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सनत्कुमार
सम्राट् सनत्कुमार सत्ता, महत्ता और प्रभुता से मुख मोडकर सच्चे सन्त बने । सुन्दर राजप्रासादों में रमणियों के साथ क्रीडा करने में जो आनन्द उपलब्ध नहीं हुआ, वह आनन्द आत्मभाव में रमण करने में होरहा था। जो आनन्द मखमल के मुलायम गद्दों पर सोने में नहीं मिला वह आनन्द भूमि पर हाथ का सिरहाना देकर सोने में मिल रहा था। जो आनन्द संगीत की सुमधुर स्वर-लहरियों में नहीं मिला वह आनन्द डॉस और मच्छर की गुनगुनाहट में मिल रहा था। जो सुख चक्रवर्ती अवस्था में नहीं था, वह सुख साधु बनने पर उपलब्ध हो रहा था। उनका तन मन सभी प्रसन्न था। उग्र तपश्चरण करते हुए उनका शरीर सूख रहा था । जिसके सौन्दर्य की प्रशंसा इन्द्र ने मुक्तकंठ से की थी, जिसके रूप को निहारने के लिए स्वर्ग से दो देव आये थे, आज तन का वह रूप नहीं रहा । आत्म-सौन्दर्य इतना अधिक बढ़
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