कोमल मानस करुणा से आप्लावित हो गया। उन्होंने उसी समय अपने पैर के जूते खोले और उस गरीब को दे दिये। ___ गरीब व्यक्ति ने बड़ी विनम्रता के साथ कहा-मैं इस समय आप के जूते नहीं ले सकता क्योंकि आपको भी इस कड़ी धूप में बिना जूते चलने से कष्ट होगा। ___ कवि-आप मेरी विन्ता न करें, मेरा घर बहुत ही नजदीक है । आप जूते ले लीजिए। आप न लेंगे तो भी अब मैं इन्हें नहीं पहनूंगा । नंगे पैर चलकर देखूगा कि उज्जयिनी १०७ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ की गरीब जनता किस प्रकार चलती है । वह गरीब व्यक्ति जूते पाकर प्रसन्न हुआ और आगे चल दिया । बोलते चित्र कालिदास ने तपी हुई जमीन पर ज्यों ही पैर रखा, पैर मुँह बोलने लगे । फिर भी मन में प्रसन्नता थी । राज कवि कुछ दूर चला ही था कि राजा का हाथी सामने आकर खड़ा हुआ । महावत ने कहा —— कविवर ! इस समय नंगे पैर आप चल रहे हैं ? हाथी पर बैठिए, मैं आपको घर तक पहुँचा देता हूँ । कवि - तुम अपने कार्य के लिए जाओ, मैं चला जाऊँगा । महावत ने कहा- ऐसा नहीं हो सकता । आपको बैठना ही होगा । अन्त में महावत के अत्याग्रह से कवि को हाथी पर बैठना पड़ा । हाथी राजमहलों के सन्निकट पहुँचा गवाक्ष में बैठे हुए महाराजा भोज ने देखा, कवि कालिदास हाथी पर बैठकर आ रहे हैं । उन्होंने पूछा - कविवर, हाथी कहां से मिल गया ? कवि ने मुस्कराते हुए कहा - मैंने पुराने फटे हुए जूते का दान दिया । उसके पुण्य फलस्वरूप हाथी की यह सवारी मिली है । जिसने धन का दान नहीं किया उसका धन निरर्थक है । Xx Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ | सर्वश्रेष्ठ शास्ता पाटलीपुत्र के नागरिक आनन्द से झूम रहे थे क्योंकि आज सम्राट् अशोक का जन्म दिन था । नगर की सड़कें ही नहीं, गलियाँ भी साफ की गई थीं । मकान सजाए गए थे । स्थान-स्थान पर मालाएँ लगाई गई थीं, द्वार बनाए गए थे, नगर में सर्वत्र चहल-पहल थी । सभी लोग महाराजा का अभिनन्दन करने के लिए राजप्रासाद की ओर बढ़े जा रहे थे । महाराजा प्रियदर्शी अशोक ने उद्घोषणा कीप्रान्तीय शासक अपना-अपना कौशल प्रस्तुत करेंगे और जो सर्वश्रेष्ठ प्रतीत होगा उसे 'सर्वश्रेष्ठ शास्ता' उपाधि से विभूषित किया जायेगा । सभागृह दर्शकों से खचाखच भर गया । सभी देखना चाहते थे कि कौन सर्वश्र ेष्ठ शास्ता है । भारत के विविध अंचलों से शासक आये और अपने-अपने स्थान पर आसीन हो गए । राजसी वेशभूषा धारण कर, राज- मुकुट १०६ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० बोलते चित्र को पहन कर प्रियदर्शी अशोक भी राज-सिंहासन पर आसीन हुए। ___ सम्राट के सामने सभी शासकों ने क्रमशः अपने कार्य का विवरण सुनाना प्रारम्भ किया। उत्तर प्रान्त के शासक ने बताया-मैंने टैक्स लगाकर आयात-निर्यात प्रभृति साधन-स्रोतों के द्वारा राज्य की आमदनी तीन गुनी बढ़ायी है और आय के ऐसे स्रोत भी अन्वेषरण किए हैं, जिससे प्रतिवर्ष उसमें अभिवृद्धि होती रहेगी। दक्षिण के शासक ने निवेदन किया--स्वर्ण की खदानों में नौकरों से अधिक कार्य लिया गया है, जिससे गत वर्ष की अपेक्षा दूना सोना एकत्रित हुआ है। टैक्स भी लगाए हैं ! इससे भी आमदनी में अभिवृद्धि हुई है। पूर्व-प्रान्तीय अधिकारी ने कहा-जो शत्रु हमारी सीमाओं का अतिक्रमण करते