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साहित्य निर्माण आचार्य हरिभद्र का मुख गुलाब के फूल की तरह सदा खिला रहता था। जो भी आता, उनकी मधुर मुस्कान से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। लल्लिग नामक श्रावक उनका परम भक्त था। वह उनके दर्शन के लिए पहुँचा तो देखा आचार्यदेव के चेहरे पर प्रतिदिन की तरह चमक नहीं थी। लल्लिग ने सोचा-कीर्ति, कामिनी, और कलदार के त्यागी को आज कौन सी व्यथा सता रही है ? उसने अत्यन्त नम्र शब्दों में आचार्य श्री से पूछा-भगवन् ! मैं आपका श्रावक हूं, वर्षों से आपके निकट सम्पर्क में रहा हूँ। मैंने अनुभव किया है शारीरिक वेदना के समय भी आप सदा मुस्कराते रहे हैं, पर आज जैसी सुस्ती पहले कभी नहीं देखी। मैं इस चिन्ता का कारण जानना चाहता हूँ। बिना जाने उसे मिटाया नहीं जा सकता। मैं आपकी आन्तरिक चिन्ता को देख नहीं सकता।
हरिभद्र ने कहा-श्रावक ! मैं साहित्य निर्माण करना
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