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________________ बोलते चित्र कारते हुए कहा-तुझे शर्म नहीं आती, संवत्सरी जैसे पवित्र पर्व पर उपवास करना चाहिए था पर तू आहार के लिए मर रहा है ! कूरगडु मुनि सोच रहा था-मैं कैसा अधम है ! अन्न का कीड़ा, एक दिन भी मैं भूखा नहीं रह सकता। आज मुझे उपवास करना चाहिए था, पर मैं उपवास न कर सका । रूखा भात लाया, पर मेरे अहोभाग्य हैं कि तपस्वी मुनियों ने कृपा कर इसमें थूक दिया ! यह थूकना नहीं, घी डालना है। आज तू धन्य हो गया, तपस्वी मुनियों के थूक में तो गजब की शक्ति रही हुई है ! मुझे आज प्रसादी मिली है। ___ समभाव की भावना उत्तरोत्तर बढ़ रही थी। कवल मुंह की ओर बढ़ रहा था पर मन अन्यत्र था। चिन्तन करते करते घनघाती कर्म नष्ट हो गये, केवल ज्ञान और केवल दर्शन का दिव्य आलोक जगमगा उठा । अनशन का अभिमान करने वाले महान् तपस्वी देखते रह गये । उन्हें तब समझ में आया कि समभाव की साधना ही महान् है । विषम भाव की आग जिस तप में सुलग रही है वह तप नहीं, ताप है, संताप है, परिताप है। तप वही है जिसमें समभाव की सुर सरिता बह रही हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003198
Book TitleBolte Chitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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