थे। उन्हें हमने अपनी शक्ति से इस प्रकार परास्त कर दिया है कि वे वर्षों तक सामने खड़े नहीं हो सकते।। पश्चिमी सीमान्त प्रदेश के शासक ने कहा-हमने इस वर्ष टैक्स ही नहीं बढ़ाए, अपितु अधिकारी और राजकर्मचारियों का वेतन भी कम कर दिया जिससे अन्य प्रान्तों की अपेक्षा हमारे शासन को अधिक अर्थलाभ हुआ है। अन्त में मगध के शासक खड़े हुए। उन्होंने कहा-इस Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वश्रेष्ठ शास्ता १११ वर्ष आय की दृष्टि से राज्य कोष काफी घाटे में रहा है, क्योंकि हमने प्रजा की सुख सुविधा के लिए कर कम कर दिये । अधिकारियों का वेतन बढ़ा दिया गया । स्थानस्थान पर पाठशालाएं, तालाब, कुए, नहरें और धर्मशालाएं बनवाई, चिकित्सालय खोले हैं। आय का अधिकांश भाग जन-जन के हित के लिए अर्पित किया गया है । प्रजा अधिक से अधिक सुखी हो, इस ओर ध्यान दिया गया है । प्रियदर्शी अशोक सम्राट् ने सभी का विवरण सुनने के पश्चात कहा- मुझे राज्य कोष में ऐसा धन नहीं चाहिए जो दीन-हीन प्रजा को पीड़ित कर प्राप्त किया गया हो । जिन शासकों ने प्रजा का शोषण किया है उन्हें मैं अच्छा नहीं मानता । मगध सम्राट् ने इस वर्ष सर्वश्रेष्ठ शास्ताका कार्य किया है अतः उन्हें 'सर्व श्र ेष्ठ शास्ता' की उपाधि से सम्मानित करता हूँ । x Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धि का चमत्कार सिद्धराज जयसिंह के बाल्यकाल की एक प्रेरक घटना है। सिद्धराज के पिता कर्णदेव, जब सिद्धराज तीन वर्ष के थे, तभी परलोक वासी हो चुके थे । माता मीनल देवी राज्य का सम्पूर्ण कार्य चलाती थी। सिद्धराज यद्यपि बालक था तथापि उसकी प्रतिभा की तेजस्विता से सभी परिचित थे । दिल्ली के बादशाह ने सुना । उन्होंने मीनल देवी को सूचना दी कि आपका पुत्र अब बड़ा हो चुका है, देखना चाहते हैं । आप उसे दरबार में भेजिये । मीनलदेवी को चिन्ता हुई-सिद्धराज अभी बालक है। न जाने बादशाह क्या पूछे ! यह उन का उतर किस प्रकार दे सकेगा। मीनलदेवी ने उसे अपने पास बिठाकर अनेक प्रकार की शिक्षाएं दी और कहा यह प्रश्न आए तो इस प्रकार उत्तर देना। यदि ऐसा प्रश्न आये तो इस प्रकार का ११२ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धि का चमत्कार जबाब देना । बहुत देर तक सिद्धराज सारी बातें सुनता रहा। अन्त में उसने अत्यन्त नम्रता के साथ कहा-माताजी यदि इन प्रश्नों के अतिरिक्त दूसरे प्रश्न मेरे सामने आये तो उनका उत्तर किस प्रकार देना ? ___माता ने कहा-पुत्र, उस समय अपनी बुद्धि से विचार कर उत्तर देना। सिद्धराज-फिर माताजी, आप इतनी चिन्ता न करें। जब मुझे अपनी बुद्धि से ही समयोचित उत्तर देना है तो आप चिन्ता न करें। सिद्धराज अपने सामन्तों के साथ दिल्ली के दरबार में पहुंचा। उसके दिव्य और भव्य रूप को देखकर सभी चकित हो गए। सिद्धराज बादशाह के पास जाकर ज्यों ही प्रणाम करने लगा त्यों ही बादशाह ने उस के दोनों हाथ अपने हाथ में पकड़ लिये । कहा-मैंने तुझे पकड़ लिया है, अब बता तू क्या कर सकता है ? सिद्धराज ने चट से उत्तर दिया-सम्राट् प्रवर ! अब मैं सब कुछ कर सकता हूँ, क्योंकि हमारे देश में वर कन्या का एक हाथ पकड़ता है तो उसे जीवन भर निभाता है। उसे किसी भी प्रकार का कष्ट न हो, इसका ध्यान रखता है । वह उसके घर की मालकिन होती है। उसकी सम्पूर्ण जबावदारी उस पर होती है। जब एक हाथ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलते चित्र पकड़ने वाले की यह स्थिति होती है तो आपने तो मेरे दोनों हाथ पकड़ लिए हैं ! इसलिए मेरी सम्पूर्ण जिम्मेदारी आप पर आगई है और मैं चिन्ता से मुक्त हो गया हूँ। बादशाह सिद्धराज का उत्तर सुनकर बहुत ही प्रसन्न हआ और उसे प्रेम व सम्मान के साथ विदा कर दिया। