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अहिंसा की विजय
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दिया जाए। हम लोगों ने इतने समय तक मुर्दों का भोग चढ़ाया है, अब मुर्दों को, नहीं जीवितों का भोग चढ़ाना है । जीवित भोग को प्राप्त कर माताजी अधिक प्रसन्न होंगी ।
सभी जीवित बकरे माताजी के मन्दिर में पूर दिये गये । रात्रि भर भक्त - गरण मन्दिर के बाहर जागरण करते रहे ।
सप्तमी का प्रभात असीम उत्कंठा लेकर आया । माता के मन्दिर का द्वार खुला 1 रात्रि में बलि का क्या हुआ, यह देखने के लिए विराट् जन समूह उमड़ पड़ा । द्वार खुलते ही बकरे, बें-बें करते हुए बाहर निकल आये ।
पूर्ण प्रेम से विभोर होकर कुमारपाल ने माता को नमन किया और प्रजा को सम्बोधित कर कहा - बताइए ! बलि किसको चाहिए ? माताजी को या पुजारियों को ? माता वात्सल्य की मूर्ति है। वह अपने प्यारे पुत्रों को कभी मार नहीं सकती, पुजारी ही अपनी रस-लोलुपता के लिए उन्हें मारते हैं ।
पुजारियों के चेहरे फीके पड़ गये । कुमारपाल के चेहरे पर अपूर्व प्रसन्नता नाचने लगी । हिंसा पर अहिंसा की यह महान् विजय थी ।
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