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विक्रमसंवत् १९९३
नमः अनन्तलब्धिनिधानाय भगवते इन्द्रभूतये । निःशेषनिर्ग्रन्थागमामरसरिहिमाचल भगवछ्री सुधर्मस्वामीसूत्रित गुर्जर भाषानुवादयुतं
श्रीमद्भगवती सूत्रम् •
( व्याख्याप्रज्ञप्तिः ) ( द्वितीयो भागः )
प्रकाशकः -- जामनगरवास्तव्यपंडित 'हीरालाल हंसराज' इत्यस्य 'श्री जैन भास्करोदय प्रेस' इति मुद्रणालये मेनेजर बालचंद्र हीरालाल इत्येतेन मुद्रितम्
पण्यं रूप्यकत्रयम्
३-०-०
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ख्रिस्त्यन्द:- १९३७
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
मईम् श्रीमद्गणधरवरसुधर्मस्वामीप्रणीता ॥ व्याख्याप्रज्ञप्तिः॥ (श्रीभगवतीसूत्रम् ) (भाग बीजो)
| ४ शतके उदेशः१-८ ॥३२५॥
॥३२॥
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(.मूल सूत्र अने तेना गुजराती भाषान्तर सहित)
शतक ४.
उद्देशक १-२-३-४-५-६-७-८ त्रीजा शतकमां घणीखरी हकीकत देवो संबंधे जणावी छे, तेथी चोथा शतकमां पण धणीखरी तेबीज हकीकत जणाववानी के चोथा शतकना उद्देशाओमां कया कया विषय संबंधे चर्चा करवानी छे ए वातने जणावनारी आ गाथा हे.
चत्तारि विमाणेहिं चत्तारि य होंति रायहाणीहिं । नेरइए लेस्साहि य दस उद्देसा चउत्थसए ॥ ३१ ॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥३२६॥
गाथार्थः-चार उद्देशकमां विमान संबंधी हकीकत छे. बीजा चार उद्देशकमा राजधानी संबंधी हकीकत छे अने एक उद्देशक BI नरयिको संबंधे छे तथा एक उद्देशक लेश्या संबंधे छे:-ए रीते आ शतकमां दश उद्देशाओ छे.
४४ शतके । रायगिहे नगरे जाव एवं बयासी-ईसाणस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरणो कति लोगपाला पण्णत्ता,
उद्देशः१-८ #गोयमा ! चत्तारि लोगपाला पण्णत्ता, तंजहा-सोमे जमे वेममणे वरुणे । एएसि ण भंते ! लोगपालाणं कति ||३२६॥ | विमाणा पण्णत्ता?, गोयमा! चत्तारि विमाणा पण्णत्ता, तंजहा-सुमणे सवओभद्दे वग्गू सुवग्गू । कहि णं भंते ! ईसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारन्नो सुमणो नामं महाविमाणे पण्णत्ते !,
राजगृह नगरमां-आ प्रमाणे बोल्या के:-हे भगवन् ! देवेंद्र; देवराज ईशानने केटला लोकपाल कह्या छे ? [उ०] हे गौतम ! तेने चार लोकपालाओ कह्या छे ते आ प्रमाणे:-सोम, यम, वैश्रमण अने वरुण. [प्र०] हे भगवन् ! ए लोकपालोने केटलां विमानो कयां छे ? [उ०] हे गौतम ! तेओने चार विमानो कयां छे. ते आ प्रमाणे:-सुमन, सर्वतोभद्र, वल्गु. अने सुवल्गु. [प्र०] हे भगवन् ! देवेंद्र, देवराज ईशानना सोम महाराजानुं सुमन नामनु महाविमान क्या कह्युछे. ___ गोयमा ! जंबुदीवे २ मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव ईसाणे णाम कप्पे पणत्ते, तत्थ णं जाव पंच बडेंसया पण्णत्ता, तंजहा-अंकवडेंसए फलिहवडिसए रयणवडेंसए जायरूववडिंसए मज्झे य तत्थ ईसाणवडेंसए, तस्स णं ईसाणवडेंसयस्स महाविमाणस्स पुरच्छिमेणं तिरियमसंखेजाई जोयणसहस्साई | वीतिवतित्ता एत्थ ण ईसाणस्स ३ सोमस्स २ सुमणे नामं महाविमाणे पण्णत्ते अद्धतेरसजोयण जहा सक्कस्स वत्त
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४ शतके | उडेशः१-८
॥३२॥
है ब्वया ततियसए तहा ईसाणस्सबि जाव अच्चणिया संमत्ता । चउण्हवि लोगपालाणं विमाणे २ उद्देसओ, चउसु व्याख्या
विमाणेसु चत्तारि उद्देसा अपरिसेसा, नवरं ठितीए नाणत्तं-'आदिदुय तिभागूणा पलिया १ धणयस्स हॉति प्रज्ञप्तिः
| दो चेव । दो सतिभागा वरुणे पलियमहावच्चदेवाणं ॥ ३२ ॥ (सू० १७१) चउत्थे सए पढमबिइयतइयचउत्था
| ऊद्देसा समत्ता ॥४-४॥ ॥३२७॥
[उ०] हे गौतम ! जंबूद्वीप नामना द्वीपमां मंदर पर्वतनी उत्तरे आ रत्नप्रभा पृथिवी यावत्-ईशान नामे कल्प कयो रे. १ तेमां यावत्-पांच अवतंसको कद्या छे. ते आ प्रमाणे:-अंकावतंसक, स्फटिकावतंसक, रत्नावतंसक अने जातरूपावतंसक, ए चारे | अवतंसकोनी बच्चे ईशानावतंसक छे. ते ईशानावतंसक नामना महाबिमाननी पूर्वे तिरछु असंख्येय हजार योजन मूक्या पछी-अहीं देवेंद्र, देवराज ईशानना सोम महाराजानुं सुमन नामनुं महाविमान कांहे. तेनो आयाम अने निष्कंभ साडाबारलाख योजन छे, इत्यादि बधी वक्तव्यता त्रीजा शतकमां कहेली शक्रनी वक्तव्यना पेठे अहीं ईशानना संबंधां पण कहेवी. अने यावत्-आखी अर्चनिका मुधी कहेवी. ए रीते चारे लोकपालोना प्रत्येक विमाननी हकीकत पूरी थाय त्यां एक उद्देशक जाणवो. चारे विमाननी हकीकत पूरी:थतां पूरा चारे उद्देशक समजवा. विशेष ए के, स्थिति आवरदामां भेद समजबो. आदिना बेनो-सोमनी अने यमनी आवरदा त्रण भाग उणा पल्योपम जेटली छे, वैश्रमणनी आवरदा त्रण भाग सहित वे पल्योपमनी छे. तथा अपायरूप देवोनी आवरदा एक पल्योपमनी छे. ॥ १७१ ॥
रायहाणिसुवि चत्तारि उद्देसा भाणियब्वा जाव एवमहिड्डीए जाव वरुणे महाराया ॥ (म० १७२ ) ॥
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४ शतके
चउत्थे सए पंचमछट्ठसत्तमट्ठमा उद्देसा समत्ता ॥४-८॥ ध्याख्या
[प्र.उ०] राजधानीओना संबंधमां पण एक एक राजधानी संबंधी हकीकत पूरी थतां एक एक उद्देशक पूरो समजबो. अने प्रज्ञप्ति दए रीते राजधानीओना संबंधमां चार उद्देशको पूरा समजवा. यावत्-ए रीते वरुण महाराजा मोटी ऋद्धिवाळो छे. ॥ १७२ ॥ ॥३२८॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना १ थी ८ उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
। उद्देशः९ ॥३२८॥
RRRRRRRRRRIA
शतक ४ ( उद्देशक ९)
( नवमा उद्देशकमां नारको संबंधी हकीकत जणावी छे.) नेरइए ण भंते ! नेरतिएसु उववज्जइ ? अनेरइए नेरइएसु उववज्जइ ? पन्नवणाए लेस्सापए ततिओ उद्देसओ भाणियब्वो जाव नाणाई (सू० १७३) चउत्थसए नवमो उद्देसो समत्तो॥४-९॥ ___ [प्र०] हे भगवन् ! नरयिक होय ते, नैरयिकोमा उत्पन्न थाय के अनैरयिक होय दे, नैरयिकोमा उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! प्रज्ञापनासूत्रमा कहेलो लेश्यापदनो त्रीजो उद्देसो अहीं कहेवो अने ते यावत् ज्ञानीनी हकीकत सुधी कहेवो. ॥ १७३ ॥
भगवत् सुधर्मखमीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना चोथा शतकमा नवमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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4G
R
उद्देशक १०
व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
४ शतके उरेशः१० ॥३२९॥
॥३२९॥
RCRACCARRORA
(दशमा उद्देशकमां पण लेश्या संबंधी हकीकत कही के) से नृणं भंते ! कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प तारुवत्ताए तावण्णत्ताए एवं चउत्थो उद्देसओ पन्नवणाए चेव लेस्मापदे नेयम्वो जाव-परिणामवण्णरसगंधसुद्धअपसत्थसंकिलिण्हा । गतिपरिणामपदेसोगाहवग्गणाठाणमप्पबहुं ॥ ३३ ॥ सेवं भंते ! रत्ति ॥ (सू० १७४ ) चउत्थसए दसमो उद्देसो संमत्तो॥४-१०॥ चउत्थं सयं संमत्तं ॥ ४॥
[40] हे भगवन् ! कृष्णलेश्या नीललेश्यानो संयोग पामी ते रूपे अने ते वर्णे परिणमे ? [उ.] हे गौतम ! प्रज्ञापनासूत्रमा कहेलो लेश्यापदनो चोथो उद्देशक अहीं कहेवो अने ते यावत्-'परिणाम' इत्यादि द्वार गाथा सुधी कहेवो. परिणाम, वर्ग. रस, गंध, शुद्ध, अप्रशस्त, संक्लिट, उष्ण, गति, परिगाम, प्रदेश, अवगाहना, वर्गणा, स्थान, अने अल्पबहुत्वः ए बधुं लेश्याओ संबंधे कहे. हे भगवन् ! ने ए प्रमाणे हे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे के एम कही यावत् विहरे छे. ।। १७४ ॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना चोथा शतकमां दशमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥३३०॥
५शतके | उद्देशः१ ||३३०||
कर
शतक ५ ( उद्देशक १) चंपरवि १ अनिल २ गंठिय ३ सद्दे ४ छउमायु ५-६ एयण ७ णियंठे ८ । रायगिहं ९ चंपाचंदिमा १० य दस पंचमं मिसए ।। ३४ ॥
(चोया शतकना ठेवटना भागमा लेश्याओ संबंधी विचारो जणाच्या छे, माटे हवे लेश्यावाला जीवो संबंधी जणावता एवा | पांचमा शतकनो आरंभ थाय हे.) | हवे प्रथम उद्देशकमां मूर्य संबंधी प्रश्नोत्तरो , ए प्रश्नो चंपा नगरीमा पूछाया हता. वीजा उद्देशकमां वायु संबंधी सवालोनो निर्णय छे. त्रीजा उद्देशकमां जालग्रंथिकाना उदाहरण उपरथी जणानी हकीकतनो निर्णय छे. चोथा उद्देशकमां शब्द विषे पूछाएला प्रश्नो अने उत्तरोनो निर्णय छे. पांचमा उद्देशामा छद्मस्थो संबंधी हकीकत छे. छट्ठा उद्देशामां आयुष्यनुं ओछापणुं के वधारेपणुं, ए संबंधी हकीकत छे. सातमा उद्देशकमा पुद्गलोना कंपन संबंधी विचार कर्यो छे. आठमा उद्देशकमां निग्रंथीपुत्र नामना साधुए | पदार्थो संबंधे विचार कयों छे. नवमा उद्देशकमां राजगृह नगर संबंधी पर्यालोचन छे अने दशमा उद्देशकमां चंद्र संबंधी आलोचना छे-ते आलोचना चंपा नगरीमा थइ हती. ए प्रमाणे आ पांचमा शतकमां दस उद्देशक के.
तेणं कालेणं २ चंपानाम नगरी होत्था, वन्नओ, तीसे णं चंपाए नगरीए पुण्णभद्दे नामे चेहए होत्था वण्णओ, सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया । तेणं कालेणं २ समणस्स भगवओ महावीरस्स
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥३३१॥
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जेट्ठे अंतेवासी इंदभूतीणामं अणगारे गोयमगोत्तणं जाव एवं वदासी- जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे मृरिया उदीणपादीणमुग्गच्छ पादीणदाहिणमागच्छति, पादीणदाहिणमुग्गच्छ दाहिणपडीणमागच्छंति, दाहिणपडीणमुग्गच्छ पडीणउदीणमागच्छंति, पडीणउदीणं उग्गच्छ उदीचिपादीणमागच्छति ?, हंता ! गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उदीचिपाईणमुग्गच्छ जाव उदीचिपाईणमागच्छंति ॥ (सू० १७५) ।।
[प्र० ] ते काले, ते समये चंपा नामनी राजधानीनी नगरी हती, वर्णक. ते चंपा नगरीना बहार पूर्णभद्र नामनुं चैत्य (त्र्यंतरायतन) हतुं. वर्णक. त्यां स्वामी (श्रीवीर) पधार्या अने यावत् - (वीरनी वाणी सांभळवाने) सभा गामनी बहार नीकळी. ते काले, ते समये, श्रमण भगवंत महावीरना मोटा शिष्य-गौतम गोत्रना - इंद्रभूते नामना अनगार यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के:-हे भगवन् ! जंबूद्वीप नामना द्वीपमां सूयों ईशान खूणामां उगीने अग्नि खूणामां आयमे छे ? नैऋत खूणामां उगीने वायव्य खूणामां आथमे छे ? अने वायव्य खूणामां उगीने ईशान खूणामां आथमे छे !! [उ०] हे गौतम! हा, एज रीते सूर्यनुं उग अने आथमनुं थाय छे-जंबूद्वीप नामना द्वीपमां सूर्यो उत्तर अने पूर्व-ईशान खूणामां उगीने यावत्-ईशान खूणामां आथ मे छे. ॥ १७५ ॥
जया णं भंते! जंबुद्दीवे २ दाहिणड्ढे दिवसे भवति तदा णं उत्तरड्ढे दिवसे भवति, जदा णं उत्तरड्ढेऽवि दिवसे भवति तदा णं जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणं राती भवति ?, हंता गोयमा ! जया णं जंबुद्दीवे २ दाहिणड्देवि दिवसे जाव राती भवति । जदा णं भंते! जंबु० मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमेणं दिवसे भवति तदा णं पञ्चत्थिमेणवि दिवसे भवति, जया णं पञ्चत्थिमेणं दिवसे भवति तदा णं जंबुद्दीवे २
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५ शतके उद्देशः १
।। ३३१॥
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याख्याप्रज्ञप्तिः ॥३३२॥
५ शतके उद्देशः१ ॥३३२॥
मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरदाहिणेणं राती भवति ?, हंता गोयमा! जदा णं जंबु. मंदरपुरच्छिमेणं दिवसे जाव
राती भवति । जदा ण भंते ! जंबुद्दीवे २ दाहिणड्ढे उक्कोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति तदा ण उत्तरदेवि | उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जदा ण उत्तरद्धे उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति तदा णं जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणं जहन्निया दुवालसमुहुत्ता राती भवति?, हंता गोयमा ! जदा णं जंषु० जाव
दुवालसमुहुत्ता राती भवति । ६] [प्र०] हे भगवन् ! ज्यारे जंबूद्वीपमा दक्षिणार्धमा दिवस होय छे, त्यारे उत्तरार्धमा पण होय छे अने ज्यारे उत्तरार्धमां पण हा दिवस होय छे त्यारे जंबूद्वीपमां मंदर पर्वतनी पूर्व पश्चिमे रात्रि होय छे ? [उ.] हे गौतम ! हा, एज रीते होय छे-ज्यारे जंबूद्वीPIपमा दक्षिणार्धमां पण दिवस होय छे त्यारे यावन्-रात्री होय छे. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यारे जंबूद्वीपमा मंदर पर्वतनी पूर्व दिवस | होय छे त्यारे पश्चिममा पण दिवस होय छे अने ज्यारे पश्चिममां दिवस होय छे त्यारे जंबुद्वीपमा मंदर पर्वतनी उत्तर दक्षिणे रात्री होय छे ? [उ.] हे गौतम ! हा, एज रीते होय छे. ज्यारे जंबुद्वीपमां मंदर पर्वतनी पूर्वे दिवस होय हे त्यारे यावत्-रात्री होय छे.
[प्र.] हे भगवन् ! ज्यारे जंबूद्वीपमा दक्षिणार्धमां वधारेमां वधारे मोटो अढार मुहूर्तनो दिवस होय छे त्यारे उत्तरार्धमां पण वधाबारेमां वधारे मोटो अढार मुहुर्तनो दिवस होय छे अने ज्यारे उत्तरार्धमा सौथी मोटो अढार मुहूर्तनो दिवस होय छे त्यारे जम्बूद्वी
पमां मंदर पर्वतनी पूर्व पश्चिमे नानामा नानी बारमुहूर्तनी रात्री होय छे ? [उ०] हे गौतम ! हा, एज रीते होय छे-जंबूद्वीपमा यावत्-चार मुहूर्तनी रात्री होय छे.
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जंदा णं जंबु. मदरस्स पुरच्छिमेण उक्कोसए अट्ठारस जाव तदा णं जंबुद्दीवे २ दिवसे भवति । व्याख्या-||जया णं पचत्धिमेणं उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे. पञ्चत्थिमणवि उको अवारसमुहुत्ते भवति तदा
५ शतके प्रज्ञप्तिः गणं भंते ! जंबुद्दीवे २ उत्तर दुवालसमुहुत्ता जाव राती भवति ?, हंता गोयमा! जाव भवति । जया गं
उरेशः१ ॥३३३॥ भंते ! जंबु० दाहिणढे अट्ठारसमुहत्ताणतरे दिवसे भवति तदा णं उत्तरे अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवति
॥३३॥ जदाण उत्तरे अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवति तदा गं जैबु० मंदरस्स पब्वयस्स पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणं सातिरेगा दुवालस मुहुत्ता राती भवति?, हंता गोयमा! जदा ण जंबु० जाव राती भवति । जदा णं भंते ! | जंबुद्दीवे २ पुरच्छिमेणं अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवति तदा णं पचत्यिमेणं अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे | भवति जदा णं पञ्चत्थिमेणं अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवति तदा णं जंबु० २ मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं साइरेगा दुवालममुहुत्ता राती भवति ?, हंता गोयमा ! जाव भवति ॥
[प्र०] हे भगवन् ! ज्यारे जवृद्वीपमा मंदर पर्वतनी पूर्वे मोटामा मोटो अढार मुहूर्तनो दिवस होय छे त्यारे जंबूद्वीपमा पश्चिमे पण मोटामा मोटो अढार मुहूर्तनो दिवस होय के अने ज्यारे पश्चिमे मोटामां मोटो अढार मुहूर्तनो दिवस होय छे त्यारे हे भगवन् ! जंबूद्वीपमा उत्तरार्धमां नानामां नानी बार मुहूर्तनी रात्री होय छे ? [उ.] हे गौतम ! हा, एज रीते यावन्-होय छे. [प्र०] है | भगवन् ! ज्यारे जंबूद्वीपमा दक्षिणार्धमा अढार मुहूर्त करतां कांइक ऊणो-मुहूर्तानन्तर-दिवस होय छे त्यारे उत्तरार्धमा अढार मुहूनिन्तर दिवस होय हे अने ज्यारे उत्तरार्धमा अढार मुहूर्तानन्तर दिवस होय छे त्यारे जंबुद्वीपमा मंदर पर्वतनी पूर्व पश्चिमे. बार
महत्ताणतणमा जाने अढार
मुहर्तनो
यावत् हा अढार मा
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५ शतके
देवस होय महार सुनिन्त हा, एज रीते हो
उद्देशः१ ॥३३४॥
| मुहूर्त करतां कांइक वधारे लांबी रात्री होय छे ? [उ.] हे गौतम ! हा, एज रीते होय छे-जंबूद्वीपमा यावत्-रात्री होय छे. [प्र०] ध्याख्या
हे भगवन् ! ज्यारे जंबूद्वीपमा मंदर पर्वतनी पूर्व अढार मुहूर्तानन्तर दिवस होय छे त्यारे पश्चिमे अढार मुहूर्तानन्तर दिवस होय छे प्रज्ञप्तिः
| अने ज्यारे पश्चिमे अढार मुहूर्तानन्तर दिवस होय छे त्यारे जंबूद्वीपमां मंदर पर्वतनी उत्तर दक्षिणे वार मुहूर्त करतां कांइक वधारे | ॥३३४॥ लांची रात्री होय छ ? [उ.] हे गौतम ! हा, एंज रीते होय छे.
एवं एतेणं कमेणं ओसारेयव्वं, सत्तरसमुहुत्ते दिवसे तेरसमुहुत्ता राती भवति, सत्तरसमुहुत्ताणतरे दिवसे सातिरेगा तेरसमुहुत्ताराती, सोलसमुहुत्ते दिवसे चोहसमुहुत्ता राई, सोलसमुहुत्ताणतरे दिवसे सातिरेगचोदसमुहुत्ता राती, पन्नरसमुहुत्ते दिवसे पन्नरसमुहुत्ता राती भवति, पन्नरसमुहुत्ताणतरे दिवसे सातिरेगा पन्नरसमुहुत्ता राती, चोद्दसमुहुत्ते दिवसे सोलसमुहुत्ता राती, चोद्दसमुहुत्ताणतरे दिवसे सातिरेगा सोलसमुहुत्ता राती, तेरसमुहुत्ते दिवसे सत्तरसमुहुत्ताराती, तेरसमुहुत्ताणतरे दिवसे सातिरेगा सत्तरसमुहुत्ता राती। जया णं जंबु. दाहिणड्ढे० जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति तया णं उत्तरड्ढेवि, जया णं उत्तरड्ढे तया णं जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पब्बयस्स पुरच्छिमेणं उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राती भवति ?, हंता गोयमा! एवं चेव उच्चारेयव्वं जाव
राई भवति । जया भंते! जंबु० मंदरस्स पब्वयस्स पुरच्छिमेणं जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति तया हणं पचत्थिमेणवि०, तया णं जंबु० मंदरस्स उत्तरवाहिणेणं उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राती भवति', हंता
गोयमा! जाब राती भवति ॥ (सू० १७६)
यस पुसालसमुहत्ते दिवसमहत्ताणतरे दिवस ताणतरे दिवसे सातिदिवसे सातिरेगा पा
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥३३५॥
SAR
___ए प्रमाणे ए क्रमवडे दिवसर्नु माप ओछु कर अने रात्रीचें माप वधारज्यारे सत्तर मुहर्तनो दिवस होय त्यारे तेर मुहूर्तनी || रात्री होय. ज्यारे सत्तर मुहूर्त करतां कांइक ओछो-लांबो-दिवस होय त्यारे तेर मुहर्त करतां काइक वधारे-लांबी-रात्री होय.
५ शतकै | ज्यारे सोळ मुहूर्तनो दिवस होय त्यारे चौद मुहूर्तनी रात्री होय. ज्यारे सोळ मुहर्त करतां कांइक ओछो दिवस होय त्यारे चौद | मुहूर्त करतां काइ पधारे रात्री होय. ज्यारे पन्नर मुहूर्तनो दिवस होय त्यारे पन्नर मुहर्तनी रात्री होय. ज्यारे पन्नर मुहूर्त करतां
उमेश | कांइक ओछो दिवस होय त्यारे पन्नर मुहूर्त करतां कांइक वधारे रात्री होय. ज्यारे चौद मुहूर्तनो दिवस होय त्यारे सोळ मुहूर्तनी
॥३३५॥ | रात्री होय. ज्यारे चौद मुहूर्त करतां कांइक ओछो दिवस होय छे त्यारे सोळ मुहूर्त करता काइक वधारे रात्री होय छे. ज्यारे तेर | मुहूर्तनो दिवस होय छे त्यारे सत्तर मुहूर्तनी रात्री होय हे. ज्यारे तेर मुहूर्तनो दिवस होय छे त्यारे सत्तर मुहूर्तनी रात्री होय छे. | ज्यारे तेर मुहूर्त करतां काइक ओछो दिवस होय छे त्यारे सत्तर मुहूर्त करतां कांइक वधारे रात्री होय छे. [म.] हे भगयन् ! ज्यारे जंबूद्वीपमा दक्षिणार्धमा नानामां नानो बार मुहूर्तनो दिवस होय छे त्यारे उत्तरार्धमा पंण तेमज होय छे अने ज्यारे उत्तरार्धमा तेम होय हे त्यारे जंबूद्वीपमा मंदर पर्वतनी पूर्व, पश्चिमे मोटामा भोटी अढार मुहूर्तनी रात्री होय छे ? [उ० हे गौतम ! हा, एज | रीते होय हे-ए प्रमाणेज बधुं कहेवू यावत्-रात्री होय छे. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यारे जंबूद्वीपमा मंदर पर्वतनी पूर्वे नानामां नानो
बार मुहतनो दिवस होय छे त्यारे जंबूद्वीपमां मंदर पर्वतनी उत्तर दक्षिणे मोटामां मोठी अढार मुहूर्तनी रात्री होय छे? [उ०] हे | गौतम ! हा, एज रीते होय छे-यावत्-रात्री थाय छे. ॥ १७६ ।।
जया णं भंते ! जंबू० दाहिणड्ढे वासाणं पढमे समए पडिवजह तया णं उत्तरढेवि वासाणं पढमे समए
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५ शतके उद्देशः१ ॥३३६॥
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पडिवज्जइ, जया णं उत्तरड्ढेवि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ तया णं जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिव्याख्या
मपञ्चत्थिमेणं अणंतरपुरक्खडसमयंसि वासाणं प० स०प० १, हंता गोयमा ! जया णं जंबू०२ दाहिणड्ढे प्रज्ञप्तिः वासाणं प० स० पडिवज्जइ तह चेव जाव पडिबज्जइ । जया णं भंते ! जंबु. मंवरस्स० पुरच्छिमेणं वासाणं ॥३३६॥ पढमे स. पडिवज्जइ, तया णं पञ्चत्थिमेणवि वासाणं पढमे समए पडिवजइ, जया णं पञ्चत्थिमेणवि वासाणं
पढमे समए पडिवज्जइ तया णं जाव मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरदाहिणेणं अणंतरपच्छाकडसमगंसि वासाणं प०
स. पडिवन्ने भवति?, हंता गोयमा! जया ण जंबू. मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमेणं, एवं चेव उच्चारेयवं Mजाव पडिवन्ने भवति ॥
प्र०] हे भगवन् ! ज्यारे दक्षिणार्धमा वर्षा ( चोमासा ) नी मोसमनो प्रथम समय होय त्यारे उत्तराधमां पण वर्षानो प्रथम ६ समय होय अने ज्यारे उत्तरार्धमां पण वरसादनो प्रथम समय होय त्यारे जंबुद्वीपमां मंदर पर्वतनी पूर्व पश्चिमे वर्षानो प्रथम समय & समय अनंतर पुरस्कृत समयमा होय अर्थात् जे समये दक्षिणार्धमा वरसादनी शरुआत थाय छे तेज समय पछी तुरतज बीजा समये
मंदर पर्वतनी पूर्व पश्चिमे वरसादनी शरुआत थाय ? [उ०] हे गौतम ! हा एज रीते थाय-छे ज्यारे जंबूद्वीपमा दक्षिणार्धमां चोमा| सानो प्रथम समय होय त्यारे ते प्रमाणेज यावत्-थाय छे. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यारे मंदर पर्वतनी पूर्व चोमासानो प्रथम समय ल होय छे त्यारे पश्चिममां पण चोमासानो प्रथम समय होय छे अने ज्यारे पश्चिममां पण चोमासानो प्रथम समय होय छे त्यारे | यावत्-मंदर पर्वतनी उत्तर दक्षिणे वर्षानो प्रथम समय, अनंतर पश्चात्कृत समयमा होय अर्थात् मंदर पर्वतनी पश्चिमे वर्षा शरु
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५ शतके उदेश:१ ॥३३७॥
थयाना प्रथम समय पहेला एक समये त्यां (मंदर पर्वतनी) उत्तरे दक्षिगे वर्षा शरु थाय? [उ.] हे गौतम! हा, एज रीते थाय ग्याख्या
ज्यारे जंबूद्वीपमा मंदर पर्षतनी पूर्व परसादनी शरुआत थाय ते पहेला एक समये अहीं ( उत्तर दक्षिणे ) वरसादनी शरुआत थाय, प्रज्ञप्तिः
ए प्रमाणे यावत्-वधु कहेवू. ॥३३७॥
। एवं जहा समएणं अभिलाचो भणिओ यासाणं तहा आवलियाएवि २ भाणियब्वो, आणापाणुहैणवि ३ थोवेणवि ४ लवेणवि ५ मुहुत्तेणवि ६ अहोरत्तेणवि ७ पक्खेणवि ८मासेणवि ९ उऊणावि १०,
एएसिं सब्वेसिं जहा समयस्म अभिलावो तहा भाणियब्यो । जया णं भंते! जंबु. दाहिणड्ढे हेमंताणं पढमे समए पडिवजति जहेब घासाणं अभिलावो तहेव हेमंताणवि २० गिम्हाणवि ३० भाणियब्वो जाव उऊ, एवं एए तिन्निवि, एएसिं तीसं आलावगा भाणियव्वा । जया णं भंते ! जंबु. मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणड्ढे पढम
अयणे पडिवजह सया णं उत्तरदेवि पढमे अयणे पडिवजह, जहा समपणं अभिलावो तहेव अयणेणवि हाभाणियब्यो जाव अणंतरपच्छाकडसमयंसि पढमे अयणे पडिवन्ने भवति,
जेम वरसादना प्रथम समय माटे कयु तेम वरसादनी शरुआतनी प्रथम आवलिका माटे पण जाणवू अने ए प्रमाणे खानपान, स्तोक, लव, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋत, ए वां संबंधे पण समयनी पेठे जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यारे जंबूद्वीपमा प्रदक्षिणार्धमां हेमंत ऋतुनो प्रथम समय होय त्यारे उत्तरार्धमां पण हेमंतनो प्रथम समय होय अने ज्यारे उत्तरार्धमां पण तेम होय
त्यारे जंबृद्वीपमां मंदर पर्वतनी पूर्व पश्चिमे हेमंतनो (प्रथम समय अनंतर पुरस्कृत समये होय ?) इत्यादि पूछq. [उ०] हे गौतम !
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५ शतके उद्देशः१ ॥३३८॥
|ए संबंधेनो बधो खुलासो वर्षानी पेठेज जाणवो अने एज प्रकारे ग्रीष्म ऋतुनो पण खुलासो समजवो. तथा हेमंत अने ग्रीष्मना ध्याख्या
प्रथम समयनी पेठे तेनी प्रथम आवलिका वगेरे यावत् ऋतु-सुधी पण समजवु-ए प्रमाणे एक सरलु एत्रणे ऋतुओ विषे जाणवू, प्रज्ञप्ति
ए बधाना मळीनं त्रीश आलापक कडेवा. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यारे जंबूद्वीपमा मंदर पर्वतना दक्षिणार्धमा प्रथम अयन होय छे ॥३३८॥ त्यारे उत्तरार्धमां पण प्रथम अयन होय छे ? [उ०] हे गौतम ! जेम समय संबंधे कड्यु, तेम अयन संबंधे पण समजवु यावत्-तेनो
प्रथम समय, अनंतर, पश्चात्कृत समये होय छे-इत्यादि जाणवू. .
जहा अयणेणं अभिलावो तहा संवच्छरेणवि भाणियब्वो, जुएणवि वाससएणवि वाससहस्सेणवि वाससयसहस्सेणवि पुब्वंगेणवि पुवेणवि तुडिंयगेणवि तुडिएणवि, एवं पुब्वे २ तुडिए २ अडडे २ अववे २ हहए २ उप्पले २ पउमे २ नलिणे २ अच्छणिउरे २ अउए २ णउए २ पउए २ चूलिया २ सीसपहेलिया २ पलिओवमेणवि सागरोवमेणावि भाणियब्बो । जया ण भंते ! जंबुद्दीवे २ दाहिणड्ढे पढमा ओसप्पिणी पडिवजह तयाणं उत्तरदेवि पढमा ओसप्पिणी पडिवजइ, जया णं उत्तरड्ढेवि पडिवजइ तदा णं जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पब्बयस्स पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणवि, णेवत्थि ओसप्पिणी नेवत्थि उस्सप्पिणी, अवहिए णं तत्थ काले पन्नत्ते ? समणाउसो, हंता गोयमा! तं चेव उच्चारेयब्वं जाव समणाउसो!, जहा ओसप्पिणीए आलावओ भणिओ एवं उस्सप्पिणीएवि
| भाणियब्वो ।। ( सूत्रं १७७)॥ iPI जेम अयन संबंधे कपुं तेम संवत्सर, युग, वर्षशन, वर्षसहस्र, वर्षशतसहस्र, पूर्वांग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, अटटांग, अटट,
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥३३९॥
शतके उदेशः२ ॥३३९॥
| अवबांग, अवब, हहकांग, हहक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थन् परांग, अर्थन पुर, अयुतांग. अयुत, नयुतांग, नयुत, प्रयुत्तांग, प्रयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका, पल्योपम अने सागरोपम ए बधां संबंधे पण समज. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यारे जंबूद्वीपमा दक्षिणार्धमा प्रथम अवसर्पिणी होय छे त्यारे उत्तरार्धमां पण प्रथम अवसर्पिणी होय छे अने ज्यारे उत्तरार्धमां पण तेम होय छे त्यारे जंबूद्वीपमा मंदर पर्वतनी पूर्व पश्चिमे अवसर्पिणी नथी, तेम उत्सर्पिणी नथी. पण हे दीर्घजीविन् ! श्रमण ! त्यां अवस्थित काल कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! हा, एज रीते छे-पूर्वनी पेठे वधुं यावत्-हे दीर्घजीविश्रमण !
इत्यादि. जेम उवसर्पिणी संबंधे का तेम उत्सपिणी विषे पण समजवू. ॥ १७७ ॥ दा लवणेणं भंते ! समुद्दे मृरिया उदीचिपाईणमुग्गच्छ जच्चेव जंबूद्दीवस्म वत्तव्वया भणिया सच्चेव मव्वा अप
रिसेसिया लवणममुदस्सवि भाणियव्या, नवरं अभिलायो इमो णेयम्बो-जया णं भंते ! लवणे समुद्दे दाहिणड्ढे हा दिवसे भवति तं चेव जाव तदा णं लवणे समुद्द पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणं राई भवति, एएणं अभिलावेणं नेयव्वं ।
जदा णं भंते ! लवणसमुद्दे दाहिणड्ढे पढमा ओसप्पिणी पडिवजइ तदा णं उत्तरडढेवि पढमा ओमप्पिणी |पडिवजह, जदा णं उत्तरड्ढे पढमा ओसप्पिणी पडिवजइ तदा णं लवणसमुद्दे पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणं नेवत्थि
ओसप्पिणी २ समणाउसो! ?, हंता गोयना ! जाच समणाउसो' ॥धायईसंडे णं भंते ! दीवे मरिया उदीचिपादीणमुग्गच्छ जहेव जंबुद्दीवस्स बत्तवया भणिया सच्चेव धायइसंडस्सवि भाणियव्वा, नवरं इमेणं अभि-15 लावणं सब्वे आलावगा भाणियब्वा । जया णं भंते ! धायइसंडे दीवे दाहिणढे दिवसे भवति तदा उत्त
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥ ३४० ॥
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रड्ढेषि, जया णं उत्तरदेवि तदा णं धायहसंडे दीवे मंदराणं पव्बयाणं पुरच्छिमपचत्थिमेणं राती भवति ?, हंता गोयमा ! एवं चेवजाव राती भवति ॥
[प्र.] हे भगवन् ! लवणसमुद्रमां सूर्यो ईशान खूणामां उगीने अंग्नि खूणामां जाय इत्यादि पूछ. [उ०] हे गौतम! जंबूद्वीपमा सूर्यो संबंधे जे वक्तव्यता कही छे ते बधी अहीं लवण समुद्र संबंधे पण कहेवी. विशेष ए के, ते वक्तव्यतामां पाठनो उच्चार आ प्रमाणे करवोः - हे भगवन् ! ज्यारे लवणसमुद्रना दक्षिणार्धमां दिवस होय छे, इत्यादि बधुं ते प्रमाणे कहेतुं यावत्-त्यारे लवणसमुद्रमां पूर्व पश्चिमे रात्री होय छे. 'ए अभिलापवडे बधुं जाणवुं [प्र०] हे भगवन् ! ज्यारे लवण समुद्रना दक्षिणार्धमां प्रथम अवसर्पिणी होय छे त्यारे उत्तरार्धमा प्रथम अपसर्पिणी होय छे अने न्यारे उत्तरार्धमा प्रथम अवसर्पिणी होय छे त्यारे लवणसमुद्रमां पूर्व पश्चिमे अवसर्पिणी नथी होती, उत्सर्पिणी नथी होती, पण हे दीर्घजीवि श्रमण ! त्यां अवस्थित ( फेरफार विनानो) काळ को छे ? [उ०] हे गौतम! हा, तेज रीते छे अने ते यावत् - हे श्रमणायुष्मन् । इत्यादि. [प्र० ] हे भगवन् ! घातकीखंड द्वीपमां सूर्यो ईशान खूणामां उगीने, इत्यादि पूछ. [अ०] हे गौतम! जे वक्तव्यता जंबूद्वीप संबंधे कही छे तेज वक्तव्यता बघी घातकीखंड संबंधे पण जाणवी. विशेष ए के, पाठनुं उच्चारण करती वखते बधा आलापको आ रीते कहेवा - [प्र० ] हे भगवन् ! ज्यारे घातकीखंड द्वीपमा दक्षिणार्धमां दिवस होय छे त्यारे उत्तरार्धमां पण दिवस होय छे अने ज्यारे उत्तरार्धमां पण तेम होय छे त्यारे घातकीखंड द्वीपमां मंदर पर्वतनी पूर्व पश्चिमे रात्री होय छे ? [अ०] हे गौतम ! हा, एज रीते छे, यावत्-रात्री होय छे.
जदा णं भंते! धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्वयाणं पुरच्छिमेण दिवसे भवति तदा णं पञ्चत्थिमेणवि, जदा
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५ शतके
उद्देशः १
॥ ३४० ॥
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व्याख्या
शतके
उरेशा
॥३४१॥
णं पञ्चत्थिमेणवि तदा णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पब्बयाणं उत्तरेणं दाहिणेणं राती भवति !, हंता गोयमा ! जाव भवति, एवं एएणं अभिलावेणं नेयव्वं जाच जया णं भंते ! दाहिणड्ढे पढमा ओस तया णं उत्तरड्ढे जया णं उत्तरड्ढे तया णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पचयाणं पुरच्छिमपञ्चस्थिमेणं नत्थि ओस. जाव ? समणाउसो, हंता गोयमा! जाव समणाउसो, जहा लबणसमुदस्स वत्तब्बया तहा कालोदस्सवि भाणियव्वा, | नवरं कालोदस्स नाम भाणियब्वं । अभितरपुक्खरद्धे ण भंते ! सूरिया उदीचिपाईणमुग्गच्छ जहेव धायइसंडस्स वत्तव्वया तहेव अभितरपुक्खरद्धस्मवि भाणियब्वा, नवरे अभिलावो जाव जाणियन्वो जाव तया णं अमितरपुक्खरद्धे मंदराण पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणं नेवत्थि ओस नेवत्थि उस्सप्पिणी, अवहिए णं तत्थ काले पन्नत्ते समणाउसो, सेवं भंते २॥ (सूत्रं १७८ ) ॥ पंचमसए पढमो उद्देसो समत्तो ॥५-१॥
[प्र०] हे भगवन् ! ज्यारे घातकीखंड द्वीपमा मंदर पर्वतोनी पूर्वे दिवस होय छे त्यारे पश्चिमे पण दिवस होय हे अने ज्यारे पश्चिमे पण दिवस होय छे त्यारे घातकीखंड द्वीपमां मंदर पर्वतोनी उत्तरे अने दक्षिणे रात्री होय छे ? [उ०] हे गौतम ! हा, एज रीते होय छे, अने ए अभिलापथी जाणवू, यावत्- [प्र०] हे भगवन् ! ज्यारे दक्षिणार्धमा प्रथम अवसर्पिणी होय छे त्यारे उत्तरार्धमां पण तेम होय छे अने ज्यारे उत्तरार्धमा पण होय छे त्यारे घातकीखंड द्वीपमा मंदर पर्वतोनी पूर्व पश्चिमे अवसर्पिणी
नथी होती, उत्सर्पिणी नथी होती ? यावत्-श्रमणायुष्मन् ! [उ०] हे गौतम ! हा, एज रीते छे, यावत्-श्रमणायुष्मन् ! जेम लवणहै समुदनी हकीकत कही तेम कालोद संबंधे पण समजवू. विशेष ए के, लवणने बदले 'कालोदनुं नाम कहे. [प्र.] हे भगवन् !
