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साहित्य निर्माण चाहता हूँ । दिन का अधिक से अधिक समय साहित्यिक कार्य में ही लगाता हूँ पर रात्रि का समय तो यों ही चला जाता है मेरी हार्दिक इच्छा है कि रात में भी कुछ सर्जन का कार्य किया जाय, परन्तु घनान्धकार में वह संभव नहीं है । दीपक का प्रकाश श्रमण मर्यादा के प्रतिकूल है, अतः मैं उसका उपयोग नहीं कर सकता । जीवन लघु है और कार्य विराट, इस जीवन में यह विराट् कार्य कैसे सम्पन्न होगा, यही एक चिन्ता है। __ लल्लिग ने सुना, वह एक क्षण विचार में पड़ गया । दूसरे ही क्षण उसके गुलाबी होठों पर आशा की ज्योति चमकने लगी। उसने कहा-गुरुदेव ! मैं ऐसा प्रयास करूंगा कि आप दीपक के बिना भी रात में अच्छी तरह लिख-पढ़ सकें।
हरिभद्र ने आश्चर्य पूर्वक पूछा-लल्लिग ! मैं बिना दीपक रात में कैसे लिख-पढ़ सकूगा।।
गुरुदेव ! मैं एक ऐसा तेजस्वी रत्न लाऊँगा जो रात में दीपक की तरह प्रकाश करता है । उस निर्मल प्रकाश में आप सरलता से लिख-पढ़ सकेंगे।
कुछ ही दिनों में लल्लिग अपनी सारी सम्पत्ति को बेचकर एक तेजस्वी रत्न खरीद कर ले आया। उपाश्रय उस रत्न के प्रकाश से जगमगा उठा । अब आचार्य हरिभद्र उसके प्रकाश में साहित्य निर्माण का कार्य करने लगे । उन्होंने विशाल साहित्य का सृजन किया।
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