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पत्ति का विभाग नवद्वीप में दो भाई रहते थे-रायमरिण और घुमरिण । दोनों प्रकाण्ड पण्डित थे। उनके पास सरस्वती ती थी और लक्ष्मी भी अठखेलियाँ कर रही थी। __एक दिन रायमणि ने अपने लघुभ्राता रघु से कहा ब सम्पत्ति के विभाग कर लिये जायें तो अच्छा है । ___ रघु ने निवेदन किया-भाई ! आप यह क्या कह हे हैं । मूर्ख जन सम्पत्ति के प्रलोभन में पड़कर अलगलग हो जाते है, पर हम तो पण्डित कहलाते हैं। हमारे लए अलग होना शोभास्पद नहीं है। __रायमणि ने प्रेम से कहा-भैया ! तुम मेरा अभिप्राय हीं समझे । हम दोनों अलग होना नहीं चाहते हैं, पर नो सम्पत्ति है वह लड़कों को अपने हाथ से बाँट दें ताकि । भविष्य में सम्पत्ति को लेकर झगड़ा न करें। रायमणि के तीन पुत्र थे और रघुमरिण के एक लड़का ११५ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ बोलते चित्र था । राम ने सम्पूर्ण सम्पत्ति के दो विभाग किये। एक विभाग में अपने तीन पुत्र थे और दूसरे विभाग में रघु का एक पुत्र था । रघुमरिण इस विभाग को देखकर प्रसन्न होने के बजाय नाराज हो गया । उसने कहा- भाई ! तुमने यह क्या किया ! हम दोनों भाई तो अलग हो नहीं रहे हैं । हम अलग होते तो दो विभाग करना उचित था, पर हम तो पुत्रों को सम्पत्ति बाँट रहे हैं, अतः चार समान विभाग किये जाएँ और चारों में बाँट दिए जाएँ । रघु ने चार विभाग किये और चारों को बाँट दिये । कहाँ एक-एक पैसे के लिए आपस में लड़ने वाले भाई और कहाँ अपने हिस्से की सम्पत्ति को भी अपने भाई के लड़कों को देने वाले भाई ! * Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह कैसा भोजन ? सम्राट सिकन्दर की विशाल सेना शत्रुओं को परास्त करती हुई आगे बढ़ रही थी। उसने तुर्किस्तान की सीमा में प्रवेश किया। तुर्किस्तान के बादशाह को यह समाचार मिला। मन्त्रियों ने बादशाह से निवेदन किया कि हमें उसका प्रतिकार करना चाहिए। दुश्मन की सेना को भगाना हमारा कर्तव्य है। हमें युद्ध करने के लिए सभी प्रकार की खाद्य व सैन्य सामग्री तैयार कर लेनी चाहिए। तुर्किस्तान के बादशाह ने कहा-आप किसी प्रकार की चिन्ता न करें। मुझे सभी मालूम है। . अन्त में सिकन्दर की वह विशाल सेना बिना प्रतिकार आगे बढ़ती तुर्किस्तान की राजधानी में आगई ! तुर्किस्तान के बादशाह ने सिकन्दर का प्रेम से स्वागत किया। दोनों आपस में प्रेम से मिले । न सिकन्दर ने युद्ध के लिए कहा और न तुर्किस्तान के बादशाह ने ही। