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नाम की व्यर्थता
भरतक्षेत्र के छहों खण्डों पर अपनी विजय-वैजयन्ती फहराकर चक्रवर्ती भरत ऋषभकूट के पास पहुँचे। गर्व से उनका सिर उन्नत था। मन में विचार तरंगित हो रहे थे कि आज तक जो कार्य दूसरे न कर सके वह कार्य मैंने किया। ऋषभकूट पर नाम लिखने के लिए काकिनी रत्न लेकर वे पहुँचे। पर देखते ही उनके नेत्र ढके से रह गये । उस शिला पर ऐसा कोई स्थान नहीं था जिस पर नाम न लिखा हो । पूर्वकाल के असंख्य चक्रवर्तियों ने उस पर अपना-अपना नाम अंकित किया था।
भरत चक्रवर्ती विचार करने लगे-छह खण्डों को जीतने के पश्चात् भी मुझे अपना नाम लिखने के लिए जगह नहीं मिल रही है। उन्होंने उसी समय एक चक्रवर्ती का नाम मिटाया और उस स्थान पर अपना नाम लिख दिया । नाम लिखते समय चक्रवर्ती भरत के मन एक विचार कौंध गया कि जैसे मैंने दूसरे चक्रवर्ती के नाम को
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