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥३४२॥
अभ्यंतर पुष्करार्धमा सूर्यो ईशान खूणामां उगीने इत्यादि पूछवं. (उ०] हे गौतम ! घातकीखंडनी वक्तव्यतानी पेठे अभ्यंतर पुष्क| रार्धनी वक्तव्यता पण कहेवी. विशेष ए के, घातकी खंडने बदले अभ्यंतर पुष्कराधनो पाठ कहेवो अने यावत्-'अभ्यंतर पुष्कराधमां | मंदरोनी पूर्व पश्चिमे अवसर्पिणी नथी होती, उत्सर्पिणी नथी होती, पण हे दीर्घजीवि श्रमण ! त्यां अवस्थित काळ होय छे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे एम कही यावत्-विचरे छे. ॥ १७८ ॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमूत्रना पांचमा शतकमा प्रथम उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
५शतके उद्देशः२ ||३४२॥
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उद्देशक २. प्रथम उद्देशकमां दिशाओने उद्देशीने दिवस विगेरेनो विभाग जणाव्यो छे अने हवे आ बीजा उद्देशकमां पण दिशाओने उद्देशीनेज पवन संबंधी हकीकतने जणाववा सारु सौथी पहेलं वायराना भेद संबंधे निरुपण करवाने कहे के के)
रायगिहे नगरे जाव एवं वदासी-अत्थि णं भंते ! ईसिं पुरेवाता पत्थावा. मंदावा० महावा. वायंति ? हता अत्थि, अस्थि णं भंते! पुरच्छिमेणं ईसिं पुरेवाया पत्थावाया मंदावाया महावाया वायंति?, हंता अस्थि । एवं पञ्चत्थिमेणं वाहिणेणं उत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं पुरच्छिमदाहिणेणं दाहिणपञ्चत्थिमेणं पच्छिमउत्तरेणं ॥ |जया णं भंते ! पुरच्छिमेणं इसिं पुरेवाया पत्थावाया मंदावा० महावा. वायंति तया णं पञ्चत्थिमेणवि ईसिं पुरेवाया, जया णं पचत्थिमेणं ईसिं पुरेवाया तया णं पुरच्छिमेणवि ?, हंता गोयमा ! जया णं पुरच्छि
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥३४३॥
५ शतके उद्देशान
मेणं तया णं पचत्यिमेणवि ईसिं, जया णं पचत्थिमेणवि ईसिं तया गं पुरच्छिमेणवि ईसिं, एवं दिसासु विदिसासु ॥ अत्थि भंते ! दीविचया ईसिं ?, हंता अस्थि । अत्थि णं भंते ! सामुद्दया ईसिं?, हंता अस्थि ।
[प्र०] राजगृह नगरमां यावत्-आ प्रमाणे बोल्या के-हे भगवन् । ईषत्पुरोवात-थोडा त्रेहवाळा-थोडी मीनाशवाळा-थोडा चिकणा-वायु, वनस्पति वगेरेने हितकर वायु-पथ्यवात, धीमे धीमे बानारा वायु-मंद वायुओ अने महावायुओ वाय छे? [उ.] हे गौतम ! हा, ते वायुओ वाय छे. [प्र०] हे भगवन् ! पूर्वमा ईषत्पुरोवात, पथ्यवात, मंदवात अने महावात छे ? [उ०] हे गौतम ! | हा, के. ए प्रमाणे पश्चिममा दक्षिणमा, उत्तरमां, ईशान खूणामां, अनि खूणामां, नैऋत खूणामां अने वायव्य खूणामां पण तेम | समजवू. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यारे पूर्वमा ईषत्पुरोवात, पथ्यवात, मंदवात अने महावात वाय छे त्यारे पश्चिममा पण ईषत्पुरोवात वगेरे वाय छे ? अने ज्यारे पश्चिममा ईषत्पुरोधात वाय छे त्यारे पूर्वमा वण ते वायुओ वाय छे ? [उ०] हे गौतम ! ज्यारे पूर्वमा ईषत्पुरोवात वगेरे वाय छे त्यारे ते बधा पश्चिममां पण वाय छे अने ज्यारे पश्चिममा ईषत्पुरोवात वगेरे वाय छे त्यारे पूर्वमां पण ते बधा वाय छे. ए प्रमाणे षधी दिशाओमा अने खूणाओमां पण समजवु. [प्र०] हे भगवन् ! ईषत्पुरोवात वगेरे वायुओ द्वीपमा होय छे ? [उ०] हे गौतम ! हा, होय छे. [प्र.] हे भगवन् ! ईषत्पुरोवात वगेरे वायुओ समुद्रमा होय छे ? [उ०] हे | गौतम ! हा, होय छे.
जया णं भंते ! दीविच्चया ईसिं तया णं सा सामुद्दयावि ईसिं जयाण सामुद्दया ईसिं तया णं दीविच्चयावि ईसिं?, णो इण? समहे । से केण?णं भंते ! एवं वुचति-जया णं दीविञ्चया इसिं णो णं तया सामुद्दया ईसिं?,
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व्याख्याप्रज्ञप्ति
५ शतके. उद्देशः२ ॥३४४॥
॥३४४॥
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जया णं सामुद्दया ईसिं णो णं तया दीविच्चया ईसिं?, गोयमा ! तेसिं णं वायाणं अन्नमन्नस्स विवच्चासेणं । लवणे समुद्दे वेलं नातिकमइ, से तेणटेणं जाव वाया बायंति॥ अस्थि णं भंते! ईसिं पुरेवाया पत्थावाया मंदावाया महावायाबायंति ?, हंता अस्थि । कया णं भंते! ईसिं जाव वायंति?, गोयमा! जया णं वाउयाए| अहारियं रीयंति तया णं ईसिं जाव वायं वायति । अत्थि णं भंते! ईसिं० १, हंता अस्थि, कया णं भंते ! ईसिं पुरेवाया पत्था० १, गोयमा ! जया णं वाउयाए उत्तरकिरियं रियइ तया र्ण ईसिं जाव वायंति। अत्थि णं मते ! ईसिं०, हंता अत्थि, कया णं भंते ! ईसिं पुरेवाया पत्था० ?, गोयमा ! जया णं वाउकुमारा वाउ. कुमारीओ वा अप्पणो वा परस्स वा तदुभयस्स वा अट्ठाए वाउकायं उदीरेंति तया णं ईसिं पुरेवाया जाव | वायंति ॥ वाउकाए णं भंते ! वाउकायं चेव आणमंति पाण. जहा खंदए तहा चत्तारि आलावगा नेयब्वा, | अणेगसयसहस्स. पुढे उद्दाति वा, ससरीरी निक्खमति ॥ (सूत्रं १७९)॥ | [प्र.] हे भगवन् ! ज्यारे द्वीपना ईषत्पुरोवात वगेरे वायुओ वाता होय त्यारे समुद्रना पण ईषत्पुरोवात वगेरे वायुओ वाता होय ? अने ज्यारे समुद्रना ते बघा वायुओ वाता होय त्यारे द्वीपना पण ते बधा वायुओ वाता होय ? [उ०] हे गौतम! ए बात है ठीक नथी. [प्र०] हे भगवन् ! तेनुं शुं कारण के, 'ज्यारे द्वीपना ईषतपुरोवातादि वाता होय त्यारे समुद्रना ईषत्पुरोवातादि न | वाता होय ? अने ज्यारे समुद्रना ईषत्पुरोवातादि पाता होय त्यारे द्वीपना ईषत्पुरोवातादि न वाता होय ? [उ०] हे गौतम ! ते | वायुओ अन्योअन्य व्यत्यास्त्रवडे ( एक बीजा साथे नहि, पण नोखा नोखा ) संचरे छे-ज्यारे द्वीपना ईपत्पुरोवातादि बाता होय
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥ ३४५॥
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त्यारे समुद्रना न वाय अने ज्यारे समुद्रना ईपत्पुरोवातादि वाता होय त्यारे द्वीपना न वाय ए रीते ए वायुओं परस्पर विपर्ययवडे वाय छे अने ते प्रकारे ते वायुओ लवणसमुद्रनी वेळाने उल्लंघता नथी ते कारणथी यावत्-पूर्व प्रमाणे 'वायुओ बाय छे' ए रीते कधुं छे. [प्र०] हे भगवन् ! ईपत्पुरोवात, पथ्यवात, मंदवात अने महावात छे ? [अ०] हे गौतम! हा, के. [प्र० ] हे भगवन् ! ईषत्पुरोवात वगेरे बायुओ क्यारे वाय छे ? [अ०] हे गौतम! ज्यारे वायुकाय पोताना भावपूर्वक गति करे छे त्यारे ईषत्पुरोवात वगैरे वायुओ वाय छे. [प्र० ] हे भगवन् ! ईषत्पुरोवात वगैरे वायुओ छे १ [उ० हे गौतम! हा, छे. [प्र० ] हे भगवन् ! ईषत्पुरोवात वगैरे वायुओ क्यारे वाय छे ? [अ०] हे गौतम! ज्यारे वायुकाय उत्तर क्रियापूर्वक - वैकिय शरीर बनावीने-गति करे छे त्यारे ईषत्पुरोवात वगेरे वायुओ वाय छे. [प्र० ] हे भगवन् ! ईषत्पुरोवात वगैरे वायुओ छे ? [अ०] हे गौतम! हा, छे. [प्र०] हे भगवन् ! ईषत्पुरोवात वगैरे वायुओ क्यारे वाय है ? [ उ० ] हे गौतम! ज्यारे वायुकुमारो अने वायुकुमारीओ पोताने, बीजाने के बन्नेन माटे वायुकायने उदीरे छे ईषत्पुरोवात वगैरे वायुओ वाय छे. [ प्र० ] हे भगवन् ! शुं वायुकाय, वायुकायनेज श्वासमा ले छे अने निःश्वासमां मूके छे ? [उ० ] हे गौतम! ए संबंधं बधुं स्कंदक उद्देशकमां कह्या प्रमाणे जाणवुं यावत् - ( १ ) अनेक लाखवार मरीने, (२) स्पर्श पाम्या पछी, (३) मरे छे अने (४) शरीर सहित नीकळे छे, ए रीते चार आलापक कहेवा. ।। १६९ ॥
अह भंते ! ओदणे कुम्मासे सुरा एए णं किंसरीराति वत्तव्वं सिया ?, गोयमा ! ओदणे कुम्मासे सुराए य जे घणे दब्बे एए णं पुव्वभावपन्नवणं पडुच्च वणस्सइजीवसरीरा, तओ पच्छा सत्थातीया सत्यपरिणामिआ अगणिज्झामिया अगणिज्यूसिया अगणिसेविया अगणिपरिणामिया अगणिजीवसरीराति बत्तव्वं सिया, सुराए
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५ शतके
उरेशः २
||३४५ ॥
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५ शतके | उद्देशः२ ॥३४६॥
य जे दवे दव्वे एएणं पुब्वभावपन्नवणं पडुच्च आउजीवसरीरा, तओ पच्छा सत्यातीया जाव अगणिकायसरीध्याख्या
राति बत्तव्वं सिया। अहन्नं भंते ! अए तंवे तउए सीसए उवले कसहिया एए णं किंसरीराइ वत्तव्वं सिया, प्रज्ञप्तिः
गोयमा ! अए तंबे तउए सीसए उवले कसहिया, एए णं पुष्वभावपन्नवणं पडुच्च पुढविजीवसरीरा, तओ पच्छा ॥३४६॥ I सत्यातीया जाव अगणिजीवसरीराति बत्तब्वं सिया।
[प्र०] हे भगवन् ! ओदन, कुल्माष अने मदिरा, ए त्रणे द्रव्यो क्या जीवनां शरीरो कहेवाय ? [उ०] हे गौतम ! ओदन, कुलमाष अने मदिरामां जे धन (कठण) पदार्थ छे ते पूर्वभाव प्रज्ञापनानी अपेक्षाए वनस्पति जीवनां शरीरो छे. अने ज्यारे ते | ओदन वगेरे द्रव्यो (खाणीया वगेरे) शस्त्रोथी कूटाय छे, शस्त्रोथी परिणमित-नवा आकारनां धारक-याय के अने अग्निथी तेना वर्णी (रंगो) बदलाय छे, अग्निथी झूषित-पूर्वना स्वभावने छोडनारां थाय छे, अग्निथी नवा आकारनां धारक बने छे त्यारे ते द्रव्यो | अग्निनां शरीरो कहेवाय छे, तथा सुरा (मदिरा) मा जे प्रवाही पदार्थ छे ते पूर्वभाव प्रज्ञापनानी अपेक्षाए पाणीना जीवनां शरीरो
के अने ज्यारे ते प्रवाही भाग शस्त्रथी कूटाय छे यावत्-अग्निथी जुदा रंगने धारण करे छे त्यारे ते भाग, अग्निकायनां शरीरो छे | एम कहेवाय छे. [प्र०] हे भगवन् ! लोढुं, तांबु, त्रपु-कलाइ, सीसुं, बळेलो पत्थर-कोयलो अने कसट्टिका-काट, ए बधां द्रव्यो |कया जीवनां शरीरो कहेवाय ? [उ.] हे गौतम ! लोहूं, तांबू, कलाइ, सीसुं कोयलो अने काट, ए बधां पूर्व भाव प्रज्ञापनानी अपेक्षाए पृथिवीना जीवनां शरीरो कहेवाय अने पछी-शस्त्र द्वारा कूटाया पछी-यावत्-अग्निना जीवनां शरीरो कहेवाय.
अहण्णं भंते ! अट्ठी अहिज्झामे चम्मे चम्मज्झामे रोमे २ सिंगे २ खुरे २ नखे २ एते णं किंसरीराति वत्त
MAR ALS
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
५ शतके उद्देशः१ ॥३४७॥
॥३४७॥
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व्वं सिया?, गोयमा! अट्ठी चंमे रोमे सिंगे खुरे नहे एए णं तसपाणजीवसरीरा, अद्विज्झामे चम्मज्झामे रोमज्झामे सिंग खुर० णहज्झामे एए णं पुव्वभावपण्ण वणं पडुच्च तसपाणजीवसरीरा, तओ पच्छा सत्यातीया जाव अगणिजीव०त्ति वत्तव्वं सिया । अह भंते! इंगाले छारिए भुसे गोमए एस णं किंसरीराति बत्तव्वं सिया?, गोयमा ! इंगाले छारिए भुसे गोमए एए णं पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च एगिदियजीवसरीरप्पओगपरिणामियावि | जाव पंचिंदियजीवसरीरप्पओगपरिणामियावि, तओ पच्छा सत्यातीया जाव अगणिजीवसरीराति वत्तव्वं
सिया ॥ ( सूत्रं १८०)॥ ६ [प्र०] हे भगवन् ! हाडकुं, आगथी विकृत-बगडेल थएल हाडकुं, चामडु, आगथी विकृत थएल चामडं, रुबाडां, आगथी
विकृत थएल रंबाडां, खरी, आगथी विकृत थएल खरी, नख, अने बळेल नखः ए बधां कया जीवना शरीरो कहेवाय ? [उ०] हे गौतम ! हाडकुं, चामडं, रुंवाडा, खरी अने नख, ए बधां व्रत जीवनां शरीरो कहेवाय अने बडेल हाडकुं, बळेल चामडुं, बळेल रुंवाडां, बळेल खरी अने बळेल नख, ए बधां पूर्व भाव प्रज्ञापनानी अपेक्षाए त्रस जीवनां शरीरो कहेवाय अने पछी-शस्त्र द्वारा संघट्टित थया पछी-यावत्-अग्निना जीवनां शरीरो कहेवाय. [प्र०] हे भगवन् ! अंगारो, राख, अॅसो अने छाणुं, ए बधां कया जीवनां शरीरो कहेवाय ? [उ.] हे गौतम ! अंगारो, राख, अँसो अने छाणुं, ए बधां पूर्व भाव प्रज्ञापनानी अपेक्षाए एकेंद्रिय जीवनां शरीरो कहेवाय अने यावत्-यथासंभव पंचेंद्रिय जीवनां शरीरो पण कहेवाय. तथा शस्त्रद्वारा संघटित थया पछी यावत्अग्निना जीवनां शरीरो कहेवाय.
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥३४८॥
. लवणे णं भंते ! समुद्दे केवतियं चक्कवालविक्खंभेणं पन्नत्ते?, एवं नेगव्वं जाव लोगहिती लोगाणुभावे, सेवं भंते ! २ त्ति भगवं जाव विहरइ ।। (मूत्रं १८१)॥ पञ्चमशते द्वितीयः ॥५-२ ।।
[प्र०] हे भगवन् ! लवणसमुद्रनो चकवाल विष्कंभ केटलो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम! ए प्रमाणे-पूर्व कह्या प्रमाणे जाणवू ए प्रमाणे यावत्-लोकस्थिति, लोकानुभाव, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे एम कही यावत्-विहरे छे.
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमूत्रना पांचमा शतकमां बीजा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
५ शतके उद्देशः३ ॥३४८॥
ROCCCCCASIAS
उद्देशक ३. आगळना प्रकरणमां वायुकाय संबंधे चिंतन कयु छे अने हवे वनस्पतिकाय विगेरेना शरीर संबंधी चिंतन करतां जणावे छ के:
अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमातिक्खंति भा० प० एवं प० से जहानामए जालगंठिया सिया आणुपुव्विगढिया अणंतरगढिया परंपरगढिया अन्नमन्नगढिया अन्नमन्नगुरुयत्ताए अन्नमन्नभारियत्ताए अन्नमन्नगुरुयसं| भारियत्ताए अण्णमण्णघडत्ताए जाव चिटुंति, एवामेव बहूणं जीवाणं बहूसु आजातिसयसहस्सेसु बहूई
आउयसहस्साई आणुपुब्विगढियाइं जाव चिट्ठति, एगेऽविय णं जीवे एगेणं समएणं दो आउयाइं पडिसंवेदयति, तंजहा-इहभवियाउयं च परभषियाउयं च, जं समयं इहभवियाउयं पडिसंवेदेइ तं समयं परभ
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५ शतके उमेशः३ ॥३४९॥
दावियाउयं पडिसंवेदेह जाव से कहमेयं भंते ! एवं?, गोयमा। जन्नं ते अन्नउत्थिया तं व जाव परभविया- | व्याख्या
उयं च, जे ते एवमाहंसु तं मिच्छा. अहं पुण गोयमा! एवमातिक्खामि जाव परवेमि अन्नमन्नघडत्ताए प्रज्ञप्तिः
चिटुंति, एवामेव एगमेगस्स जीवस्स बहूहिं आजातिसहस्सेहिं बहई आउयसहस्साई आणुपुब्विगढि॥३४९॥
याई जाव चिट्ठति, एगेऽविय णं जीवे एगेणं समएणं एग आउयं पडिसंवेदेइ, तंजहा-इहभविषाउयं वा परभवियाउयं वा, जं समयं इहभवियाउयं पडिसंवेदेइ नो तं समयं पर० पडिसंवेदेति, जं समयं प० नो तं समयं इहभवियाउयं प०, इहभवियाउयस्स पडिसंवेयणाए नो तं समयं पर० पडिसंवेदेइ, परभावियाउयस्स पडिसंवेयणाए नो इहभवियाउयं पडिसंवेदेति, एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एग आउयं प०, तंजहाइहभ० वा परभ० वा ॥ (सूत्रं १८२)॥ | प्र०] हे भगवन् ! अन्यतीथिको एम कहे छे, भाषे छे, जणावे छे अने प्ररूपे छे के, जेम कोइ एक जाळ होय, ते जाळमां ६ क्रमपूर्वक गांठो दीघेली होय, एक पछी एक एम वगर आंतरे ते गुंथेली होय, परंपराए गुंथेली होय, परस्पर गुंथेली होय एवी ते
जाळ जेम विस्तारपणे, परस्पर भारपणे, परस्पर विस्तार तथा भारपणे अने परस्पर समुदायपणे रहे छे अर्थात् जाळ तो एक छे पण | तेमां जेम अनेक गांठो परस्पर वळगी रहेली छे तेम क्रमे करीने अनेक जन्मो साथे संबंध धरावनारां एवां घणां आउखाओ घणा जीवो उपर परस्पर क्रमे करीने गुंथाएला छे-यावत्-हे छे अने तेम होवाथी तेमांनो एक जीव पण एक समये वे आयुष्यने अनुभवे छे. ते आ प्रमाणे:-एकज जीव आ भवनुं आयुष्य अनुभवे छे तेम तेज जीव पर भवनुं पण आयुष्य अनुभवे के जे समये आ
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बाख्याप्रज्ञप्ति ॥३५०॥
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भवतुं पण आयुष्य अनुभवे , तेज समये परभवतुं पण आयुष्य अनुभवे छे. यावत्-हे भगवन् ! ए ते केवी रीते ? [उ.] हे II गौतम ! ते अन्यतीर्थिको जे काइ कहे छे (ते बधुं पूर्व प्रमाणे कहेवु यावत्-परभवनुं आयुष्य, ए प्रमाणे जे तेओए कयु छे) ते वधू
४५ शतके तेओ असत्य कहे छे. हे गौतम ! हुं तो वळी एम कहुं छु यावत्-प्ररूपुंछ के, जेम कोइ एक जाळ होय अने ते यावत्-अन्योअन्य
उद्देशः३ समुदायपणे रहे के एज रीते क्रमे करीने अनेक जन्मो साथे संबंध धरावनारां एवां घणां आउखाओ एक एक जीव उपर सांकळीना
॥३५०॥ मकोडानी पेठे परस्पर क्रमे करीने गुंथाएलां होय छे अने एम होवाथी एक जीव एक समये एक आयुष्यने अनुभवे छे. ते आ रीतेः-जे जीव आ भवनुं आयुष्य अनुभवे छे अथवा तो परभवतुं आयुष्य अनुभवे छे पण जे समय आ भवतुं आयुष्य अनुभवे छ | ते समये परभवनुं आयुष्य अनुभवतो नथी अने जे समये परभवनुं आयुष्य अनुभवे छे ते समये आ भवतुं आयुष्य अनुभवतो नथीआ भवना आयुष्यने वेदवाथी परभवनुं आयुष्य वेदातुं (वेदतो) नथी अने परभवना आयुष्यने वेदवाथी आ भवतुं आयुष्य वेदातुं (वेदतो) नथी ए प्रमाणे एक जीव एक समये एक आयुष्यने अनुभवे छे ते आ प्रमाणे:-आ भवनुं आयुष्य अनुभवे छे के परभवर्नु आयुष्य अनुभवे छे. ॥ १८२ ॥
जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएसु उववजितए से णं भंते ! किं साउए संकमइ निराउए संकमइ ? गोयमा ! साउए संकमइ, नो निराऊए सकमइ । से णं भंते ! आउए कहिं कडे कहिं समाइण्णे ?, गोयमा! | पुरिमे भवे कडे, पुरिमे भवे समाइण्णे, एवं जाव वेमाणियाणं दंडओ । से नूर्ण भंते ! जे जंभविए जोणि उववजित्तए से तमाउयं पकरेइ, तंजहा-नेरइयाउयं वा जाव देवाउयं वा?, हंता गोयमा! जे जंभविए,
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
शतके | उद्देशः३ M ॥३५॥
जोणि उववजित्तए से तमाउयं पकरेइ, तंजहा-नेरइयाउयं वा तिरि०मणु देवाउयं वा, नेरहयाउयं पकरेमाणे सत्तविहं पकरेइ, तंजहा-रयणप्पभापुढविनेरइयाउयं वा जाव अहेसत्तमापुढविनेरइयाउयं वा, |तिरिक्खजोणियाउयं पकरेमाणे पंचविहं पकरेइ, तंजहा-एगिदियतिरिक्खजोणियाउयं वा, भेदो सव्वो | भाणियब्वो, मणुस्साउयं दुविहं, देवाउयं चरब्विहं, सेवं भंते! सेवं भंते ! ।। (सूत्रं १८३)॥ पञ्चमशते
तृतीयोद्देशकः॥५-३॥ | [प्र०] हे भगवन् ! जे जीव नरके जवाने योग्य होय. हे भगवन् ! शुं ते जीव, अहींथी आयुष्य सहित थइने नरके जाय ? [उ०] हे गौतम! नरके जवाने योग्य जीव अहींथी आयुष्य सहित थइने नरके जाय, पण आयुष्य विनानो न जाय. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवे, ते आयुष्य क्या बांध्यु अने ते आयुष्य संबंधी आचरणो क्या आचर्यां ? [उ०] हे गौतम ? ते जीवे, ते आयुष्य पूर्व भवमां बांध्यु अने ते आयुष्य संबंधी आचरणो पण पूर्व भवमा आचर्या. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिको सुधी दंडक कहेवो. [प्र.] | हे भगवन् ! जे जीव, जे योनिमां उपजवाने योग्य होय, ते जीव, ते योनि संबंधी आयुष्य बांधे ? जेमके नरक योनिमा | उपजवाने योग्य जीव नरक योनिनुं आयुष्य बांधे यावत्-देवयोनिमां उपजवाने योग्य जीव देवयोनिनु आयुष्य बांधे ? [उ०]
हे गौतम ! हा, तेम करे अर्थात् जे जीव, जे योनिमां उपजवाने योग्य होय, ते जीव, ते योनि संबंधी आयुष्य बांधे-नरकने योग्य | जीव नरकनुं आयुष्य बांधे, तिर्यचने योग्य जीव तिर्यचन आयुष्य बांधे, मनुष्यने योग्य जीव मनुष्यनुं आयुष्य बांधे अने देवने योग्य जीव देवनुं आयुष्य बांधे. जो नरकनुं आयुष्य बांधे तो ते, सात प्रकारना नरकमाथी कोइ एक प्रकारना नरक संबंधी आयुष्य
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
बांधे-रत्नप्रभापृथिवी-नरकर्नु आयुष्य के यावत्-अधासप्तमपृथिवी-सातमी नरक-नुं आयुष्य बांधे. जो ते, तियंचनुं आयुष्य बांधे | तो पांच प्रकारना तियंचमांथी कोइ एक तियंच संबंधी आयुष्य बांधे-एकेंद्रिय तिर्यचनुं आयुष्य इत्यादि-ए संबंधी बधो विस्तार| भेद-विशेष-अहीं कहेवो. जो ते, मनुष्यनुं आयुष्य बांधे तो ते बे प्रकारना मनुष्योमाथी कोइ प्रकारना मनुष्यनुं आयुष्य बांधे
अने जो ते, देवनुं आयुष्य बांधे तो-चार प्रकारना देवोमांथी कोइ एक प्रकारना देवोनुं आयुष्य बांधे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे | छे, हे भगवन् ! ए प्रमाणे छे एम कही यावत्-विहरे छे. ॥ १८३ ।।
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना पांचमा शतकमां त्रीजा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
५ शतके उद्देशः४ ||३५२||
यस्य भंते ! मणुस्से
उद्देशक ४. (आयुष्यनुं प्रकरण चालतुं होवाथी आ प्रकरणमां पण आयुष्य संबंधी बीजी वात कहेवाने सारु आ सूत्र कहे छे के )
छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से आउडिजमाणई सद्दाइं सुणेइ, तंजहा-संखसहाणि वा सिंगस संखियस. खरमुहिस० पोयास परिपिरियास. पणवस. पणहस० भंभास होरंभस० भेरिसद्दाणि वा झल्लरिस दुंदु| हिस. तयाणि वा वितयाणि घणाणि वा झुसिराणि वा, हंता गोयमा! छउमत्थे णं मणूसे आउडिज्ज|माणाई सद्दाई सुणेइ, तंजहा-संखसहाणि वा जाब झुसिराणि वा । ताई भंते ? किं पुट्ठाई सुणेइ अपुटाई सणेह, गोयमा ! पुट्ठाई सुणेइ, नो अपुढाई सुणेइ, जाव नियमा छद्दिसिं सुणेइ। छउमत्थे ण मणुस्से किं
पणवस० पणहसवा, हंता गोपमाः
पुढाई सुणेइ अप
M/ सुणेइ ?, गोणेह, तंजहा-संखमाण वा झुसिभिभास होरंभसः
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥३५३॥
शतके उद्देशः४ ॥३५३॥
आरगयाइं सहाइं सुणेइ पारगयाइं सहाई सुणेइ?, गोयमा आरगयाइं सहाई सुणेइ, नो पारगयाइं सहाई सुणेइ ।
[प्र०] हे भगवन् ! छद्मस्थ मनुष्य, वगाडवामां आवता शब्दोने सांभळे ठे, ते आ प्रमाणे:-ते मनुष्य, शंखना शब्दोने, रणशिंगाना शब्दोने, शंखलीना शब्दोने, काहलीना शब्दोने, मोटी काहलीना शब्दोने, डुकरना चामडाथी मढेल मोढावाळा-एक | जातना-वाजाना शब्दोने, ढोलना शब्दोने, ढोलकीना शब्दोने, ढका-डाक-डाकला-ना शब्दोने, होरंभना शब्दोने, मोटी ढकाना | शब्दोने, झालरना शब्दोने, दुंदुभिना शब्दोने, तत-तांतवाळा-(वीणा वगैरे)-वाजाना शब्दोने, वितत-ढोल-वाजाना शब्दोने, नक्कर वाजाना शब्दोने अने पोलां बाजाना शब्दोने सांभळे छे ? [उ०] हे गौतम ! हा, छद्मस्थ मनुष्य, वगाडवामां आवता शब्दोने सांभळे हे. अने ते पण पूर्व कह्या एटलां बधां वाजांओना-शंखथी यावत्-पोलां वाजांओना शब्दन पण सांभळे छे. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते शब्दो कान साथे अथडाया पछी संभळाय छे के अथडाया विना संभळाय छे ? [उ.] हे गौतम ! ते शब्दो कान साथे अथडाया पछी संभळाय छे, पण अथडाया विना नथी संभळाता. अने ते यावत्-अथडाया पछी छए दिशामांथी संभळाय छे. [प्र०] हे भगवन् ! शुं छद्मस्थ मनुष्य, ओरे रहेला शब्दोने सांभळे के के परे-रहेलाइंद्रियोना विषयथी दुर रहेल-शब्दोने सांभळे छे ? [उ०] हे गौतम ! छद्मस्थ मनुष्य, ओरे रहेला शब्दोने सांभळे छे, पण परे रहेला शब्दोने सांभळतो नथी.
जहा भंते ! छउमत्थे मणुस्से आरगयाइं सद्दाइं सुणेइ नो पारगयाइं सद्दाइं सुणेइ तहा णं भंते ! | केवली मणुस्से किं आरगयाइं सद्दाइं सुणेइ पारगयाइं सहाई सुणेइ ?, गोयमा ! केवली णं आरगयं वा पारगयं वा सम्बदरमूलमणंतियं सई जाणेइ पासेइ, से केणटेणं तं चेव केवली गं आरगयं वा पारगयं वा
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
।। ३५४।।
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जाव पासइ ?, गोयमा ! केवली णं पुरच्छिमेगं मियंपि जाणइ अमियंपि जा० एवं दाहिणेणं पचत्थिमेणं उत्तरेणं उडूढं अहे मिपि जाणइ अभियंपि जा० सव्वं जाणइ केवली सव्वं पासइ केवली सव्वओ जाणइ पामइ सव्वकालं जा० पा० सव्वभावे जाणइ केवली सव्वभावे पासइ केवली ॥ अणते नाणे केवलिस्स अणंते दंसणे केवलिस्स, निबुडे नाणे केवलिस्स, निव्वुडे दंसणे केवलिस्स, से तेणद्वेणं जाव पासइ || (सूत्रं १८४) ।
[प्र०] हे भगवन् ! जेम छवस्थ मनुष्य ओरे रहेला शब्दोने सांभळे छे अने परे रहेला शब्दोने सांभळतो नथी तेम शुं केवळी मनुष्य ओरे रहेला शब्दोने सांभळे छे अने परे रहेला शब्दोने नथी सांभळतो ? [उ०] हे गौतम! केवळी तो ओरे रहेला अने परे रहेला आदि अने अंत विनाना शब्दने - सर्व प्रकारना शब्दने जाणे छे अने जूए छे. [प्र० ] हे भगवन् ! ' ओरे रहेला अने परे रहेला शब्दने पण यावत्- (नेज प्रमाणे कहें) केवळी जाणे छे अने जूए छे' ते कारण ? [अ०] हे गौतम! केवळी जीव पूर्व दिशानी मित वस्तुने पण जाणे छे अने अमित वस्तुने पण जाणे छे, ए प्रमाणे दक्षिण दिशानी, पश्चिम दिशानी, उत्तर दिशानी, उर्ध्व दिशानी अने अधो दिशानी पण मित वस्तुने तथा अमित वस्तुने केवळी जाणे छे अने जुए छे. केवळी वधुं जाणे छे अने बधुं जूए छे. केवळी बधी तरफ जाणे छे अने जूए छे. केवळी सर्व काळे सर्व पदार्थों भावो-ने जाणे छे अने जूए छे, केवळीने अनंत ज्ञानी अने अनंत दर्शन के अने केवळीनुं ज्ञान अने दर्शन कोइ जातना पडदा (आवरण) बाळु नथी माटे ते कारणथी' यावत्जूए छे' एम कहुं छे. ॥ १८४ ॥
छमस्थे णं भंते! मस्से हसेज वा उस्सुयाएज्ज वा ?, हंता हसेज वा उस्सुयाएज्ज वा, जहा णं भंते!
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५ शतके
उद्देश: ४ ||||३५४ ||
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः
५ शतके उद्देशः४
छउमत्थे मणुसे हसेज जाव उस्सु० तहा णं केवलीवि हसेज वा उस्सुयाएज बा ?, गोयमा! नो इण? ममह, से केणतुणं भंते ! जाब नो णं तहा केवली हसेज वा जाव उस्सुयाएज्ज वा?, गोयमा ! जपणं जीवा चरित्तमोहणिजस्स कम्मस्स उदएणं हसति वा उस्सुयायति वा, से णं केवलिस्स नत्थि, से तेणटेणं जाव नो णं तहा केवली हसेज वा उस्सुयाएज वा। जीवे णं भंते ! हसमाणे वा उस्सुयमाणे वा कइ कम्पयडीओ बंधइ ?, गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अट्ठविहवंधए वा, एवं जाव वेमाणिए, पोहत्तिएहिं जीवेगिदियवज्जो तियभंगो । छउमत्थे णं भंते ! मणूसे निहाएज वा पयलाएज वा!, हंता निद्दाएज वा पयलाएन वा, जहा हसेज वा तहा नवरं दरिसणावरणिजस्स कम्मस्स उदएणं निहायंति वा पयलायंति वा, से णं केवलिस्स नत्थि, अन्नं तं चेव । जीवे णं भंते ! निद्दायमाणे वा पयलाणमाणे वा कति कम्मपयडीओ बंधइ ?, गोयमा !
सत्तविहबंधए वा अढविहबंधए वा, एवं जाव वेमाणिण, पोहत्तिएसु जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो॥ (सूत्रं १८५) ४ा [प्र०] हे भगवन् ! छमस्थ मनुष्य हसे अने काइपण लेवाने उतावळो थाय? [उ०] हे गौतम ! हा, ते हसे अने उतावळो पण
थाय खरो. [प्र.] हे भगवन् ! जेम छमस्थ मनुष्य हसे अने उतावळो थाय तेम केवळी पण हसे अने उतावळो थाय? [उ०]हे गौतम ! | ए अर्थ समर्थ नथी-छमस्थ मनुष्यनी पेठे यावत-केवळी न हसे अने उतावळो पण न थाय. [प्र.] हे भगवन् ! छमस्थ मनुष्यनी पेठे | यावत्-केवळी हसे नही अने उतावळो थाय नहीं तेनुं शुं कारण ? [उ०] हे गौतम ! दरेक जीवो चारित्रमोहनीय कर्मना उदयथी हसे छे अने उतावळा थायछे अने केवळिने तो चारीत्रमोहनीय कर्मनो उदयज नथी माटे ते कारणथी छअस्थमनुष्यनी पेठे यावत्-केवळी
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पाख्याप्रज्ञप्तिः ॥३५६॥
५ शतके उद्देशः४ ॥३५६॥
CARSACROCOM
| हसता नथी तेम उतावला पण थता नथी. [प्र०] हे भगवन् ! हसतो अने उतावळो थतो जीव केटलां प्रकारनां कर्मोने यांधे? [उ.]
हे गौतम! तेवा प्रकारनो जीव सात प्रकारना कोंने बांधे के आठ प्रकारनां कर्मोने बांधे. ए प्रमाणे यावत्-वैमानिक सुधी समजवू. द तथा ज्यारे घणा जीवोने आश्रीने उपलो प्रश्न पूछाय त्यारे तेमां कर्मना बंध संबंधी त्रण भांगा आवे. पण तेमां जीव अने एकें
दियो न लेवा. [प्र.] हे भगवन् ! छमस्थ मनुष्य निद्रा ले-उघे अने उभो उभो उघे? [उ०] हे गौतम ! हा, ते उंघे अने उभो उभो ला पण उघे. जेम आगळ हसवा वगेरे विषे केवळी अने छमस्थ संबंधे प्रश्नोत्तरो जणाव्या हता. तेम निद्रा संबंधे पण ते बन्ने संबंधे प्रश्नो
तरो जाणवा. विशेष ए के, छद्यस्थ मनुष्य दर्शनावरणीय कर्मना उदयथी निद्रा ले छे अने उभो उभो उंघे छे अने ते दर्शनावरणीय कर्मनो उदय केवळिने नथी माटे ते, छद्मस्थनी पेठे निद्रा लेतो नथी. (इत्यादि बीजुं वधुं तेज प्रमाणे जाणवू.) [प्र०] हे भगवन् ! | निदा लेतो के उभो उभो उंघतो जीव केटली कर्मप्रकृतिनो बंध करे (बांधे) [उ.] हे गौतम ! ते जीव सात कर्मप्रकृतिनो बंध करे
के आठ कर्मप्रकृतिनो बंध करे (बांधे). ए प्रमाणे यावत्-वैमानिक सुधी जाणवू. तथा ज्यारे घणा जीवोने उपलो प्रश्न पूछाय त्यारे | तेमां कर्मना बंध संबंधी त्रण भांगा आवे, पण तेमां जीव अने एकेंद्रिय न लेवा. ॥ १८५ ॥ PI हरीण भंते ! हरिणेगमेसी मकदूए इत्थीगम्भं संहरणमाणे किं गम्भाओ गम्भं साहरइ १ गम्भाओ
जोणिं माहरइ २ जोणीओ गम्भं साहरइ ३ जोणीओ जोणिं साहरइ ४ ?, गोयमा ! नो गम्भाओ गम्भं साहरइ, नो गम्भाओ जोणिं साहरइ, नो जोणीओ जोणिं साहरइ, परामुसिय २ अव्वाबाहेणं अब्बाबाहं जोणीओ गम्भं साहरइ ॥ पभू ण भंते ! हरिणेगमेसी सक्कस्स णं दूए इत्थीगन्भं नहसिरसि वा रोमकूवंसि
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥ ३५७ ॥
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वा साहरित्तए वा नीहरितए वा ?, हंता पभू, नो चेव णं तस्स गन्भस्स किंचिवि आबाहं वा विवाहं वा उप्पाएज्जा, छबिच्छेदं पुण करेज्जा, एसहुमं च णं साहरिज्ज वा नीहरिज्ज वा । (सूत्रं १८६)
[प्र० ] हे भगवन् ! इंद्रन संबंधी शक्रनो दूत हरिनैगमेषी नामनो देव ज्यारे स्त्रीना गर्भनुं संहरण करे छे त्यारे शुं एक गर्भाशयमांथी गर्भने लइने बीजा गर्भाशयमां मूके छे गर्भथी लइने योनिद्वारा बीजी (स्त्री) ना उदरमां मूके छे ? के योनिद्वारा गर्भने बहार काढीने बीजा गर्भाशयमां मूके छे ? के योनिद्वारा गर्भने पेटमांथी काढीने पाछो तेज रीते (योनिद्वाराज बीजीना ) पेटमां के छे ? [उ०] हे गौतम! ते देव, एक गर्भाशयमांथी गर्भने लइने बीजा गर्भाशयमां मुकतो नथी, गर्भथी लइने योनि वाटे गर्भने बीजीमा पेटमा मूकतो नथी, तेम योनिवाटे गर्भने बहार काढीने पाछो योनिबाटे ( गर्भने ) पेटमा मुकतो नथी. पण पोताना हाथ बडे गर्भने अंडी अडीने अने ते गर्भने पीडा म थाय तेवी रीते योनिद्वारा बहार काढीने बीजा गर्भाशयमां मूके छे. [प्र०] हे भगवन ! शक्रनो दूत हरिनैगमेषी देव स्त्रींना गर्भने नखनी टोच वाटे या तो वाडाना छिद्र वाटे अंदर मूकवा के बहार काढवा समर्थ छे ? [उ०] है गौतम ! हा, ते तेम करवाने समर्थ छे उपरांत ते देव गर्भने कांइपण ओछी के वधारे पीडा थवा देतो नथी तथा ते गर्भना शरीरनो छेद- शरीरनी कापकूप करे छे अने पछी तेने घणो सूक्ष्म करीने अंदर मूके छे के बहार काढे छे. ॥ १८६ ॥
ते काले तेणं समरणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अइमुत्ते णामं कुमारसमणे पगतिभद्दए जाव विणीए, तए णं से अहमुत्ते कुमारसमणे अण्णया कयाइ महावुट्टिकायंसि निवयमाणंसि कक्खपडिग्ग
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५ शतके
उद्देशः ४ ॥३५७॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥३५८॥
॥३५८॥
CARRC
हरयहरणमायाए बहिया संपट्टिए विहाराए, तए णं से अइमुत्ते कुमारसमणे वाहयं वहमाणं पासइ २ मट्टि| याए पालि बंधइ णाविया मे २ नाविओविव णावमयं पडिग्गहगं उदगंसि कट्ट पव्वाहमाणे २ अभिरमइ, तं ४५ शतके च थेरा अद्दक्खु, जेणेव समणे भगवं० तेणेव उवागच्छंति २ एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी उद्देशः४ अतिमुत्ते णाम कुमारसमणे से णं भंते ! अत्तिमुत्ते कुमारसमणे कतिहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिहिति जाव अंतं | करेहिति ?, अज्जो समणे भगवं महावीरे ते थेरे एवं बयासी
ते काले, ते समये श्रमण भगवंत महावीरना शिष्य अतिमुक्तक नामना कुमारश्रमण, जेओ रूभावे भोळा अने यावत्-विनय| वाळा हता. ते अतिमुक्तक कुमारश्रमण अन्य कोइ दिवसे भारे वरसाद वरसतो हतो त्यारे पोतानी काखमां पा अने रजोहरण लइने बहार ( वडी शंकाना निवारण माटे ) चाल्या. त्यारपछी बहार जतां ते अतिमुक्तक कुमारश्रमणे वेता पाणीनुं एक नार्नु खाबोचियुं जोयु-तेने जोया-पछी ते खाबोचिया फरती एक माटीनी पाळ बांधी अने 'आ मारी नावछे आ मारी नाव छ' ए प्रमाणे नाविकनी पेठे पोताना पात्र नावरूप करी-पाणीमां नाखी ते कुमारश्रमण प्रवाहे छे-पाणीमा तरावे छे-ए रीते ते, रमत रमे छे. हवे ए प्रकारना बनावने स्थविरोए जोयो अने जोया पछी तेओए जे तरफ श्रीमहावीरस्वामी छे ते तरफ आवीने आ प्रमाणे कहा के:
एवं खलु अन्जो! मम अंतेवासी अइमुत्ते णाम कुमारसमणे पगतिभद्दए जाव विणीए से णं अइमुत्ते कुमाहै रसमणे इमेणं चेव भवग्गहणेणं सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति, तं मा णं अजो! तुम्भे अतिमुत्तं कुमारस
मणं हीलेह निंदह खिंसह गरहह अवमन्नह, तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! अतिमुत्तं कुमारसमणं अगिलाएF
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥३५९॥
५ शतके उद्देशा ॥३५९॥
संगिण्हह अगिलाए उवगिण्हह अगिलाए भत्तेणं पाणेणं विणयेणं वेयावडियं करेह, अइमुत्ते णं कुमारसमणे
अंतकरे चेव अंतिमसरीरिए चेव, तएणं ते थेरा भगवंतोसमणेणं भगवया म० एवं वुत्ता समाणा समणं भगवं | महावीरं वंदति नमसंति अइमुत्तं कुमारस मणं अगिलाए संगिण्हंतित्ति जाव वेयावडियं करेति ॥(सूत्रं १८७)।।।
[प्र०] हे देवानुप्रिय ! भगवान् अतिमुक्तक नामे कुमारश्रमण आपना शिष्य छे. तो हे भगवन् ! ते अतिमुक्तक कुमारश्रमण केटला भवो कर्या पछी सिद्ध थशे यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करशे ? [उ०] हवे श्रमण भगवंत महावीरे ते स्थविरोने आ प्रमाणे हा का केः-हे आर्यो ! स्वभावे भोळो यावत्--विनयी एवो मारो शिष्य अतिमुक्तक नामनो कुमारश्रमण आ भव पूरो करीनेज सिद्ध द्र थशे यावत्-सर्व दुःखनो नाश करशे. माटे हे आर्यो ! तमे ते अतिमुक्तक कुमारश्रमणने हीलो नहीं, निंदो नहीं, खिसो नहीं, वगोवो
नहीं अने तेनुं अपमान पण करो नहीं. किंतु हे देवानुप्रियो ! तमे ग्लानि राख्या शिवाय ते कुमारश्रमणने साचवो, तेने सहाय करो |अने तेनी सेवा करो. ( कारण के ) ते अतिमुक्तक कुमारश्रमण सर्व दुःखोनो नाश करनार छे अने आ छेल्ला शरीरवाळो -आ | शरीर छोडया पछी तेने बीजीवार शरीरधारी थवा- नथी. श्रमण भगवंत महावीरे ते स्थविरोने पूर्व प्रमाणे कह्या पछी ते स्थविरोए
श्रमण भगवंत महावीरने वंदन कयुं अने नमन कर्यु अने पछी ते स्थविरोए श्रीमहावीरनी आज्ञा प्रमाणे ते अतिमुक्तक कुमारश्रमणने ४) विना ग्लानिए साचव्या अने यावत्-तेओनी सेवा करी. ॥ १८७ ॥
तेणं कालेणं २ महामुक्काओ कप्पाओ महासग्गाओ महाविमाणाओ दो देवा महिड्ढीया जाव महाणु-15 भागा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं पाउन्भूया, तए णं ते देवा समणं भगवं महावीरं मणसा
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व्याख्या
५ शतके उद्देशः४ ॥३६॥
॥३६०॥
SAX
|वंदति नमसंति मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं पुच्छंति-कति णं भंते ! देवाणुप्पियाणं अंतेवासीसयाई | सिज्झिहिंति जाव अंतं करेहिंति ?, तए णं समणे भगवं महावीरे तेहिं देवेहिं मणसा पुढे तेसिं देवाणं मणसा चेव इमं एतास्वं वागरणं वागरेति-एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम सत्त अंतेवासीसयाई मिज्झिहिंति जाव अंतं करेहिंति, तए णं देवा समणेणं भगवया महावीरेणं मणसा पुढेणं मणसा चेव इमं एयास्वं बागरणं वागरिया समाणा हहतुट्ठा जाब हयहियया समणं भगवं महावीरं वदति णमंसंति २ त्ता मणसा व सुस्सूसमाणा णमंसमाणा अभिमुहा जाव पज्जुवासंति ।
ते काले, ते समये महाशुक्र नामना देवलोकथी महासर्ग (स्वर्ग) नामना मोटा विमानथी मोटी ऋद्धिवाळा यावत्-मोटा भाग्यवाळा बे देवो श्रमण भगवंत महावीरनी पासे प्रादुर्भूत श्या ते देवोए श्रमण भगवंत महावीरने मनथीज बंदन अने नमन कयु तथा मनथीज आ प्रकारना प्रश्नो पूछयाः- [प्र.] हे भगवन् ! आप देवानुप्रियना केटला शिष्यो सिद्ध थशे यावत्-सर्व दुःखनो अंत आणशे ? [उ०] त्यारपछी ते देवोए मनथीज प्रश्नो पूछया पछी-श्रमण भगवंत महावीरे पण ते देवोने तेओना सवालना जवाबो मनथीज आप्याः हे देवानुप्रियो ! मारा सातसें शिष्यो सिद्ध थशे यावत्-सर्व दुःखोनो नाश करशे. ए रीते मनथी पूछाएल एवा श्रमण भगवंत महावीरे ते देवोने तेओना सवालना जवाबोमनथीज आप्या तेथी ते देवो हर्षवाळा, तोषवाला अने यावत्-हृतहृदयवाळा थइ गया, अने तेओए श्रमण भगवंत महावीरने वंदन कयु, नमन कर्यु अने मनथीज पर्युपासना करवानी इच्छावाळा, | नमता यावत्-ते देवो सन्मुख थइने पर्युपासना करवा लाग्या.