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ बोलते चित्र विदाई-समारोह का आयोजन किया गया । तुर्किस्तान के बादशाह ने सिकन्दर को भोजन के लिए निमन्त्रण दिया । सिकन्दर ने स्नेह से उसके निमंत्रण को स्वीकार किया। दूसरे दिन नगर के मध्य में एक विशाल व कलात्मक पण्डाल बनाया गया और सभी अधिकारियों के लिए अनुक्रम से आसन बिछाये गये । भोजन के समय पर सिकन्दर ने अनुचरों के साथ प्रवेश किया। सोने के थाल सजाये हुए थे । रंग विरंगे रूमाल उन पर ओढ़ा रखे थे । ज्यों ही रूमाल हटाये गये । सिकन्दर ने देखा-उसका थाल हीरों, पन्नों माणक और मोतियों से जगमगा रहा है । अन्य सेनापतियों की थालियाँ सोने और चाँदी से भरी हुई हैं। सम्राट सिकन्दर का चेहरा क्रोध से लाल हो गया। यह भोजन है या भोजन के नाम पर मजाक है ? । तुर्किस्तान के बादशाह ने शान्ति से कहा-आप क्रोध न करें, आप जिस भोजन की इच्छा करते थे वही भोजन मैंने आपको रखा है । अन्न के भोजन की तो ग्रीस में भी कमी नहीं थी, पर इस भोजन के लिए ही आपको यहाँ तक आने का कष्ट करना पड़ा है । आपने इस भोजन को पाने के लिए ही इतने कष्ट सहन किये हैं। सिकन्दर के पास इसका कोई उत्तर नहीं था । वह बिना युद्ध किये ही उलटे पैरों ग्रीस लौट गया। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ जीवन समर्पण भारतीय संस्कृति में अतिथि को देव माना है'अतिथि देवो भव' के रूप में उसकी उपासना की है। नालंदा विश्वविद्यालय के मेधावी विद्यार्थी अपने प्यारे अतिथि ा . ऐन. संग को विदाई देने के लिये साथ जा रहे थे । सभी नौका में बैठे हुए थे । नौका सिन्धु नदी को पार कर रही थी। सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, दार्शनिक चर्चाएँ चल रही थीं। उसी समय एक भयंकर तूफान आया। नौका डगमगाने लगी। कुशल नाविक ने अनेक प्रयत्न किये पर कोई भी प्रयत्न सफल न हो सका। ___ अन्त में नाविक ने कहा-नौका में वजन अधिक है। वजन की अधिकता से अब यह नदी में डूब जायेगी। चीनी यात्री ह्य. एन. संग ने भारत के विविध अंचलों में से अप्राप्य छह सौ सत्तावन पुस्तकें और तथागत बुद्ध की ढाई सौ चन्दन, सुवर्ण, चांदी, कांस्य व संगमर्मर की कलात्मक प्रतिमाएँ एकत्र की थी जिससे ११६ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० बोलते चित्र नौंका पूर्ण भरी हुई थी। तूफान उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा था। नाविक ने कहा-जरा इस निरर्थक भार को कम करो, वर्ना नौका डूब जायेगी। भार कम होने पर शायद नौका किनारे लग जाए। नाविक ने एक गठडी नदी में डालने के लिए उठाई किन्तु चीनी यात्री ने उसे रोकते हुए कहा-भाई ! इसे न डालो। भारत में फिर कर मैंने यह अनमोल सामग्री अपने देशवासियों के लिए एकत्र की है। यह साहित्यसंस्कृति की महान् धरोहर है। इसके सामने मेरे देह का कुछ भी मूल्य नहीं है। यह संस्कारी साहित्य जहाँ भी रहेगा वहाँ के देशवासियों के जीवन का नव-निर्माण करेगा। नाविक और चीनी यात्री के वार्तालाप को नालंदा विश्व विद्यालय के विद्यार्थियों ने सुना। इस सांस्कृतिक धरोहर के लिए यदि हमारे सामने यह अतिथि अपने प्राण समर्पित करता है तो हमारे लिए अत्यन्त लज्जा की बात है । उन विद्यार्थियों ने आँख के संकेत से परस्पर बात करली। उसी समय एक तेजस्वी विद्यार्थी खड़ा हुआ। उसने दोनों हाथ जोड़कर कहा-'भदन्त ! आपने भारत में भ्रमण कर जो बहुमूल्य सामग्री एकत्र की है, वह भार के कारण नष्ट हो जाय, यह हमारे लिए लज्जा की बात Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन समर्पण १२१ होगी। आप इस महान् निधि को अपने देश में ले जाइए।' इस प्रकार कहकर वह युवक सिन्धु में गिर पड़ा ! उसके गिरने के साथ ही दूसरे युवक विद्यार्थी भी कूद पड़े । विद्यार्थियों को इस प्रकार प्राण समर्पित करते देखकर चीनी यात्री की आँखों से आँसू टपक पड़े। