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विकास का मूल
डुमरावन के महाराजा को एक दिन जयप्रकाश ने कहा-मैं आपके पुत्रों को हिन्दी पढ़ाने के लिए अत्यधिक श्रम करता हूं तथापि वे पढ़ते नहीं हैं। यदि वे पढ़ना नहीं चाहते हैं तो मैं व्यर्थ ही पच्चीस रुपये वेतन के रूप में क्यों लू ! इससे तो अच्छा है कि आप मुझे कोई अन्य कार्य बतादें।
जयप्रकाश की प्रामाणिकता से महाराजा प्रभावित हुए। उन्होंने उसी समय बिल-क्लर्क का कार्य उन्हें सौंप दिया।
जयप्रकाश निष्ठा के साथ वह कार्य करने लगे । जब उन्हें अच्छी तरह आत्म-सन्तोष हो जाता तब वे बिल पर स्वीकृति की मुद्रा लगाते ।
एक समय सात हजार रुपये का बिल दुबारा आगया। केवल जयप्रकाश की मुद्रा ही लगना अवशेष था । जयप्रकाश ने गहराई से उसे देखा। उन्होंने उसी
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