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥३६१ ॥
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तेणं काले २ समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूती णामं अणगारे जाव अदूरसामंते उढजाणू जाव विहरति, तएं णं तस्स भगवओ गोयमस्स झाणतरियाए वमाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था, एवं खलु दो देवा महिढिया जाव महाणुभागा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं पाउन्भूया तं नो खलु अहं ते देवे जाणामि कयराओ कप्पाओ वा सग्गाओ वा विमाणाओ वा कस्स वा अत्थस्स अट्ठाए इहं हव्वमागया ?, तं गच्छामि णं भगवं महावीरं वंदामि णमंसामि जाव पज्जुवासामि इमाई चणं एयारूवाइ वागरंणाई पुच्छिस्सामित्तिकट्टु एवं संपेहेति २ उठाए उट्ठेति २ जेणेव समणे भगव महा० जाव पज्जुवासति, गोयमादि समणे भगवं म० भगवं गोयमं एवं वदासी-से गूणं तव गोयमा ! झाणंतरियाए माणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए जाव जेणेव मम अंतिए तेणेव हव्वमागए, से णूणं गोयमा ! अत्थे समत्थे ?, हंता अस्थि, तं गच्छाहि णं गोयमा ! एए चेव देवा इमाई एयारूबाई वागरणाई वागरेहिंति,
ते काले, ते समये श्रमण भगवंत महावीरना मोटा शिष्य इंद्रभूति नामना अनगार यावत् - श्रीमहावीरनी पासे उभडक बेसीने यावत्-विहरे रहे छे, पछी ध्यानांतरिकामां-ध्याननी समाप्तिमां वर्तता अर्थात् पूरेपूरुं ध्यान ध्याई रह्या पछी ते भगवान् गौतम इंद्रभूति-ने आ प्रकारनो संकल्प यावत्-उत्पन्न थयो:-'मोटी ऋद्धिबाळा यावत्-मोटा प्रभाववाळा वे देवो श्रमण भगवंत महावीरनी पासे प्रादुर्भूत थया हता. तो हुं ते देवोने जाणतो नथी के, तेओ कया कल्पथी, कया स्वर्गथी अने कया विमानथी शा कारणे शीघ्र अहीं आव्या ? माटे जाउं अने भगवंत महावीरने वांदु, नमुं, अने यावद - तेओनी पर्युपासना करूं तथा एम कर्या पछी हुं मारा पूर्व
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५ शतके
उद्देशः ४ ॥३६२॥
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व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥३६२॥
५ शतके उद्देशः४ ॥३६॥
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प्रकारना आ प्रश्नो पूछीश' एम विचारीने, उभा थइने जे तरफ श्रमण भगवंत महावीर छे ते तरफ जइने यावत्-तेओनी सेवा करे छे. हवे श्रमण भगवंत महावीरे 'गौतमादि साधुओ! ' एम संबोधी मगवान् गौतमने आ प्रमाणे का के-हे गौतम ! ज्यारे तें ध्याननी समाप्ति करी लीधी त्यारे तारा मनमां आ प्रकारनो संकल्प थयो हतो के 'हुं देवो संबंधी हकीकत जाणवा माटे श्रमण भगवंत महावीर पासे जाउं अने यावत्-तेज कारणथी तुं मारी पासे अहीं शीघ्र आव्यो छे' केम हे गौतम ! में काए बराबर छेने ? गौतमे कांके, 'हे भगवन् ! ते बराबर छे.' पछी भगवंत महावीरे कयुके, तारी शंकाने टाळवाने सारु हे गौतम ! तुं (ए देवोनी पासे) जा. अने ए देवोन तने ए संबंधेनी पूरी माहिती संभळावशे.
तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेणंअन्भणुन्नाए समाणे समण भगवं महावीरं वंदइ मणसइ |२ जेणेव ते देवा तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तए ण ते देवा भगवं गोयमं पज्जुवास (एज) माणं पासंति २ हट्ठा | जाव हयहियया खिप्पामेव अन्मुटुंति २ खिप्पामेव पच्चुवागच्छंति २ जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छंति २त्ता जाव णमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु भंते ! अम्हे महासुक्कातो कप्पातो महासग्गातो महाविमाणाओ दो देवा महिड्ढिया जाव पाउन्भूता, तए णं अम्हे समणं भगवं महावीरं वंदामो णमंसामो २ मणसा चेव इमाई एयारवाई वागरणाई पुच्छामो-कति णं भंते ! देवाणुप्पियाणं अंतेवासीसयाई सिज्झिहिंति जाव अंतं करेहिंति ?, तए णं समणे भगवं महावीरे अम्हेहिं मणसा पुढे अम्हं मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं वागरेति -एवं खलु देवाणु मम सत्त अंतेवासीसयाइं जाव अंतं करेहिंति, तए णं अम्हे समणेणं भगवया महा
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥३६३ ॥
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वीरेणं मणसा चैव पुट्टेणं मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं वागरिया समाणा समणं भगवं महावीरं वंदामो नमसामो २ जाव पज्जुवासामो तिकट्टु भगवं गोतमं वंदंति नमसंति २ जामेव दिसिं पाउ० तामेव दिसिं प० ॥ ( सूत्रं १८८ ) ॥
त्यापछी श्रमण भगवंत महावीर तरफथी एवा प्रकारनी अनुमति मळवाने लीधे भगवान् गौतमे श्रमण भगवंतने वांदी, नभी | अने जे तरफ पेला देवो हता ते तरफ जवाने संकल्प कर्यो, हवे ते देवो भगवान् गौतमने पोतानी पासे आवता जोड़ने हर्षवाळा यावत् हृतहृदयवाळा थया अने शीघ्रज उभा थड़ तेओनी सामे गया-ते देवो, ज्यां भगवान् गौतम हता ज्यां आव्या-अने तेओने वांदी, नमी ते देवोए आ प्रमाणे कां:-हे भगवन् ! महाशुक नामना कल्पथी, महास (रू) र्ग विमानथी मोटी ऋद्धिवाळा यावत्-अमे वे देवो अहीं प्रादुर्भूत थया छीए अने (पछी) अमे श्रमण भगवंत महावीरने वांदीए छीए नमीए छीए अने मनथीज आ प्रकारना प्रश्नो पूछीए छीए- 'हे भगवन् ! आप देवानुप्रियना केटला सो शिष्य सिद्ध थशे यावत् सर्व दुःखनो नाश करशे ?' आ रीते अमे श्रमण भगवंत महावीरने मनश्री पूछया पछी अमने पण ते श्रमण भगवंत महावीरे मनथीज तेनो जवाब आप्यो के - 'हे देवानुप्रियो ! मारा सातसे शिष्यो सिद्ध थशे यावत् सर्व दुःखोनो नाश करशे ' ए रीते अमे मनथीज पूळेल प्रश्नोना जवाब पण अमने श्रमण भगवंत महावीर तरफथी मन द्वाराज मळ्या तेथी अमे श्रमण भगवंत महावीरने बांदीए छीए, नमीए छीए अने यावत्- तेओनी पर्युपासना करीए छीए, एम करीने ( कहींनं) ते देवो भगवान् गौतमने वांदे छे, नमे छे अने पछी तेओ जे दिशामांथी प्रगट्या हता तेज दिशामां अंतर्धान पड़ गया. ।। १८८ ॥
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५ शतके
उद्देशः ४
।।३६३।।
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥३६४॥
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भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं जाव एवं वदासी-देवा णं भंते ! संजयाति वत्तव्वं सिया ?, गोयमा ! णो तिणट्ठे समट्ठे, अभक्खाणमेयं, देवा णं भंते! असंजताति वत्तव्वं सिया ?, गोयमा ! णो तिणट्टे०, णिडुरवयणमेयं, देवा णं भंते! संजयासंजयाति वत्तव्यं सिया ?, गोयमा ! णो तिणट्ठे समट्ठे, असम्भूयमेयं देवाणं, से किं खाति णं भंते । देवाति वत्तव्वं सिया ?, गोयमा ! देवा णं नोसंजयाति वत्तव्वं सिया ॥ (सूत्रं १८९) ॥ [प्र० ] हे भगवन् !' एम कही भगवान् गौतमे श्रमण भगवंत महावीरे यावत्-आ प्रमाणे कछु के, हे भगवन् ! देवो संयत कहेवाय ? [अ०] हे गौतम! ना-ए अर्थ समर्थ नथी - देवोने संयत कहेवा ए खोटुं छे. [प्र०] हे भगवन् ! देवो असंयत कहेवाय ? [उ० ] हे गौतम! ना - ( कारण के) 'देवो असंयत छे' ए कथन निष्ठुर वचन छे. [प्र० ] हे भगवन् ! देवो असंयतासंयत कहेवाय ? [ उ० ] हे गौतम ! ना-ए अर्थ समर्थ नथी - देवोने संयतासंयत कहेवा ए अछतं छतुं करवा जेवुं छे-खोर्ड छे. [प्र०] हे भगवन् ! त्यारे हवे देवोने केवा कहेवा ? [उ०] हे गौतम! देवोने नोसंयत कहेवा. ॥ १८९ ॥ देवा णं भंते! कयराए भासाए भासंति ?, कयरा वा भासा भासिजमाणी विसिस्सति १, गोयमा ! देवा णं अद्धमागहाए भासाए भासंति, सावि य णं अद्धमागहा भासा भासिज्जमाणी विसिस्सति ॥ ( सूत्रं १९० ) ।
[प्र०] हे भगवन् ! देवो कई भाषामा बोले छे ? अथवा देवो जे भाषानो प्रयोग करे छे ते भाषाओमां विशिष्टरूप कह भाषा के ? [उ०] हे गौतम! देवो अर्धमागधी भाषमां बोले छे अने त्यां बोलाती भाषाओमां पण तेज भाषा - अर्धमागधी भाषा विशिष्टरूप छे. ॥। १९० ॥
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५ शतके
उद्देशः४
।।३६४।।
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥३६५॥
५ शतके उद्देशः४ ॥३६॥
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केवली णं भंते ! अंतकरं वा अंतिमसरीरियं वा जाणति पासइ ?, हता! गोयमा! जाणति पासति । जहा णं भंते ! केवली अंतकरं वा अंतिमसरीरियं वा जाणति पासति तहा णं छउमत्थेवि अंतकरं वा अंतिमसरीरियं वा जाणति पासति ?, गोयमा ! णो तिणढे समठे, सोचा जाणति पासति, पमाणतो वा, से किं तं सोचा गं?, केवलिस्स वा केवलिसावयस्स वा केवलिमावियाए वा केवलि उवासगरम वा केवलिउवासियाए वा तप्पक्खियस्स वा तप्पक्खियसावगस्म वा तप्पक्खियसावियाए वा तप्पक्वियउवासगस्स वा तप्पक्खियउवासियाए वा से तं सोचा ।। (सू. १९१)॥ ६ [प्र०] हे भगवन् ! केवली मनुष्य, अंतकग्ने वा चरमशरीरवाळाने जाणे, जूए ? [उ०] हा, गौतम ! जाणे अने जूए. [प्र.]
हे भगवन् ! जे प्रकारे केवली मनुष्य, अंतकरने वा चरमशरीरवाळाने जाणे अने जूए ते प्रकारे छमस्थ मनुष्य, अंतकरने वा अंति| मशरीरवाळाने जाणे, जूए ? [उ०] हे गौतम ! ते अर्थ समर्थ नथी. तो पण सांभळीने अथवा प्रमाणथी छद्मस्थ मनुष्य पण अंत
करने वा चरमदेहिने जाणे अने जूए. [प्र०] ' सांभळीने ' ते शु? [उ०] सांभळीने एटले केवली पासेथी, केवलिना श्रावक |पासेथी, केवलिनी श्राविका पासेथी, केवलिना उपासक पासेथी, केवलिनी उपासिका पासेथी, केवलिना पाक्षिक-स्वयंबुद्ध-पासेथी, स्वयंबृद्धना श्रावक पासेथी, स्वयंबुद्धनीं श्राविका पासेथी, स्वयंबूद्धना उपासक पासेथी, स्वयंबुद्धनी उपासिका पासेथी सांभळीने. ए 'सांभळीने ' शब्दनो अर्थ थयो. ॥ १९१ ॥
सेः किं तं पमाणे?,२ प्रमाणे चउविहे पण्णत्ते, तंजहा-पच्चक्खे अणुमाणे ओवम्मे आगमे, जहा अणुओ
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व्याख्यान प्रज्ञप्तिः ॥३६६॥
गदारे तहा णेयव्वं पमाणं जाव तेण परं नो अत्तागमे, नो अणंतरागमे, परंपरागमे ॥ (सू० १९२ )॥ | [म.] 'प्रमाण' ते शुं? [उ.] प्रमाण चार प्रकारचें छे. ते जेमके. प्रत्यक्ष, अनुमान, औपम्य-उपमान अने आगम. जे|५शतक प्रकारे 'अनुयोगद्वार' मूत्रमा प्रमाण संबंधे लख्युं छे ते प्रकारे जाणवू, यावत्-'त्यारबाद नो आत्मागम, नो अनन्तरागम,
उद्देश:४ परंपरागम'.॥ १९२॥
केवली भंते ! चरिमकम्मं वा चरिमणिजरं वा जाणति पासति ?, हंता गोयमा ! जाणति पासति। जहा णं भंते! केवली चरिमकम्मं वा जहा णं अंतकरण आलावगो तहा चरिमकम्मेणवि अपरिसेसिओ |णेयव्वो॥ (मु०१९३)॥
[प्र०] हे भगवन् ! केवली मनुष्य, छेल्ला कर्मने वा छेल्ली निर्जराने जाणे, जूए ? [उ०] हे गौतम ! हा, जाणे, जूए.-'हे ६ भगवन् ! जेम केवली , बेल्ला कर्मने जाणे 'ए प्रश्ननो ( आलापक ) जेम 'अंतकर' विषेनो आलापक कह्यो तेम 'बल्ला कर्म' &ना प्रश्न साथे पण पूरो आलापक जाणवो. ॥ १९३ ॥ P केवली णं भंते! पणीयं मणं वा वई वा धारेजा?, हंता धारेज्जा, जहा णं भंते ! केवली पणीयं
मणं वा वई वा धारेजा ते णं वेमाणिया देवा जाणंति पासंति?, गोथमा! अत्थेगतिया जाणंति पा०, अत्थेगतिया न जाणंति न पा०, से केणटेणं जाव ण जाणंति ण पासंति ?, गोयमा! वेमाणिया देवा दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-माइमिच्छादिहिउववन्नगा य अमाइसम्मदिहिउववन्नया य, तत्थ णं जे ते माइमिच्छादिबीउवव
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५ शतके उद्देशः४
-
॥३६॥
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दिनगा ते न पाणंति न पासंति, तत्थ णं जे ते अमाईसम्मदिट्ठीउववन्नगा ते णं जाणंति पासंति, से केण?णं व्याख्या
| एबुं बु. अमाईसम्मदिट्ठी जाव पा., गोयमा! अमाई सम्मादिही दुविहा पण्णत्ता-अनंतरोववन्नगा य प्रज्ञप्तिः
| परंपरोववन्नगा य, तत्थ अणंतरोववन्नगा न जा०, परंपरोववन्नगा जाणंति, से केणटुंणे भंते ! एवं० परंपरोक्व॥३६७॥
| नगा जाव जाणंति?, गोयमा ! परंपरोववन्नगा दुविहा पण्णत्ता-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य, पजत्ता जा | अपज्जत्ता न जा०, एवं अणंतरपरंपरपज्जत्तअपज्जत्ता य उवउत्ता अणुउवत्ता, तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते जा. पा०, से तेण?णं तं चेव ॥ (मृ. १९४)॥
म०] हे भगवन् ! केवली मनुष्य, प्रकृष्ट मनने वा, प्रकृष्ट वचनने धारण करे ? [उ.] हा, धारण करे. [4] हे भगवन ! - केवली मनुष्य, जे प्रकृष्ट मनने वा, प्रकृष्ट वचनने धारण करे छे तेने वैमानिक देवो जाणे छे, जूण के ? [उ०] हे गौतम !
केटलाको जाणे छे, जूए के, केटलाको नथी जाणता, नथी जोता. [म.] ते केवी रीते यावत्-नथी जोता? [उ०] हे गौतम ! | वैमानिक देवो वे प्रकारना कह्या हे, ते जेमकेः मायिमिथ्यादृष्टिपणे उत्पन्न थयेला अने अमायिसम्य दृष्टिपणे उत्पन्न थयेला, तेओमां
जे मायिमिथ्यादृष्टिपणे उत्पन्न थयेला छे तेओ नथी जाणता, नथी जोता अने जेओ अमायी सम्यग्दृष्टिपणे उत्पन्न थयेला छे तेओ जाणे छे-जूए के. • अमायीं सम्यग्दृष्टि यावद-जूए के ' तेम कहेवानुं शुं कारण ? हे गौतम ! अमायी सम्यग्दृष्टि देवो वे प्रकारना कहेला छे ते जेमके अनंतरोपपन्नक अने परंपरोपपन्नक, तेमां जे अनन्तरोपन्नक के तेओ नथी जाणता अने जेओ परंपरोपन्नक हे तेओ जाणे . हे भगवन् ! 'परंपरोपन्नक देवो यावत्--जूए छे' तेम कहेवानो शो अर्थ ? गौतम ! परंपरोपन्ना देवो वे
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥ ३६८।
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प्रकारना कहेला छे, ते जेमके; पर्याप्त अने अपर्याप्त तेमां जेओ पर्याप्तो छे तेओ जाणे छे अने अपर्याप्तो नथी जाणता. ] ए प्रमाणे अनन्तर उत्पन्न थयेला, परंपराए उत्पन्न थएला, पर्याप्तरूपे उत्पन्न थएला, अपर्याप्तरूपे उत्पन्न थयेला, उपयोगबाळा, अनुप|युक्त उपयोग विनाना, ए प्रकारना वैमानिक देवो छे, तेमां जे उपयोगवाळा सावधानतावाळा छे तेओ जाणे छे, माटे ते हेतुथी तेज-केटलाक जाणे छे, अने केटलाक नथी जाणता ॥ १९४ ॥
भू णं भंते! अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चैव समाणा इहगएणं केवलिणा सद्धिं आलावं वा संलावं वा करेत्तए ?, हंता पम्, से केणद्वेणं जाव पभू णं अगुत्तरोववाइया देवा जाव करेत्तए ?, गोयमा ! जण्णं अणुतरोववाइया देवा तत्थगया चैव समाणा अहं वा हेउं वा पसिणं वा वागरणं वा कारणं वा पुच्छंति तए णं इहगए केवली अहं वा जाव वागरणं वा वागरेति से तेणट्टेणं० । जन्नं, भंते ! इहगए चेव केवली अहं वा जाव वागरेति तण्णं अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चैव समाणा जा० पा० ?, हंता ! जाणंति पासंति, से केणद्वेणं जाव पासंति ?, गोयमा ! तेसिणं देवाणं अणताओ मणोद ववगणाओ लद्धाओ पत्ताओ अभिसमन्नागयाओ भवंति से तेणद्वेणं जपणं इहगए केवली जाव पा० ॥ ( सू० १९५ ) ॥
[[प्र०] हे भगवन् ! अनुत्तर विमानमां उत्पन्न थयेला देवो त्यांज रह्या छता, अहिं रहेला केवली साथे आलाप, संलाप करवाने समर्थ छे ? [उ० ] हा, समर्थ छे. [प्र०] ते कपा हेतुथी यावत्-अनुत्तरविमानना देवो यावत् करवा समर्थ छे ? [अ०] हे गौतम! त्यांज - पोताने स्थानके रहेलाज अनुत्तर विमानना देवो जे अर्थने, हेतुने, प्रश्नने, कारणने वा व्याकरणने पूछे छे तेनो- ते अर्थनो,
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५ शतके उद्देशः ४
|| ३६८ ।।
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥३६९॥
५ शतके उद्देशः४ ॥३६९॥
हेतुनो यावत्-व्याकरणनो उत्तर अहिं रहेलो केवली आपे छे, ते हेतुथी. [प्र०] हे भगवन् ! अहिं रहेलो केवली अर्थनो यावत्
जे उत्तर आपे ते उत्तरने त्यां रहेलाज अनुत्तर विमानना देवो जाणे, जूए ? [उ०] हा, जाणे, जूए. [प्र०] ते कया हेतुथी यावत्&| जूए ? [उ०] हे गौतम ! ते देवोने अनंती मनोद्रव्यवर्गणाओं लब्ध छे, प्राप्त छे, विशेष ज्ञात होय छे ते हेतुथी अहिं रहेलो केवली | जे कहे छे तेने तेओ (जाणे छे) यावत्-जूए छे. ॥ १९५ ॥
अणुत्तरोववाइया णं भंते ! देवा किं उदिनमोहा उवसंतमोहा खीणमोहा ?, गोयमा ! नो उदिनमोहा, उवसंतमोहा, णो खीणमोहा ॥ (सू. १९६)॥
[प्र.] हे भगवन् ! अनुत्तरविमानना देवो शुं उदीर्ण मोहवाला छे, उपशांत मोहवाळा छे के क्षीणमोहवाला छे ? [उ०] हे गौतम ! उदीर्णमोहवाळा नथी, क्षीणमोहवाळा नथी पण उपशांतमोहवाळा छे. ॥ १९६ ।।
केवली ण भंते ! आयाणेहिं जा पा.?, गोयमा ! णो तिणढे स०, से केणढणं जाव केवली णं आयाणेहिं न जाणइ न पासइ, गोयमा! केवली णं पुरच्छिमेणं मियपि जाणइ अमियंपि जा. जाब निम्बुडे दमणे केवलिस्स से तेण०॥ (सूत्रं १९७)॥
[प्र०] हे भगवन ! केवली मनुष्य आदानो-इन्द्रियोवडे जाणे, जूए ? [उ.] हे गौतम ! ते अर्थ समर्थ नथी. [प्र०] ते कया हेतुथी यावत्-केवली इन्द्रियोवडे जाणतो नथी, जोतो नथी ? [उ०] हे गौतम ! केवली पूर्व दिशामा भित पण जाणे हे, अमित पण जाणे छे यावत्-केवलिनुं दर्शन, आवरण रहित छे, माटे ते हेतुथी ते इन्द्रियोवडे जाणतो के जोतो नथी. ॥ १९७॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥३७०॥
ARMERCISROID
केवली णं भंते ! अस्सि समयसि जेसु आगासपदेसेसु हत्थं वा पायं वा बाहुं वा उरुं वा ओगाहित्ताणं | चिट्ठति पभू णं भंते ! केवली सेयकालंसिवि तेसु चेव आगासपदेसेसु हत्थं वा जाव ओगाहित्ता णं चिहित्तए?,
४५ शतके गोयमा! णो ति०, से केणटेणं भंते ! जाव केवली णं अस्सि समयंसि जेसु आगासपदेसेसु हत्थं वा जाव
उद्देशः४ चिट्ठति णो ण पभू केवली सेयकालंसिवि तेसु चेव आगासपएसेसु हत्थं वा जाव चिट्टित्तए ?, गो केवलिस्स
॥३७०॥ |णं वीरियसजोगसद्दव्वयाए चलाई उवकरणाई भवंति, चलोवगरणट्ठयाए य णं केवली अस्सि समयंसि जेसु
आगासपदेसेसु हत्थं वा जाव चिट्ठति णो णं पभू केवली सेयकालंसिवि तेसु चेव जाव चिहित्तए, से तेणदेणं | जाव वुच्चइ-केवली णं असि समयंसि जाव चिद्वित्तए ॥ (सूत्रं १९८)॥
प्र०] हे भगवन् ! केवली, आ समयमा जे आकाश प्रदेशोमां हाथने, पगने, बाहुने अने ऊरुने अवगाही रहे, अने जे सम| यमां रहे ते पछीना-भविष्यकाळना-समयमां तेज आकाशप्रदेशोमां हाथने यावत्-अवगाहीने रहेवा केवळी समर्थ छ ? उ०] हे गौतम ! आ अर्थ समर्थ नथी. [प्र०] हे भगवन् ! ते कया हेतुथी, यावत्-केवली आ समयमां जे आकाशप्रदेशोमां यावत्-रहे छे पछीना भविष्यकाळना-समयमां एज आकाशप्रदेशोमां केवळी हाथने यावत्-अवगाही रहेवा समर्थ नथी? [उ० हे गौतम ! केवलिने वीर्यप्रधान योगवाळु जीव द्रव्य होवाथी तेना हस्त वगेरे उपकरणो-अंगो-चल होय छे अने हस्त वगेरे अंगो चल होवाथी चालु समयमांजे आकाश प्रदेशोमां हाथने यावत्-अवगाही रहे छे, एज आकाश प्रदेशोमा चालु-समय पछीना भविष्यकाळना समयमां केवली हाथ वगेरेने अवगाही यावत् रहेवा समर्थ नथी. माटे ते हेतुथीएम कशुं छे के, केवली आ समयमां यावत्-रहेवासमर्थनथी.॥१९८॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥३७॥
५ शतके उद्देशः४ ॥३७१॥
पभू णं भंते ! चोद्दसपुची घडाओ घडसहस्सं पडाओ पडसहस्सं कडाओर रहाओ२ छत्ताओ छत्तसहस्सं दंडाओ दंडसहस्सं अभिनिव्वदे॒त्ता उवदंसेत्तए ?, हंता पभू, से केण?णं पभू चोदसपुवी जाव उवदंसेत्तए !, गोयमा! चउद्दसपुब्बिस्स णं अणंताई दवाई उक्करियाभेएणं भिजमाणाई लद्धाई पत्ताई अभिसमन्नागयाइ
भवंति, से तेणटेणं जाव उवदंसित्तए । सेवं भंते ! सेवं भंते ! (सूत्रं १९९) ॥ पञ्चमशते चतुर्थ उद्देशः॥५-४ ॥ । [प्र०] हे भगवन् ! चौदपूर्वने जाणनार-श्रुत केवली मनुष्य, एक घडामांथी हजार घडाने, एक पटमांथी हजार पटने, एक सादरीमाथी हजार सादरीओने, एक रथमांथी हजार रथने, एक छत्रमाथी हजार छत्रने अने एक दंडमांथी हजार दंडने करी देखाडवा समर्थ छ ? [उ०] हा, समर्थ छे. [प्र०] ते केवीरीते, चौदपूर्वो यावत्-देखाडवा समर्थ छे ? [उ०] हे गौतम ! चौदपूर्वीए, उत्करिका भेदवडे भेदातां अनंत द्रव्यो ग्रहण योग्य कर्यां छे, ग्रहां छे अने ते द्रव्योन घटादिरूपे परिणमाववा पण आरं|भ्यां छे, गटे ते हेतुथी यावत्-देखाडवा समर्थ हे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे. एम कही यावत्विहरे के. ॥ १९९ ॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमत्रना पांचमा शतकमां चोथा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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५ शतके
व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥३७२॥
| उद्देशः५ ॥३७२।।
उद्देशक ५. आगळना उद्देशकमां चौदपूर्वीनी महानुभवता कही छे, अने ए महानुभावपणाथी ते चौद पूर्वी छमस्थ होय तो पण सिद्ध धशे एवी आशंका थाय माटे ते आशंकनो परिहार करवा पंचम उद्देशक छे.
छउमत्थे णं भंते ! मणूसे तीयमणंतं सासयं समयं केवलेणं संजमेणं जहा पढमए चउत्थुद्देसे आलावगा सहा नेयब्वा जाव अलमत्थुत्ति वत्तव्वं सिया ॥ (सूत्रं २००)॥ न [प्र०] हे भगवन् ! छमस्थ मनुष्य, वीती गएला शाश्वता अनंत काळमा मात्र संयमवडे (सिद्ध थयो ?) [उ.] जेम प्रथम | शतकमां चतुर्थ उद्देशकमां आलापक कह्या छे तेम अहिं पण ते आलापक कहेवा यावत् 'अलमस्तु' एम कहेवाय' त्यांमुधी. ॥२०॥
अन्नउत्थिया ण भंते ! एवमातिखति जाव परूवेंति सब्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सब्वे सत्ता एवंभूयं वेदणं वेदेति से कहमेयं भंते ! एवं ?, गोयमा ! जपणे तं अन्नउत्थिया एवमातिक्खंति जाव वेदेति जे ते एवमासु, मिच्छा ते एवमासु, अहं पुण गोयमा ! एवमातिक्खामि जावप रूवेमि-अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता एवंभूयं वेदणं वेदेति, अत्थे गइया पाणा भूया जीवा सत्ता अनेवं भूयं वेदणं वेदेति, से केणटेणं. अंत्थेगतिया ? तं चेव उच्चारेयवं, गोयमा ! जे पाणाभूया जीवाणं सत्ता जहा कडा कम्मा तहा वेदणं वेदेति तेण पाणा भूया जीवा सत्ता एवंभूयं वेदणं वेति, जे णं पाणा भूया जीवा सत्ता जहा कडा कम्मा नो तहा
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥३७३॥
५ शतके उद्देशः५ ॥३७३॥
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वेदणं वेदेति ते णं पाणा भूया जीवा सत्ता अनेवंभूयं वेदणं वेदंति, से तेणटेणं तहेव । नेरइया णं भंते ! किं एवं भूयं वेदणं वेदंति अनेवभूयं वेदणं वदंति ?, गोयमा! नेरइया णं एवंभूयं वेदणं वेदेति अनेवंभूयपि वेदणं वेदंति, से केणटेणं तं चेव, गोयमा! जे णं नेरइया जहा कडा कम्मा तहा वेदणं वेदेति ते णं नेरइया एवंभूयं वेदणं वेदेति, जे णं नेरतिया जहा कडा कम्मा णो तहा वेदणं वेदेति ते ण नेरइया अनेवं भूयं वेदणं वेदेति, से | तेणटेणं०, एवं जाव वेमाणिया,संसारमंडलं नेयब्वं ॥ ( सूत्रं २०१)।
[प्र०] हे भगवन् ! अन्यतीर्थिको एम कहे छे यावत् प्ररूपे छे के, सर्व प्राण, सर्व भूत, सर्व जीव अने सर्व तत्त्वो एवंभूतजेम कर्म बांध्यूछे ते प्रमाणे-वेदनाने अनुभवे छे, हे भगवन् ! ते एम केवी रीते छे? [उ०] हे गौतम ! ते अन्यतीथिको जे ए |प्रमाणे कहे छे यावत्-वेदे छे, जे तेओ ए प्रमाणे कहे छे ते एम खोटुं कहे छे, वळी हे गौतम ! हु तो एम कहुं छु यावत् प्ररूपुं | छु के केटलाक प्राणो, भूतो, जीवो अने सच्चो एवंभूत-ए प्रकारे पोताना कर्म प्रमाणे वेदनाने अनुभवे छे अने केटलाक प्राणो,
भूतो, जीवो अने सत्त्वो अनेवंभूत जेम कर्म बांध्यु ळे तेथी जूदी वेदनाने अनुभवे छे. [प्र०] ते कया हेतुथी केटलाक० इत्यादि | तेज कहे ? [उ०] हे गौतम ! जे प्राणो, भूतो, जीयो अने सच्चो करेलां को प्रमाणे वेदना अनुभवे छे ते प्राणो, भूतो, जीवो |अने सत्वो एवंभूत वेदनाने अनुभवे ळे अने जे प्राणो, भूतो, जीवो अने सच्चो करेलां कर्मों प्रमाणे वेदना नथी अनुभवता ते प्राणो,
भूतो, जीवो अने सच्चो अनेभूत वेदनाने अनुभवे छे, ते हेतुथी तेमज कयुं छे. [प्र.] हे भगवन् ! नैरयिको शुं एवंभूत वेदनाने वेदे के के अनेवंभूत वेदनाने अनुभवे छे ? [उ०] हे गौतम ! तेओ एवंभूत वेदनाने पण अने अनेवंभूत वेदनाने अनुभवे छे. [प्र०]
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५ शतके उद्देश: ॥३७४||
| ते कया हेतुथी ? [उ०] हे गौतम ! जे नैरयिको करेलां कर्म प्रमाणे वेदना वेदे छे तेओ एवंभृत वेदना वेदे छे अने जे नैरयिको व्याख्या
3 करेलां कर्म प्रमाणे वेदना नथी वेदता तेओ अनेवंभूत वेदनाने वेदे छे ते हेतुथी एम कयु. ए प्रमाणे यावत् वैमानिक सुधीना प्रज्ञप्तिः
संसारमंडल विषे समजवान छे. ॥ २०१॥ ॥३७४॥ जंबुद्दीवेणं भंते! भारहे वासे इमीसे ओस. कइ कुलगरा होत्था ?, गोयमा ! सत्त, एवं तित्थयरा
तित्थयरमायरो पियरो० पढमा सिस्सिणीओ० चक्कवट्टीमायरो इत्थिरयणं बलदेवा वासुदेवा वासुदेवमायरो दूपियरो, एएसिं पडिसत्तू जहा समवाए परिवाडी तहा णेयब्वा, सेवं भंते २ जाव विहरइ ॥ (सूत्रं २०२)। पंचमसए पंचमुद्देसओ सम्मत्तो ॥५-५॥
[प्र.] हे भगवन् ! जंबूद्वीपमा आ भारत वर्षमा आ अवसर्पिणीना काळमां केटला कुलकरो थया. [उ०] हे गौतम ! सात कुलकरे थया, ए प्रमाणे तीर्थकरोनी माताओ, पिताओ, पहेली चेलीओ, चक्रवर्तीनी माताओ, स्त्रीरत्न, बलदेवो, वासुदेवो, वासुदेदेवनी माताओ, पिताओ, एओना प्रतिशत्रुओ प्रतिवासुदेवो वगेरे जे प्रमाणे 'समवाय' मूत्रमा नामनी परिपाटीमा छे ते प्रमाणे जाणवू. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, एम कही यावत् विहरे छे. ॥ २०२॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमूत्रना पांचमा शतकमां पांचमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
विमलवाहन, चक्षुमान् , यशोमान् , अभिचंद्र, प्रसेनजित् , मरुदेव अने नाभि. ए साते कुलकरोने (एक एकने एक) एम सात खीओ हती. VI तेनां नाम-चंद्रयशा, चंद्रकांता, मुरूपा, प्रतिरूपा, चक्षुकांता, श्रीकांता अने मरुदेवी.
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥३७५॥
५ शतके उद्देशः६ ॥३७॥
उद्देशक ६. आगळना उद्देशकमां जीवोनी कर्मवेदना कही छे. हवे आ छट्ठा उद्देशामां तो कर्मनाज बंधना कारण विशेषो कहे छे.