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुनाह अमेरिका डन्कर्क नामक शहर का न्यायाधीश रेमंड एक दिन अपनी कार में बैठकर किसी अत्यन्त आवश्यक कार्य के लिये जा रहा था। मार्ग में एक मोड़ पर सैकड़ों गाड़ियों की भीड़ लगी हुई थी। नियम के अनुसार क्रमशः गाड़ियां पार होनी चाहिये किन्तु उसमें अत्यधिक समय लगने की संभावना थी । अतः न्यायाधीश के ड्राइवर ने अपने बुद्धि कौशल से अन्य गाड़ियों से अपनी कार आगे निकाल दी। न्यायाधीश समय पर पहुँच गये । ___कार्य समाप्त कर वे पुनः लौटे रहे थे कि ड्राइवर ने निवेदन किया-अमुक स्थल पर जाते समय अत्यधिक भीड़ थी मैंने आप को शीघ्र पहुँचाने के लिए दूसरी गाड़ियों को पीछे कर अपनी गाड़ी को आगे लेकर कानून भंग किया है। ड्राइवर की यह बात न्यायाधीश को ज्ञात नहीं थी। १२२ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ गुनाह उन्होंने एक क्षण सोच कर कहा- तो गाड़ी पुलिस थाने पर ले चलो । न्यायाधीश के आदेशनुसार कार पुलिस थाने पर ले जाई गई । न्यायाधीश ने पुलिस अधिकारी के हाथ में पाँच डालर देते हुए कहा- मुझे मालूम नहीं था, मेरे ड्राइवर ने कानून भंग किया है । यह मेरा व्यक्ति है, अतः दण्ड रूप में मैं पाँच डालर दे रहा हूँ । न्यायाधीश की न्यायनिष्ठा देखकर पुलिस का अधिकारी चकित हो गया । उसने कहा- आप की बात सत्य है, पर पुलिस ने आपको गुनेहगार नहीं ठहराया है । फिर आप स्वयं दण्ड भरने का आग्रह क्यों कर रहे हैं। न्यायाधीश ने कहा - भले ही सरकारी पुलिस ने मुझे नहीं पकड़ा है किन्तु अन्दर की पुलिस, जो अन्तरात्मा है, उसने तो मुझे पकड़ा ही है । जो बाहर देखा जाय वही गुनाह है यह परिभाषा मुझे स्वीकार नहीं है । पुलिस अधिकारी का मस्तिष्क न्यायाधीश की बात को सुनकर श्रद्धा से झुक गया । ¤ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ विकास का मूल डुमरावन के महाराजा को एक दिन जयप्रकाश ने कहा-मैं आपके पुत्रों को हिन्दी पढ़ाने के लिए अत्यधिक श्रम करता हूं तथापि वे पढ़ते नहीं हैं। यदि वे पढ़ना नहीं चाहते हैं तो मैं व्यर्थ ही पच्चीस रुपये वेतन के रूप में क्यों लू ! इससे तो अच्छा है कि आप मुझे कोई अन्य कार्य बतादें। जयप्रकाश की प्रामाणिकता से महाराजा प्रभावित हुए। उन्होंने उसी समय बिल-क्लर्क का कार्य उन्हें सौंप दिया। जयप्रकाश निष्ठा के साथ वह कार्य करने लगे । जब उन्हें अच्छी तरह आत्म-सन्तोष हो जाता तब वे बिल पर स्वीकृति की मुद्रा लगाते । एक समय सात हजार रुपये का बिल दुबारा आगया। केवल जयप्रकाश की मुद्रा ही लगना अवशेष था । जयप्रकाश ने गहराई से उसे देखा। उन्होंने उसी १२४ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकास का मूल १२५ समय अमलदार को बुलाकर इसका कारण पूछा ? अमलदार घबरा गया । उसने कहा-भूल से ऐसा हो गया है, परन्तु यह बिल सभी स्थानों से पास हो गया है । आप इस पर मुद्रा लगा दीजिए । आप इसकी चर्चा किसी से न करें, मैं इसी समय