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बोलते चित्र गया कि तन का सौन्दर्य उसके सामने फीका पड़ गया। शरीर पोषक तत्त्वों के अभाव में अनेक शारीरिक रोग उद्भूत हो गये । पर शरीर में दुस्सह वेदना होने पर भी मन उसी प्रकार प्रसन्न था।
देवों ने घोरतपस्वी सनत्कुमार की शारीरिक स्थिति देखी । वह अपार वेदना उनसे देखी न जा सकी। उन्होंने वैद्य का रूप बनाया और मुनि सनत्कुमार के पास आये । उपकार के लिए आज्ञा मांगी । किन्तु सनत्कुमार मुनि मौन रहे । पुनः पुनः प्रार्थना करने पर सनत्कुमार मुनि ने अपने मुंह से जरा - सा थूक लेकर दक्षिण हाथ की कनिष्ठा अंगुली में लगाया कि कनिष्ठा अंगुली सूर्य की तरह चमकने लगी। देवता तो देखते ही चकित हो गये ! मुनि की लार में ऐसी गजब की शक्ति है ! यह शक्ति तो दवाइयों में भी नहीं है !
देवों ने प्रार्थना की-सन्तप्रवर ! आपके कफ, मलमूत्र, प्रस्वेद और थूक में इतनी चामत्कारिक शक्ति रही हुई है तथापि आप सोलह महारोगों से क्यों कष्ट पा रहे हैं ? ।
सनत्कुमार ने मंद-मंद मुस्कराते हुए कहा-तन में भले ही व्याधियां हों पर मेरा मन पूर्ण स्वस्थ है । तन की व्याधियां जितनी भयंकर नहीं है उतनी मन की ब्याधियां भयंकर होती हैं। किये कर्मों को भोगे विना मुक्ति कहां है ?
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