कहग्णं भंते जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरेंति?, गोयमा ! तिहिं ठाणेहिं, तंजहा-पाणे अइवाएत्ता मुसं वइत्ता तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेत्ता, एवं खलु जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरेन्ति ।। कहण्णं भंते! जीवा दीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति?, गोयमा! तिहिं ठाणेहिं-नो पाणे अतिबाइत्ता नो मुसं वइत्ता तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेत्ता, गवं खलु जीवा दीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ॥ कहन्नं भंते ! जीवा असुभदी हाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ?, गोयमा! पाणे अइवाइत्ता मुसं वइत्ता तहारूवं समणं वा माहणं वा हीलिता निंदित्ता विसित्ता गरहित्ता अवमन्निता अन्नयरेणं अमणुन्नेणं अपीतिकारेणं असणपाणखाइमसा| इमेणं पडिलाभेत्ता, एवं खलु जीवा असुभदीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ॥ कहन्नं भंते ! जीवा सुभदीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ?, गोयमा ! नो पाणे अइवाइत्ता नो मुसं वइत्ता तहारूवं समणं वा माहणं वा वंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासित्ता अन्नयरेणं मणुन्नेणं पीइकारएणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेत्ता, एवं | खलु जीवा सुभदीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ॥ (सूत्रं २०३)
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व्याख्या
प्रज्ञप्ति
५ शतके उद्देश: ||३७६॥
SCHEESE SASTOS
[प्र०] हे भगवन् ! जीवो थोडा जीववानुं कारणभूत कर्म केवी रीते बांधे छ ? [उ०] हे गौतम ! त्रण स्थानोवडे जीवो थोडा जीववानुं कारणभूत कर्म बांधे छे, ते जेमके, प्राणोने मारीने, खोटुं बोलीने अने तथारूप श्रमण वा ब्राह्मणने अप्रामुक, अनेषणीय खान, पान, खादिम तथा स्वादिम पदार्थोबडे प्रतिलाभीने पूर्वोक्त कर्म बांधे छे, अर्थात् एत्रण हेतुथी जीवो थोडा जीववानुं कारणभूत कर्म बांधे हे. [प्र.] हे भगवन ! जीवो लांबाकाळ सुधी जीवबार्नु कारणभुत कर्म केवी रीते बांधे छे ? [उ.] हे गौतम ! त्रण स्थानोवडे जीवो लांचा काळ सुधी जीववानुं कारणभुत कर्म बांधे छे, ते जेमके, प्राणोने नहि मारीने. खोटुं नहि बोलीने अने ६ तथारूप श्रमण वा ब्राह्मणने प्रामुक, एषणीय खान, पान, खादिम तथा स्वादिम पदार्थोबडे प्रतिलाभीने ए प्रमाणे त्रण हेतुथी
जीवो लांबा काळ सुधी जीववानुं कारणभुत कर्म बांधे ने. [प्र०] हे भगवन् ! जीवो अशुभ रीते लांबाकाळ सुधी जीववानुं कारणभुत कर्म केवी रीने बांधे छे ? [उ०] हे गौतम! जीवोने मारीने, खोटुं बोलीने, अने तथारूप श्रमणनी वा ब्राह्मणनी हीलना करीने, निंदा करीने, लोक समक्ष फजेती करीने, तेनी सामे गर्दा करीने तेनुं अपमान करीने तथा एवा कोइ एक अप्रीतिना कारणरूप अमनोज्ञ-खराब अशनादिवडे प्रतिलामीने जीवो नकी ए प्रमाणे यावत्-करे छे. [प्र०] हे भगवन् ! जीवो शुभ प्रकारे लांबा काळ सुधी जीववानुं कारणभुत कर्म केवी रीते बांधे छ ? [उ०] हे गौतम ! प्राणोने नहि मारीने, खोटु नहि बोलीने अने तथारूप श्रमणने वा ब्राह्मणने वांदीने यावत्-तेने पर्युपासीने तथा एका कोइ एक कारणथी-मनोज्ञ, प्रीतिकारक अशन, पान, खादिम अने स्वादिम ए चार जातना आहारवडे प्रतिलाभीने; ए प्रमाणे जीवो यावत्-लांबुं मारुं दीर्घायुष्य बांधे छे. ॥ २०३ ॥
गाहावइस्स णं भंते ! विकिणमाणस्स के भंडं अवहरेज्जा ? तस्स णं भंते ! तं भंडं अणुगवेसमाणस्स
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥३७७॥
५ शतके उद्देशः६ ||३७७॥
किं आरंभिया किरिया कज्जइ परिग्गहिया. माया• अप०मिच्छा?, गोयमा! आरंभिया किरिया कन्जइ परि० माया. अपच०, मिच्छादसणकिरिया सिय कजइ सिय नो कजह ॥ अह से भडे अभिसमन्नागए भवति, तओ से पच्छा सब्बाओ ताओ पयणुई भवति ॥ गाहावतिस्स णं भंते ! तं भंडं विक्किणमाणस्स कतिए भंडे सातिजेजा, भंडे य से अणुवणीए सिया, गाहावतिस्स णं भंते ! ताओ भंडाओ किं आरंभिया किरिया कजइ जाव मिच्छादसणकिरिया कजह? कइयस्स वा ताओ भंडाओ किं आरंभिया किरिया कजइ जाव मिच्छादसणकिरिया कजइ ?, गोयमा गाहावइस्म ताओ भंडाओ आरंभिया किरिया कज्जइ जाव अपचक्खाणिया, मिच्छादसणवत्तिया किरिया सिय कन्जइ सिय नो कजइ, कतियस्स ण ताओ सव्वाओ पयणुईभवंति । गाहावतिस्स भंते ! भंड विकिणमाणस्म जाव भंडे से उवणीए सिया, कतियस्स ण भंते ! ताओ भंडाओ किं आरंभिया किरिया कज्जति ?, गाहावइस्स वा ताओ भंडाओ किं आरंभिया किरिया कजति !, गोयमा! कइयस्स ताओ भंडाओ हेहिल्लाओ चत्तारि किरियाओ कजति, मिच्छादसणकिरिया भयणाए, गाहावतिस्स णं ताओ सब्बाओ पयणुईभवति ।
[प्र०] हे भगवन् ! करियाणानो विक्रय-वेचाण-करतां कोई गृहस्थy कोइ माणस ते करियाणुं चोरी जाय तो हे भगवन् ! ते करियाणानुं गवेषण करनार ते गृहस्थने शुं आरंभिकी क्रिया लागे के परिग्रहिकी क्रिया लागे के मायग्रत्ययिकी क्रिया लागे के अप्रत्याख्यानिकी क्रिया लागे के मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी क्रिया लागे? [उ०] हे गौतम ! आरंभिकी, परिग्रहिकी, मायाप्रत्ययिकी
*%%%AHARAS
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व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥३७८॥
अने अप्रत्याख्यानिकी क्रिया लागे अने मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया कदाच लागे अने कदाच न लागे अने हवे गवेषण करतां ज्यारे ते चोराएलुं करिया' पार्छ मळी आवे त्यारपछी ते बधी क्रियाओ प्रतनु थइ जाय हे. [प्र०] हे भगवन् ! करियाणाने
४५ शतके बेचता गृहस्थनुं भांड-करियाणु, करियाणुं खरीद करनारे खरीधु-तेने माटे सत्यंकार-खात्री-बार्नु आप्यु पण हजु ते करियाणु
उद्देशः६ अनुपनीत छे-लइ जवायुं नथी अर्थात् ते बेचनारने त्यां छे, तो ते वेचनार गृहपतिने ते करियाणाथी शुं आरंभिकी यावत् मिथ्या
॥३७८॥ दर्शनप्रत्ययिकी क्रिया लागे!, अने ते खरीदनारने ते करियाणाथी शुं आरंभिकी यावत्-मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया लागे? [उ.] हे गौतम ! ते गृहपतिने ते भांड-करियाणाथी आरंभिकी यावत्-अप्रत्याख्यानिकी क्रिया लागे, अने मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया कदाच लागे अने कदाच न लागे अने खरीद करनारने ते बधी क्रियाओ प्रतनु होय छे. [प्र०] हे भगवन् ! भांडने वेचता गृहपतिने त्यांथी यावत् ते भांड उपनीत कर्यु-खरीद करनारे पोताने त्यां आण्यु-होय त्यारे ते खरीद करनारने ते भांडथी शुं आरंभिकी क्रिया वगेरे पांच क्रियाओ अने गृहपतिने ते भांडथी शुं आरंभिकी वगेरे पांच क्रियाओ लागे ? [उ०] हे गौतम! ते भांडथी ते खरीद करनारने हेठळनी मोटा प्रमाणवाळी-चारे क्रियाओ लागे अने मिथ्यादृष्टि होय तो मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया लागे अने मिथ्यादृष्टि न होय तो मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया न लागे ए प्रमाणे मिथ्यादर्शन-क्रियानी भजनावडे गृहस्थने ते बधी क्रियाओ ओछा प्रमाणमां होय छे.
गाहावतिस्स णं भंते ! भंडं जाव धणे य से अणुवणीए सिया? एवंपि जहा भंडे उवणीए तहा नेयव्वं चउत्थो आलावगो, धणे से उवणीए सिया जहा पढमो आलावगो भेडे य से अणुवणीए सिया तहा नेयम्वो,
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥३७९॥
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पढमचउत्थाणं एक्को गमो, वितियतइयाणं एक्को गमो ॥ अगणिकाए णं भंते ! अहुणोज्जलिते समाणे महाकम्म
५ शतके | तराए चेव महाकिरियतराए चेव महासवतराए चेव महावेदणतराए चेव भवति, अहे णं समए २ वोक्कसिजमाणे २ चरिमकालसमयंसि इंगालभूए मुम्मुरभूते छारियभूए तओ पच्छा अप्पकम्मतराए चेव
उद्देशः६ | अप्पकिरियतराए चेष अप्पासवतराए चेव अप्पवेदणतराए चेव भवति ?, हंता गोयमा ! अगणिकाए णं
॥३७९|| अणुज्जलिए समाणे तं चेव ।। (सूत्रं २०४)॥
[प्र०] हे भगवन् ! गृहपति-घरधणि-ने भांड यावत्-धन न मयं होय ( तो केम ? ) [उ०] ए रीते पण जेम उपनीत सोंपेल भांड-संबंधे का छे तेम समजबू-चोथो आलापक समजवो. 'जो धन उपनीत होय तो' जेम अनुपनीत भांड विषे ४ प्रथम आलापक कह्यो के तेम समजवू-प्रथम अने चतुर्थ आलापकनो समान गम समजबो अने बीजा जने त्रीजा आलापकनो समान!
गम समजवो. [प्र.] हे भगवन : हमणा जगवेलो अग्निकाय, महाकर्मवाळो, महाक्रियावाळो, महाआश्रववाळो, महावेदनावाळो, द होय छे, हवे ते अग्नि समये समये-क्षणे क्षणे-ओछो थतो होय, बुझातो होय अने नेल्ले क्षणे अंगरूप थयो, मुर्मुररूप थयो, भस्मरूप थियो त्यारबाद ते अग्नि अल्पकर्मवाळो, अल्पक्रियावाळो अल्पआश्रयवाळो अने अल्पवेदनावाळो थाय ? [उ०] हा, गौतम ! हमणा जगवेलो अग्निकाय तेज कहे ।। २०४ ॥
पुरिसे णं भंते ! धणुं परामुसह धणुं परामुसित्ता उसुं परामुसइ २ ठाणं ठाइ ठाणं ठिच्चा आयतकण्णाययं उसुंध करेति आययकन्नाययं उसुं करेत्ता उर्ल्ड वेहासं उसु उब्विहइ २ ततो गं से उसु उड्डू बेहासं उविहिप समाणे
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CARE
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥३८०॥
५शतके उद्देशः६ ॥३८॥
जाई तत्थ पाणाइं भूयाई जीवाई सत्ताई अभिहणइ वत्तेति लेस्सेति संघाएइ संघद्देति परितावेइ किलामेइ ठाणाओ ठाणं संकामेइ जीवियाओ ववरोवेइ तए णं भंते ! से पुरिसे कतिकिरिए ?, गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे धणु परामुसइ२जाव उबिहइ तावं च णं से पुरिसे कातियाए जाव पाणातिवायकिरियाए पंचहिं किरिपुट्ठा, याहिं पुढे, जेसिपि य णं जीवाणं सरीरेहिं धणू निव्वत्तिए तेऽवि य णं जीवा काइयाए जाव पंचहिं किरियाहिं एवं धणुपुढे पंचहिं किरियाहिं, जीवा पंचहिं, हारू पंचहिं, उसू पंचहिं, सरे पत्तणे फले पहारू पंचहिं, (सूत्रं२०५)
[प्र.] हे भगवन् ! पुरुष धनुष्यने ग्रहण करे, ग्रहण करी बाणने ग्रहण करे, तेनुं ग्रहण करी स्थान प्रत्ये वेसे-धनुष्यथी बाणने फेंकती वेळानुं आसन करे-तेम बेसी फेकवा प्रसारेला बाणने कान सुधी आयत करे-खेंचे, खेंची उंचे आकाश प्रत्ये बाणने फेंके,
त्यारबाद ते आकाश प्रत्ये फेंकाएलुं बाण, त्यां आकाशमा जे प्राणोने, भूतोने, जीवोने, सच्चोने, सामा आवता हणे, तेओनुं शरीर टू संकोची नाखे, तेओने लिष्ट करे, तेओने संहत करे, तेओने थोडो स्पर्श करे, तेओने चारे कोरथी पीडा पमाडे. तेओने क्लांत करे, तेओने एक स्थानथी बीजे स्थाने लइ जाय अने तेओने जीवितथी च्युत करे तो हे भगवन् ! ते पुरुष केटली क्रियावाळो छ ?
उ.] हे गौतम ! यावत्-ते पुरुष धनुष्यने ग्रहण करे छे यावत् तेने फेंके छे, यावत् ते पुरुष कायिकी क्रियाने यावत्-प्राणातिपातिकी क्रियाने अर्थात् पांचे क्रियाने फरसे छे. अने जे जीवोना शरीरोद्वारा धनुष्य बन्यु छे ते जीवो पण यावत् पांच क्रियाने फरसे छे, ए प्रमाणे धनुष्यनी पीठ पांच क्रियाने फरसे छे, दोरी पांच क्रियाने, हारु पांच क्रियाने, बाण पांच क्रियाने, शर, | पत्र, फल अने हारु पांच क्रियाने फरसे छे. ॥ २०५॥
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व्याख्या
५ शतके
प्रज्ञप्तिः ॥३८॥
उद्देशः६ ॥३८॥
___अहे णं से उसू अप्पणो गुरुयत्ताए भारियत्ताए गुरुसभारियत्ताए अहे वीससाए पच्चोवयमाणे जाई तत्थ | पाणाई जाव जीवियाओ ववरोवेइ तावं च णं से पुरिसे कतिकिरिए ?, गोयमा! जावं च णं से उसू अप्पणो | गुरुयाए जाव ववरोवेइ तावं च ण से पुरिसे काइयाए जाव चउहि किरियाहिं पढ़े, जेसिपि य णं जीवाणं सरीरेहिं धणू निब्बत्तिए तेवि जीवा चउहिं किरियाहिं, धणुपुढे चउहिं, जीवा चउहिं, पहारू चउहिं, उसू पंचहिं, सरे पत्तणे फले पहारू पंचहिं, जेवि य से जीवा अहे पच्चोवयमाणस्स उवग्गहे चिट्ठति तेवि य णं जीवा कातियाए जाव पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा ॥ ( मृत्रं २०६)॥ । [40] अने हवे ज्यारे पोतानी गुरुता वडे, पोताना भारेपणावडे, पोतानी गुरुकता अने संभारतावडे ते वाण स्वभावथी नीचे पडतुं होय त्यारे त्यां (मार्गमा आवतां ) प्राणोने यावत्-जीवितथी च्युत करे त्यारे ते पुरुष केटली क्रियावाळो होय ? [उ०] हे गौतम ! यावत् ते बाण पोतानी गुरुतावडे यावत् जीवोने जीवितथी च्युत करे यावद ते पुरुष कायिकी यावत् चार क्रियाने फरसे छे अने जे जीवोना शरीरथी धनुष्य बनलं छे ते जीवो पण चार क्रियाने, धनुष्यनी पीठ चार क्रियाने, दोरी चार क्रियाने, हारु चार क्रियाने, बाण पांच क्रियाने, शर, पत्रण, फल अने हारु पांच क्रियाने अने नीचे पडता बाणना अवग्रहमा जे जीवो आवे छे ते जीवो पण कायिकी यावत् पांच क्रियाने फरसे छे. ॥ २०६ ॥
अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमातिवति जाव परुति से जहानामए-जुवतिं जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेजा चक्कस्स वा नाभी अरगा उत्तासिया एवामेव जाव चत्तारि पंच जोयणसयाई बहुसमाइन्ने मणुयलोए मणुस्सेहिं,
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५ शतके
| उद्देशः६ ॥३८॥
से कहमेयं भंते ! एवं ?, गोयमा ! जणं ते अण्णउत्थिया जाव मणुस्सेहिं जे ते एवमाहंसु मिच्छा०, अहं पुण व्याख्या
जागोयमा! एवमातिक्खामि जाव एवामेव चत्तारि पंच जोयणसयाई बहुसमाइण्णे निरयलोए नेरइएहिं (सूत्रं २०७) प्रज्ञप्ति
___[म.] हे भगवन् ! अन्यतीथिको ए प्रमाणे कहे छे यावत् प्ररूपे छे के, जेम कोइ युवतिने युवान हाथमा हाथ ग्रहीने, (उभेला) ॥३८२॥ होय अथवा जेम आराओथी भीडाएली चक्रनी नाभी होय ए प्रमाणेज यावत् चारसे पांचवें योजन सुधी मनुष्यलोक, मनुष्योथी
खीचोखीच भरेलो छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे केम होइ शके ? [उ०] हे गौतम ! ते अत्यतीथिको जे यावत् मनुष्योथी, जे तेओ दए प्रमाणे कहे छे ते खोटुं छे, हे गौतम ! हुं वळी आ प्रमाणे कहुंछ के, एज प्रमाणे यावत् चारसो पांचसो योजन सुधी निरयलोक, नैरयिकोथी खोचोखीच भरेलो छे. ॥ २०७ ।।
नेरइया णं भंते ! किं एगत्तं पभू विउवित्तए पहुत्तं पभू विउवित्तए १, जहा जीवाभिगमे आलावगो तहा नेयम्वो जाव दुरहियासे ॥ (सूत्र २०८)॥
[प्र०] हे भगवन् ! शुं नरयिको एकपणुं विकुर्ववा समर्थ छ ? के बहुपणु विकुर्ववा समर्थ छ ? [उ०] जेम जीवाभिगममूत्रमा आलापक छे. ते आलापक यावत् ' दुरहियास' शब्द सुधी अहिं जाणवो. ॥ २०८ ॥
आहाकम्म अणवजेत्ति मण पहारेत्ता भवति, से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकते कालं करेइ, नस्थि तस्स आराहणा, से णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिकते कालं करेइ अस्थि तस्स आराहणा, एएणं गमेणं नेयव्वंकीयगडं ठविययं रइयं कंता रभत्तं दुभिक्खभत्तं वद्दलियाभत्तं गिलाणभत्तं सेज्जायरपिंडं रायपिंडं। आहाकम्म
REACHERRORIES
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
||३८३॥
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अणबजेत्ति बहुजणमज्झे भासित्ता सयमेव परिभुंजित्ता भवति से णं तस्स ठाणस्स जाव अत्थि तस्स आरा हणा, एयंपि तह चैव जाव रायपिंडं । आहाकम्मं अणवज्जेत्ति सयं अन्नमन्नस्स अणुप्पदावेत्ता भवति, से णं तस्स० एवं तह चैव जाव रायपिंडं । आहाकम्मं णं अणवजेत्ति बहुजणमज्झे पन्नवतित्ता भवति से णं तस्स जाव अत्थि आराहणा जाव रायपिंडं ॥ ( २०९ ) ॥
- ' आधाकर्म अनवद्य-निष्पाप छे' ए प्रमाणे जे, मनमां समजतो होय ते जो आधाकर्म स्थानविषयक आलोचन अने प्रतिक्रमण कर्या विना काल करे तो ते तेने आराधना नथी अने जो ते स्थानविषयक आलोचन अने प्रतिक्रमण करी फाल करे तो तेने आराधना छे. ए गम प्रमाणे क्रीतकृत-साधु माटे मूल्य आपीने आणेलं भोजन १ स्थापित-साधु माटे राखी मेलेलु भोजन, रचित - साधु माटे लाडवा वगेरे रूपे करेलो लाडवानो भूको वगेरे, कांतारभक्त - जंगलमां साधुना निर्वाह माटे तैयार करेलो आहार, दुर्भिक्षभक्त दुकाळ वखते साधुना निर्वाह माटे तैयार करेलो आहार दुर्दिन होय वरसाद आवतो होय त्यारे साधु माटे तैयार करेलो आहार ते वार्दलिकाभक्त, ग्लान माटे रांधेलो आहार, शय्यातरापिंड, राजपिंड, ए बधी जातना आहार माटे जाणं. [प्र०] 'आधाकर्म आहार निष्पाप है' ए प्रमाणे जे घणा माणसोनी बच्चे बोले अने पोते आधाकर्मने खाय तो तेम बोलनार तथा खानार ते विषे यावत् तेने आराधना है ? [उ०] ए पण तेज प्रमाणे जाणं यावत् - राजपिंड. [ प्र० ] 'आधाकर्म अनवद्य ले' ए प्रमाणे कही परस्पर देवरावनार होय तेने आराधना होय ? [ उ०] ए पण तेज प्रमाणे जाणवु यावत् राजपिंड. [प्र० ] 'आधाकर्म निष्पाप छे' ए प्रमाणे घणा माणसाने जे जणावनार होय, तेने यावत् आराधना छे ? [उ०] यावत् राजपिंड (पेठे जाणी लें. ) ।। २०९ ।।
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५. शतके
उद्देशः ६ ||३८३ ॥
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व्याख्या प्रज्ञप्ति ॥३८४॥
आयरियउवज्झाए णं भंते ! सविसयंसि गणं अगिलाए संगिण्हमाणे अगिलाए उबगिण्हमाणे कतिहिं | भवग्गहणेहिं सिज्झति जाव अंतं करेति ?, गोयमा ! अत्थेगतिए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति अत्थेगतिए 31
४५ शतके दोचेणं भवग्गहणेणं सिज्झति तचं पुण भवग्गहणं णातिकमति ॥ (सूत्रं २१०)॥
उद्देशः६ [प्र०] हे भगवन् ! पोताना विषयमां, शिष्यवर्गने खेद रहितपणे स्वीकारतां, खेदरहितपणे सहाय करता आचार्य अने उपा- ॥३८४॥ ध्याय केटलां भवग्रहणो करी सिद्ध थाय यावत् अंतने करे! [उ०] हे गौतम ! केटलाक तेज भववडे सिद्ध थाय, केटलाक बे भव ग्रहण करी सिद्ध थाय-पण त्रीजा भवग्रहणने अतिक्रमे नहिं. ॥ २१ ॥ | जेणं भते ! परं अलिएणं असन्भूतेणं अब्भक्खाणेणं अब्भक्खाति तस्स णं कहप्पगारा कम्मा कजंति ?, गोयमा! जे णं परं अलिएणं असंतवयणेणं अब्भक्खाणेणंअभक्खाति तस्स णं तहप्पगारा चेव कम्मा कज्जंति, जत्थेव णं अभिसमागच्छंति तत्थेव णं पडिसंवेदेति ततो से पच्छा वेदेति सेवं भंते २ त्ति ॥ (सूत्रं २११)। पंचमशते षष्ठ उद्देशकः ।।५-६॥
[प्र०] हे भगवन् ! जे बीजाने, खोटा बोलवावडे, असद्भूत बोलवावडे, अभ्याख्यान-मोढे मोढ दोष प्रकाशवावडे दूषित कहे, ते केवा प्रकारना कर्मो बांधे छ ? [उ०] हे गौतम ! ते तेवा प्रकारनाज को बांधे छे, ते ज्यां जाय छे त्यां ते कर्मोंने वेदे छे, पछी | ते कर्मोने निर्जरे के, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते एप्रमाणे छे. एम कही श्रमण भगवंत गौतम विहरे छे.॥२११।।
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना पांचमा शतकमां छठा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
||३८५ ॥
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उद्देशक ७.
छट्ठा उद्देशकाला मां कर्मप्रगलनी निर्जरा कही छे अने ए निर्जरा चलनरूप ले माटे हवे सातमा उद्देशक्रमां पुद्गलोनी चलनक्रियानो अधिकार है.
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परमाणुपोग्गले णं भंते! एयति वैयति जाब तं तं भावं परिणमति ?, गोयमा ! सिय एयति वैयति जाय परिणमति, सिय णो एयति जाव णो परिणमति । दुपदेसिए णं भंते ! खंधे एयति जाव परिणम ?, गोयमा ! सिय एयति जाव परिणमति, सिय णो एयति जाव णो परिणमति, सिय देसे एयति, देसे नो एयति । तिप्पएसिए णं भंते! खंधे एयति० १, गोयमा ! सिय एयति, सिय नो एयति, सिय देसे एयति नो देसो एयति, सिय देसे एयति नो देसा एयंति, सिय देसा एयंति नो देसे एति । उप्पएसिए णं भंते! खंधे एयति ? गोयमा ! सिय एयति, सिय नो एयति, सिय देसे एयति णो देसे एयति, सिय देसे एयति णो देसा एयंति, सिय देसा एयंति नो देसे एयति, सिय देसा एयंति नो देसा एयति, जहा चउष्पदेसिओ तहा पंचपदेसिओ तहा जाव अणतपदेसिओ ।। ( सू २१२ ) ।।
[प्र० ] हे भगवन् ! परमाणु पुद्गल कंपे, विशेष कंपे यावत् ते ते भावे परिणमे ? [अ०] है गौतम ! कदाच कंपे, विशेष कंपे यावत् परिणमे अने कदाच न कंपे यावत् न परिणगे. [प्र० ] हे भगवन् ! वे प्रदेशनो स्कंध कंपे यावत् - परिणमे ? [अ०] हे
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५ शतके
उद्देशः ७
||३८५||
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व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥३८६॥
५ शतके उद्देशः७ | ॥३८६॥
गौतम! कदाच कंपे यावत परिणमे १ कदाच न कंपे यावत न परिणमे-२. तथा कदाच एक भाग कंपे, एक भाग न कंपे-३. [प्र०] हे भगवन् ! त्रण प्रदेशवाळो स्कंध कंपे ? [उ०] हे गौतम ! कदाच कंपे-१. कदाच न कंपे-२. कदाच एक भाग कंपे, | एक भाग न कंपे-३. कदाच एक भाग कंपे, बहु देशो न कंपे-४ कदाच बहु भागो कंपे, एक भाग न कंपे-५. [प्र.] हे भगवन् ! चार प्रदेशवाळो स्कंध कंपे छे ? [उ०] हे गौतम ! १ कदाच कंपे. २ कदाच न कंपे. ३ कदाच एक भाग कंपे अने एक भाग न कंपे. ४ कदाच एक भाग कंपे अने बहु भागो न कंपे. ५ कदाच बहु भागो कंपे अने एक भाग न कंपे. ६ कदाच घणा भागो कंपे अने घणा भागो न कंपे-जेम चार प्रदेशवाळा स्कंध माटे कयुं तेम पांच प्रदेशवाळा स्कंधथी मांडी यावत् अनंतप्रदेशवाळा स्कंध सुधीना दरेक स्कंधो माटे जाणवू. ॥ २१२ ॥
परमाणुपोग्गले णं भंते ! असिधारं वा खुरधारं वा ओगाहेजा ?, हता! ओगाहेजा, सेण भंते ! तत्थ छि जेज वा भिज्जेज़ा वा, गोयमा ! णो तिणठे समढे, नो खलु एत्थ सत्थं कमति, एवं जाव असंखेजपएसिओ। | अणंतपदेसिए ण भंते ! खंधे असिधारं वा खुरधारं वा ओगाहेज्जा ?, हंता ! ओगाहेज्जा, से ण तत्थ छिज्जेज वा भिजेज वा ?, गोयमा ! अत्थेगतिए छिज्जेज वा भिजेज वा,अत्थेगतिए नो छिज्जेज वा नो भिजज्ज वा, एवं अगणिकायस्स मज्झमज्झेणं०, तहिं णवरं झियाएजा भणितव्वं, एवं पुक्खलसंवट्टगस्स महामेहस्स मज्झमज्झेणं, तहिं उल्लेसिया. एवं गंगाए महा णदीए पडिसोयं हब्वमागच्छेज्जा, तहिं विणिहायमावजेजा, उदगावत्तं वा उदगबिंदुं वा ओगाहेजा?, से णं तत्थ परियावज्जेजा ।। (सून २१३)।
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥३८७॥
५ शतके उद्देशः७ | ॥३८॥
[म०] हे भगवन् ! परमाणुपुद्गल, तरवारनी धारनो य सजायानी धारनो आश्रय करे ? [उ०] हा, आश्रय करे. [प्र.] हे | भगवन् ! ते धार उपर आश्रित परमाणु पुद्गल छेदाय, भेदाय ? [उ०] हे गौतम ! ते अर्थ समर्थ नथी-नकी, ते परमाणु पुद्ग
लमा शस्त्र, क्रमण करी शके नहि, ए प्रमाणे यावत्-असंख्य प्रदेशवाळा स्कंधो माटे ममजी लेबु अर्थात् एक परमाणु या असंख्य| प्रदेशवाळो स्कंध शस्त्रद्वारा छेदाय नहि तेम भेदाय नहि. [प्र०) हे भगवन् ! अनंतप्रदेशवाळो स्कंध तरवारनी धारनो या सजायानी | धारनो आश्रय करे ? [उ०] हा, आश्रय करे. [प्र०] ते तरवारनी या सजायानी धार उपर आश्रित अनंतप्रदेशवाळो स्कंध छेदाय भेदाय ? [उ०] हे गौतम ! कोई एक छेदाय अने भेदाय, तथा कोइ एक न छेदाय अने भेदाय. ए प्रमाणे परमाणु पुद्गलथी अनंत प्रदेशवाला स्कंध सुधीना दरेक पुद्गलो परत्वे ' अग्निकायनी वचोवच प्रवेश करे ए प्रमाणेना प्रश्नोत्तरो करवा. विशेष, ज्यां संभवे त्यां 'छदाय, भेदाय' ने बदले 'बळे 'ए प्रमाणे कडे. ए प्रमाणे पुष्करसंवर्त नामना मोटा मेघनी वचोवच प्रवेश करे' ए प्रमाणेना प्रश्नोत्तरो करवा, ते स्थळे 'छेदाय, भेदाय' ने बदले - भीनो थाय' एम कहे; ए प्रमाणे गंगा महानदीना प्रतिश्रोत प्रवाहमां, शीघ्र ते परमाणु पुद्गलादि आवे अने त्यां प्रतिस्खलन पामे' अने 'उदकावर्त या उदक बिंदु प्रत्ये प्रवेश करे अन ते | ( परमाण्वादि ) त्यां नाश पामे' ए संबंधे प्रश्नोत्तरो करवा. ॥ २१३ ॥
परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं सअड्ढे समझे सपएसे?, उदाहु अणड्ढे अमज्झे अपएसे ?, गोयमा! अणड्ढे अमज्झे अपएसे,नो सअड्ढे नो समझे नो सपएसे ॥ दुपदेसिए णं भंते खंघे किं सअद्ध समज्झे सपदेसे उदाहु अणद्धे अमज्झ अपदेसे ?, गोयमा! सअद्धे अमज्झे सपदेसे, णो अणद्धे णो समझे णो अपदेसे ।।
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व्याख्याप्रज्ञाप्तिः
॥३८८॥
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तिपदेसिए णं भंते ! खंधे पुच्छा, गोयमा ! अणद्धे समज्झे सपदेसे, नो सअद्धे णो अमज्झे णो अपदेसे, जहा
५ शतके दुपदेसिओ तहा जे समा ते भाणियब्वा, जे विसमा ते जहा तिपएसिओ तहा भाणियव्वा । संखेजपदेसिए णं भंते ! खंधे किं सअड्ढेद ? पुच्छा, गोयमा ! सिय सअद्धे अमज्झे सपदेसे सिय अणड्ढे समज्झे सपदेसे,
उद्देशः७ |जहा संखेजपदेसिओ तहा असंखेजपदेसिओऽवि, अणंतपदेसिओऽवि ॥ (सूत्रं २१४)॥
।।३८८॥ हे भगवन् ! शुं परमाणु षुद्गल, सार्ध-अर्ध सहित छे, मध्य सहित छे अने प्रदेश सहित छे के अर्ध रहित छे, मध्यरहित ६ अने प्रदेश रहित छे ? [उ०] हे गौतम ! परमाणु पुद्गल अनर्ध छे, अमध्य छे अने अप्रदेश छे पण सार्ध नथी, समध्य नथी |8|
सप्रदेश नथी. [प्र०] हे भगवन् ! वे प्रदेशवाळो स्कंध, शुं सार्ध समध्य अने सप्रदेश छे के अनर्ध, अमध्य अने अप्रदेश छे ? [उ०] हे गौतम ! ते बे प्रदेशवाळो स्कंध, सार्ध छे, सप्रदेश छे अने मध्य रहित छे पण अनर्थ नथी, समध्य नथी अने अप्रदेश नथी. [प्र०] हे भगवन् ! त्रण प्रदेशवालो स्कंध (ए विषे) ए प्रमाणे प्रश्न करवो. [उ०] हे गौतम ! ते त्रण प्रदेशवाळो स्कंध अनर्ध छे, समध्य छे अने सप्रदेश छे पण सार्ध नथी, अमध्य नथी अने अप्रदेश नथी. जेम, वे प्रदेशवाळा स्कंधने माटे सार्धादि विभाग दर्शाव्यो छे, तेम जेओ सम स्कंधो के एटले समसंख्यावाळा-वेकी संख्यावाला (चार प्रदेशवाय, आठ प्रदेशवाळा इत्यादि) स्कंधो छे, तेने माटे जाणी लेवू अने जेओ विषम स्कंधो छ-एकी संख्यावाला ( पांच प्रदेशवाळा, सात प्रदेशवाळा इत्यादि ) स्कंधो के तेने माटे, जेम त्रण प्रदेशवाला स्कंध संबंधे का तेम जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! संख्येयप्रदेशवाळो स्कंध शुं सार्ध छे ? ( इत्यादि प्रश्न करवो.) [उ०] हे गौतम ! कदाच सार्ध होय, अमध्य होय. अने सप्रदेश होय; कदाच अनर्ध होय, समध्य
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
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५ शतके
देसणं सव्वण दिस पुमति ८ सत्वेग देसहि देसं फसवि फुसद, एवं परमाहाकु जहा
-
दा होय अने सप्रदेश होय. जेम संख्येय प्रदेशवालो स्कंध को तेम असंख्येय प्रदेशवाळो स्कंध अने अनंत प्रदेशवाळो स्कंध | पण जाणी लेवोः ॥ ११४ ॥
परमाणुपोग्गले गं भंते ! परमाणुपोग्गलं फुसमाणे किं देसेणं देसं फुसइ १ देसेणं देसे फुसइ २ उद्देशः७ देसेणं सव्वं फुसइ ३ देसेहिं देस फुसति ४ देसेहिं देसे फुसइ ५ देसेहिं सव्व फुसइ ६ सब्वेणं देसं फुस-४॥३८९॥ ति ७ सव्वेणे देसे फुमति ८ सब्वेणं सव्वं फुसइ ९१, गोयमा ! णो देसेणं देसं फुसह णो देसेणं देसे फुसति णो देसेणं सब्वं फुसइ णो देसेहिं देस फुसति नो देसेहिं देसे फुसइ नो देसेहिं सब्वं फुसति णो सब्वेणं देसं फुसह णो सब्वेणं देसे फुसति, सव्वेणं सव्वं फुसह, एवं परमाणुग्गले दुपदेसियं फुसमाणे सत्तमणवमेहिं फुसति.परमाणुपोग्गले तिपएसिय फुसमाणे णिप्पच्छिमएहिं तिहिं फु०,जहा परमाणुपोग्गले तिपएसियं फुसाबिओ एवं फुसावेयव्वो जाव अणंतपएसिओ॥
[प्र०] हे भगवन् ! परमाणुपुद्गलने स्पर्श करतो परमाणु पुद्गल, शुं एक भागवडे एक भागनो स्पर्श करे १, एक भागवडे घणा भागोनो स्पर्श करे २, एक भागवडे सर्वनो स्पर्श करे ३, घणा भागोद्वारा एक देशने स्पर्श ४, घणा देशोद्वारा घणा देशोने स्पर्श ५, घणा देशोद्वारा सर्वने स्पर्श ६, सर्ववडे एक भागने स्पर्श ७, सर्ववडे घणा भागोने स्पर्श ८, के सर्ववडे सर्वने म्पर्श ९? [उ०] हे गौतम ! १ एक देशथी एक देशने न स्पर्श, २ एक देशथी घणा देशोने न स्पर्श, ३ एक देशथी सर्वने न स्पर्श, ४ घणा देशोथी एकने न स्पर्श, ५ घणा देशोथी घणा देशोने न स्पर्श, ६ घणा देशोथी सर्वने न स्पर्श, ७ सर्वथी एक देशने ने
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥३९॥
५ शतके उद्देशः७ ॥३९०॥
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SANSAR
स्पर्श, ८ सर्वथी घणा देशोन न स्पर्श, ९ पण सर्वथी सर्वने स्पर्श. ए प्रमाणे वे प्रदेशवाळा स्कंधने स्पर्शतो परमाणुपुद्गल सातमा 5 अने नवमा विकल्पवडे स्पर्श एटले ७ सर्ववडे एक भागने स्पर्शे यातो ९ सर्ववडे सर्वने स्पर्श. वळी, त्रण प्रदेशवाळा स्कंधने स्प
शंतो परमाणु-पुद्गल छेल्ला त्रण-७ ना, ८ मा अने नवमा विकल्पवडे स्पर्श एटले ७ सर्वथी एवा देशने स्पर्श, ८ सर्वथी घणा भागोने स्पर्शे अने ९ सर्वथी सर्वने स्पर्श. जे प्रकारे त्रण प्रदेशवाळा स्कंधने परमाणुपुद्गलनो स्पर्श कराव्यो ते प्रकारे चार प्रदेशवाळा, पांच प्रदेशवाळा यावत्-अनंत प्रदेशवाळा स्कंधनी साथे परमाणुपुद्गलनो स्पर्श कराववो.
दुपएसिए णं भंते ! खधे परमाणुपोग्गलं फुसमाणे पुच्छा, ततियनवमेहिं फुसति. दुपदेसियं फुसमाणो पढमतइयसत्तमणवमेहिं फुसइ, दुपदेसिओ तिपदेसियं फुसमाणो आदिल्लएहि य पच्छिल्लएहि य तिहिं फुसति, | मज्झमएहिं तिहिं विपडिसेहेयव्वं, दुपदेसिओ जहा तिपदेसियं फुसावितो एवं फुसावेयव्वो जाव अणंतपए | सियं । तिपएसिए णं भंते ! खंधे परमाणुपोग्गलं फुसमाणे पुच्छा, ततियछट्टणवमेहिं फुसति, तिपएसिओ दुप| एसियं फुसमाणो पढमएणं ततिएणं चउत्थछट्ठसत्तमणवमेहिं फुसति, तिपएसिओ तिपसियं फुसमाणो सब्वे
सुवि ठाणेसु फुसति, जहा तिपएसिओ तिपदेसियं फुसावितो एवंतिपदेसिओ जाव अणंतपएसिएणं संजोएवायचो, जहा तिपएसिओ एवं जाव अणंतपएसिओ भाणियब्यो । ( सूत्रं २१५)। है [प्र०] हे भगवन् ! परमाणुपुद्गलने स्पर्शतो बे प्रदेशवाळो स्कंध केवी रीते स्पर्शे ? ए प्रश्न करवो. [उ०] हे गौतम ! त्रीजा
अने नवमा विकल्पवडे स्पर्श. एवी रीते वे प्रदेशवाळा स्कंधने स्पर्शतो द्विप्रदेशिकस्कंध प्रथम, तृतीय, सप्तम अने नवमा विकल्पवडे
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
| स्पर्शेत्रण प्रदेशवाळा स्कंधने स्पर्शतो द्विप्रदेशिकस्कंध पेला त्रण विकल्पोबडे अने छल्ला त्रण विकल्पोबडे स्पर्श अने वचला त्रणे | पण विकल्पोवडे प्रतिषेध करवो, जेम द्विप्रदेशिकस्कंधने प्रण प्रदेशवाळा स्कंधनी स्पर्शना करावी ए प्रमाणे चार प्रदेशवाळा, पांच
५ शतके | प्रदेशवारा यावत्-अनंत-प्रदेशवाला स्कंधनी स्पर्शना कराववी. [प्र०] हे भगवन् ! परमाणुपुद्गलने स्पर्श करतो त्रण प्रदेशवाळो उद्देशः७ टू स्कंध केवी रीते स्पर्शे? ए प्रश्न करवो. [उ०] हे गौतम! त्रीजा छट्ठा अने नवमा विकल्पवडे स्पर्श, द्विप्रदेशिकने स्पर्श करतो त्रिप्रदे- ॥३९॥
शिकस्कंध, प्रथम तृतीय, चतुर्थ, षष्ठ, सप्तम अने नवमा विकल्पवडे स्पर्शे; त्रिप्रदेशिकने स्पर्श करतो त्रिप्रदेशिक स्कंध सर्व स्थानोमां ४ स्पर्शे एटले नवे विकल्पवडे स्पर्शे, जेम त्रिप्रदेशिकने त्रिप्रदेशिकनो स्पर्श कराव्यो ए प्रमाणे त्रिप्रदेशिकने चार प्रदेशिक, पांच प्रदेशिक यावत्-अनंत प्रदेशिक सुधीना बधा स्कंधो साथे संयोजवो अने जेम त्रिप्रदेशिक स्कंध परत्वे का तेम यावत्-अनंतप्रदेशिक सुधीना स्कंध परत्वे कहेवू. ॥ २१५॥
परमाणुपोग्गले णं भंते ! कालतो केवञ्चिरं होति ?, गोयमा ! जहन्नेणं पगं समयं उक्कोसेणं असंखेनं कालं, एवं जाव अणंतपएसिओ । एगपदेसोगाढे णं भंते ! पोग्गले संए तम्मि वा ठाणेसु अन्नंमि वा ठाणे | कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा! जह० एगं समयं उक्को. आवलियाए असंखेजहभागं, एवं जाव असंखेजपदेसोगाढे । एगपदसोगाढे ण भंते ! पोग्गले निरेए कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहन्नेणं एगी समयं उक्कोसेणं असंखेज्नं कालं, एवं जाव असंखेजपदसोगाढे । एगगुणकालए णं भंते! पोग्गले कालओ केचिर होइ?; गोवमा ! जह० एगं समयं उ० असंखेनं कालं, एवं जाव अणंतगुणकालए, एवं वन्नगंधरसफामै जावं
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प्रज्ञप्तिः
॥३९२॥
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अणतगुणलुक्खे, एवं सुहुमपरिणए पोग्गले, एवं बादरपरिणए पोग्गले । सद्दपरिणए णं भंते ! पुग्गले कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा ! ज० एवं समयं उ० आवलियाए असंखेज्जइ भागं, असद्दपरिणए जहा एगगुणकालए ॥ [प्र०] हे भगवन् ! परमाणुपुद्गल, काळथी क्यांसुधी रहे ? [अ०] हे गौतम ! परमाणुपुद्गल, ओछामां ओछु एक समय सुधी | रहे अने वधारेमां वधारे असंख्य काल सुधी रहे ए प्रमाणे यावत् अनंतप्रदेशिक सुधीना स्कंध माटे समजी लें. [प्र०] हे भगवन् ! एक आकाश प्रदेशमां स्थित पुद्गल, ज्यां होय ते स्थाने अथवा बीजेस्थाने काळथी क्यांसुधी सकंप रहे? [उ०] हे गौतम! जघन्यथी एक समय सुधी अने वधारेमां वधारे आवलिकाना असंख्येय भाग सुधी सकंप रहे, ए प्रमाणे यावत् आकाशना असंख्येय प्रदेशमां स्थित पुद्गल माटे पण जाणं. [प्र० ] हे भगवन् ! एक आकाश प्रदेशमां अवगाढ पुद्गल काळथी क्यांसुधी निष्कंप रहे ? [उ० ] हे गौतम! जघन्य एक समय अने वधारेमां वधारे असंख्येय काळ सुधी निष्कंप रहे, ए प्रमाणे यावत् असंख्येय प्रदेशावगाढ पुद्गल माटे पण जाणवुं [प्र०] हे भगवन् ! पुद्गल एकगणुं काळं, काळथी क्यां सुधी रहे ? [उ० ] हे गौतम ! जघन्यथी एक समय सुधी अने वधारेमां वधारे असंख्येय काळ सुधी रहे, ए प्रमाणे यावत् अनंत गुण काळा पुद्गल माटे जाणवु, -ए प्रमाणे वर्ण, गंध, रस अने स्पर्श यावत् अनंतगुण रूक्ष माटे पुद्गल माटे जाणवं, ए प्रमाणे सूक्ष्मपरिणत पुद्गल माटे अने बादरपरिणत पुद्गल माटे जाण. [ प्र० ] हे भगवन् ! शब्दपरिणत पुद्गल, काळथी क्यां सुधी रहे ? [उ०] हे गौतम! ओछामां ओहुं एक समय मुधी अने वधारेमां बधारे आवलिकाना असंख्येय भाग सुधी रहे अशब्दपरिणत पुद्गल, जेम एकगुण काळं पुद्गल क, तेम समजं.