सात हजार रुपए लाकर दे देता हूं। ___जयप्रकाश ने कहा-यह बात कभी सम्भव नहीं हैं। मैं सारी बात महाराजा से निवेदन करूंगा। सेवक को मालिक से बात छिपा कर रखना विश्वासघात करना है। तुमने भूल स्वीकार कर ली है, इसलिए मैं ऐसा प्रयास करूंगा कि तुम्हें किसी भी प्रकार की आँच न आए। जयप्रकाश ने सारी बात महाराजा से निवेदन की और बताया कि सम्भवतः कार्याधिक्य के कारण अधिकारियों से यह भूल हो गई है। ___ महाराजा जयप्रकाश की प्रामाणिकता को देखकर बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने उसी समय बिल-क्लर्क के स्थान से हटाकर उसको अपना प्रधानमन्त्री बना दिया और उनका वेतन पन्द्रहसौ रुपया कर दिया। ___गरीब घर में जन्मा हुआ व्यक्ति भी कर्तव्य-निष्ठा से कितनी अधिक प्रगति कर सकता है, यह बात इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाती है । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्तन इंग्लेंड के सर वोल्टर स्कोट का स्वभाव प्रारम्भ में बड़ा क्रूर था किन्तु एक नन्ही सी घटना ने उनके जीवन को ही बदल दिया। उन्होंने एक बार कुत्ते को एक पत्थर मारा । कुत्ते का पैर टूट गया । वह वेदना से कराहने लगा। कुछ समय पश्चात् वही कुत्ता, जिसके पैर से खून चू रहा था, उनके पास आया, अपनी पूछ हिलाकर उनसे क्षमा याचना करने लगा। कुत्ते का यह अतिमानवीय व्यवहार देखकर लेखक सर वोल्टर स्कोट विचारने लगे-यदि इस कुत्ते के स्थान पर कोई मानव होता तो वह अपनी शक्ति के अनुसार अवश्य ही कुछ न कुछ प्रतिक्रिया करता । पर यह तो पशु है । मेरे द्वारा किये गये अपराध को विस्मृत कर मेरे पास आ बैठा है और पूछ हिला रहा है। १२६ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्तन १२७ वे कुर्सी से नीचे उतरे और कुत्त की पीठ पर प्रेम से हाथ फेरने लगे। बोले-मित्र ! मैंने पत्थर मारकर तुम्हारा भारी अपराध किया है। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि भविष्य में कभी किसी को चोट नहीं पहुँचाऊँगा। मेरा मानस पश्चात्ताप की आग से जल रहा है। उनका हृदय अत्यन्त मृदु होगया। चेहरे पर मधुर प्रसन्नता नाचने लगी। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री देवेन्द्र मुनि जी द्वारा लिखित महत्वपूर्ण साहित्य Am; १. ऋषभ देव : एक परिशीलन भगवान् पार्श्व : एक समीक्षात्मक अध्ययन ५) भगवान् अरिष्टनेमि और कर्मयोगी श्रीकृष्ण १०) ४. कल्पसूत्र (विवेचन) ५. चिंतन की चाँदनी ६. अनुभूति के आलोक में . ७. खिलती कलियाँ : मुस्कराते फूल ३)५० ८. प्रतिध्वनि ३)५० ६. फूल और पराग १०. बोलते चित्र १)५० ११. बुद्धि के चमत्कार १)५० १)५० सम्पर्क करें :लक्ष्मी पुस्तक भंडार गोंधी मार्ग, अहमदाबाद-१ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ - -: कल्पसत्र प्रतिध्वनि राम राज नेम वाणी बोलते चित्र धर्म और दर्शन फूल और पराग जिन्दगी की लहरे बुद्धि के चमत्कार चिन्तन की चांदनी अनुभव रत्न कणिका साधना का राजमार्ग संस्कृति के अंचल में मिनख पणारो मोल साहित्य और संस्कृति जिन्दगी की मुस्कान अनुभूति के आलोक में ओंकार : एक अनुचिन्तन ऋषभदेव : एक परिशीलन खिलती कलियाँ मुस्कराते फूल भगवान अरिष्टनेमी और कर्मयोगी श्रीकृष्ण भगवान पार्श्व: एक समीक्षात्मक अध्ययन -