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बोलते चित्र
तो व्यापार वृत्ति है । यह लेन-देन का व्यवहार संसारी मानवों के लिए भले उचित लगे किन्तु श्रमरणों के लिए नहीं । जो श्रमण सेवा से जी चुराता है वह श्रमण धर्म से च्युत होता है । मैं तुम्हारी सेवा नहीं करता फिर भी तुम मेरी सेवा क्यों करते हो ?
भगवन् ! आप तो समस्त संसार की सेवा करते हैं । बुद्ध-तो श्रमरण क्या जगत की सेवा नहीं करता ? जो तुम्हारी व्यक्तिगत सेवा करे उसे ही तुम सेवा मानते हो । आज से मैं उन भिक्षुओं की सेवा स्वीकार नहीं करूंगा जो रुग्ण भिक्षुओं की सेवा नहीं करेगा । मेरी सेवा का उसे ही अधिकार होगा जो रुग्ण भिक्षुओं की सेवा करेगा | रुग्ण भिक्षुओं की सेवा ही मेरी सेवा है ।
दूसरे दिन से सभी भिक्षु उसकी सेवा में लग गये और वह भिक्षु पूर्ण स्वस्थ हो गया। फिर कभी बुद्ध को सेवा के लिए किसी भिक्षुक को प्रेरणा देने की आवश्यकता नहीं रही ।
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