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५ शतके
उद्देशः ७
||३९२ ॥
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५ शतके उद्देश ॥३९३॥
परमाणुपोग्गलस्स णं भंते ! अंतरं कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहन्नेणं एग समयं, उक्कोव्याख्या
सेणं असंखेज़ कालं । दुप्पएसियस्स णं भंते ! खंधस्स अंतरं कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहन्नेणं एर्ग प्रज्ञप्तिः
समयं, उक्कोसेणं अणतं कालं, एवं जाव अणंतपएसिओ। एगपएमोगाढस्स णं भंते ! पोग्गलस्स सेयस्स अं॥३९३॥ द्रतरं कालओ केवचिर होइ ?, गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेनं कालं, एवं जाव असंखेजपए
सोगाढे । एगपएसोगाढस्म णं भंते ! पोग्गलस्स निरेयस्स अंतरं कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं उक्कोसेणं आवलियाए असंखेजइ भागं, एवं जाब असंखेजपएसोगाढे । वन्नगंधरसफासुहुमपरिणय| वायरपरिणयाणं एतेसिं जं चेव संचिट्ठणा तं चेव अंतरंपि भाणियव्यं । सहपरिणयस्स णं भंते ! पोग्गलस्स
अंतर कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहन्नेणं एग समयं उक्कोसेणं असंखेज्ज़ कालं । असद्दपरिणयस्स णं भंते ! पोग्गलस्स अंतरं कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहन्नेणं पगं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेजइभागं ॥ (सूत्रं २१६ )।
[प्र०] हे भगवन् ! परमाणुपुद्गलने काळयी केटलं लांचं अंतर होय एटले के जे पुद्गल, परमाणु रूपे छे ते परमाणुपj त्यजी स्कंधादिरूप परिणमे अने पार्छ तेने परमाणुपणुं प्राप्त करतां काळथी केटलुं लांचं अंतर होय ? [उ०] हे गौतम ! ओछामां ओछं एक समय अंतर अने वधारेमां वधारे असंख्येय काळ सुधीनुं अंतर छे. अर्थात् परमाणुरूप पुद्गलने परमाणुपणुं छोडी फरी| वार परमाणुपणुं प्राप्त करता ओछामा ओछो एक समय अने वधारेमां वधारे असंख्येय काळ लागे के. [प्र०] हे भगवन् ! द्विप्रदे
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व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥३९॥
CC
| शिक स्कंधने काळथी केटलुं लांचं अंतर होय? [उ०] हे गौतम ! जघन्य एक समय अने उत्कृष्टथी अनंत काळनुं अंतर छे, ए प्रमाणे यावत् अनंतप्रदेशिकस्कंध सुधी जाणी लेवु. [म.] हे भगवन् ! एक प्रदेशमा स्थित सकंप पुद्गलने काळथी केटलुं लावू
५ शतके अंतर होय एटले एक प्रदेशमा स्थित पुद्गल पोतानुं कंपन पडतुं मेले तो तेने फरीथी कंपन करता केटलो काळ लागे? [उ०] हे
उद्देशः७ गौतम ! जघन्यथी एक समय अने उत्कृष्टथी असंख्यकाळ सुधीनुं अंतर होय अर्थात् ते पुद्गल ज्यारे पोताना कंपथी अटके अने ॥३९४॥ फरीथी कंपवू शरु करे तेटलामा ओछामा ओछो एक समय अने वधारेमां वधारे असंख्य काळ लागे, ए प्रमाणे यावत् असंख्यप्रदेशस्थित स्कंधो माटे पण समजी लेवू. [प्र०]हेभगवन् ! एक प्रदेशमा स्थितनिष्कंप पुद्गलने काळथी केटलुं लांबुं अंतर होय अर्थात् एक निष्कंप पुद्गल पोतानी निष्कंपता छोडी दे अने तेने फरीथी निःकंपता प्राप्त करवामां केटलो काळ लागे ? [उ०] हे गौतम ! जघन्यथी एक समय अने उत्कृष्टथी आवलिकानो असंख्येय भाग, ए प्रमाणे यावत् असंख्य प्रदेशस्थित स्कंधो माटे पण समजी लेवु. वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, सक्ष्मपरिणत अने बादरपरिणतोने माटे जे तेओनो संचिट्ठणा-स्थितिकाळ कह्यो छे तेज अंतरकाळ छे, एम कहे. [प्र०] हे भगवन् ! शब्दपरिणत पुद्गलने काळथी केटलु लांबु अंतर होय ? [उ०] हे गौतम ! जघन्यथी एक समय है। | अने उत्कृष्टथी असंख्यकाळ अंतर होय एटले जे पुद्गल शब्दरूपे परिणम्युं होय, पार्छ फरीवार तेने शब्दरूपे परिणमवामा ओछामां
ओछु एक समय अने वधारेमां वधारे असंख्य काळ जोइए. [प्र०] हे भगवन् ! अशब्दपरिणत पुद्गलने काळथी केटलुं लांबु अंतर | होय ? [उ०] हे गौतम ! जघन्यथी एक समय अने उत्कृष्टथी आवलिकानो असंख्येय भाग अंतर होय एटले अशब्दपरिणत पुद्गलने पोतानो अशब्दपरिणतपणानो स्वभाव मूकी पार्छ तेज स्वभावमा आवतां ओछामा ओछु एक समय अने वधारेमां वधारे
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥३९५॥
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आवलिकानो असंख्येय भाग काळ लागे. ॥ २९६ ॥
एयरस णं भंते! दव्वद्वाणाउयस्स खेत्तट्टाणाउयस्स ओगाहणद्वाणाउयस्स भावद्वाणाउयस्म कयरे २ जाव विसेमाहिया वा ?, गोयमा ! सम्वत्थोवे खेत्तट्ठाणाउए ओगाहणट्ठाणाउए असंखेज्जगुणे दव्वद्वाणाउए असंखेज्जगुणे भावट्टाणाउए असंखेज्जगुणे- 'खेत्तोगाहणदध्वे भावद्वाणाउयं च अप्पयहुं । खेत्ते सन्वत्थोवे सेसा ठाणा असंखेज्जा ।। ३५ ।। ' ( सू २१७ )
[प्र.] हे भगवन् ! एद्रव्यस्थानायु, क्षेत्रस्थानायु, अवगाहनास्थानायु अने भावस्थानायु ए वैधामां कयुं कोनाथी यावत् विशेपाधिक छे ? [उ०] हे गौतम! सर्वथी थोडं क्षेत्रस्थानावायु छे, ते करतां अंसंख्यगुण अवगाहनास्थानावायु छे, ते करतां असंख्यगुण द्रव्यस्थांनायु के अने ते करतां भावस्थानायु असंख्यगुण छे, क्षेत्र, अगाहना, द्रव्य अने भावस्थायुनुं अल्पबहुत्व कहेनुं, |तेमां क्षेत्रस्थानावायु सर्वथी अल्प छे अने बाकीनां स्थानो असंख्येयगुणा छे. ॥ २१७ ॥
नेरइया णं भंते ! किं सारंभा सपरिग्गहा उदाहु अणारंभा अपरिग्गहा ?, गोयमा ! नेरइया मारंभा सपरिग्गहा, नो अणारंभा, जो अपरिग्गहा । से केणद्वेणं जाव अपरिग्गहा ?, गोयमा ! नेरड्या णं पुढविकार्य समारंभंति जाब तमकार्य समारंभति सरीरा परिग्गहिया भवंति कम्मा परिग्गहिया भवंति सचित्ताचित्तमीसयाई दव्वाई परि० भ०, से तेणद्वेणं तं चैव ।
[प्र० ] हे भगवन् ! नैरयिको शुं आरंभ सहित छे, परिग्रह सहित छे के अनारंभी अने अपरिग्रही छे ? [अ०] हे गौतम!
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५ शतके
उद्देशः ७
।। ३९५ ।।
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व्याख्याप्रचप्तिः ॥३९६॥
५ शतके उद्देशः७ | ॥३९६॥
| नरयिको आरंभवाळा छे अने परिग्रहवाळा छे पण अनारंभी अने अपरिग्रही नथी. [प्र०] हे भगवन् ! तेओ, क्या हेतुथी परिग्रहवाळा छे अने यावत् अपरिग्रही नथी ? [उ०] हे गौतम ! नैरयिको पृथिवीकायनो यावत् त्रसकायनो समारंम करे छे, तेओए शरीरो परिगृहीत कर्यां छे, कर्मों परिगृहीत कर्यां छे अने तेओए सचित, अचित अने निश्र द्रन्यो परिगृहीत कर्यां छे माटे ते हेतुथी | हे गौतम ! 'तेओ परिग्रही छे' इत्यादि तेज कहे.
असुरकुमारा णं भंते! किं सारंभा ४ ?, पुच्छा, गोयमा ! असुरकुमारा सारंभा सपरिग्गहा,नो अणारंभा अप० । से केण?णं०?, गोयमा ! असुरकुमारा णं पुढविकायं समारंभति जावतसकायं समारंभंति सरीरा परिग्गहिया भवंति कम्मा परिग्गहिया भवंति भवणा परि० भवंति देवा देवीओ मणुस्सा मणुस्सीओ तिरिक्खजोणियातिरिक्खजोणिणीओ परिग्गहियाओ भवंति, आसणसय णभंडमत्तोवगरणा परिग्गहिया भवंति, सचित्ताचित्तमीसयाइं दव्वाइं परिग्गहियाई भवंति,से तेणटेणं तहेव एवं जाव थणियकुमारा । एगिदिया जहा नेरइया।
[प्र.] हे भगवन् ! असुरकुमारो आरंभवाळा छे ? इत्यादि प्रश्न करवो. [उ०] हे गौतम ! असुरकुमारो आरंभवाला छे, परिग्रहवाळा छे पण अनारंभी के अपरिग्रही नथी. [प्र०] हे भगवन् ! ते शा हेतुथी ? [उ०] हे गौतम ! अमुरकुमारो पृथिवीकायनो समारंभ करे छे यावत् त्रसकायनो वध करे छे, तेओए शरीरो परिगृहीत काँ छे, कर्मो परिगृहीत कर्यां छे, देवो, देवीओ, मनुपीओ, तिर्यचो, तिर्यचिणीओ परिगृहीत करी छे, आसन, शयन, भांडो, मात्रको अने उपकरणो परिगृहीत कर्यां छे अने सचित,
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५
व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥३९७॥
SEARCRACTICK
| अने मिश्र द्रव्यो परिगृहीत कर्यां छे माटे ते हेतुथी तेओने परिग्रहवाळा कह्या छे ए प्रमाणे यावत्-स्तनितकुमारो माटे पण जाणवू. 14
५ शतके जेम नरयिको माटे कयुं तेम एकेन्द्रियो माटे जाणवं. | बेइंदिया णं भंते ! किं सारंभा सपरिग्गहा तं चेव जाव सरीरा परिग्गहिया भवंति, बाहिरिया
उद्देशः७ भंडमत्तोवगरणा परि० भवंति, सचित्ताचित्त. जाव भवंति, एवं जाव चउरिंदिया, पचेदियतिरिक्ख
||३९७॥ जोणिया णं भंते ! तं चेव जाव कम्मा परि० भवन्ति, टंका कूडा सेला सिहरी पन्भारा परिग्गहिया भवंति,जलथलबिलगुहालेणा परिग्गहिया भवंति,उज्झरनिज्झरचिल्ललपल्ललवप्पिणा परिग्गहिया भवंति, अगडतडागदहनदीओ वाविपुक्खरिणीदीहिया गुंजालिया सरा सरपंतियाओ सरसरपंतियाओ बिलपतीयाओ परिग्गहियाओ भवंति, आरामुजाणा काणणा वणाई वणसंडाई वणराईओ परिग्गहियाओ भवंति, देवउलसभापवाथूभाखातियपरिखाओ परिग्गहियाओ भवंति,पागारट्टालगचरियदारगोपुरा परिग्गहिया भवंति, पासादघरसरणलेणआवणा परिग्गहिता भवंति,सिंघाडगतिगचउक्कचच्चरचउम्मुहमहापहा परिग्गहिया भवंति, सगडरजाणजुग्गगिल्लिथिल्लिसीयसंदमाणियाओ परिग्गहियाओ भवंति, लोहीलोहकडाहकडुच्छुया परिग्गहिया भवंति,भवणा परिग्गहिया भवंति,देवा देवीओ मणुस्सा मणुस्सीओ तिरिक्खजोणिओ तिरिक्खजोणिणीओ आसणसयणखभभंडसचित्ताचित्तमीसयाई दब्वाइं परिग्गहियाई भवंति, से तेणटेणं, (जहा) तिरिक्खजोणिया तहा मणुस्साणवि भाणियब्वा, वाणमंतरजोतिसवेमाणिया जहा भवणवासी तहा नेयव्वा (सू० २१८)
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
3
॥३९८॥
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[प्र०] हे भगवन् ! बेइंद्रिय जीवो शुं सारंभ अने सपरिग्रह छ ? [उ.] हे गौतम ! तेज कहेवू यावत् तेओए शरीरो परिगृहीत ४ कर्यां छे अने बाह्य भांड, मात्र, उपकरणो परिगृहीत कर्यां छे, ए प्रमाणे यावत् चरिंद्रिय जीव सुधीना दरेक जीव माटे जाणी ५शतके
लेबु. [प्र०] हे भगवन् ! पंचेन्द्रिय तियंचयोनिको शुं आरंभी छे ? इत्यादि तेज प्रश्न करवो. [उ०] हे गौतम ! तेज कहेवू अर्थाद् । &उद्देशः७ तेओए कर्मो परिगृहीत कर्यां छे, पर्वतो, शिखरो, शैलो, शिखरवाळा पहाडो अने थोडा नमेला पर्वतो तेओए परिगृहीत ॥३९८॥ | काँ छे, जल, स्थल, बिल, गुहाओ अने पहाडमां कोतरेल घरो तेओए परिगृहीत कर्यां छे, पर्वतथी पडता पाणीना झरा, निझरो, कचरावाळा पाणीवाळू एक प्रकारनुं जलस्थान, आनंद देनारुं जलस्थान, क्यारावाळो प्रदेश-ए बधार्नु तेओए ग्रहण कयु छे, कूवो, तळाव, धरो, नदीओ, चोखंडी वाव, गोळ वाव, धोरीयाओ, वांका धोरीयाओ, तळावो, तळावनी श्रेणिओ, एक तळावथी बीजा तळावमां अने बीजा तळावथी त्रीजा तळावमा पाणी जाय ए प्रकारनी तळावनी श्रेणीओ अने चिलनी श्रेणीओ तेओए परिगृहीत करी छे, प्राकार-किल्लो, अट्टालक-चरुखा, चरिय-घर अने किल्लानी बच्चेनो हस्ति विगेरेने जवानो मार्ग,-खडकी अने शहेरना दरवाजा परिगृहीत कर्या छे, देवभुवन अथवा राजभुवन, सामान्य घर, झुपडां, पर्वतमा कोतरेलुं घर, अने हाटो परिगृहीत कर्या छे, शृंगाटक-सिंगोडाना आकारनो मार्ग-A ज्यां त्रण शेरी भेगी थाय-1, ज्यां चार शेरी भेगी थाय ते चतुष्क- मार्ग, चत्वर
ज्यां सर्व रस्ता भेगा थाय ते चोक-x, चार दरवाजावाळा देवकुल बगेरे अने महामार्गों परिगृहीत कर्या छे,शकट-गाईं, यान, युग, है गिल्लि-अंबाडी, थिल्लि-घोडा- पलाण, डोळी अने मेना-सुखपाल परिगृहीत कर्या छे, लोढी, लोढार्नु कडायुं अने कडछानो परिग्रह | कर्यो छे, भवनपतिना निवासो परिगृहीत कर्या छे, देवो, देवीओ, मनुष्यो, मनुषणीओ, तियंचो, तिर्यचणीओ, आसन, शयन, खंड,
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विमां पाणी जाय । पाका घोरीयाओ, तळावी, तलावधान तेओए ग्रहण कर्यु छे, को,
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥ ३९९ ॥
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भांड, तथा सचित, अचित अने मिश्र द्रव्यो परिगृहीत कर्यां छे, माटे ते हेतुथी तेओ आरंभी अनं परिग्रही छे. जेम तिर्यंचयोनिना जीवो का तेम मनुष्यो पण कहेवा, तथा वाणमंतरो, ज्योतिषिओ अने वैमानिको, जेम भवनवासी देवो कह्या तेम जाणवा. ॥२१८॥ पंच हेऊ पण्णत्ता, तंजहा - हेउ जाणइ हेउं पासइ हेउं बुज्झइ हेउं अभिसमागच्छति हेउ छउमत्थमरणं मरइ ॥ पंचेब हेऊ पं० तंजहा- हेउणा जाणड़ जाव हेउणा छउमत्थमरणं मरइ ॥ पंच हेऊ पण्णत्ता, तंजहाहेउ न जाणइ जाव हेउं अन्नाणमरणं मरइ || पंच हेऊ पन्नत्ता, तंजहा- हेउणा ण जाणति जाव हेउणा मरणं मरति ॥ पंच अहेऊ पण्णत्ता, तंजहा - अहेउं जाणइ जाव अहेउं केवलिमरणं मरइ || पंच अहेऊ पण्णत्ता, तंजहा - अहेउणा जाणइ जाव अहेउणा केवलिमरणं मरइ ॥ पंच अहेऊ पण्णत्ता, तंजहा - अहेउं न जाणइ जाव अहेडं छउमत्थमरणं मरइ || पंच अहेऊ पण्णत्ता, तंजहा-अहेउणा न जाणइ जाव अहेउणा छउमत्थमरणं मरइ । सेवं भंते २ त्ति ॥ ( सू २१९ ) ॥ पञ्चमशते सप्तमोद्देगकः ॥ ६-७ ॥
पांच हेतुओ कह्या छे, ते जेम के, हेतुने जाणे छे, हेतुनें जुए छे, हेतुने सारी रीते श्रद्दधे छे, हेतुने सारी रीने प्राप्त करे छे, हेतवाळु छद्मस्थमरण करे छे. पांच हेतुओ कह्या छे, ते जेम के, हेतुए जाणे छे, यावत् हेतुए छद्मस्थमरण करे छे. पांच हेतुओ कह्या छे, ते जेम के, हेतुने न जाणे, यावत् हेतवाळु अज्ञानमरण करे. पांच हेतुओ कह्या छे, ते जेम के, हेतुए न जाणे यावत् हेतु अज्ञानमरण करे. पांच अहेतुओ का छे, ते जेमके, अहेतुने जाणे छे यावत् अहेतवाळु केवलीमरण करे छे. पांच अहेतुओ कह्या छे, ते जेमके, अहेतुए जाणे यावत् अहेतुए केवलिमरण करे. पांच अहेतु कला छे, ते जेमके, अहेतुने न जाणे यावत् अहेतु
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५ शतके उद्देशः ७ ॥ ३९९ ॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४०॥
| वाळू छमस्थमरण करे. पांच अहेतु कह्या छे, ते जेमके, अहेतु ए न जाणे, यावत् अहेतुए छद्मस्थमरण करे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे एम कही श्रमण भगवंत गौतम विचरे छे. ॥ २१९ ॥
भगवत् सुधर्मस्वामींप्रणीत श्रीमद् भगवतीमूत्रना पांचमा शतकमां सातमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
४५शतके
उद्देशः८ ॥४०॥
उद्देशक ८. सातमा उद्देशकमां स्थितिनी अपेक्षाए पुद्गलो निरुप्या छे हवे आठमा उद्देशकमां पुद्गलोज प्रदेशनी अपेक्षाए निरुपाय छे.
तेणं कालेणं २ जाव परिसा पडिगया, तेणं कालेणं २ समणस्स ३ जाव अंतेवासी नारयपुत्ते नामं अणगारे पगतिभद्दए जाव विहरति, तेणं कालेणं २ समणस्स ३ जाव अंतेवासी नियंठिपुत्त णाम अण. पगतिभद्दए जाव विहरति, तए णं से नियंठीपुत्ते अण. जेणामेव नारयपुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ २ नारयपुत्तं अण० एवं वयासी-सव्वा पोग्गला ते अजो! किं सअड्ढा समज्झा सपएसा उदाहु अणड्ढा अमज्झा अपएसा?, अजोत्ति नारयपुत्ते अणगारे नियंठिपुत्त अणगारं एवं वयासी-सव्वपोग्गला मे अजो! सअड्डा समज्झा सपदेसा, नो अणड्डा अमज्झा अप्पएसा, तए णं से नियंठिपुत्ते अणगारे नारयपुत्तं अ. एवं वदासि-जति णं ते अजो! सब्वपोग्गला सअड्ढा समज्झा सपदेसा, नो अणड्ढा अमज्झा अपदेसा
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥४०१ ॥
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किं दव्वादेसेणं अज्जो ! सव्वपोग्गला सअड्ढा समज्झा सपदेसा, नो अणड्ढा अमज्झा अपदेसा! खेनादेसेणं अज्जो ! सव्यपोग्गला सअड्ढा समज्झा सपएसा तहव चेव, कालादेसेणं तं चैव, भावादेसेणं अज्जो ! तं चेव, तए णं से नारयपुत्ते अणगारे नियंठिपुत्तं अणगारं एवं वदासी दव्वादेसेणवि मे अज्जो ! सव्यपोग्गला सअ ड्ढा समझा सपदेसा, नो अणड्ढा अमज्झा अपदेसार, खेत्ताएसेणवि सच्चे पोग्गला सअड्ढा तह चेव, कालादेसेणवि, तं चैव भावादेसेणवि ।
ते काळे, ते समये यावत्-सभा पाछी चळी. ते काळे, ते समये श्रमण भगवंत महावीरना शिष्य नारदपुत्र नामे अनगार, जेओ प्रकृतिभद्र थह यावत् विहरे हे, ते काळे, ते समये श्रमण भगवंत महावीरना शिष्य निर्ग्रन्थीपुत्र नामे अनगार प्रकृतिभद्र थह यावत् विहरे छे, पछी ते निन्थीपुत्र नामे अनगार, ज्यां नारदपुत्र अनगार छे त्यां आवे छे. अने त्यां आवीने तेमणे - निर्ग्रन्थीपुत्रे नारदपुत्र अनगारने आ प्रमाणे कछु : - [ प्र० ] हे भगवन् ! तमारा मते सर्व पुद्गलो शुं अर्ध सहित छे, मध्यसहित छे, प्रदेशसहित छे के अनर्थ, अमध्य अने अप्रदेश छे ? [उ०] हे आर्य ! एम कही नारदपुत्र अनगारे निर्ग्रथीपुत्र अनगारने एम कछु के, मारा मत प्रमाणे मारा धारवा प्रमाणे बधां पुद्गलो सअर्थ, समध्य अने सप्रदेश छे पण अनर्ध, अमध्य के अप्रदेश नथी. [प्र० ] त्यारपछी ते निर्ग्रथीपुत्र अनगार एम बोल्या के, हे आर्य ! जो तारा मतमां तारा धारवा प्रमाणे सर्व पुद्गलो सअर्थ, समभ्य, सप्रदेश छे पण अनर्ध, अमध्य के अप्रदेश नथी तो हे आर्य ! शुं द्रव्यादेशवडे सर्व पुद्गलो सअर्थ, समध्य अने सप्रदेश के अने अनर्ध, अमध्य अने अप्रदेश नथी ? के हे आर्य ! क्षेत्रादेशवडे सर्व पुद्गलो अर्धसहित वगेरे तथैव पूर्व प्रमाणे छे ? के तेज प्रमाणे कालादेशथी
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५ शतके
उद्देशः८ ॥४०१ ॥
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥ ४०२ ॥
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छे ? के तेज प्रमाणे भावादेशथी छे ? [अ०] त्यारे ते नारदपुत्र अनगारे निर्ग्रथीपुत्र अनगारने एम कछु के, हे आर्य ! मारा मतमां द्रव्यादेशथी पण सर्व पुद्गलो सअर्थ, समध्य अने सप्रदेश छे पण अनर्ध, अमध्य के अप्रदेश नथी, ए प्रमाणे, क्षेत्रादेशथी पण छे, कालादेशी पण छे अने भावादेशथी पण छे.
तणं से नियंठीपुत्ते अण० नारयपुत्तं अणगारं एवं वयासी-जति णं हे अजो ! दव्वादेसेणं सव्वपोग्गला सअड्ढा समज्झा सपएसा, नो अणड्ढा अमज्झा अपएसा, एवं ते परमाणुपोग्गलेवि सअड्ढे समज्झे सपएसे, गो अणड्ढे अमज्झे अपएसे, जति णं अज्जो ! खेत्तादेसेणवि सव्वपोग्गला सअ० ३ जाव एवं ते एगप| एसोगादेवि पोग्गले सअड्ढे समज्झे सपएसे, जति णं अज्जो ! कालादेसेणं सव्वपोग्गला सअड्ढा० समज्झा सपएसा, एवं ते एगसमयठितएव पोग्गले ३ तं चेव, जति णं अज्जो ! भावादेसेणं सव्वमोग्गला सअडूढा० समज्झा सपएसा ३, एवं ते एगगुणकालएव पोग्गले सअ० ३, तं चेव, अह ते एवं न भवति तो जं वयसि दव्वादेसेणवि सव्वपोग्गला सअ० ३, नो अणड्ढा अमज्झा अपदेसा, एवं खेत्ता देसेणवि, काला०, भावादेसेणवि तन्नं मिच्छा, तए णं से नारयपुत्ते अणगारे नियंठीपुत्तं अ० एवं वयासी नो खलु वयं देवा० एयमहं जाणामो पासामो, जति णं देवा० ! नो गिलायंति परिकहित्तए तं इच्छामि णं देवा० ! अंतिए एयमहं सोचा निसम्म जाणित्तए,
त्यारे ते निर्बंथीपुत्र अनगारे नारदपुत्र अनगारने एम कह्यु के, हे आर्य ! जो द्रव्यादेशथी सर्व पुद्गलो सअर्ध, समध्य अनं
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५ शतके उद्देशः ८ ||४०२॥
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५ शतके उद्देशः८ ॥४०३।।
सप्रदेश हे पण अनर्ध, अमध्य अने अप्रदेश नथी तो तारा मतमा ए प्रमाणे होवाथी परमाणुपुद्गल पण सअर्ध, समध्य अने सप्रव्याख्या देश होवो जोइए पण अनर्ध, अमध्य के अप्रदेश न होवो जोइए, हे आर्य ! जो क्षेत्रादेशथी पण बधां पुद्गलो सअर्ध, समध्य अने प्रज्ञप्तिः || सप्रदेश छे तो तारा मतमा एम होवाथी एकप्रदेशावगाढ पुद्गल, पण सअर्ध, समध्य अने सप्रदेश हो, जोइए, वळी हे आर्य ! ॥४०३॥ | जो कालादेशथी पण सर्व पुद्गलो सअर्ध, समभ्य अने सप्रदेश के तो तारा मतमा ए प्रमाणे होवाथी एक समयनी स्थितिवाळां
| पुद्गलो पण सअर्ध इत्यादि तेज ते प्रकारना होवा जोइए, वळी हे आर्य ! जो भावादेशथी पण सर्व पुद्गलो सअर्ध, समध्य अने
सप्रदेश छे तो तारा मतमा एम होबाथी एकगुण काळ पुद्गल पण सअर्ध इत्यादि तेज प्रकारर्नु हो, जोइए, हवे जो तारा मतमां | एम न होय तो तुं जे कहे छे के, "द्रव्यादेशवडे पण बधां पुद्गलो साध समध्य अने सप्रदेश छे पण अनर्ध, अमध्य अने अप्रदेश नथी, ए प्रमाणे क्षेत्रादेशवडे, कालादेशवडे अने भावादेशनडे पण तुं कहे छे," ते खोटं थाय. त्यारे ते नारदपुत्र अनगारे निग्रं
थीपुत्र अनगार प्रति एम का के, देवानुप्रिय ! ए अर्थने अमे जाणता नथी, जोता नथी; हे देवानुप्रिय ! जो तमे ते अर्थने कहेतां द ग्लानि न पामो तो हुँ आप देवानुप्रियनी पासे ए अर्थने सांभळी, अवधारी जाणवा इच्छु छु.
तए णं से नियंठीपुत्ते अणगारे नारयपुत्तं अणगारं एवं बयासी-दव्बादेसेणवि मे अजो सब्वे पोग्गला सप| देसावि अपदेसावि अणंता, खेत्तादेसेणवि एवं चेव, कालादेसेणवि भावदेसेणवि एवं चेव जे दब्बओ अप्पदेसे | से खेत्तओ नियमा अप्पदेसे, कालओ सिय अपदेसे सिय अपदेसे भावओ सिय सपदेसे सिय अपदेसे। जे | खेत्तओ अप्पदेसे से दब्बओ सिय सपदेसे सिय अपदेसे कालो भयणाए भावओ भयणाए । जहा खेत्तओ
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व्याख्या
प्रज्ञप्ति ॥४.४॥
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एवं कालओ भावओ। जे दब्बओ सपदेसे से खेत्तओ सिय सपदेसे सिय अपदेसे, एवं कालओ भावओवि ।। जे खेत्तओ सपदेसे से दब्वतो नियमा सपदेसे, कालओ भयणाए, भावओ भयणाए, जहा दव्वओ तहा।
४५शतके कालओ भावओवि ॥
उद्देशः८ त्यारबाद ते निग्रंथीपुत्र अनगारे नारदपुत्र अनगारने एम का के, हे आर्य ! मारा धारवा प्रमाणे द्रव्यादेशवडे पण सर्व पुन्- ||४०४|| गलो सप्रदेश पण , अने अप्रदेश पग हे, तेओ अनंत हे क्षेत्रादेशवडे पण एमज हे, कालादेश अने भावादेशवडे पण ए प्रमाणेज छे, जे पुद्गल, द्रव्यथी अप्रदेश छे, ते, नियमे करी चोक्कस क्षेत्रथी अप्रदेश होय छे, कालथी कदाचित् सप्रदेश अने कदाचित् अप्रदेश होय अने भावथी पण कदाचित् सप्रदेश होय अने कदाचिद् अप्रदेश होय. जे क्षेत्रथी अप्रदेश होय ते द्रव्यथी कदाच सप्रदेश होय अने कदाच अप्रदेश होय, कालथी तथा भावी पण भजनाए जाणवू, जेम क्षेत्रथी कह्यं तेम कालथी अने भावथी कहेg. जे पुद्गल द्रव्यथी सप्रदेश होय ते क्षेत्रथी कदाच सप्रदेश होय अने कदाच अप्रदेश होय, एम कालथी अने भावथी जाणी ले. जे पुद्गल क्षेत्रथी सप्रदेश होय ते, द्रव्यथी चोकस सप्रदेश होय अने कालथी तथा भावथी भजनावडे होय, जेम द्रव्यथी का। तेम कालथी अने भावथी पण जाण.
एएसि णं भंते ! पोग्गलाणं दव्वादेसेणं खेत्तादेसेणं काला देसेणं भावादेसेणं मपदेसाण य अपदेसाण य | कयरे २ जाव विसेमाहिया वा?, नारयपुत्ता सव्वत्थोवा पोग्गला भावादेसेणं अपदेसाकालादेसेणं अपदेसा असंखेजगुणा दब्वादेसेणं अपदेसा असंखेजगुणा खेत्तादेसेणं अपदेसा असंखेजगुणा खेत्तादेसेणं चेव मपदेसा असं
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४०५॥
शतके उद्देशः८ ॥४०॥
खेजगुणा दव्वादेसेणं सपदेसा विसेसाहिया कालादेसेणं सपदेसा विसेसाहिया भावादेसेणं सपदेसा विसेसाIहिया। तए णं से नारयपुत्ते अणगारे नियंठीपुत्तं अणगारं वंदह नमसइ नियंठिपुत्तं अणगारं वंदित्ताणमंसित्ता एयमटुं सम्मं विणएणं भुजो २ खामेति २त्ता संजमेणं तषसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥ (सूत्रं २२०) ।
०] हे भगवन् ! द्रव्यादेशथी, क्षेत्रादेशथी, कालादेशथी, अने भावादेशथी सप्रदेश अने अप्रदेश ए पुद्गलोमां क्या क्या पुद्गलो यावत्-थोडां छे, घणां छे, सरखां छे अने विशेषाधिक छे? [उ०] हे नारदपुत्र ! भावादेशवडे अप्रदेश पुद्गलो सर्वथी। थोडां छे, ते करतां कालादेशथी अप्रदेशो असंख्यगुण छे, ते करतां द्रव्यादेशथी अप्रदेशो असंख्यगुण , ते करता क्षेत्रादेशथी अप्रदेशो असंख्यगुण छे, ते करतां क्षेत्रादेशथी सप्रदेशो असंख्यगुण छे, ते करतां द्रव्यादेशथी सप्रदेशो विशेषाधिक छे, ते करतां | कालादेशथी सप्रदेशो विशेषाधिक छे अने ते करतां भावादेशथी सप्रदेशो विशेषाधिक छे. त्यारपछी ते नारदपुत्र अनगार निग्रंथीपुत्र अनगारने बंदे छे, नमे छे; बंदी, नमी ए अर्थने पोते कहेल अर्थने माटे विनयपूर्वक वारंवार तेओनी पासे क्षमा मांगे छे, |खमावी संयम अने तपवडे आत्माने भावता यावत् विहरे हे. ॥ २२० ।। । भन्तेत्ति भगवं गोयमे जाव एवं वयासी-जीवा णं भंते ! किं वदति हायंति अवट्टिया?, गोयमा जीवा णो वड्दंति, नो हायंति, अवट्ठिया । नेरइया णं भंते ! किं वदति हायंति अवट्टिया , गोयमा ! नेरइया वड्दतिवि हायंतिवि अवडियावि, जहा नेरइया एवं जाव बेमाणिया। सिद्धा णं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! सिद्धा वड्दंति, नो हायंति, अवट्ठियावि । जीवा णं भंते ! केवतियं कालं अवट्टिया [वि] ?, सम्बद्धं । नेरइया णं
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥४.६॥
५ शतके उद्देशः८ | ॥४०६॥
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भंते ! केवतियं कालं वदति ?, गोयमा ! ज० एग समयं उक्को आवलियाए असंखेजतिभागं, एवं हायति, नेरइया णं भंते ! केवतियं कालं अवट्ठिया ?, गोयमा! जहन्नेणं एग समयं उनको चउब्बीसं मुहुत्ता, एवं सत्तसुवि पुढवीसु वड्दति हायंति भाणियव्वं, नवरं अवट्ठिएसु इमं नाणत्तं, तंजहा-रयणप्पभाए पुढवीए अडतालीस मुहुत्ता सकर चोद्दस रातिदियाणं वालु. मासं पंक० दो मासा धूम. चत्तारि मासा तमाए अट्ठ | मासा तमतमाए वारस मासा ।
[प्र०] हे भगवन् ! एम कही भगवंत गौतमे श्रमण भगवंत महावीरने एम का के, हे भगवन् ! जीवो शुं वधे छे, घटे छे के अवस्थित रहे छे ? [उ०] हे गौतम ! जीवो वधता नथी, घटता नथी पण अवस्थित रहे छे. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको शु सावधे छे, घटे छे के अवस्थित रहे छे ? [उ०] हे गौतम ! नैरयिको वधे पण छे, घटे पण छे अने अवस्थित पण रहे छे, जेम नैर| माटे का एम यावत् वैमानिक सुधीना जीवो माटे जाणवू. [प्र०) हे भगवन् ! सिद्धोनो प्रश्न करवो अर्थात् तेओ वधे छे, घटे छे के अतस्थित रहे छे ? [उ०] हे गौतम ! सिद्धो वधे छे, घटे नहि अने अवस्थित पण रहे छे. [प्र०] हे भगवन् ! केटला काळ सुधी जीवो अवस्थित रहे ? [उ०] हे गौतम ! सर्वकाळ सुधी. [सं०] हे भगवन् ! नैरयिको केटला काळ सुधी वधे छ ? [उ. हे गौतम! जधन्यथी एक समय सुधी अने उत्कृष्टथी अने आवलिकाना असंख्य भाग मुधी नैरयिक जीवो वधे छे. ए प्रमाणे घटवानो काळ पण तेटलो जाणवो. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको केटला काळ सुधी अवस्थित रहे छे ? [उ०] हे गौतम ! जघन्ये एक समय सुधी अने उत्कृष्टथी चोवीश मुहूर्त सुधी नैरयिको अवस्थित रहे छे. ए प्रमाणे साते पण पृथिवीओमां वधे
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४०७॥
| ५ शतके उद्देशः८ ||४०७॥
| छे, घटे छे, एम कहे. विशेष ए के, अवस्थितोमा आ भेद जाणवो:-ते जेमके, रत्नप्रभा पृथ्वीमां अडतालीश मुहूर्त, शर्कराप्रभामां | चौद रात्रि दिवस, वालुकाप्रभामां एक मास, पंकप्रभामां बे मास, धूमप्रभामां चार मास, तमप्रभामां आठ मास, अने तमतमाप्र
भामां बार मास अवस्थान काळ छे. । असुरकुमारावि बदति हायति जहा नेरइया, अवडिया जह. एकं समयं उको. अट्टचत्तालीसं मुहुत्ता, एवं दसबिहावि, एगिदिया बड्ढतिवि हायंतिवि अवट्ठियावि, एएहिं तिहिवि जहन्नेणं एकं समयं उको आवलियाए असंखेजतिभागं, बेइंदिया वड्दति हायंति तहेव, अवट्टिया ज० एकं समयं उको दो अंतोमुहुत्ता. एवं जाव चरिंदिया. अवसेसा सब्वे वदति हायंति तहेव, अवट्टियाणं णाणत्तं इम, तं०समुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं दो अंतोमुहुत्ता, गम्भवतियाणं चउव्वीसं मुहुत्ता, संमुच्छिममणुस्साणं अट्ठचत्तालीसं मुहुत्ता, गम्भवक्कंनियमणुस्साणं चउव्वीसं मुहुत्ता, वाणमंतरजोतिससोहम्मीसाणेसु अट्ठचत्तालीसं मुहुत्ता, मणकुमारे अट्ठारम रातिंदियाइं चत्तालीस य मुहु०, माहिंदे चउवीम रातिंदि| याइं वीस य मु०, बंभलोए पंचचत्तालीसं रातिदियाई, लंतए नउति रातिंदियाइं. महासुक्के महि रातिदियसतं सहस्सारे दो गतिंदियसयाई, आणयपाणयाणं संखेजा मासा, आरणच्चुयाणं संखेजाई वासाइं, एवं गेवेजदेवाणं विजयवेजयंतजयंतअपराजियाणं असंखिजाई वाससहस्साई, सव्वट्ठसिद्धे य पलिओवमस्स असंखेजतिभागो, एवं भाणियध्वं, वदंति हायंति जह एक समयं उ० आवलियाए असंखेजतिभागं, अवट्टियाणं भणियं।
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥ ४०८ ॥
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जैम नैरयिको माटे कछु ं एम असुरकुमारो पण बधे छे, घटे छे. अने जघन्ये, एक समय सुधी अने उत्कृष्टथी अडताळीस मुहूत सुधी अवस्थित रहे छे, ए प्रमाणे दसे प्रकारना पण भवनपति कहेवा. एकेन्द्रियो वधे पण छे, घटे पण छे अने अवस्थित पण रहे छे, ए त्रणे बडे पण जघन्ये एक समय अने उत्कृष्टे आवलिकानो असंख्य भाग, एटलो काळ जाणवो वे इंद्रियो तेज प्रमाणे वधे छे, घटे छे; अने तेओनुं अवस्थान जघन्ये एक समय अने उत्कृष्टे वे अन्तर्मुहूर्त सुधीनुं जाणवुं. ए प्रमाणे यावत्- चउरिंद्रिय सुधीना जीवो माटे जाणवुं. बाकीना बधा जीवो केटलो काळ वधे छे, केटलो काळ घंटे छे, ए बधुं तथैव पूर्वनी पेठे जाणवुं अने तेओना | अवस्थान काळमां आ प्रमाणे नानात्व भेद छे; ते जेमके, सम्मूर्च्छिमपंचेंद्रिय तिर्यंचयोनिकोनो अवस्थान काळ अंतर्मुहूर्त छे, गर्भज पंचेंद्रिय तिर्यंचयोनिकोनो अवस्थान काळ चोवीश मुहूर्त छे, सम्मूर्छिम मनुष्योनो अवस्थान काळ अडतालीश मुहूर्त छे, गर्भज मनुष्योनो अवस्थान काळ चोवीश मुहूर्त छे; वानभ्यंतर, ज्योतिषिक, सौधर्म अने ईशान देवलोकमां अवस्थान काळ अडतालीश मुहूर्त छे, सनत्कुमार देवलोकमां अढार रात्रिदिवस अने चालीश मुहूर्त अवस्थान काळ छे, माहेंद्र देवलोकमां चोवीश रात्रिदिवस अने वीश वीश मुहूर्त अवस्थान काळ छे. ब्रह्मलोकमां पीस्तालीश रात्रिदिवस अवस्थान काळ छे, लांतक देवलोकमां नेधुं रात्रिदिवस अवस्थान काळ छे, महाशुक्र देवलोकमां एकसो साठ रात्रिदिवस अवस्थान काळ छे, सहस्रार प्राणत देवलोकमां संख्येय मासो सुधी अवस्थान काळ छे, आरण अने अच्युत देवलोकमां संख्येय वर्षो अवस्थान काळ छे, ए प्रमाणे ग्रैवेयक देवोनो, विजय, वैजयंत, जयंत अने अपराजित देवोनो असंख्य हजार वर्षो सुधी अवस्थान काळ जाणवो, तथा सर्वार्थ सिद्धमां पल्योपमना संख्येय भाग सुधी अवस्थान काळ जाणवो. अने एओ, जघन्ये एक समय सुधी अने उत्कृष्टे आवलिकाना असंख्य
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५ शतके उद्देशः ८
||४०८||
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४०९॥
भाग सुधी वधे छे, घटे छे ए प्रमाणे कहेवू अने ते ओनो अबस्थान काळ तो जे कह्यो ते जाणवो.
सिद्धा णं भंते ! केवतियं कालं वदति ?, गोयमा ! जह. एक समयं उक्को० अट्ट समया, केवतियं कालं शतके अवट्ठिया ?, गोयमा ! जह० एक समयं उक्को. छम्मासा ।। जीवा णं भंते ! किं सोवचया सावचया सोवचय- | उद्देशन सावचया निरुवचयनिरवचया ?, गोयमा ! जीवा णो सोवचया नो सावचया णो सोवचयसावचया निरु- |॥४०॥ वचयनिरवचया, एगिंदिया ततियपए, सेमा जीवा चउहिवि पदेहिवि भाणियब्वा, सिद्धा णं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! सिद्धा सोवचया, णो मावचपा, णो सोवचयसावचया, निरुवचयनिरवचया । जीवा णं भंते ! केवतियं कालं निरुवचयनिरवचया ?, गोयमा! सम्बद्धं, नेरतिया भंते ! केवतियं कालं सोवचया ?, गोयमा! जह. एकं समयं उ. आवलियाए असंखेजहभागं, केवतियं कालं सावचया ? एवं चेव, केवतियं कालं | सोवचयसावचया?, एवं चेव,
[प्र.] हे भगवन् ! सिद्धो केटला काळ सुधी वधे छ ? [उ०] हे गौतम ! जघन्ये एक समय अने उत्कृष्टे आठ समय मुधी ४ | सिद्धो वधे छे. [प्र०] हे भगवन् ! सिद्धो केटला काळ सुधी अवस्थित रहे छ ? [उ०] हे गौतम ! जघन्ये एक समय अने उत्कृष्टे छ मास सुधी सिद्धो अवस्थित रहे छे. [प्र०] हे भगवन् ! जीवो उपचय सहित छे, अपचय सहित छे, सोपचय सापचय छे अने* उपचय रहित छे के अपचय रहित छ ? [उ०] हे गौतम! जीवो सोपचय उपचय सहित नथी, सापचय अपचय सहित नथी, सोपचय सापचय नथी, पण निरुपचय अने निरपचय छे. एकेन्द्रिय जीवो वीजा पदमा छे एटले सोपचय अने सापचय छे, बाकीनाk
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५शतके
उद्देश: ॥४१०॥
जीवो चारे पदो बडे कहेवा. [प्र०] हे भगवन् ! सिद्धो केवा छे ? (पूर्वनी पेठे सोचपयादिनो प्रश्न करवो.) [उ.] हे गौतम ! सिद्धो व्याख्या
सोपचय छ, सापचय नथी, सोपचय अने सापचय नथी, निरुपचय के, निरपचय छे. [प्र.] हे भगवन् ! जीवो केटला काळ सुधी प्रज्ञप्तिः निरुपचय अने निरपचय छे ? [उ०] हे गौतम ! सर्व काळ मुधी जीवो निरुपचय अने निरपचय छे. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको ॥४१॥ केटला काळ सुधी सोपचय छे ? [उ.] हे गौतम ! जघन्ये एक समय सुधी अने उत्कृष्टे आवलिकाना असंख्य भाग सुधी नैरयिको
सोपचय छे. [प्र.] हे भगवन् ! नरयिको केटला काळ मुधी आपचय छ ? [उ०] हे गौतम ! ए प्रमाणे पूर्वोक्त सोपचयना काळ
प्रमाणे सापचयनो काळ जाणवो. [प्र०] हे भगवन् ! नरयिको केटला काळ सुधी सोपचय अने सापचय छे ? [उ०] हे गौतम ! Hए प्रमाणे पूर्वोक्त प्रमाणे जाणवू.
केवतियं कालं निरुवचयनिरवचया?, गोयमा ! ज० एकं समयं उक्को वारस मु० एगिंदिया सव्वे सोवचयसावचया सम्बद्धं, सेसा सवे सोवचयावि सावचयावि सोवचयसावचयावि निरुवचयनिरवचयावि जहन्नेणं एगं समयं उक्कोसेणं आवलियाए असंखेजतिभागं, अवट्टिएहिं वकंतिकालो भाणियब्बो, सिद्धा णं भंते ! केवतिय कालं सोवचया?, गोयमा!जह एकं समयं उक्को अट्ट समया, केवतियं कालं निरुवचग निरवचया ?, जह० एक |उ० छम्मासा । सेवं भंते २ ॥ (मृत्रं २२१) ॥ पंचमसए अट्ठमो उद्देसो संमत्तो ॥५-८॥ है [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको केटला काळ सुधी निरुपचय अने निरपचय छे ? [उ०] हे गौतम : जयन्ये एक समय अने
उत्कृष्ट बार मुहूर्त सुधी नैरयिको निरपचय अने निरुपचय है. वधा एकेन्द्रिय जीवो सर्वकाळ सुधी सोपचय अने सापचय छे,
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४११॥
बाकीना बधा जीवो सोपचय पण हे, सापचय पण ने, सोपचय अने सापचय पण के, निरुपचय अने निरपचय पण हे. जघन्ये |एक समय अने उत्कृष्टे आवलिकानो असंख्य भाग छ, अवस्थितोमा व्युत्क्रान्तिकाल कहेवो. [प्र०] हे भगवन् ! सिद्धो केटला काळ सुधी सोपचय छे. [उ०] हे गौतम! जघन्ये एक समय अने उत्कृष्टे आठ समय सुधी सिद्धो सोपचय छे. [प्र०] हे भगवन् ! तेओ सिद्धो केटला काळ सुधी निरुपचय अने निरपचय के ? [उ०] हे गौतम ! जघन्ये एक समय सुधी अने उत्कृष्ट छ मास सुधी सिद्धो | निरुपचय अने निरपचय छे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे के. एम कही यावत् विहरे छे. ॥ २२१॥
भगवत् मुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना पांचमा शतकमा आठमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
शतके | उद्देशः९ ॥४१॥
SAGARMATC+:
उद्देशक ९.
आ बधो अर्थनो समूह भगवंत गौतमे भगवंत महावीरने घणे भागे राजगृह नगरमा पूछयो हतो, कारण के, भगवंत महावीरनो घणो विहार राजगृहमां थयेलो हे माटे राजगृहादिना स्वरूपना निर्णय परत्वे आ नवमा उद्देशकमां मूत्रनो विस्तार कहे हे.
तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी-किमिदं भंते ! नगरं रायगिहंति पवुच्चइ ?, किं पुढवी नगरं रायगिहंति पवुच्चड, आऊ नगरं रायगिहंति पवुच्चइ ? जाव वणस्सई ?, जहा एयणुद्देसए पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं बत्तब्वया तहा भाणियब्वं जाव मचित्ताचित्तमीसयाई दवाई नगरं रायगिहंति पवुच्चइ ?, गोयमा!
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॥४१२॥
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पुढवीवि नगरं रायगिति पबुचड़ जाव सच्चित्ताचित्तमीसियाई दव्वाई नगरं रायगिति पवुचर से केणद्वेणं ?, गोयमा ! पुढवी जीवातिय अजीवातिय नगरं रायगिति पच्चई जाव सवित्ताचित्तमीसियाई दवाई जीवातिय अजीवातिय नगरं रायगिति पचति से तेणट्टेणं तं चैव ॥ (सू० २२२) ।
[प्र० ] ते काले, ते समये यावत् एम बोल्या :- हे भगवन् ! आ राजगृह नगर शुं कहेवाय ? शुं राजगृह नगर पृथिवी कहेवाय. जल कहेवाय यावत् वनस्पति जेम एजन उद्देशामां पंचेंद्रियतिर्यंचोना (परिग्रहनी ) वक्तव्यता कही छे तेम कहें अर्थात् शुं राजगृह नगर कूट कहेनाय, शैल कहेवाय, यावर सचित्त, अचित्त अने मिश्रित द्रव्यो, राजगृह नगर कहेवाय ? [ उ०] हे गौतम! पृथिवी पण राजगृह नगर कहेवाय यावत् सचित्त, अचित्त अने मिश्रित द्रव्यो राजगृह नगर कहेवाय. [प्र० ] हे भगवन् ! ते कया हेतुथी ? [उ०] हे गौतम! पृथिवी ए जीवो छे, अजीवो के माटे ते राजगृह नगर कहेवाय छे यावत् सचित्त, अचित्त अने मिश्र द्रव्यो पण जीवो छे, अजीवो के माटे राजगृह नगर कहेवाय छे, ते हेतुथी ते तेमज छे. ॥ २२२ ॥
से नूणं भंते! दिया उज्जोए रातिं अंधयारे ?, हंता गोयमा ! जाव अंधयारे । से केणट्टेणं० १, गोयमा ! दिया सुभा पोग्गला सुभे पोग्गलपरिणामे रातिं असुभा पोग्गला असुभे पोग्गलपरिणामे से तेणद्वेणं० । नेरइया णं भंते ! किं उज्जोए अंधयारे ?, गोयमा ! नेरइयाणं नो उज्जोए, अंधारे, से केणट्टेणं०?, गोयमा! नेरइया णं असुहा पोग्गला असुभे पोग्गल परिणामे, से तेणद्वेणं । असुरकुमाराणं भंते! किं उज्जोए अंधयारे?, गोगमा असुरकुमाराणं उज्जोए, नो अंधयारे । से केणट्टेणं ?, गोयमा ! असुरकुमाराणं सुभा पोग्गला सुभे पोग्गल परिणामे, से तेणद्वेणं
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उद्देशः९
||४१२॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४१३॥
शतके उद्देशः९ ॥४१३॥
| एवं बुच्चइ, एवं जाव थणियकुमाराणं, पुढविकाइया जाव तेइंदिया जहा नेरइया । चउरिंदियाणं भंते ! | किं उज्जोए अंधयारे ?. गोयमा ! उज्जोएवि अंधयारेवि, से केणट्टेणं०, गोयमा ! चउरिदियाणं सुभासुभा पोग्गला सुभासुभे पोग्गलपरिणामे, से तेणटेणं एवं जाव मणुस्साणं । वाणमंतरजोतिमवेमाणिया जहा असुरकुमारा । (सूत्रं २२३)।
[प्र०] हे भगवन् ! दिवसे उद्द्योत अने रात्रिमा अंधकार होय छे ? [उ०] हा, गौतम ! यावत् अंधकार होय छे. [प्र०] ते क्या हेतुथी ? [उ०] हे गौतम ! दिवसे सारां पुद्गलो होय हे अने सारो पुद्गल परिणाम होय छे, | रात्रिमा अशुभ पुद्गलो होय छे अने अशुभ पुद्गल परिणाम होय छे ते हेतुथी एम के. [प्र०] हे भगवन् ! शुं नैरयिकोने प्रकाश | होय छे के अंधकार होय हे. [उ०] हे गौतम ! नैरयिकोने प्रकाश नथी पण अंधकार . [प्र०] ते क्या हेतुथी? [उ०] हे गौतम ! नैरयिकोने अशुभ पुद्गल परिणाम छे, ते हेतुथी तेम छे. [प्र०] हे भगवन् ! शुं असुरकुमारोने प्रकाश छे, के अंधकार छे?, [उ०] हे गौतम ! असुरकुमारोन प्रकाश छे पण अंधकार नथी. [प्र०] ते क्या हेतुथी ? [उ०) हे गौतम ! असुरकुमारोने शुभ पुद्गलो छे, शुभ पुद्गल परिणाम के माटे ते हेतुथी यावत्-तेओने प्रकाश छे एम कहेवाय . ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमारो सुधी जाणवू. जेम नैरयिको कह्या तेम पृथ्वीकायथी मांडी यावत् त्रेइंद्रिय सुधीना जीवो जाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! शुं चउरिंद्रियोने प्रकाश होय छे के अंधकार होय छे ? [उ.] हे गौतम ! तेओने प्रकाश पण होय छे ने अंधकार पण होय छे. [प्र०] ते क्या हेतुथी ? [उ०] हे गौतम ! चउरिंद्रियोने शुभ तथा अशुभ पुद्गल होय छे अने शुभ तथा अशुभ पुद्गल-परिणाम
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४१४॥
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| होय छे. ते हेतुथी तेम छे. ए प्रमाणे यावत्-मनुष्यो माटे जाणी लेवू. जेम असुरकुमारो कह्या तेम वानव्यंतर, ज्योतिषिक अने है | वैमानिक माटे जाणवू. ॥ २२३ ॥
५ शतके अत्थि णं भंते ! नेरइयाणं तत्थगयाणं एवं पन्नायति-समयाति वा आवलियाति वा जाव ओस
उद्देशः९ प्पिणीति वा उस्सप्पिणीति वा, णो तिणढे समढे । से केण?णं जाव समयाति वा आवलियाति वा ओस- | ॥४१४॥ प्पिणोति वा उस्सप्पिणीति वा?, गोयमा ! इहं तेसिं माणं इहं तेसिं पमाणे इहं तेसिं पण्णायति, तंजहासमयाति वा जाव उस्सप्पिणीति वा, से तेणढेणं जाव नो एवं पण्णायए, तंजहा-समयाति वा जाव उस्सप्पिणीति वा, एवं जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं, अस्थि णं भंते ! मणुसाणं इहगयाण एवं पन्नायति, |तंजहा-समयाति वा जाव उस्सप्पिणीति वा ?, हंता ! अत्थि । से केणटेणं०?, गोयमा ! इहं तेसिं माणं० इहं
चेव तेसिं एवं पण्णायति, तंजहा-समयाति वा जाव उस्सप्पिणीति वा, से तेण०, वाणमंतरजोतिसवेमाणियाणं जहा नेरइयाण ॥ (सूत्रं २२४)॥
[प्र०] हे भगवन् ! त्यां गएला निरयमां स्थित रहेला नैरयिको एम जाणे के, समयो, आवलिकाओ, उत्सर्पिणीणो अने अव| सर्पिणीओ ? [उ०] हे गोतम ! ते अर्थ समर्थ नथी अर्थात् ते नैरयिको समयादिने जाणाता नथी. [प्र०] हे भगवन् ! ते क्या | हेतुथी यावत् समयो, आवलिकाओ, उत्सर्पिणीओ अने अवसर्पिणीओ नथी जणातां ? [उ०] हे गौतम ! ते समयादिनुं मान आहे मनुष्यलोकमां छे, तेओनुं प्रमाण अहिं छे, अने तेओने अहिं ए प्रमाणे जणाय छे, ते जैमके, समयो यावत् अवसर्पिणीओ, ते
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हेतुथी यावत् नैरयिकोने ए प्रमाणे जणातुं नथी, ते जेमके, समयो, यावत् अवसर्पिणीभी, ए प्रमाणे यावत् पंचेंद्रियतियंचयोनिको व्याख्या- माटे समजवू. हे भगवन् ! अहिं मर्त्यलोकमा गएला रहेला मनुष्योने ए प्रमाणे ज्ञान छे, ते जेमके, समयो वा यावत् अवसर्षिणीओ
Bा शतके प्रज्ञप्तिः दवा ? [उ०] हे गौतम ! ए प्रमाणे ज्ञान छे. [प्र०] ते क्या हेतुथी? [उ०] हे गौतम ! अहिं ते समयादिनुं मान अने प्रमाण छे
उद्देशः९ ॥४१॥ माटे ए प्रमाणे ज्ञान छे, ते जेमके, समयो यावत् अवसर्पिणीओ-ते हेतुथी तेम छे. जेम नैरयिकोने माटे कयुं तेम वानव्यंतर ज्यो-3॥४१५।।
तिषिक अने वैमानिक माटे समजबुं ॥ २२४ ।।
तेणं कालेणं २ पासावच्चिजाते थेरा भगवंतो जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति २ समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा एवं बदासी--से नूर्ण भंते ! असंखजे लोए अणंता रातिंदिया अप्पजिंसु वा उपजंति वा उप्पजिस्संति वा विगच्छिसु वा विगच्छंति वा विगच्छिस्संति वा परित्ता रातिदिया उप्पजिंसु वा ३ विगच्छिसु वा ३ ?, हंता अजो! असंखेने लोए अणता रातिदिया तं चेव,
प्र०] ते काले, ते समये श्रीपार्श्वनाथ भगवंतना अपत्य शिष्य स्थविर भगवंत, ज्यां श्रमण भगवंत महावीर छे त्यां आवे छे, आवी श्रमण भगवंत महावीरनी दूर सामे बेसी एम बोल्याः-हे भगवन् ! असंख्य लोकमां अनंत रात्रि दिवस उत्पन्न थयां ? उत्पन्न थाय छे ? के उत्पन्न थशे ? अने नष्ट थयां ? नष्ट थाय छे ? के नष्ट थशे ? के नियत परिमाणवाला रात्रिदिवज्ञो उत्पन्न थयां ? उत्पन्न थाय छ ? के उत्पन्न थशे ? अने नष्ट थयां ? नष्ट थाय छे ? के नष्ट थशे? [उ०] हा, आर्य! असंख्यलोकमां अनंत रात्रि दिवसो वगेरे तेज कहे.
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से केण?णं जाव विगछिस्संति वा !, से नूणं भंते!अजो ! पासेण अरहया पुरिसादाणीएणं सासए लोए व्याख्या
| वुइए अणादीए अणवदग्गे परित्त परिवुडे हेट्टा विच्छिपणे मज्झे संखित्त उप्पि विसाले अहे पलियकसंठिए ५ शतके प्रज्ञप्ति है मज्झे वरवइरविग्गहिते उपि उद्धमुइंगाकारसंठिए तेंसिं च णं सासयंसि लोगंसि अणादियसि अणवदग्गंसि | उद्देशः९ ॥४१६॥
परित्तंसि परिवुडंमि हेट्ठा विच्छिन्नंसि मज्झे संखित्तसि उपि विसालंसि अहे पलियंकसंठियसि मज्झे वरवडर | ॥४१६॥ विग्गहियंसि उप्पि उद्धमुइंगाकारसंठियंसि अणंता जीवघणा उप्पजिना निलीयंति परित्ता जीवघणा उपजित्ता २ निलीयंति से नृणं भूए उप्पन्ने विगए परिणए अजीवेहिं लोकति पलोकइ, जे लोकह से लोए?, हंता भगवं ते] :, स तेण?णं अजो ! एवं वुच्चइ असंखेने तं चेव । तप्पभितिं च णं ते पासावचिजा थेरा भग|वंतो समणं भगवं महावीरं पञ्चभिजाणंति सव्यन्न सव्वदरिसी [ग्रं० ३०००], तए णं ते थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीरं वंदति नमसंति २ एवं वदासी-इच्छामि णं भंते ! तुम्भं अंतिए चाउज्जामाओ धम्माओ पंचम-18 हव्वइयं सप्पडिकमणं धम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह, तए णं ते पासावचिजा थेरा भगवंतोजाव चरिमेहिं उस्सासनिस्सासेहिं सिद्धा जाव सव्वदुक्खप्पहीणा अत्थेगतिया देवा देवालोएसु उववन्ना ॥ (सूत्रं२२५)॥
[प्र०] हे भगवन् ! ते क्या हेतुथी यावत् नष्ट थशे ? [उ०] हे आर्य! ते निश्चयपूर्वक छे के, आपना (गुरुवरूप ) पुरुषादा-1 नीय पुरुषोमां ग्राह्य पार्श्व अर्हते लोकने शाश्वत कह्यो छे, तेमज अनादि, अनवदन अनंत, परिमित, अलोकवडे परिवृत, नीचे
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४१७॥
५ शतके उद्देशः९ ॥४१७॥
विस्तीर्ण, बच्चे सांकडो. उपर, विशाल, नीचे पत्यंकना आकारनो, बच्चे उत्तम वज्रना आकारवाळो अने उपर, उंचा उभा मृदंगना आकार जेवो लोकने कह्यो छे तेवा प्रकारना शाश्वत, अनादि, अनंत, परित्त, परिवृत, नीचे विस्तीर्ण, मध्ये संक्षिप्त, उपर विशाळ, नीचे पत्यकाकारे स्थित, बच्चे वर वज्रसमान शरीरवाळा अने उपर उभा मृदंगना आकारे संस्थित एवा लोकमां अनंता जीवधनो उपजी उपजीने नाश पामे छे अने परित्त नियत असंख्य जीवधनो पण उपजी उपजीने नाश पामे ते लोक, भूत छे, उत्पन्न के, विगत डे, परिणत छे. कारण के, ते अजीबो द्वारा लोकाय डे निश्चित थाय छे, अधिक निश्चित थाय छे माटे जे, प्रमाणथी लोकाय जणाय ते लोक कहेबाय ? हा, भगवन् ! ते हेतुथी हे आर्यो ! एम कहेवाय छे के, असंख्येय लोकमां तेज कहे. त्यारथी मांडी ते पार्श्वजिनना शिष्य स्थविर भगवंतो श्रमण भगवंत महावीरने 'सर्वज्ञ' ए प्रमाणे प्रत्यमि जाणे छे. त्यारबाद ते स्थविर भगवंतो
श्रमण भगवंत महावीरने वंदे छे, नमे छे, बंदी, नमी एम बोल्या के. हे भगवन् ! तमारी पासे, चातुर्याम धर्मने मूकी प्रतिक्रमण | सहित पंचमहाव्रतोने स्वीकारी विहरवा इच्छीए छीए, हे देवानुप्रिय ! जेम सुख थाय तेम करो. त्यारे ते पार्श्वजिनना शिष्य स्थविर 3 भगवंतो यावत् सर्वदुःखथी प्रहीण थया अने केटलाक देवलोकमां उत्पन्न थया. ॥ २२५ ॥
कतिविहा णं भंते ! देवलोगा पण्णत्ता ?, गोयमा ! चउब्विहा देवलोगा पण्णत्ता, तंजहा-भवणवामीवाणमंतरजोतिसियवेमाणियभेदेण, भवणवासी दसविहा वाणमंतरा अट्टविहा जोइसिया पंचविहा वेमाणिया | दुविहा । गाहा-किमियं रायगिहंति य उज्जोए अंधयार समए य । पासंतिवासिपुच्छा रातिदिय देवलोगा य ॥ १॥ सेवं भंते ! २त्ति ।। [सूत्रं २०६] ॥ पंचमे सए नवमो उद्देशो संमत्तो ॥५-९।।
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥ ४९८ ॥
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[प्र० ] हे भगवन् ! केटला प्रकारना देवलोक कथा हे ? [उ०] हे गौतम! चार प्रकारना देवलोक कला छे ते जेमके, १ भवनवासी, २ वानव्यंतर, ३ ज्योतिषिक अने ४ वैमानिक एम चार भेद वडे:-तेमां भवनवासी दस प्रकारना छे, वानव्यंतरो आठ प्रकारना छे, ज्योतिषिको पांच प्रकारना छे, अने वैमानिको वे प्रकारना छे, हवे आ उद्देशकनी संग्रह गाथा कहे छे; राजगृह ए शुं ? दिवसे उद्योत अने रात्रीए अंधकार केम ? समय विगेरे काळनी समजण कया जीवोने होय छे अने कया जीवोने नथी होती? रात्री अने दिवसना प्रमाण विषे श्रीपार्श्वजिनना शिष्योना प्रश्नो अने देवलोकने लगता प्रश्नो आ उद्देशमां एटला विषयो आवेला छे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, ते ए प्रमाणे छे, एम कही यावत् विहरे छे. ।। २२६ ॥
भगवत् सुधर्मास्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमूना पांचमा शतकमां नवमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो. उद्देशक १०.
अनंतर पासेना उद्देशामां छेवटे देवो कला, माटे देव विशेषरूप चन्द्रने उद्देशीने आ दशम उद्देशक कहे छे. तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपानामं नयरी जहा पढमिल्लो उद्देसओ तहा नेच्वो एसोवि, नवरं चंदिमा भाणियन्त्रा || (सूत्रं २२७) || पंचमे सए दसमो उद्देसो समत्तो ॥ ५-१० ॥ पंचमं सयं समत्तं
काले, ते समये चंपा नामे नगरी हती, प्रथम उद्देशक्ल कह्यो तेम आ उद्देशक समजवो. विशेष ए के, चंद्रो कहेवा. ||२२७|| भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमूत्रना पांचमा शतक्रमां दशमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो. ॥ इति श्रीमद् भगवतीसूत्रे पंचमं शतकं समाप्तम् ॥
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५ शतके उद्देशः १०
॥४१८॥
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| उद्देशः१
शतक ६. उद्देशक १. व्याख्याप्रज्ञप्तिः
दि६ शतके 18| विचित्र अर्थवाळा पांचमा शतकनी व्याख्या करी, हवे अवसर प्राप्त अने तेवाज प्रकारना छट्ठा शतकना विवेचननी शरुआत थाय छे. ॥४१९॥
वेयण १ आहार २ महस्सवे य ३ सपएस ४ तमुय ५ भविए ६ य। साली ७ पुढवी ८ कम्म ९ ऽन्नउत्थी १० दस छट्टगंमि सए ॥ ३७॥
॥४१९॥ १ वेदना, २ आहार, ३ महाआश्रव, ४ सप्रदेश, ५ तमस्काय, ६ भव्य, ७ शाली, ८ पृथिवी, ९ कर्म, अने १० अन्ययूथिटकवक्तव्यता, ए प्रमाणे दश उद्देशा आ छटा शतकमा हे.
से नूणं भंते ! जे महावेयणे से महानिजरे, जे महानिज्जरे से महावेदणे, महावेदणस्स य अप्पवेदणस्स य से सेए जे पसत्थनिजराए ?, हंता गोयमा ! जे महावेदणे एवं चेव । छट्टसत्तमासु णं भंते ! पुढवीसु नेरइया | महावयणा?, हंता महावेयणा, ते णं भंते ! समणेहिंतो निग्गंथेहितो महानिज्जरतरा ?, गोयमा ! णो तिणढे
समहे, से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ जे महावेदणे जाव पसत्थनिजराए ?, | [प्र०] हे भगवन् ! हवे ए छे के, जे महावेदनावाळो होय ते महानिर्जरावाळो होय अने जे महानिर्जरावाळो होय ते महावेद| नावाळो होय अने महावेदनावालामा तथा अल्पवेदनाबाळामां ते जीव उत्तम छे जे प्रशस्तनिर्जरावाळो छ ? [उ०] हा गौतम ! जे महावेदनावाळो छ, तेज ए प्रमाणेज जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! छट्ठी अने सातमी पृथिवीमां नैरयिको मोटी वेदनावाला छे ?
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥४२०॥
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[अ०] हा, मोटी वेदनावाळा हे [प्र० ] हे भगवन् ! ते छट्ठी अने सातमी पृथिवीमां रहेनारा नैरयिको श्रमण निन्यो करतां मोटी निर्जरावाळा छे ? [ उ० ] हे गौतम! अर्थ समर्थ नथी अर्थात् तेम नथी. [प्र० ] हे भगवन् ! ते एम शा हेतुथी कहेवाय छे के, जे महावेदनावाळो छे यावत् प्रशस्त निर्जरावाळो छे ?
गोमा ! से जहानामए दुवे वत्था सिया, एगे वत्थे कद्दमरागरत्ते, एगे वत्थे खंजणरागरत्ते, एएसि णं गोयमा ! दोन्हं वत्थाणं कयरे वत्थे दुधोयतराए चैव दुवामतराए चेव दुपरिकम्मतराए चेव ? कयरे वा वत्थे सुधोयतराए चैव सुवामतराए चेव सुपरिकम्मतराए चेव १, जे वा से वत्थे कद्दमरागरत्ते जे वा सेवत्थे खंजणरागरत्ते, भगवं ! तत्थ णं जे से वत्थे कद्दमरागरत्ते से णं वत्थे दुधोयतराए चेव दुवामतराए चैव दुष्परिकम्मतराए चेब, एवामेव गोयमा ! नेरइयाणं पावाई कम्माई गाढीकयाई चिक्कणीकमाई (अ) सिढिलीकयाई खिलीभूयाई भवंति संपगाढंपि य णं ते वेदणं वेदेमाणा णो महानिजरा णो महापज्जबसाणा भवंति से जहा वा केइ पुरिसे अहिगरणं आकोडेमाणे महया २ सद्देणं महया २ घोसेणं महया २ परंपराघाएणं णो संचाए तीसे अहिगरणीए केई अहाबायरे पोग्गले परिसाडित्तए, एवामेव गोयमा! नेरइयाणं पावाई कम्माई गाढीकयाई जाव नो महापज्ज वसाणाई भवंति, भगवं ! तत्थ जे से वत्थे खंजणरागरत्ते से णं वत्थे सुधोयतराए चैव सुवामतराए चैव सुपरिकम्मतराए चेव, एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंधाणं अहाबायराई कम्माई सिढिलीकयाई निट्टियाई कम्माई विप्परिणामियाई विप्पामेव विद्वत्थाई भवंति, जावतियं तावतियंपि णं ते वेदणं वेदेमाणे
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६ शतके उद्देशः १
॥४२०॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥४२१ ॥
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महानिज्जरा महापज्जवसाणा भवंति से जहानामए - केइ पुरिसे सुकतणहत्थयं जायतेयंसि पक्खिवेज्जा, से तूणं गोयमा ! से सुक्के तणहत्थए जायतेयंसि पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव मममसाविज्जति ?, हंता मसमसाविज्जति, एवामेव गोयमा ! समणाणं निरगंधाणं अहाबायराई कम्माई जाव महापज्जवसाणा भवंति से जहानामए ४ केइ पुरिसे तत्तंसि अगकवलेसि उदगबिंदू जाव हंता विद्वंसमागच्छह, एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंथाणं जाव महापज्जवसाणा भवति, से तेणट्टेणं जे महावेदणे से महानिज्जरे जाव निजराए || (सूत्रं २२८ ) ॥
[उ०] हे गौतम ! ते जेमके; कोइ वे वस्त्रो होय, तेमांथी एक वस्त्र कर्दमना रंगथी रंगेलं होय, अने एक वस्त्र खंजनना रंगथी रंगे होय, हे गौतम! ए वे वखोमां क्यूं वस्त्र दुर्धीततर- दुःखथी धोवाय तेवुं दुर्वाम्यतर-जेना डाघाओ दुःखेथी जाय ते अने दुष्प्रतिकर्मतर - कष्टे करी जेमां चळकाट अने चित्रामण थाय ते अर्थात् कर्दमना रंगथी रंगेला अने खंजनना रंगथी रंगेला ए वामां कथं वस्त्र दुर्विशोध्य छे ? अने कयुं वस्त्र सुधौततर, मुवाम्यतर, अने सुपरिकर्मतर छे ? हे भगवन ! ते बेमां जे ए कर्दमना रंगथी रंग्युं छे ते वस्त्र दुर्धीततर. दुर्गाम्यतर अने दुष्पतिकर्मतर है, जो एम छे तो हे गौतम! एज प्रमाणे नैरयिकोनां पाप कर्मो गाढीकृत - गाढ करेला छे, चिकणीकृत चिकणां करेला छे, श्लिष्ट करेला छे, खिलीभूत- निकाचित करेलां के माटेज नेओ संप्रगाढ पण वेदनाने वेदता मोटी निर्जरावाळा नथी, मोटा पर्यवसानवाला नथी; अथवा जेम कोड़ एक पुरुष, मोटा मोटा शब्दवडे, मोटा मोटा घोषवडे, मोटा निरंतर - उपराउपर घातवडे एरणने कूटतो - एरण उपर टीपतो होय पण ते ( पुरुष ) ते एरणना स्थूल प्रकारना पुद्गलोने परिशटित - नष्ट करवा समर्थ थतो नथी, हे गौतम! एज प्रकारनां नैरयिकोनां पापकर्मों गाढ करेलां यावत् महापर्यवसान
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६ शतके
उद्देश : १ ॥४२१ ॥
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व्याख्या
६ शतके
प्रज्ञप्तिः
माटे शीघ्रज Hans एक पुरुष धासना मका पुलाय, एज प्रमाणे हे गो
॥४२२॥
| नथी अने हे भगवन् ! तेमां जे वस्त्र खंजनना रंगथी रंगेलुं छे ते सुधौततर छ, सुवाम्यतर छ, अने सुप्रतिकर्म तर हे एज प्रमाणे * ४ हे गौतम ! श्रमण निग्रंथोना स्थूलतर स्कंधरूप कर्मो, शिथिलिकृत-मंदविपाकवाळां छे, सत्ताविनानां छे, विपरिणामवाळां छे |माटे शीघ्रज विध्वस्त थाय छे अने जेटली तेटली पण वेदनाने वेदता ते श्रमण निग्रंथो मोटी निर्जरावाळा अने महापर्यवसानवाळा ||
उद्देशः Aथाय छे, जेम कोइ एक पुरुष घासना मका पुळाने अग्निमां फेंके अने हे गौतम ! ते नकी छे के अग्निमां फेंकवामां आवेलो घासनो
| ॥४२॥ घामको पूळो शीघ्रज बळी जाय ? हा, ते बळी जाय, एज प्रमाणे हे गौतम ! श्रमण निग्रंथोना स्थूलतर स्कंध रूप कर्मों यावत् ते दाश्रमणो मोटा पर्यवसानवाळा यायः जेम कोइ एक पुरुष धगधगता लोढाना गोळा उपर पाणी- टीपु मृके यावत् ते विध्वंस पामे,
| एज प्रमाणे हे गौतम : श्रमण निग्रंथोनां कर्मों यावत् ते श्रमण निग्रंथो महापर्यवसानवाला छे, ते हेतुथी एम कहेवाय छे के, जे | महावेदनावाळो होय ते महानिर्जरावाळो होय यावत् प्रशस्तनिर्जरावाळो होय. ॥ २२८ ।।
कतिविहे णं भंते ! करणे पन्नत्त ?, गोयमा ! चउब्विहे करणे पन्नत्ते, तंजहा-मणकरणे वइकरणे कायकरणे कम्मकरणे । णेरइयाणं भंते ! कतिविहे करणे पन्नत्ते ?, गोयमा ! चउब्बिहे पन्नत्ते, तंजहा-मणकरणे वइकरणे | | कायकरणे कम्मकरणे ४ [चउ० ] पंचिंदियाणं सब्वेसिं चउब्विहे करणे पन्नत्ते । एगिंदियाणं दुविहे-कायकरणे | य कम्मकरणे य, विगलेंदियाणं ३-वइकरणे कायकरणे कम्मकरणे । नेरइयाणं भंते ! किं करणओ असायं वेयणं वेयंति ?, अकरणओ अमायं वेयणं वेदेति !, गोयमा ! नेरइयाणं करणओ असायं वेयणं वेयंति, नो अकरणओ असायं वेयणं वेयंति, से केणद्वेणं.?, गोयमा ! नेरइयार्ण चउब्विहे करणे पन्नत्ते तंजहा
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मणकरणे वइकरणे कायकरणे कम्मकरणे, इच्चेएणं चरविहेणं असभेणं करणेणं नेरइया करणओ असायं वेयणं वेयंति, नो अकरणओ. से तेणद्वेणं । असुरकुमारा णं किं करणओ० अकरणओ०१, गोयमा ! कर| णओ, नो अकरणओ, से केणटेणं. ?, गोयमा ! असुरकुमाराणं चउब्बिहे करणे पण्णत्ते, तंजहामणकरणे वयकरणे कायकरणे कम्मकरणे, इच्चेएणं सुभेणं करणेणं असुरकुमाराणं करणओ सायं वेयणं वेयंति, नो अकरणओ, एवं जाव थणियकुमाराणं । पुढविकाइयाणं एवामेव पुच्छा, नवरं इच्चेएणं सुभासुभेणं करणेणं पुढविकाइया करणओ वेमायाए वेयणं वेयंति, नो अकरणओ, ओरालियसरीरा सव्वे सुभा|सुभेणं वेमायाए । देवा सुभेणं सायं ।। (सूत्रं २२९)॥
[प्र.] हे भगवन् ! करणो केटला प्रकारनां कह्या छे ? [उ०] हे गौतम ! करणो चार प्रकारनां कयां छे, ते जेमके, मनकरण, वचनकरण, कायकरण, अने कर्मकरण. [प्र०] हे भगवन् ! नैरयिकोने केटला प्रकारनां करणो कह्या ? [उ०] हे गौतम ! नैरयिकोने चार जातनां करणो कह्यां वे, ते जेमके, मनकरण, वचनकरण, कायकरण अने कर्मकरण. सर्व पंचेन्द्रिय जीवोने ए चारे जातनां करणो छे. एकेंद्रिय जीवोने वे जातनां करण छे ते जेमके, एक कायकरण अनेवीगें कर्मकरण; विकलेन्द्रियोने वचनकरण, कायकरण अने कर्मकरण ए त्रण करण होय छे. [प्र०] हे शगवन् ! शु नैरयिको करणथी अशातावेदनाने वेदे छे के अकरणथी अशातावेदनाने वेदे छे ? [उ०] हे गौतम! नैरयिको करणथी अशातावेदनाने वेदे छे पण अकरणथी करण विना अशाता दुःखरूप | वेदनाने नथी अनुभवता. [प्र०] हे भगवन् ! ते शा हेतुथी? [उ०] हे गौतम ! नरयिकोने चार प्रकारचें करण काछे, ते जेमके,
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व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥४२४॥
६ शतके उद्देशः ॥४२४॥
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| मनकरण, वचनकरण, कायकरण अने कर्मकरण, ए चार प्रकारना अशुभ करणो होवाथी नैरयिको करणद्वारा अशातम्वेदनाने अनु
भवे ळे पण करण विना अशातावेदनाने अनुभवता नथी माटे ते हेतुथी एम का . [प्र.] हे भगवन् ! शुं असुरकुमारो करणथी | के अकरणथी शाता सुखरूप वेदनाने अनुभव के ? [उ०] हे गौतम ! करणथी, अकरणथी नहि. [प्र०] हे भगवन् ! ते शा हेतुथी ? | [उ०] हे गौतम ! असुरकुमारोने चार प्रकारनां करण कया है, ते जेमके, मनकरण, वचनकरण, कायकरण अने कर्मकरण; ए शुभ करणो होवाथी असुरकुमारो करणद्वारा सुखरूप वेदनाने अनुभवे छे पण करण विना अनुभवता नथी ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमार सुधीना भुवनपति माटे समज. [प्र०] पृथिवीकायिक जीवो माटे ए प्रमाणेज प्रश्न करवो. [उ.] विशेष ए के ए शुभाशुभ करण होबाथी पृथिवीकायिक जीवो करणद्वारा विमात्रावडे विविध प्रकारे अर्थात् कदाच सुखरूप अने कदाच दुःखरूप वेदनाने अनुभवे | छे पण करण विना अनुभवता नथी. औदारिक शरीरवाला सर्व जीवो शुभाशुभ करणद्वारा विमात्राए वेदनाने अनुभवे छे, देवी |शुभ करणद्वारा सुखरूप वेदनाने अनुभवे छे. ॥ २२९॥ ___जीवा णं भंते ! किं महावेधणा महानिजरा ? महावेदणा अप्पनिजरा २ अप्पवेदणा महानिजरा ३ अप्प-IR वेदणा अप्पनिजरा ४?, गोयमा ! अत्थेगतिया जीवा महावेदणा महानिजरा १ अत्थेगतिया जीवा महावेयणा:
अप्पनिजरा २ अत्थेगतिया जीवा अप्पवेदणा महानिजरा ३ अत्थेगतिया जीवा अप्पवेदणा अप्पनिजरा ४ । | से केणद्वेणं० १, गोयमा ! पडिमाप डिवन्नए अणगारे महावेदणे महानिजरे,छट्ठसत्तमासु पुढवीसु नेरइया महावेदणा अप्पनिजरा, सेलेसिं पडिवन्नए अणगारे अप्पवेदणे महानिजरे, अणुत्तरोववाइया देवा अप्पवेदणा अप्प
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥४२५॥
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निज्जरा, सेवं भंते २ त्ति || महवेदणे य बत्थे कद्दमखंजणराए य अहिगरणी । तणहत्थे य कवल्ले करण महावेदणा जीवा ॥ ३८ ॥ सूत्रं २३०) || सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥ छट्ठसयस्स पढमो उद्दसो ममत्तो ॥ ६-१ ।।
[प्र० ] हे भगवन ! शुं जीवो महावेदनावाळा अने महानिर्जरावाळा हे ? महावेदनावाळा अने अल्पनिर्जरावाळा हे ? अल्पवेददनावाळा अने महानिर्जरावाळा हे ? के अल्पवेदनावाळा अने अल्पनिर्जरावाळा छे १ [उ०] हे गौतम! केटलाक जीवो महावेदनावाळा अने महानिर्जरावाळा हे, केटलाक जीवो महावेदनावाळा अने अल्पनिर्जरावाळा है, केटलाक जीवो अल्पवेदनावाळा अने महानिर्जराबाळा छे अने केटलाक जीवो अल्पवेदनावाला अने अल्पनिर्जरावाळा हे. [प्र० ] हे भगवन ! ते शा हेतुथी ? [ उ० ] हे गौतम ! जेणे प्रतिमाने प्राम करी हे एवो अर्थात् प्रतिमाधारी साधु महावेदनावाळो अने महानिर्जरावाळो छे, छट्टी अने सातमी पृथिवीमा रहेनारा नैरथिको मोटी वेदनावाळा अने अल्पनिर्जरावाळा हे, शैलेशी प्राप्त अनगार अल्पवेदनावाळो अने मोटी निर्जरावालो के अनुत्तरौपपातिक देवो अल्पवेदनावाळा अने अल्पनिर्जरावाळा छे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे. संग्रहगाथा कहे छे महावेदना, कर्दमथी अने खंजनथी करेलं रंगेलं वस्त्र, अधिकरणी एरण, तृणनो पूछो, लोढानो गोलो, करण अने महावेदनावाळा जीवो. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे हे हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे. एम कही यावत् विहरे है. ॥ २३० ॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना छट्टा शतकमां प्रथम उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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६ शतके
उद्देशः १ ॥४२५॥
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|६ शतके उद्देशः२ ॥४२६॥
उद्देशक २. व्याख्या
रायगिहं नगरं जाव एवं वयासी-आहारुद्देसो जो पन्नवणाए सो सम्बो निरवसेसो नेयम्यो । सेवं भंते :प्रज्ञप्तिः
| सेवं भंते! त्ति ( सूत्रं २३१ ) छठे सए बीओ उद्देसो संमत्तो ॥६-२ ॥ ॥४२६॥
राजगृह नगर यावत् ए प्रमाणे बोल्या आहार उरेशक, जे 'प्रज्ञापना' सूत्रमा कयो छे ते वधो अहिं जाणवो. हे भगवन् ! ते ४ाए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, एम कही यावत् विहरे छे. ॥ २३१ ।। भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमूत्रना छट्ठा शतकमां बीजा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
उद्देशक ३. आगळना उद्देशकमा आहारने अपेक्षीने पुद्गलोनो विचार कर्यो छे अने अहीं तो बंधादिने अपेक्षीने पुद्गलो चितववानां छे | ए प्रमाणेना संबंधवाळा आ त्रीजा उद्देशकमां, शरुआतमां बे अर्थसंग्रहगाथा छे.
बहुकम्मवत्थपोग्गलपयोगसावीससा य सादीए । कम्महितीथिसंजय सम्मट्टिी य सन्नी य ॥ ३९॥ भविए सण पज्जत्त भासअपरित्त नाणजोगे य । उचओगाहारगसुहुमचरिमबंधी य अप्पबहुं ।। ४० ॥
बहुकर्म, वस्त्रमा पुद्गलो प्रयोगथी अने स्वाभाविकरीते, आदिसहित, कर्मस्थिति, स्त्री, संयत, सम्यग्दृष्टि, संज्ञी, भव्य, दर्शन, पर्याप्त, भाषक, परित्त, ज्ञान, योग, उपयोग, आहारक, मूक्ष्म, चरम, वंध, अने अल्पबहुत्व; आटला विषयो आ उद्देशामां कहेवाशे.
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मा
व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४२७॥
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शतक उद्देश:३ ॥४२७॥
___ से नूणं भंते ! महाकम्मरस महाकिरियस्स महासवस्स महावेदणस्स सव्वओ पोग्गला बझंति सब्बओ पोग्गला चिजति मचओ पोग्गला उवचिजति सया समियं च णं पोग्गला बज्मंतिसया समियं पोग्गला चिज्जति | सया समियं पोग्गला उवचिजति सया समियं च णं तस्स आया दुरूवत्ताए दुवन्नत्ताए दुगंधत्ताए दुरसत्ताए दुफासत्ताए अणिट्टत्ताए अकंत. अप्पिय० असुभ० अमणुन्न. अमणामत्ताए अणिच्छियत्ताए अभिज्झियत्ताए अहत्ताए नो उड्डत्ताए दुक्रवत्ताए नो सुहत्ताए भुजो २ परिणमंति ?, हंता गोयमा ! महाकम्मस्स तं
चेव । से केणटेणं ?, गोयमा ! से जहानामए-वत्थस्स अयस्स वा धोयस्स वा तंतुगयस्स वा आणुपुब्बीए | परिभुजमाणस्स सब्वओ पोग्गला बझंति सब्वओ पोग्गला चिजंति जाव परिणमंति से तेणटेणं० । से नूणं भंते ! अप्पासवस्स अप्पकम्मस्स अप्पकिरियस्स अप्पवेदणस्स सव्वओ पोग्गला भिजति सवओ पोग्गला छिज्जति सव्वओ पोग्गला विद्धसंति मव्वओ पोग्गला परिविद्धसंति सया समियं पोग्गला भिजंति मन्वओ पोग्गला छिजंति विद्धस्संति परिविद्धस्संति सया समियं च णं तस्स आया सुरूवत्ताए पसत्थं नेयव्वं जाव सुहत्ताए नो दुक्खत्ताए भुजो २ परिणमंति ?, हंता गोयमा ! जाव परिणमंति। से केणट्टेणं. ?, गोयमा ! से जहानामए-वत्थस्म जल्लियस्स वा पंकियस्स वा मइलियस्स वा रइल्लियस्स वा आणुपुञ्बीए परिकम्मिज| माणस्स सुद्धणं वारिणा धोवेमाणस्स पोग्गला भिजंति जाव परिणमंति से तेण?णं० ॥ ( सूत्र २३२ )॥ .
[प्र०] हे भगवन् ! ते नक्की छे के, महाकर्मवाळाने, महाक्रियावाळाने महाआश्रववाळाने अने महावेदनावाळाने सर्वथी सर्व
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥४२८॥
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दिशाओथी सर्व प्रकारे पुद्गलोनो बंध थाय ? सर्वथी पुद्गलोनो चय थाय ? सर्वथी पुद्गलोनो उपचय थाय ? हमेशां निरंतर पुद्गलोनो बंध थाय, हमेशां निरंतर पुद्गलोनो चय थाय के हमेशां निरंतर पुद्गलोनो उपचय थाय ? अने तेनो आत्मा, हमेशां निरंतर दुरूपपणे, दुर्वर्णपणे, दुर्गंधपणे, दूरसपणे, दुःस्पर्शपणे, अनिष्टपणे, अकांतपणे, अमनोज्ञपणे, अमनामपणे-मनथी संभारी पण न शकाय ए स्थितिए, अनीप्सितपणे प्राप्त करवाने अनिच्छितपणे, अमिध्यितपणे जे स्थितिने प्राप्त करवानो लोभ पण न थाय ते स्थितिपणे, जघन्यपणे, अनूर्ध्वपणे, दुःखपणे अने असुखपणे वारंवार परिणमे छे ? [उ० ] हा. गौतम ! महाकर्मवाळा माटे तेज प्रमाणे छे. [प्र० ] हे भगवन ! ते शा हेतुथी ? [ उ ] हे गौतम! जेम कोइ अहत - अक्षत-अपरिभुक्त- नहि वापरेल- अधोतुं. धौत-धोतुं वापरीने पण धोएलुं अने शाळ उपरथी हमणां ताजुंज उतरेलुं वस्त्र होय, ते वस्त्र ज्यारे क्रमे क्रमे वपराशमां आवे त्यारे तेने सर्व बाजुएथी पुद्गलो बंधाय छे लागे छे, सर्व बाजुएथी पुद्गलोनो चय थाय छे यावत् कालान्तरे ते वस्त्र, मसोता जेवुं मेलं अने दुर्गंधी तरीके परिणमे छे, ते हेतुथी महाकर्मवाळाने उपर प्रमाणे कछे. [प्र० ] हे भगवन् ! ते नक्की छे के, अल्पआश्रयवाळाने अल्पकर्मवाळाने अल्पक्रियावाळाने अने अल्पवेदनावाळाने सर्वथी पुद्गलो भेदाय छे ? सर्वथी पुद्गलो छेदाय छे? सर्वथी पुद्गलो विध्वंस पामे छे? सर्वथी पुद्गलो समस्तपणे नाश पामे छे ? हमेशा निरंतर पुद्गलो भेदाय छे? सर्वथी पुद्गलो छेदाय छे ? विध्वंस पामे छे ! समस्तपणे नाश पामे छे ? अने तेनो आत्मा हमेशां निरंतर सुरूपपणे- पूर्वना सूत्रमां जे अप्रशस्त कछु हतुं, ते अहीं प्रशस्त जाणवुं यावत् सुखपणे, दुःखपणे नहि वारंवार परिणमे छे. [उ०] हा गौतम ! यावत् परिणमे छे ? [प्र० ] हे भगवन् ! ते शा हेतुथी ? [उ०] हे गौतम! जेम कोइ जल्लित जलवालुं मेलं, पंकसहित मेलसहित अने रजसहित वस्त्र होय, अने
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६ शतके
उद्देश: ३
||४२८||
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म्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४२९||
६ शतके उद्देशः३ ॥४२९॥
है ते वस्त्र क्रमे क्रमे शुद्ध थतुं होय, शुद्ध पाणीथी धोवातुं होय तो तेने लागेला पुद्गलो सर्वथी भेदाय यावत् परिणाम पामे,ते हेतुथी |
अल्पक्रियावाळा माटे पूर्व प्रमाणे का छे. ॥ २३२ ।।। __वत्थस्स णं भंते ! पोग्गलोवचए किं पयोगसा वीससा ?, गोयमा ! पओगसावि वीससावि । जहा णं भंते ! वत्थस्स ण पोग्गलोवचए पओगसावि वीससावि तहा णं जीवाणं कम्मोवचए कि पओगसा वीससा., & गोयमा ! पओगमा, नो वीससा, से केणद्वेणं० १, गोयमा ! जीवाणं तिविहे पओगे पण्णत्ते, तंजहा-मणप्प| ओगे वह का०, इच्चेतेणं तिविहेणं पओगेणं जीवाणं कम्मोवचए पओगसा, नो वीससा, एवं मवेसिं पंचेंदि| दियाणं तिविहे पओगे भाणियब्वे, पुढविकाइयाणं एगविहेणं पओगेणं, एवं जाव वणस्सइकाइयाण, विगलिं
दियाणं दुविहे पओगे पण्णत्ते, तंजहा-वइपओगे य कायप्पओगे य, इचेतेणं दुविहेणं पओगेणं कम्मोवचए ४/पओगमा, नो वीससा, से एएणद्वेण जाव नो वीसमा, एवं जस्स जो पओगो जाव माणियाण ॥ (सूत्रं २३३)
प्र०] हे भगवन् ! वस्त्रने जे पुद्गलोनो उपचय थाय छे ते शुं प्रयोगथी पुरुष प्रयत्नथी थाय छे के स्वाभाविक रीते थाय Mछ ? [उ०] हे गौतम ! प्रयोगथी थाय के अने स्वाभाविक रीते पण थाय छे. [प्र०] हे भगवन् ! जेम वरूने प्रयोगथी अने स्वाहाभाविक रीते पुद्गलोनो उपचय थाय छे तेम जीवोने जे कर्मपुद्गलोनो उपचय थाय छे ते शुं प्रयोगथी अने म्वाभाविक रीते, ए
बन्ने कारणथी थाय छे ? [उ.] हे गौतम ! जीवोने जे कर्मनो उपचय थाय छे ते प्रयोगथी थाय हे पण स्वाभाविक रीते थतो नथी. [प्र०] हे भगवन् ! ते शा हेतुथी ? [उ०] हे गौतम ! जीवोने त्रण प्रकारना प्रयोगो कह्या छे, ते जेमके, मनप्रयोग, वचन
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४३०॥
६ शतके उद्देशः३ ॥४३०॥
प्रयोग, अने कायप्रयोग, ए त्रण प्रकारना प्रयोगवडे जीवोने कर्मनो उपचय थाय छे, माटे जीवोने कर्मनो उपचय प्रयोगथी थाय छे पण स्वाभाविक रीते थतो नथी; ए प्रमाणे बधा पंचेंद्रियोने त्रण प्रकारनो प्रयोग कहेवो, पृथिवीकायिकोने एक प्रकारनो प्रयोग | कहेवो, ए प्रमाणे यावत् वनस्पतिकायिको मुधी जाणवू. विकलेंद्रिय जीवोने बे प्रकारनो प्रयोग कह्यो छे, ते जेमके, वचनप्रयोग
अने कायप्रयोग, ए बे प्रकारना प्रयोगवडे तेओने कर्मनो उपचय थाय छे माटे तेओने प्रयोगथी कर्मोपचय थाय छे पण स्वाभा|विक रीते कर्मोपचय थतो नथी, ते हेतुथी एम का के, यावत् स्वाभाविक रीते कर्मोपचय थतो नथी, ए प्रमाणे जे जीवने जे | प्रयोग होय ते कहेवो अने ते प्रमाणे यावत् वैमानिक सुधी कहे. ॥ २३३ ।।
वस्थम्स णं भंते ! पोग्गलोवचए किं सादीए सपज्जवसिए १ सादीए अपज्जवसिते २ अणादीए सपज्ज. ३ अणा अप० ४ ?, गोयमा ! वत्थस्स णं पोग्गलोवचए सादीए सपज्जवसिए, नो सादीए अप०, नो अणा० स०, नो अणा० अप० । जहा णं भंते ! वत्थस्स पोग्गलोवचए सादीए सपज०, नो सादीए अप०, नो अणा० सप०, | नो अणा० अप०, तहा णं जीवाणं कम्मोवचए पुच्छा, गोयमा ! अत्थेगतियाणं जीवाणं कम्मोवचए सादीए | सपजवसिए, अत्थे० अणादीए सपज्जवसिए, अत्थे• अणादीए अपज्जवसिए, नो चेव णं जीवाणं कम्मोवचए | सादीए अप० । से केण.?, गोयमा! ईरियावहियाबंधस्स कम्मोवचए सादीए सप०, भवसिद्धियस्स कम्मोवचए अणादीए सपज्जवसिए, अभवसिद्धियस्स कम्मोवचए अणादीए अपज्जवसिए, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चति अत्थे०जीवाणं कम्मोवचए सादीए नो चेव णं जीवाणं कम्मोवचए सादीए अपज्जवसिए, वत्थे णं
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४३॥
शतके उद्देशः३ ॥४३१॥
भंते ! किं सादीए सपजवसिए चउभंगो, गोयमा ! वत्थे सादीए सपजवसिए, अवसेसा तिन्निवि पडिसेहेयव्वा । जहा णं भंते ! वत्थे सादीए सपज्जवसिए, नो सादीए अपज्ज., नो अणादीए सप०, नो अनादीए अपज्जवसिए, तहा णं जीवाणं किं सादीया सपजसिया ? चउभंगो पुच्छा, गोयमा! अत्थेगतिया सादीया सपज्जवसिया चत्तारिवि भाणियब्बा । से केणटेणं० १, गोयमा ! नेरतिया तिरिक्खजोणिया मणुस्मा देवा गतिरागतिं पडुच्च सादीया सपजवसिया,सिद्धी(सिद्धा)गतिं पडुच्च सादीया अपज्जवसिया,भवसिद्धिया लद्धिं पडुच्च अणादीया मपजवसिया, अभवसिद्धिया संसारं पडुच्च अणादीया अपज्जवमिया, से तेणटेणं०॥ (सूत्रं २३४) ।
[प्र०] हे भगवन् ! वस्त्रने जे पुद्गलोनो उपचय थयो छे, ते शुं सादि सांत छे ? सादि अनंत छ ? अनादि सांत छे के अनादि अनंत छे ? [उ०] हे गौतम ! वस्रने जे पुद्गलोनो उपचय थयो छे, ते सादि सांत छे पण सादि अपर्यवसित-अनंत नथी, | तेमज अनादि सांत नथी धने अनादि अनंत नथी. [प्र०] हे भगवन् ! जेम वस्त्रनो पुद्गलोपचय मादि सांत ले पण सादि अनंत,
अनादि सांत के अनादि अनंत नथी तेम जीवोना कर्मोपचय माटे पण पृच्छा-प्रश्न करवी अर्थात् जीवोनो कर्मोपचय पण शुं सादि | सांत के ? सादि अनंत छे, अनादि सांत के के अनादि अनंत के ? [उ०] हे गौतम ! केटलाक जीवोनो कर्मोपचय सादि सांत छे, केटलाक जीवोनो कर्मोपचय अनादि सांत छे अने केटलाक जीवोनो कर्मोपचय अनादि अनंत २. पण जोवोनो कर्मोपचय सादि अपर्यवसित-अनंत नथी. [प्र०] हे भगवन् ! ते शा हेतुथी ? [उ.] हे गौतम ! ऐर्यापथना बंधकनो कर्मोपचय सादि सांत छ, भवसिद्धिक जीवनो कर्मोपचय अनादि सांत छे, अभवसिद्धिकनो कर्मोपचय अनादि अनंत छे ते हेतुथी हे गौतम ! तेम का छे.
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ।।४३२॥
६ शतके | उद्देशः३ ॥४३२॥
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[[प्र०] हे भगवन् ! शुं वस्त्र सादि अने सांत छ ? पूर्व प्रमाणे अहीं चारे भांगामा प्रश्न कहेवो. [उ०] हे गौतम ! वस्त्र सादि ४/छे अने सांत हे. बाकी त्रणे भागानो बसमा प्रतिषेध करवो. [प्र०] हे भगवन् ! जेम वस्त्र सादि सांत छे पण सादि अनंत नथी,
अनादि सांत नथी अने अनादि अनंत नथी तेम जीवो शुं सादि सांत छ ? अहिं पूर्वना चारे भांगा कही तेमा प्रश्न करवो. [उ०] | हे गौतम ! केटलाक जीवो सादि सांत छे, ए प्रमाणे चारे भांगा कहेवा. [प्र०] हे भगवन् ! ते शा हेतुथी ? [उ०] हे गौतम !
नैरयिको, तिर्यंचयोनिको, मनुष्यो, अने देवो गति आगतिने अपेक्षी सादि अने सांत हे, सिद्धगतिने अपेक्षी सिद्धो सादि अनंत |छे, भवसिद्धिको लब्धिने अपेक्षी अनादि सांत छे अने अभवसिद्धिको संसारने अपेक्षी अनादि अनंत छे, ते हेतुथी तेम कधुके. ॥ २३४ ।। | कति ण भंते ! कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ!, गोयमा! अट्ठ कम्मप्पगडीओ पण्णत्ता, तंजहा-णाणावर|णिज दरिसणावरणिज जाव अंतराइयं । नाणावरणिजस्स णं भंते ! कम्मस्स केवतियं कालं बंधठिती पण्णत्ता ?, गोयमा ! जह० अंतोमुहुत्तं उक्को तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, तिन्नि य वाससहस्माई अबाहा, अबाहअिया कम्महिती कम्मनिसेओ, एवं दरिसणावरणिजपि, वेदणिजं जह० दो समया उको जहा नाणा| वरणिजं, मोहणिज्नं जह• अंतोमुहत्तं उक्को सत्तरि सागरोवमकोडाकोडीओ, सत्त य वाससहस्साणि
अबाधा, अवाहणिया कम्मठिई कम्मनिसेगो, आउगं जहन्नेणं अंतोमुहुत्त उक्को तेत्तीसं सागरोवमाणि, पुब्वकोडितिभागमभहियाणि, (पुवकोडितिभागो अवाहा, अयाहृणिया) कम्मट्टिती कम्मनिसेओ, नामगोयाणं जह• अट्ठ मुहुत्ता उको० वीसं सागरोवमकोडाकोडिओ, दोषिण य वाससहस्साणि अवाहा, अवाहू
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INSAA
६ शतके उद्देशः३ ॥४३३॥
|णिया कम्महिती कम्मनिसेओ, अंतरातियं जहा नाणावरणिज ॥ (सूत्रं २३५)॥ भ्याख्या
[प्र०] हे भगवन् ! केटली कर्मप्रकृतिओ कही छे ? [उ.] हे गौतम ! आठ कर्मप्रकृतिओ कही छे, ते जेमके, ज्ञानावरणीय प्रज्ञप्तिः दर्शनावरणीय यावत् अंतराय. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्मनी बंधस्थिति केटला काळ सुधी कही छे ? [उ०] हे गौतम ! | ॥४३३॥
जघन्यथी अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्टथी त्रीश सागरोपम कोडाकोडी, अने त्रणहजार वरस अबाधाकाळ, ते अबाधकाळ जेटली ऊणी कर्मस्थिति-कर्मनिषेक जाणवो, ए. प्रमाणे दर्शनावरणीय कर्म परत्वे पण जाणवू, वेदनीय कर्म जघन्ये वे समयनी स्थितिवाढं अने उत्कृष्टे जेम ज्ञानावरणीय कर्म का छे तेम जाणवू. मोहनीय कर्म जघन्ये अन्तर्मुहूर्तनी स्थितिवाळं अने उत्कृष्टे ७० सागरोपम कोडाकोडी स्थितिवाळु छे अने सातहजार वरस तेनो अबाधाकाळ छे अर्थात् कर्मस्थिति-कर्मनिषेक काळ, ते अबाधा काळथी ऊणो जाणवो. (हे गौतम ! ) आयुष्य कर्मनी स्थिति जघन्ये अन्तर्मुहूर्त छ अने उत्कृष्टे पूर्व कोटिना त्रिभागथी अधिक तेत्रीश सागरोपम कर्मस्थिति-कर्मनिषेक ने. नामकर्मनो अने गोत्रकर्मनो जघन्य काळ आठ अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट काळ वीश सागरोपम छे तथा बे हजार वरस अबाधा काल छे, ते अबाधा काळथी ऊणी कर्मस्थिति,-कर्मनिषेक जाणवो. जेम ज्ञानावरणीय कर्म का तेम
अंतराय कर्म समजवू. ॥ २३५ ॥ 18 नाणावरणिज णं भंते ! कम्मं किं इत्थी बंधइ पुरिसो बंधड़ नपुंसओ बंधइ ? णोइत्थी नोपुरिसो नोनपुं.
सओ बंधइ ?, गोयमा ! इत्थीवि बंघइ पुरिसोवि बंधइ नपुंसओवि बंधइ नोइत्थी नोपुरिमो नोनपुंसओ सिय बंधइ सिय नो बंधइ, एवं आउगवनाओ सत्त कम्मप्पगडीओ ॥ आउगे णं भंते ! कम्मं किं इत्थी बंधड
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥४३४॥
पुरिसो बंधइ नपुंसओ बंधइ ? पुच्छा, गोयमा ! इत्थी सिय बंधइ, सिय नो बंधइ, एवं तिन्निवि भाणियब्वा, | नोइत्थीनोपुरिसोनोनपुंसओ न बंधइ॥ णाणावरणिज्ज णं भंते ! कम्मं किं संजए बंधइ असंजए०, एवं |६ शतके
संजयासंजए बंधइ नोसंजयनोअसंजएनोसंजयासंजए बंधति ?, गोयमा ! संजए सिय बंधति सिय नो उद्देशः३ | बंधति, असंजए बंधइ, संजयासंजएवि बंधइ, नोसंजएनोअसंजएनोसंजयासंजए न बंधति, एवं आउगवजाओ। ॥४३४॥ सत्तवि, आउगे हेडिल्ला तिन्नि भयणाए, उवरिल्ले ण बंधइ ।।
[प्र.] हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय शुं स्त्री बांधे ? पुरुष बांधे ? के नपुंसक बांधे ? वा नोस्त्री-नोपुरुष नोनपुंसक एटले जे स्त्री, | पुरुष के नपुंसक न होय एवो जीव बांधे ? [उ०] हे गौतम ! स्त्री पण बांधे, पुरुष पण बांधे, अने नपुंसक पण बांधे. पण जे नोस्त्री नोपुरुष-नोनपुंसक होय ते कदाच बांधे अने कदाच न बांधे ए प्रमाणे आयुष्यने वर्जीने साते कर्मप्रकृतिओ माटे जाणवू. [प्र.] हे भगवन् ! आयुष्यकर्म शुं स्त्री बांधे ? पुरुष बांधे ? के नपुंसक बांधे ? ए प्रमाणे पूर्ववत् प्रश्न करवो. [उ०] हे गौतम ! स्त्री बांधे | अने न पण बांधे. ए प्रमाणे त्रणे माटे वीजा वे माटे पण जाणवू अने जे नो स्त्री नोपुरुष नोनपुंसक होय ते तो आयुष्यकर्म न | बांधे [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म शुं संयत बांधे ? असंयत बांधे ? के संयतासंयत बांधे ? वा जे नो संयतनोअसंयत-नो.
संयतासंयत होय ते बांधे ? [उ.] हे गौतम ! कदाच संयत बांधे, कदाच न बांधे; असंयत बांधे अने संयतासंयत पण बांधे पण * |जे नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासयत होय ते तो न बांधे. ए प्रमाणे आयुष्यने वर्जीने साते कर्मप्रकृतिओ माटे जाणवू, आयुष्यकर्मना संबंधमां नीचेना त्रण संयत, असंयत अने संयतासंयत माटे भजनावडे जाणवू बांधे अने न बांधे एम जाणवू अने उपरनो
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४३५॥
| नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत अर्थात् सिद्ध न बांधे. ___णाणावरणिज्जंणं भंते! कम्मं किं सम्मदिट्ठी बंधइ मिच्छद्दिट्टी बंधइ सम्मामिच्छदिट्ठी बंधइ?, गोयमा सम्मट्टिी
४६ शतके द्र सिय बंधइ सिय नो बंधइ,मिच्छदिट्ठी बंधइ,सम्मामिच्छदिट्ठी बंधइ,एवं आउगवजाओ सत्तवि, आऊए हेहिल्ला
उद्देशः३ | दो भयणाए, सम्मामिच्छदिट्ठी न बंधइ ॥ णाणावरणिज्जं किं सण्णी बंधइ असन्नी बंधइ नोसण्ण्णीनोअसण्णी
|॥४३५॥ | बंधइ?, गोयमा! सन्नी सिय बंधइ सिय नो बंधइ, असन्नी बंधइ नोसन्नीनोअसन्नी न बंधइ, एवं वेदणिज्जाउगवजाओछ कम्मप्पगडीओ,वेदणिज्जं हेढिल्ला दो बंधति, उवरिल्ले भयणाए, आउगं हेढिल्ला दो भयणाए, उवरिल्लो न बंधइ।। णाणावरणिज्नं कम्मं किं भवसिद्धीए बंधइ अभवसिद्धीए बंधइ नोभवसिद्धीएनोअभवसिद्धीए बंधति, गोयमा! भवसिद्धीए भयणाए,अभवसिद्धीए बंधति,नोभवसिद्धीएनोअभवसिद्धीए न बंधइ, एवं आउगवजाओ सत्तवि, आउगं हेहिला दो भयणाए, उवरिल्लो न बंधइ ।। णाणावरणिज्जं किं चक्खुदंमणी बंधति अचक्खुदंस.
ओहिंदंस. केवलदं०?, गोयमा ! हेहिल्ला तिन्नि भयणाए, उवरिल्ले ण बंधइ, एवं वेदणिजवजाओ सत्तवि, वेदणिजं हेडिल्ला तिन्नि बंधंति, केवलदंसणी भयणाए ।
प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म शुं सम्यग्दृष्टि बांधे ? मिथ्यादृष्टि बांधे के सम्यग्मिथ्यादृष्टि बांधे? [उ०] हे गौतम !18 सम्यग्दृष्टि कदाच बांधे अने कदाच न बांधे, मिथ्यादृष्टि बांधे अने सम्यग्मिध्यादृष्टि पण बांधे. ए प्रमाणे अयुष्य सिवायनी साते कर्मप्रकृतिओ माटे जाणवू, आयुष्यमां नीचेना बे सम्यग्दृष्टि अने मिथ्यादृष्टि भजनावडे कदाच न बांधे अने कदाच बांधे अने
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व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥४३६॥
६ शतके उदेशः३ ॥४३६॥
सम्यग्मिथ्यादृष्टि ( तो सम्यग्मिथ्यादृष्टिनी दशामां ) न बांचे. [प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म शुं संज्ञी जीव बांधे ? असंज्ञी | जीव बांधे ? के नोसंज्ञी अने नोअसंज्ञी बांधे ? [उ.] हे गौतम ! संज्ञी कदाच बांधे अने कदाच न बांधे, असंज्ञी बांधे अने नोसं|ज्ञीनोअसंज्ञी जीव न बांधे. ए प्रमाणे वेदनीय अने आयुष्य वर्जीने छ कर्मप्रकृतिओ माटे जाणवू. अने वेदनीयने नीचेना वे संज्ञी
अने असंज्ञी बांधे अने उपरनो नोसंज्ञीनोअसंज्ञी भजनावडे कदाच बांधे अने कदाच न बांधे अने आयुष्यने नीचेना वे भजनाए |बांधे अने उपरनो न बांधे. [प्र०] हे भगवन् ! शुं भवसिद्धिक ज्ञानावरणीय कर्म बांधे ?, अभवसिद्धिक ज्ञानावरणीय कर्म बांधे ?, | के नोभवसिद्धिक अने नोअभवसिद्धिक ज्ञानावरण कर्म बांधे ! [उ०] हे गौतम ! भवसिद्धिक भजनाए बांधे एटले कदाच बांधे
अने कदाच न बांधे, अभवसिद्धिक ज्ञानावरण कर्म बांधे अने नोभवसिद्धिक अने नोअभवसिद्धिक न बांधे, ए प्रमाणे आयु| प्य सिवायनी साते कर्मप्रकृतिओ माटे जाणवू, आयुष्य कर्मने नीचेना वे भवसिद्धिक-भव्य अने अभवसिद्धिक अभव्य, ते भजनाए बांधे कदाच बांधे अने न पण बांधे अने उपरनो नोभवसिद्धिक अने नोअभवसिद्धिक एटले भव्य नहि तेम अभव्य नहि अर्थात् सिद्ध, ते न बांधे. [प्र०] हे भगवन् ! शुं चक्षुर्दर्शनी, अचक्षुर्दर्शनी, अवधिदर्शनी अने केवलदर्शनी ज्ञानावरण कर्म बांधे ? [उ०] हे गौतम ! हेठळना त्रण चक्षुर्दर्शनी, अचक्षुर्दर्शनी अने अवधिदर्शनी एत्रण भजनाए बांधे एटले कदाच बांधे अने कदाच न बांधे, | तथा उपरनो-केवलदर्शनी ते न बांधे, ए प्रमाणे वेदनीय सिवायनी साते कर्मप्रकृतिओ माटे जाणवू, वेदनीयकर्मने नीचेना त्रण बांधे छे अने केवलदर्शनी कदाच बांधे अने कदाच न बांधे.
णाणावरणिज कम्मं किं पजत्तओ बंधइ अपजत्तओ बंधइ नोपज्जत्तएनोअपज्जत्तए बंधइ?, गोयमा! पजत्तए
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४३७॥
६ शतके उद्देशः३ ॥४३७॥
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भयणाए, अपजत्तए बंधइ, नोपज्जत्तएनोअपज्जत्तए न बंधइ, एवं आउगवजाओ, आउगं हेडिल्ला दो भयणाए, उवरिल्ले ण वंधड़।। नाणावरणिनं किं भासए बंधड़ अभासए?, गोयमा! दोवि भयणाए, एवं वेदणियवज्जाओ सत्त, वेदणिज भासए बंधइ, अभासए भयणाए । णाणावरणिज्जं किं परित्ते बंधइ अपरित्ते बंधइ नोपरित्तनोअपरित्ते बंधइ ?, गोयमा ! परित्ते भयणाण, अपरित्त बंधइ, नोपरित्तेनोअपरित्ते न बंधइ, एवं आउगवजाओ मत्त कम्मप्पगडीओ, आउए परित्तोवि अपरित्तोवि भयणाए, नोपरित्तोनोअपरित्तो न वंधड़ ॥ णाणावरणिज्ज कम्मं किं आभिणिबोहियनाणी बंधइ सुयनाणी. ओहिनाणी. मणपजवनाणी० केयलनाणी बं० १, गोयमा ! हेहिल्ला चत्तारि भयणाए, केवल नाणी न बंधइ, एवं वेदणिज्जवजाओ सत्तवि, वेदणिज्जं हेडिल्ला चत्तारि बंधंति, केवलनाणी भयणाए ।
प्र०] हे भगवन् ! शुं पर्याभक जीव ज्ञानावरणीय कर्म बांधे ? अपर्याप्तक जीव ज्ञानवरणीय कर्म बांधे ? के नोपर्याप्त अने नोअपर्याप्त जीव ज्ञानावरण कर्म बांधे ? [उ०] हे गौतम ! पर्याप्त जीव भजनाए ज्ञानावरणीय कर्म बांधे, अपर्याप्त जीव ज्ञानावरण कर्म बांधे अने नोपर्याप्त तथा नोअपर्याप्त एटले सिद्ध जीव ज्ञानावरणीय कर्म न बांधे, ए प्रमाणे आयुष्यने वर्जीने साते कर्मप्रक| तिओ माटे जाणवू अने आयुष्यने नीचेना बे पर्याप्त अने अपर्याप्त भजनाए बांधे अने उपरनो नोपर्याप्त तथा नो अपर्याप्त सिद्ध न बांधे. [प्र०] हे भगवन् ! शु भाषक जीव ज्ञानावरण कर्म बांधे ? के अभाषक बांधे ? [उ०] हे गौतम! बन्ने भाषक अने अभाषक ए बने जीव ज्ञानावरण कर्म भजनाए बांधे, ए प्रमाणे वेदनीयवर्जीने साते कर्मप्रकृतिओ माटे जाणवू अने वेदनीय कर्म भाषक
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व्याख्याप्रज्ञप्ति
६शतके
॥४३८॥
उद्देश:३ ॥४३८॥
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बांधे तथा अभाषक वेदनीय कर्मने भजनाए बांधे. [प्र०] हे भगवन् ! शुं परित्त-एक शरीरवाळो एक जीव, ज्ञानावरण कर्म बांधे ? | अपरित्त जीव ज्ञानावरण कर्म बांधे ? के नोपरित तथा नोअपरित्त जीव ज्ञानावरण कर्म बांधे ? [उ०] हे गौतम ! परित्त जीव, भजनाए ज्ञानावरण कर्म बांधे, अपरित्त जीव ज्ञानावरण कर्म बांधे अने नोपरित्त तथा नोअपरित्त एटले सिद्ध जीव न बांधे, ए प्रमाणे आयुष्यने बोंने साते कर्मप्रकृतिओ माटे जाणवू,अने परित्त तथा अपरित्त ए बन्ने पण आयुष्य कर्मने भजनाए बांधे छे अने नोपरित्त तथा नोअपरीत बांधतो नथी. [प्र०] हे भगवन् ! शुं आमिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी के केव| लज्ञानी ज्ञानावरण कर्म बांधे? [उ.] हे गौतम ! हेठळना चार एटले मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी अने मनःपर्यवज्ञानी ए चार भजनाए बांधे के अने केवलज्ञानी बांधतो नथी, ए प्रमाणे वेदनीयने वर्जीने बाकीनी सात कर्मप्रकृतिओ माटे जाणी लेवू अने वेदनीय कर्मन हेठळना चार बांधे छे अने भजनाए बांधे छ. ___णाणावरणिज्जं किं मतिअन्नःणी बंधइ सुय० विभंग०, गोयमा ! (सव्वेवि) आउगवज्जाओ सत्तवि बंधंति, आउगं भयणाए । णाणावरणिज किं मणजोगी बंधइ० वय काय० अजोगी बंधइ ?, गोयमा! हेडिल्ला तिन्नि भयणाए, अजोगी न बंधइ, एवं वेदणिजबजाओ. वेदणिज्जं हेहिल्ला बंधति, अजोगी न बंधइ ॥णाणावरणिज्ज किं सागारोवउत्ते बंधइ अणागारोवउत्ते बंधइ ?, गोयमा ! अट्ठसुवि भयणाए ॥ णाणावरणिजं किं आहा| रए बंधइ अणाहारए बंधइ ?, गोयमा! दोवि भयणाए, एवं वेदणिज्जआउगवजाणं छण्हं, वेदणिज्ज़ आहारए बंधति, अणाहारए भयणाए, आउए आहारए भयणाए, अणाहारए न बंधति, णाणावरणिज्ज
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४३९॥
६ शतके उद्देशः३ | ॥४३९।।
294-9-
4
किं सुहमे बंधड़ बायरे बंधइ नोसहुमेनोबादरे बंधइ ?, गोयमा ! सुहमे बंधइ, बायरे भयणाए, नोमुहमे| नोबादरे न बंधइ, एव आउगवजाओ सत्तवि, आउए सुहमे बायरे भयणाए, नोसहमेनोबायरे ण बंधइ ।। | णाणावरणिजं किं चरिमे अचरिमे बं० १, गोयमा ! अट्ठवि भयणाए । ( सूत्रं २३६)॥
प्र.] हे भगवन् ! शु मतिअज्ञानी. श्रुतअज्ञानी अने विभंगज्ञानी ज्ञानावरणीय कर्म बांधे ? [उ०] हे गौतम ! आयुष्यने | वर्जीने साते कर्मप्रकृतिओ बांधे अने आयुष्यने भजनाए बांधे. [प्र०] हे भगवन् ! शुं मनयोगी, वचनयोगी, काययोगी अने अयोगी ज्ञानावरणीय कर्म बांधे ? [उ०] हे गौतम ! हेठळना त्रण मनयोगी, वचनयोगी अने काययोगी, ए त्रण भजनाए ज्ञानावरण कर्म बांधे अने अयोगी ज्ञानावरणने न बांधे. ए प्रमाणे वेदनीय सिवायनी साते कर्मप्रकतिओ माटे जाणवू अने वेदनीय कर्मने हेठलना त्रण बांधे अने अयोगी न बांध. [प्र० हे भगवन् ! शुं साकार उपयोगवाळो के अनाकार उपयोगवालो ज्ञानावरणीय कर्म बांधे ? [उ०] हे गौतम ! आठे कर्मप्रकृतिओ भजनाए बांधे. [प्र०] हे भगवन ! शु आहारक के अनाहारक जीव ज्ञानावरणीय कर्मने बांधे ? [उ.] हे गौतम ! बन्ने पण भजनाए बांधे. ए प्रमाणे वेदनीय अने आयुष्य सिवायनी छ कर्मप्रकृतिओ माटे जाणवू, | अने वेदनीय कर्म, आहारक जीव बांधे तथा अनाहारक जीव भजनाए बांधे अने आयुष्यकर्मने आहारक जीव भजनाए बांधे तथा अनाटारक जीव न बांधे. [प्र०] हे भगवन् ! शु मृक्ष्म जीन, बादर जीव के नोमूक्ष्म-नोबादर जीव ज्ञानावरण कर्मने बांधे ? [उ०]] हे गौतम : मूक्ष्म जीव बांध, बादर जीव भजनाए बांध अने नोमूक्ष्म-नोवादर जीव न बांधे, ए प्रमाणे आयुष्यने मूकीने साते कर्मप्रकृतिओ माटे पण जागवू अने आयुष्यकर्म ने मूक्ष्म जीव अने बादर जीव, ए बन्ने भजनाए बांध , तथा नोसक्षम-नोवादर
4*4%25*444
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व्याख्याप्रज्ञप्ति
६ शतके उद्देशः३ ॥४४०॥
॥४४०॥
जीव सिद्धना जीव नथी बांधता. [प्र.] हे भगवन् ! शु चरम जीव के अचरम जीव ज्ञानावरणीय कर्म बांधे ? [उ०] हे गौतम ! ४ाए बने जीव आठे फर्मप्रकृतिओने भजनाए बांधे. ॥ २३६ ॥ । एएसिणं भते ! जीवाणं इथिवेदगाणं पुरिस वेदगाणं नपुंसगवेदगाणं अवेयगाण य कयरे २ अप्पा वा ४?,
गोयमा ! मब्बत्थोवा जीवा पुरिसवेदगा, इथिवेदगा संखेजगुणा, अवेदगा अर्णतगुणा, नपुंसगवेदगा अणंत| गुणा॥ एएसिं सव्वेसिं पदाणं अप्पबहुगाई उच्चारेयब्वाइं जाव सम्वत्थोवा जीवा अचरिमा,चरिमा अणंतगुणा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति (सूत्रं २३७) ॥ छट्ठसा तइओ उद्देसो संमत्तो॥६-३॥
[प्र०] हे भगवन् ! स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक, नपुंसकवेदक अंने अवेदक, ए बधा जीवोमां क्या क्या जीव, कोना कोनाथी अल्प, बहु, तुल्य अने विशेषाधिक छ ? [उ०] हे गौतम ! सौथी थोडा पुरुषवेदक जीवो छे, तेनाथी संख्येयगुण स्त्रीवेदक हे, अवेदक अनंतगुण छे अने नपुंसकवेदक अनंतगुण है. ए बधा पदोनां अल्पबहुत्वो कहेवां यावत् सौथी थोडा अचरम जीवो छ भने चरम जीवो अनंतगुण छे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन ! ते ए प्रमाणे छे. एम कही यावद विचरे छे. ॥ २३७ ।।
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना छट्ठा शतकमां त्रीजा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४४१॥
उद्देशक ४.
६ शतके द्र (आगळना उद्देशकमां जीवनुं निरूपण कयु छे. अने हवे आ चोथा उद्देशकमां पण तेज जीवने बीजे प्रकारे निरूपता आ सूत्र कहे .) उद्देश:४ | जीवे णं भंते ! कालाएसेणं किं सपदेसे अपदेसे?, गोयमा! नियमा सपदेसे । नेरतिए णं भंते ! काला-R॥४४१।। देसेणं किं सपदेसे अपदेसे ?, गोयमा ! सिय सपदेसे सिय अपदेसे, एवं जाव सिद्धे । जीवा णं भंते ! कालादेसेणं किं सपदेसा अपदेसा?, गोयमा ! नियमा सपदेसा। नेरइया णं भंते ! कालादेसेणं किं सपदेसा अपदेसा ?, गोयमा! सव्वेवि ताव होजा सपदेसा १ अहवा सपएसा य अपदेसे य २ अहवा सपदेसा य अपदेमा य ३, एवं जाव थणियकुमारा ॥ पुढविकाइया णं भंते ! किं सपदेसा अपदेसा?, गोयमा सपदेसावि अपदेसावि, एवं जाव वणप्फइकाइया,
प्र०] हे भगवन् ! शुं जीव कालादेशवडे-कालनी अपेक्षाए सप्रदेश छे के अप्रदेश ? [उ०] हे गौतम ! जीव नियमा चोकस सप्रदेश छे. ए प्रमाणे यावत् सिद्ध सुधीना जीव माटे जाणवू. [प्र०] हे भगवन ! नैरयिक जीव कालादेशथी सप्रदेश के के अप्रदेश
छ ? [उ०] हे गौतम ! ए कदाच सप्रदेश छे अने कदाच अप्रदेश छे. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवो कालादेशथी सप्रदेश छे के अप्रदेश हा छ ? [उ०] हे गौतम ! चोकस, जीवो सप्रदेश छे.[प्र०] हे भगवन् ! शुं नैरयिक जीवो कालादेशवडे सप्रदेश छे के अप्रदेश छे? उ०]
हे गौतम ! ए नैरयिकोमा १ बधाय सप्रदेश होय, २ केटलाक सप्रदेश अने एकाद अप्रदेश अने ३ केटलाक तथा सप्रदेश केटलाक
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४४२॥
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६ शतके उद्देशः४ ॥४४२॥
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अप्रदेश; ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमार सुधीना जीवो माटे जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! शुं पृथिवीकायिक जीवो सप्रदेश छे के अप्रदेश | | छे ? [उ०] हे गौतम ! तेओ सप्रदेश पण छे अने अप्रदेश पण छे, ए प्रमाणे यावत् वनस्पतिकायिक सुधीना जीवो माटे जाणवू.
सेसा जहा नेरइया तहा जाव सिद्धा ॥ आहारगाणं जीवेगेंदियवज्जो तिय भंगो, अणाहारगाणं जीवेगिंदियवज्जा छन्भंगा एवं भाणियब्वा-सपदेसा वा १ अपएसा वा २ अहवा सपदेसे य अप्पदेसे ४.य ३ अहवा सपदेसे य अपदेसा य ४ अहवा सपदेसा य अपदेसे य ५ अहवा सपदेसा य अपदेसा य |६, सिद्धेहिं तियभंगो, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया [भवसिद्धिया जहा ओहिया, नो भवसिद्धियनोअभवसिद्धिया जीवसिद्धेहिं तियभंगो, सण्णीहिं जीवादिओ तियभंगो, असणीहिं एगिदियवजो तियभंगो, नेरइयदेवमणुएहिं छन्भंगो, नोसन्निनोअसन्निजीवमणुयसिद्धेहिं तियभंगो, सलेसा जहा ओहिया, कण्हलेस्सा नीललेस्सा काउलेस्सा जहा आहारओ नवरं जस्स अत्थि एयाओ, तेउलेस्साए जीवादिओ तिथभंगो, नवरं पुढविकाइएसु आउवणफतीसु छन्भंगा, पम्हलेससुक्कलेस्साए जीवादिओहिओ तियभंगो, अलेसीहिं जीवसिद्धेहिं तिय भंगो, मणुस्से छभंगा, सम्महिट्ठीहिं जीवाइतियभंगो, विगलिंदिएसु छन्भंगा, मिच्छदिट्ठीहिं एगिदिय| वज्जो तियभंगो, सम्मामिच्छदिट्ठीहिं छन्भंगा, संजएहिं जीवाइओ तियभंगो, असंजएहिं एगिदियवज्जो |तियभंगो, संजयासंजएहिं तियभंगो जीवादिओ, नोसंजयनोअसंजयनोसंजयासंजयजीवसिद्धेहिं तियभंगो, सकसाईहिं जीवादिओ तियभंगो, एगिदिएसु अभंगकं, कोहकसाईहिं जीवएगिदियवज्जो तियभंगो,
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देवेहिं छभंगा, माणकसाईमाया कसाई जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो, मेरतियदेवेहिं छन्भंगा, लोभकसाईहिं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो, नेरतिएमु छन्भंगा, अकसाईजीवमणुएहिं सिद्धेहिं तियभंगो, ओहियनाणे आभिणिबोहियनाणे सुयनाणे जीवादिओ तियभंगो, विगलिदिएहिं छन्भंगा, ओहिनाणे मण० केवलनाणे जीवादिओ तियभंगो, ओहिए अन्नाणे मतिअण्णाणे सुयअण्णाणे एगिंदियवज्जो तियभंगो, विभंगनाणे जीवादिओ तियभंगो, सजोगी जहा ओहिओ, मणजोगी वयजोगी काययोगी जीवादिओ तियभंगो, नवरं कायजोगी एगिंदिया तेसु अभंगकं, अजोगी जहा अलेसा, सागारोवउत्ते अणागारोवउत्ते जीवएगिंदियवज्जो तियभंगो, सवेयगा य जहा सकसाई, इत्थिवेयगपुरिसवेयगनपुंसगवेयगेसु जीवादिओ तियभंगो, नवरं नपुंमग वेदे एगिदिए अभंगयं, अवेयगा जहा अकसाई, ससरीरी जहा ओहिओ, ओरालियवेउब्वियसरीराणं जीवएगिंदिवज्जो तियभंगो, आहारगसरीरे जीवमणुएस छभंगा, तेयगकम्मगाणं जहा ओहिया, असरीरेहिं जीवसिद्धेहिं तियभंगो, आहारपज्जत्तीए सरीरपज्जत्तीए इंदियपजत्तीए आणापाणुपज्जत्तीए जीवए गिंदियवज्जो तियभंगो, भासमणपजत्तीए जहा सण्णी, आहारअपज्जत्तीए जहा अणाहारगा, सरीरअपजत्तीए इंदियअपज्जत्ती आणापाणअपज्जत्तीए जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो, नेरइयदेवमणुएहिं छन्भंगा, भासामणअपजत्तीए जीवादिओ तियभंगो, पोरइयदेवमणुएहिं छभंगा || गाहा - सपदेसा आहारगभवियसन्निलेस्मा दिट्ठी संजयकसाए । णाणे जोगुवओगे वेदे य सरीरपज्जती ॥ ४१ ॥ सूत्रं २३८)
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६ शतके
उद्देशः४
॥४४३ ॥
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व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥४४४॥
शतके उद्देशः४ ॥४४॥
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जेम नैरयिक जीवो कद्या तेम सिद्ध सुधीना बाकीना बघा जीवो माटे जाणवू. जीव अने एकेन्द्रिय वर्जीने बाकीना आहारक जीवो माटे त्रण भांगा जाणवा, अने अनाहारक जीवो माटे एकेन्द्रिय वर्जीने छ भांगा आ प्रमाणे जाणवा-१ केटलाक सप्रदेश होय, २ केटलाक अप्रदेश होय, ३ अथवा कोइ सप्रदेश होय अने कोइ अप्रदेश होय, ४ कोइ सप्रदेश होय अने केटलाक अप्रदेश होय, ५ केटलाक सप्रदेश होय अने कोइ अग्रदेश होय अने ६ केटलाक सप्रदेश होय तथा केटलाक अप्रदेश होय. सिद्धोने माटे त्रण भांगा जाणवा जेम औधिक-सामान्य जीवो कद्या तेम भवसिद्धिक-भव्य अने अभवसिद्धिक-अभव्य जीवो जाणवा. नोभवसिद्धिक तथा नोअभवसिद्धिक जीव, सिद्धोमा त्रण भांगा जाणवा. संज्ञिओमां जीवादिक त्रण भांगा जाणवा, असंझिओमां एकेन्द्रियवर्जीने त्रण भांगा जाणवा. नैरयिक, देव अने मनुष्योमा छ भांगा जाणवा. नोसंज्ञी तथा नोअसंज्ञी जीव, मनुष्य अने सिद्धोमां त्रण भांगा जाणवा. जेम सामान्य जीवो कह्या, तेम सलेश्य-लेश्यावाला जीवो जाणवा. जेम आहारक जीव कह्यो तेम कृष्णलेश्यावाळा, नीललेश्यावाला अने कापोतलेश्यावाला जीवो जाणवा, विशेष ए के, जेने जे लेश्या होय तेने ते लेश्या कहेवी. तेजोलेश्यामां जीवादिक त्रण भांगा जाणवा, विशेष ए के, पृथिवीकायिकोमां, अप्कायिकोमा अने वनस्पतिकायिकोमा छ भांगा जाणवा, पद्मलेश्यामां अने शुक्ललेश्यामां जीवादिक त्रण मांगा जाणवा, अलेश्योमां जीव अने सिद्धोमा त्रण भांगा जाणवा अने अलेय मनुष्योमा छ भांगा जाणवा. सम्यग्दृष्टिओमां जीवादिक त्रण भांगा जाणवा. विकलेन्द्रियोमा छ भांगा जाणवा. मिथ्यादृष्टिओमां एकेन्द्रिय वर्जीने त्रण भांगा जाणवा. सम्यग्मिथ्यादृष्टिओमां छ भांगा जाणवा. संयत जीवोमां जीवादिक त्रण भांगा जाणवा. असंयतोमा एकेन्द्रिय वर्जीने त्रण भांगा जाणवा, संयतासंयतोमा जीवादिक त्रण भांगा जाणवा. नोसंयत नोअसंयत अने नोसंयता
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RECA
संयतोमां-जीव सिद्धोमांत्रण भांगा जाणवा. सकपायोमां-कषायवाळाओमां जीवादिकत्रण भांगा जाणवा. अने सकषाय एकेन्द्रियोनां व्याख्या
अभंगक-त्रण भांगा नथी पण एक भांगो छे, क्रोध कपायिओमां जीव अने एकेन्द्रिय वर्जी त्रण भांगा जाणवा. देवोमा छ प्रज्ञप्तिः
M६शतके भांगा, मानकषायवाळमां, मायाकपायवाळामा जीप अने एकेन्द्रिय वर्जीने त्रण भांगा जाणवा, नैरयिक अने देवोमा छ भांगा ॥४४॥
उद्देशा४ | जाणवा. लोभकषायवाळाओमा जीव अने एकेन्द्रिय वर्जीने त्रण भांगा जाणवा. नैरयिकोमा छ भांगा जाणवा. अकषायिमां जीव,
॥४४॥ मनुज अने सिद्धोमा त्रण मांगा जाणवा. ओधिक ज्ञानमां, आभिनिबोधिक-ज्ञानमां, श्रुतज्ञानमां, जीवादिक त्रण भांगा जाणवा.
| विकलेंन्द्रियोमा छ भांगा जाणवा. अवधिज्ञानमां, मनःपर्यवज्ञानमां अने केवलज्ञानमां जीवादिक त्रण भांगा जाणवा. औधिक Gअज्ञानमां, मतिअज्ञानमा अने श्रुतअज्ञानमां एकेन्द्रिय वर्जीने त्रण भांगा जाणवा. विभंगज्ञानमा जीवादिक त्रण भांगा जाणवा,
जेम औधिक कह्यो तेम संयोगी जाणवो. मनयोगी, वचनयोगी अने काययोगिमा जीवादिक त्रण भांगा जाणवा. विशेष ए के, एकेन्द्रिय जीवो काययोगवाला छे अने तेओमां अभंगक जाजा भांगा नथी पण एक मांगो छे. जेम अलेश्यो कह्या तेम अयोगिजीवो जाणवा. साकार उपयोगवाळामां अने अनाकार उपयोगवाळामां जीव तथा एकेन्द्रिय वर्जीने त्रण भांगा जाणवा. जेम सकपायी-कपायवाला कह्या तेम सवेदक-वेदवाळा जीवो जाणवा स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक अने नपुंसकवेदकोमा जीनादिक त्रण भांगा जाणवा, विशेप ए के, नपुसक वेदमां एकेन्द्रियो माटे अभंगक जाजा भांगा नथी पण एक भांगो छे. जेम अकषायी कपायरहित जीवो कह्या तेम अवेदक-वेदविनाना जीवो जाणवा जेम औधिक-सामान्य जीव कह्या तेम सशरीरी-शरीरवाला जीवो जाणवा. औदारिक अने वैक्रिय शरीरवाळा मारे जीव तथा एकेन्द्रिय वर्जीने त्रण मांगा जाणवा. आहारक शरीरमां जीव अने मनुष्यमा छ
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
६ शतके उद्देशः४ ॥४४६॥
॥४४६॥
AA
भांगा जाणवा, जेम औधिक कह्या तेम तैजस अने कार्मण ( शरीरवाळा जीवो) जाणवा. अशरीरी-जीव अने सिद्ध माटे त्रण भांगा जाणवा. आहारपर्याप्तिमां, शरीरपर्याप्तिमा, इन्द्रियपर्याप्तिमा अने आनप्राणपर्याप्तिमा जीव अने एकेन्द्रिय वर्जी त्रण भांगा जाणवा. जेम संज्ञी जीवो कद्या तेम भाषा अने मनःपर्याप्ति संबंधे जाणवू, जेम अनाहारक जीवो कह्या तेम आहार पर्याप्ति विनाना जीवो विषे समजवू. शरीरनी अपर्याप्तिमां, इंद्रियनी अपर्याप्तिमां अने आणप्राणनी अपर्याप्तिमा जीव अने एकेंद्रिय वर्जी त्रण मांगा ६ जाणवा. नैरयिक, देव अने मनुष्योमा छ भांगा जाणवा. भाषानी अपर्याप्तिमा अने मननी अपर्याप्तिमा जीवादिक त्रण मांगा दी जाणवा. नैरयिक, देव अने मनुष्योमा छ भांगा जाणवा. संग्रहगाथा आ प्रमाणे छे:-सप्रदेशो, आहारक, भव्य, संज्ञी, लेश्या, दृष्टि, संयत, कषाय, ज्ञान, योग, उपयोग, वेद, शरीर अने पर्याप्ति ए द्वारो छे. ।। २३८॥
जीवा णं भंते ! किं पञ्चक्खाणी अपच्चक्खाणी पञ्चक्खाणापच्चक्खाणी ?, गोयमा ! जीवा पच्चक्खाणीवि अपञ्चक्खाणीवि पञ्चक्खाणापञ्चक्खाणीवि । सव्वजीवाणं एवं पुच्छा, गोयमा! नेरइया अपञ्चक्खाणी जाव चउरिंदिया. सेसा दो पडिसेहेयब्वा, पंचेंदियतिरिक्खजोणिया नो पच्चक्खाणी अपञ्चक्खाणीवि पञ्चक्खाणापञ्चक्खाणोवि, मणुस्सा तिन्निवि, सेसा जहा नेरतिया ॥ जीवा णं भंते! किं पच्चक्खाणं जाणंति, अपच्च| क्खाणं जाणंति, पञ्चक्खाणापच्चक्खाणं जाणंति ?, गोयमा ! जे पंचेंदिया ते तिन्निवि जाणंति, अवसेसा पच्च|क्खाणं न जाणंति ३ ॥ जीवा णं भंते ! किं पच्चक्खाणं कुव्वंति अपञ्चकखाणं कुवंति पचक्खाणापच्चक्खाणं कुवंति ?, जहा ओहिया तहा कुब्वणा || जीवा णं भंते ! किं पञ्चक्खाणनिब्बत्तियाउया अपञ्चक्खाणणिक
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥४४७॥
६ शतके उद्देशः४ ॥४४७॥
| पञ्चक्खाणापञ्चक्खाणनि?, गोयमा! जीवा य वेमाणिया य पञ्चक्खाणणिव्वत्तियाउया तिन्निवि, अव| सेसा अपच्चक्खाणनिव्वत्तियाउया ॥ पञ्चक्खाणं १ जाणइ २ कुन्वति३ तिन्नेव आउनिव्वत्ती ४। सपदेसुद्देसंमि य एमेए दंडगा चउरो॥ ४२ ॥ (सूत्रं २३९) ॥ सेवं भंते ! सेवं भंते । त्ति छठे सए चउत्थो उद्दसो।। ६-४ ॥
[प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवो प्रत्याख्यानी छ ? अप्रत्यख्यानी छ ? के प्रत्याख्यानप्रत्याख्यानी छ ? [उ.] हे गौतम ! जीवो | प्रत्याख्यानी पण छे, अप्रत्याख्यानी पण छे अने प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी पण छे. [प्र०] ए प्रमाणे बधा जीवो माटे प्रश्न करवो? [उ.] हे गौतम ! नैरयिको अप्रत्याख्यानी छे, ए प्रमाणे यावत् चररिद्रिय सुधीना जीवो अप्रत्याख्यानी कहेवा अर्थात् तेओने माटे बाकीना बे-प्रत्याख्यानी अने प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी-भांगा प्रतिषेधवा, पंचेद्रियतिर्यंचयोनिको प्रत्याख्यानी नथी पण अप्रत्याख्यानी छे अने प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी छे अने मनुष्योने त्रणे भांगा होय छे तथा बाकीना जीवो, जेम नैरयिको कह्या तेम कहेवा. [प्र.] हे भगवन् ! शुं जीवो प्रत्याख्यानने जाणे छे अप्रत्याख्यानने जाणे छ ? के प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानने जाणे छे ? [उ०] हे गौतम ! जे पंचेंद्रियो छे ते त्रणेने पण जाणे छे, बाकीना जीवो प्रत्याख्यानने जाणता नथी. अप्रत्याख्यानने जाणता नथी अने(प्रन्याख्याना| प्रत्याख्यानने जाणता नथी.) [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवो प्रत्याख्यानने करे छे ? अप्रत्याख्यानने करे छे ? के प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानने करे छे ? [उ०] हे गौतम ! जेम औधिक दंडक कह्यो तेम प्रत्याख्याननी क्रिया-प्रत्याख्याननुं करवू पण जाणी लेबु. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीयो प्रत्याख्यानथी निवर्तित आयुष्यवाला छे एटले शुं जीवोनुं आयुष्य प्रत्याख्यानथी बंधाय छ ? अप्रत्याख्यानथी बंधाय छ ? के प्रत्यारयानाप्रत्याख्यानथी बंधाय छे ? [उ०] हे गौतम ! जीवो अने वैमानिको प्रत्याख्यानथी निवर्तितः ।
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥४४८ ॥
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आयुष्यवाळा छे, त्रणे पण छे अप्रत्याख्यानथी निवर्तित आयुष्यवाळा छे अने प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानथी निवर्तित आयुष्यवाळा छे अने बाकीना अप्रत्याख्यानथी निवर्तित आयुष्यवाळा छे. संग्रहगाथा कहे छे:- प्रत्याख्यान प्रत्याख्यानने जाणे, (प्रत्याख्यान ने) करे, त्रणेने (जाणे अने करे) आयुष्यनी निर्वृत्ति, सप्रदेश उद्देशक्रमां ए चार दंडको छे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे एम कही यावत् विहरे छे. ।। २३९ ।।
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमूत्रना छट्टा शतकमां चोथा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
उद्देशक ५.
आगळना उद्देशकमा सप्रदेश जीवो कया, हवे सप्रदेश एवाज तमस्कायादिकने कहेवा पंचम उद्देशक कहे थे.
किमियं भंते! तमुक्कापत्ति पवुच्चइ किं पुढवी तमुक्काएत्ति पबुच्चति आऊ तमुक्काएति पचति ? गोयमा ! नो पुढवी तमुक्काएति पचति, आऊ तमुक्कापत्ति पवुञ्चति । से केणट्टेणं० १, गोयमा ! पुढविकाए णं अत्थेगतिए सुभे देस पकासेति, अत्थेगइए देसं नो पकासेह, से तेणद्वेण० । तमुक्काए णं भंते ! कहिँ समुट्ठिए कहि संनिट्ठिए ?, गोयमा ! जंबुद्दीवस्म २ बहिया तिरियमसंखेजे दीवसमुद्दे वीईवतित्ता अरुणवरस्स दीवस्स बाहिरिल्लाओ वेतियन्ताओ अरुणोदयं समुदं बायालीसं जोयणसहस्साणि ओगाहित्ता उवरिल्लाओ जलंताओ एगपदेसियाए सेढीए इत्थ णं तमुक्काए समुट्ठिए, सत्तरस एकवीसे जोयणसए उड्ढं उप्पइत्ता तओ
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६ शतके
उद्देशः ५ ||४४८ ।।
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥४४९॥
पच्छा तिरियं पवित्थर नाणे २ मोहम्मीसाणसणकुमारमाहिंदे चत्तारिवि कप्पे आवरित्ताण उड्दपि य णंजाव बंभलोगे कप्पे रिट्ठविमाणपत्थडं संपत्ते एत्थ णं तमुकाए णं संनिहिए ॥
६ शतके | [प्र०] हे भगवन् ! आ तमस्काय शु कहेवाय ? शुं पृथिवी तमस्काय ए प्रमाणे कडेवाय ? शुं पाणी तमस्काय ए प्रमाणे उद्देशः कद्देवाय ? [उ०] हे गौतम ! पृथिवी, 'तमस्काय' ए प्रमाणे न कहेवाय, पण पाणी, 'तमस्काय' ए प्रमाणे कडेवाय. [प्र.] हे ॥४५९॥ भगवन ! ते शा हेतुथी ? [उ०] हे गौतम ! केटलोक पृथिवी काय एवो शुभ , जे देशने भागने प्रकाशित करे के अने केटलोक पृथिवीकाय एवो छे, जे देशने प्रकाशित नथी करतो, ते हेतुथी पूर्वोक्त प्रमाणे कहेवाय. [प्र०] हे भगवन् ! तमस्काय क्या सप्नुस्थित छे क्याथी शरू छे अने क्यां संनिष्ठित छे क्या तेनो अत छ ? [उ०] हे गौतम ! जंबुद्वीप नामना द्वीपनी बहार तिरछे असंख्य द्वीप समुद्रोने उल्लंध्या पछी अरुणवर बहार आवे छे, ते द्वीपनी बहारनी वेदिकाना अतथी अरुणोदय समुद्रने ४२ हजार योजन अवगाहीए त्यारे उपरितन जलांत आवे छे, ते उपरितन जलांतथी एक प्रदेशनी श्रेणीए अहीं तमस्क य समुस्थित छे, ते त्यांची | समुत्थित थइ १७२१ योजन उंचो जइ त्यांथी पाछो तिरछो विस्तार पामतो विस्तार पामतो सोधर्म, ईशान, सनत्कुमार || | अने माहेंद्र ए चारे कल्पोने पण आच्छादीने उंचे पण ब्रह्मलोककल्पमा रिष्टविमानना पाथडा सुधी संप्राप्त पहोंच्यो छे अने त्यां तमस्काय संनिविष्ट छे.
तमुक्काए णभंते! किंसंठिए पन्नत्ते, गोयमा! अहे मल्लगमूलसंठिए उप्पि कुक्कुडगपंजरगसंठिए पण्णत्ते,तमुक्काए |णं भंते ! केवतियं विखंभेणं केवतियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ?, गोयमा! दुबिहे पण्णते, तंजहा-संखेचवित्थडे य|
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P-44-
4xx
६ शतके उद्देशः ५ ॥४५॥
असंखेज वित्थडे थ,तत्थ णं जे से संखेजवित्थडे से णं संखेजाई जोयणसहस्माइं विकावंभेणं असंखेजाई जोयणव्याख्या
सहस्साइं परिक्खेवेणं प०,तत्थ गंजे से असंविजवित्थडे से णं असंखेजाई जोयणमहस्साई विक्खभेणं असंप्रज्ञप्तिः
खेजाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्तो । नमुकाए णं भंते! केमहालए प०?, गोयमा! अयं णं जंबुद्दीवे २] ॥४५०॥ सव्वदीवसमुद्दाणं सबभंतराए जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ते ॥ देवे णं महिड्ढीए जाव महाणुभावे इणामेव २.
त्तिक? केवलकप्पं जंबुद्दीव २ तीहिं अच्छरानिवाएहिं तिसत्तखुत्तो अणुपरियहित्तार्ण हव्वमागच्छिन्ना, से णं देवे ताए उक्किट्ठाए तुरियाए जाव देवगईए वीईवयमाणे २ जाव एकाहं वा दुयाहं वा तीयाहं वा उकोसेणं
छम्मासे बीतीवएजा अत्थेगतियं तमुक्कायं बीतीवएजा, अत्थेगतियं नो तमुक्काय बीतीवजा, एमहालए णं 8|गोयमा ! तमुक्काए पन्नत्ते । FI [प्र०] हे भगवन् ! तमस्काय किंसंस्थित छ एटले तमस्कायर्नु संस्थान आकार जेवू का छे. [उ०] हे गौतम ! तमस्काय,
नीचे, मल्लकमूल-कोडीआना नीचेना भागना आकारवाळो कयो छे अने उपर, कुकडाना पांजराना जेवा आकारवाळो कयो छे. [प्र.] हे भगवन् ! तमस्काय विष्कंभवडे कटलो कद्या छे अने परिक्षेपवडे केटलो कह्यो छे? [उ०] हे गौतम ! तमस्काय वे प्रकारनो |
कह्यो छे; एक तो संख्येय विस्तृत अने बीजो असंख्येय विस्तृत, तेमां जे ले संख्येय विस्तृत छे ते विष्कंभवडे संख्येय योजन सहस्र है कया छे अने परिक्षेपवडे असंख्येय योजन सहस्र कया छे अने तेमां जे ते असंख्येय विस्तृत छे ते असंख्येय योजन सहस्र विष्कंभ
वडे कयो छे अने असंख्येय योजन सहस्र परिक्षेपवडे करो छे. [प्र०] हे भगवन् ! तमस्काय केटलो मोटो कयो छे ? [उ०] हे |
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥४५१॥
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गौतम ! सर्वद्वीप अने समुद्रोनी सर्वाभ्यंतर आ जंबूद्वीप नामनो द्वीप यावत् परिक्षेपवडे को छे कोइ मोटी ऋद्धिवाको यावत् महानुभाव देव 'आ चाल्यो' एम करीने त्रण चपटी वागतां एकवीशवार ते संपूर्ण जंबूदीपने फरीने शीघ्र आवे, ते देव तेनी उत्कृष्ट अने त्वराचाळी यावत् देवगतिवडे जतो जतो यावत् एक दिवस, वे दिवस या त्रण दिवस चाले अने वधारेमां बधारे छ महीना चाले तो कोइ एक तमस्काय सुधी पहोंचे अने कोइ एक तमस्काय सुधी न पहोंचे, हे गौतम! एटलो मोटो तमस्काय को छे.
अस्थि णं भंते! तमुक्काए गेहाति वा गेहावणाति वा ? णो तिणट्टे समट्टे, अत्थि णं भंते !, तमुका गामात वा जाव संनिवेसाति वा?, णो तिणट्टे सम । अस्थि णं भंते ! तमुक्काए ओराला बलाहया संसंयंति संमुच्छंति संवासंति वा ?, हंता अस्थि, तं भंते! किं देवो पकरेति असुरो पकरेति नागो पकरेति ?, गोयमा ! देवोवि पकरेति असुरोवि पकरेति नागोवि पकरेति । अस्थि णं भंते ! तमुक्काए बादरे | थणियस बारे विज्जुए १, हंता अस्थि, तं भंते! किं देवो पकरेति ? ३, तिन्निवि पकरेति ? अस्थि णं भंते ! तमुक्काए वायरे पुढविकाए बादरे अगणिकाए ?, णो तिणट्ठे समट्ठे, णण्णत्थ विग्गहगतिसमावन्नणं । अस्थि णं भंते! तमुक्काए चंदिमसूरियगगणणक्खत्ततारारूवा ?, णो तिणट्टे समट्ठे, पलियस्मतो पुण अस्थि । अस्थि णं भंते ! तमुक्काए चंदाभाति वा सूराभाति वा?, णो तिणट्ठे समट्ठे, कादूसणिया पुण सा । तमुक्काए णं भंते ! केरिए वन्नेणं पण्णत्ते?, गोयमा! काले कालावभासे गंभीरलोमहरिसजणणे भीमे उत्तासणए परम किण्हे वन्नेणं पण्णत्ते, देवेविणं अत्थेगतिए जे णं तपढमयाए पसित्ता णं खुभाएजा, अहे णं अभिसमागच्छेजा तओ
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उद्देश:५
॥४५१ ।।
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४५२॥
६ शतके उद्देशः ५
॥४५२।।
444-
4AKAL
पच्छा सीहं २ तुरियं २ खिप्पामेव वीतीवएज्जा ॥
[प्र.] हे भगवन् ! तमस्कायनां घर छे के गृहापण छे! [उ०] हे गौतम : ते अर्थ समर्थ नथी. [प्र०] हे भगवन् ! तमस्कादायमां गाम छे के यावत् संनिवेशो छ ? [उ०] हे गौतम ! ते अर्थ समर्थ नथी. [प्र०] हे भगवन : तमस्कायमा उदार मोटा मेघ
संखेद पामे छे ? संमृर्छ छे ? अने वर्षण वरसे छे ? [उ०] हे गौतम ! हा, तेम छे. [प्र.] हे भगवन् ! शुं तेने देव करे छे ? असुर करे छे ? के नाग करे छे ? [उ०] हे गौतम ! देव पण करे छे ? असुर पण करे छे, अने नाग पण करे छ. [प्र०] हे भगवन् ! तमस्कायमा बादर स्तनितशब्द छ ? अने बादर विजळी छ ? [उ०] हा, छे. [प्र.] हे भगवन् ! शुं तेने देव या असुर या नाग करे छ ? [उ०] हे गौतम!त्रणे पण करे छे. [प्र०] हे भगवन् ! तमस्कायमा बादर पृथिवीकाय छ ? अने बादर अग्निकाय छे ? [उ.] हे गौतम! ते अर्थ समर्थ नथी. अने आ जे निषेध छे ते विग्रहगतिसमापन्न सिवाय समजबो अर्थात् विग्रहगति समापन्न चादर पृथिवी अने अग्नि होइ शके छे. [प्र०] हे भगवन् ! तमस्कायमां चंद्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र अने तारारूपो छे? [उ०] हे गौतम ! ते अर्थ समर्थ नथी, पण ते चंद्रादि, तमस्कायनी पडखे छे. [प्र०] हे भगवन् ! तमस्कायमां चंद्र नी प्रभा के सूर्यनी प्रभा होय छे ? [उ०] हे गौतम ! ते अर्थ समर्थ नथी, कारण के, ते प्रभा तमस्कायमा छे पण कादृषणिका-पोताना आत्माने दुषित | करनारी छे. [प्र०] हे भगवन् ! तमस्काय वर्णथी केवो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! वर्णवडे तमस्काय काळो, काळी कांतिबाळो, गंभीर, रुवाटा उभा करनार, भीम, उत्कंपनी हेतु अने परमकृष्ण कह्यो छे, अने ते तमस्कायने जोइने, जोतां वारज केटलाक देव पण क्षोभ पामे,अने कदाच कोइ देव तमस्कायमा प्रवेश करे तो पछी शरीरनी त्वराथी अने मननी त्वराथी जलदी ते तमस्कायने उल्लंघी जाय.
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४५३॥
- तमुक्कायस्स ण भंते ! कति नामधेना पण्णत्ता ?, गोयमा ! तेरस नामधेजा पण्णत्ता, तंजहा-तमेति वा तमुक्काएति बा अंधकारेइ वा महांधकारेइ वा लोगंधकारेह वा लोगतमिस्सेइ वा देवंधकारेति वा देवतमिस्सेति- ६ शतके वा देवारन्नेति वा देवाहेति वा देवफलिहेति वा देवपडिक्खोभेति वा अरुणोदएत्ति वा समुहे ।। तमुक्काए णं भंते ! | उद्देश: | किं पुढवीपरिणामे आउपरिणामे जीवपरिणामे पोग्गलपरिणामे ?, गोयमा! नो पुढविपरिणामे, आउपरिणामेविल॥४५३॥ जीवपरिणामेवि पोग्गलपरिणामेवि । तमुक्काए णं भंते ! सव्वे पाणा भूया जीवा मत्ता पुढविकाइत्ताए जाव तसकाइयत्ताए उववन्नपुब्बा ?, हंता गोयमा ! असतिं अदुवा अणतखुत्तो, णो चेव ण यादरपुढविकाइयत्ताए | बादरअगणिकाइत्ताए वा ।। ( सूत्रं २४०)॥
[प्र०] हे भगवन् ! तमस्कायनां नामो केटलां कह्यां छे ? [उ०] हे गौतम ! तमस्कायनां तेर नामो कहां छे, ते जेमके १ 8| तम, २ तमस्काय, ३ अंधकार, ४ महांधकार, ५ लोकांधकार, ६ लोकतमिस्र, ७ देवांधकार, ८ देवतमिस्र, ९ देवारण्य, १० देव
व्युह, ११ देवपरिघ, १२ देवप्रतिक्षोभ अने १३ अरुणोदक समुद्र. [प्र०] हे भगवन् ! तमस्काय शुं पृथिवीनो परिणाम जे? पाणीनो परिणाम छे ? जीवनो परिणाम छे के पुद्गलनो परिणाम छे. [उ०] हे गौतम ! तमस्काय पृथिवीनो परिणाम नथी, पाणीनो पण परिणाम छे, जीवनो पण परिणाम छे अने पुद्गलनो परिणाम छे. [प्र०] हे भगवन् ! तमस्कायमा सर्व प्राणो, भूतो, जीवो अने सत्वो पृथिवीकायपणे यावत् त्रसकाथिकपणे उपन्नपूर्व-पूर्वे कहेला उपज्यां छे ? [उ. हे गौतम ! हा, अनेकवार अथवा अनंतवार पूर्वे उत्पन्न थया छे पण बादर पृथिवी कायपणे अने बादर अग्निकायिकपणे नथी थया. ॥ २४ ॥
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कति णं भंते ! कण्हराईओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! अट्ट कण्हराईओ पण्णत्ताओ। कहि णं भंते ! एयाओ| व्याख्या
६ शतके अट्ट कण्हराईओ पण्णत्ताओ?, गोयमा ! उपि सणंकुमारमाहिंदाणं कप्पाणं हिटुं बंभलोए कप्पे रिढे विमाणे 31 प्रज्ञप्तिः पत्थडे, एत्थ णं अक्खाडगसमचउरंससंठाणसंठियाओ अट्ठ कण्हरातीओ पण्णत्ताओ. तंजहा-पुरच्छिमेणं
| उद्देशः ५ ॥४५४॥ दो पञ्चत्थिमेणं दो दाहिणेणं दो उत्तरेणं दो, पुरच्छिमभंतरा कण्हराई दाहिणं बाहिरं कण्हरातिं पुट्ठा, दा- ॥४५४॥
| हिणभंतरा कण्हराती पञ्चत्यिमबाहिरं कण्हराइं पुट्ठा, पचत्थिमभंतरा कण्हराई उत्तरबाहिरं कण्हरातिं पुट्ठा, उत्तरमभंतरा कण्हराती पुरच्छिमबाहिरं कण्हरातिं पुट्ठा, दो पुरच्छिमपञ्चत्थिनाओ बाहिराओ कण्हरातीओ छलसाओ, दो उत्तरदाहिणबाहिराओ कण्हरातीओ तंसाओ, दो पुरच्छिमपञ्चत्थिमाओ अभितराओ ४ कण्हरातीओ चउरंसाओ, दो उत्तरदाहिणाओ अभितराओ कण्हरातीओ चउरंसाओ, 'पुवावरा छलंसा दासा पुण दाहिणुत्तरा वज्झा । अन्भंतर चउरंसा सव्वावि य कण्हरातीओ ॥४३॥'
प्र०] हे भगवन् ! कृष्णराजिओ केटली कही छे ? [उ.] हे गौतम ! आठ कृष्णराजिओ कहेली छे. [प्र०] हे भगवन् ! ए KI आठ कृष्णराजिओ क्यां आवेली कही छे' [उ०] हे गौतम ! उपर सनत्कुमार माहेन्द्रकल्पमा अने नीचे ब्रह्मलोककल्पमां (अ)रिष्ट | विमानना पाथडामा छ अर्थात् ए ठेकाणे अखाडानी पेठे समचतुरस्र-चोखंडे संस्थाने संस्थित एवी आठ कृष्णराजिओ कहेली छे, | ते जेमके, वे कृष्णराजि पूर्वमां, वे कृष्णराजि पश्चिममां, वे कृष्णराजि दक्षिणमां अने बे कृष्णराजि उत्तरमां, ए प्रमाणे आठ कृष्ण| राजिओ कही छे, पूर्वाभ्यंतर कृष्णराजि दक्षिणबाह्य कृष्णराजिने स्पर्शेली छे, दक्षिणाभ्यंतर कृष्णराजि पश्चिमबाह्य कृष्णराजिने स्प
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४५॥
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शैली छे, पश्चिमभ्यंतर कृष्णराजि उत्तरबाह्य कृष्णराजिने स्पर्शेली छे अने उत्तराभ्यंतर कृष्णराजि पूर्वबाह्य कृष्णराजिने स्पर्शेली छे, पूर्वनी अने पश्चिमनी बे बाद्य कृष्णराजिओ पडंशा छ खूणी छे, उत्तरनी अने दक्षिणनी बे बाद्य कृष्णराजिओ बांसी त्रिखूणी छे,
P६ शतके पूर्वनी अने पश्चिमनी वे अभ्यंतर कृष्णराजिओ चउरंस--चोरस चोखंडी छे अने उत्तरनी अने दक्षिणनी बे अभ्यंतर कृष्णराजिओ उद्देशः५ पण चउरंस चोखंडी छे. कृष्णराजिओना आकारोने लगती आ गाथा कहे छे:-पूर्वनी अने पश्चिमनी कृष्णराजि छ खूणी छे, वळी, ॥४५५॥ दक्षिणनी अने उत्तरनी बाह्य कृष्णराजि त्रिखूणी छे, अने वीजी बधी पण अभ्यंतर कृष्णराजि चोरस छे.
कण्हराईओ णं भंते ! केवतियं आयामेणं केवतियं विक्खंभेणं केवतियं परिक्खेवेणं पण्णत्ता ?, गोयमा! असंखेज्जाई जोयणसहस्साई आयामेणं, असंखेजाई जोयणसहस्साई विक्खंभेणं, असंखेजाइं जोयणसहस्साई
वातावमण कपात वणवालय पारक परिक्खेवेणं पण्णत्ताओ। कण्हरातीओ णं भंते ! केमहालियाओ पण्णत्ता ?, गोपमा! अयण जंबुद्दीवे २ जाव | अद्धमासं बीतीवएज्जा अत्थेगतियं कण्हराती वीतीवएज्जा अत्थेगइयं कण्हराती णो बीतीवएजा, एमहालियाओ णं गोयमा ! कण्हरातीओ पण्णत्ताओ। अस्थि णं भंते ! कण्हरातीसु गेहाति वा गेहावणाति वा ?, नो तिणढे समझे । अत्थि णं भंते ! कण्हरातील गामाति वा०?, णो तिणढे समझे । अत्यि णं भंते ! कण्ह० ओराला बलाइया संभुच्छंति ३ ?, हंता अस्थि,
प्राहे भगवन् ! कृष्णराजि, आयामबडे केटली कही छे ? विष्कंभवडे केटली कही छे अने परिक्षेपवडे केटली कही छे ।। उका हे गौतम ! कृष्णराजिओनो आयाम, असंख्येय योजन सहस्र छे, विष्कंभ, संख्येय योजन सहस छे अने परिक्षेम तो
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प्रचप्तिःणको
असंख्येय योजन सहस्र छे, [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णराजिओ केटली मोटी कही छे ? [उ०] हे गौतम ! एक विपळ जेटला वखतमां* व्याख्याFeaturaMINS पण कोई देव जंबूद्वीपने एकवीश वार फरी आवे अने एवीज शीघ्रतम गतिवडे जो लागलागट अडधो मास चालवामां आवे तोपण
६ शतके (ए देवथी ) कोइ कृष्णराजि सुधी पहोंचाय अने कोइ कृष्णराज सुधी न पहोंचाय अर्थात् हे गौतम ! कृष्णराजि एटली कही छे.
उद्देशः ५ ॥४५६॥ [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णराजिओमा गृहो अने गृहापणो छ ? [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी अर्थात् गृहो विगेरे नथी. ॥४५६॥
[प्र.] हे भगवन् ! कृष्णराजिओमां गामो वगेरे छे ? [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नयी अर्थात् नथी. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णराजिओमा मोटा मेघो संखेदे छे, संमूछे छे अने वरसाद वरसे छे ? [उ०] हे गौतम ! हा, छे अर्थात् ए प्रमाणे प्रश्नमां कह्या प्रमाणे थाय छे.
तं भंते ! किं देवो ५० ३१, गो. देवो पकरेति, नो सुरो नो नागोय। अत्थि णं भंते ! कण्ह| राईसु वादरे थणियसद्दे जहा ओराला तहा । अत्थि णं भंते ! कण्हराईए बादरे आउकाए बादरे अगणिकाए | बायरे वणप्फइकाए ?, णो तिणढे समहे, णण्णत्व विग्गहगतिसमावन्नएणं । अस्थि णं. चंदिमसूरिय ४ १० , णो तिण। अत्थि णं कण्ह. चंदाभाति वा २१, णो तिणढे समढे । कण्हरातीओणं भंते ! केरिसयाओ वन्नेणं पन्नत्ताओ?, गोयमा! कालाओ जाव खिप्पामेव बीतीवएजा। कण्हरातीओणं भंते ! कति नामधेना पण्णत्ता ?, गोयमा! अट्ठ नामधेजा पण्णत्ता, तंजहा-कण्हरातित्ति वा मेहरातीति वा मघावती (घे)ति वा माघवतीति वा वायफलिहेति वा वायपलिक्खोभेइ वा देवफलिहेइ वा देवपलिक्खोभेति वा । कण्हरा
SAGARKARINA
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न्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४५७||
ESSAAGARRAKAR
तोओ णं भंते ! किं पुढविपरिणामाओ आउपरिणामाओ जीवपरिणामाओ पुग्गलपरिणामाओ?, गोयमा ! पुढविपरिणामाओ, नो आउपरिणामाओ,जीवपरिणामओवि पुग्गलपरिणामाओवि । कण्हरातीसु णं भंते! सब्वे P६ शतके पाणा भूया जीवा सत्ता उववन्नपुव्वा ? हंता गोयमा! असई अदुवा अणंतखुत्तो, नो चेव णं बादरआउकाइय- उद्देशः५ त्ताए वा बादरअगणिकाइयत्ताए वा बादरवणप्फतिकाइयत्ताए वा ( सूत्रं २४१)
॥४५७॥ [प्र०] हे भगवन् ! शुं तेने देव, असुर के नाग करे छे? [उ०] हे गौतम ! देव करे छे, असुर के नाग नथी करतो. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णराजिओमां बादर स्तनित शब्दो छे! [उ.] हे गौतम! जेम मोटा मेघो कह्या तेम जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णराजिओमां बादर अप्काय, वादर अग्निकाय अने बादरवनस्पतिकाय छे ? [उ०] हे गौतम ! ते अर्थ समर्थ नथी अने आ निषेध, विग्रहगति समापन्न जीव सिवाय वीजा जीवो माटे जाणवो. [प्र.] हे भगवन् ! कृष्णराजिओमां चंद्र, मर्य, ग्रहगण, नक्षत्र अने ताराओ छे ? | [उ०] हे गौतम ! ते अर्थ समर्थ नथी. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णराजिओमां चंदनी कांति छ ? सूर्यनी कांति छ? [उ०] हे गौतम!: ते अर्थ समर्थ नथी. [प्र.] हे भगवन् ! कृष्णराजिओ वर्णवडे केवी कही छे ? [उ०] हे गौतम ! काळी यावत् तमस्कायनी पेठे | भयंकर होवाथी देव पण एने जलदी न उल्लंधी जाय. प्र०] हे भगवन् ! कृष्णराजिनां केटलां नामधेय कयां छे? [उ०] हे गौतम ! | कृष्णराजिनां आठ नाम कह्यां छे, ते जेमके, १ कृष्णराजि, २ मेघराजि, ३ मघा, ४ माघबती, ५ वातपरिघा, ६ वातपरिक्षोभा, | | ७ देवपरिघा अने ८ देवपरिक्षोभा. [प्र०] हे भगवन् ! शुं कृष्णराजि पृथ्वीनो परिणाम छे ? जलनो परिणाम छे ? जीवनो परिणाम छ ? के पुद्गलनो परिणाम छ ? [उ०] हे गोतम ! कृष्णराजि पृथ्वीनो परिणाम छे पण जलनो परिणाम नथी. तथा जीवनो पण
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व्याख्या प्रज्ञप्ति ॥४५८॥
श६ शतके उद्देशः ५
॥४५८॥
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परिणाम छे अने पुद्गलनी पण परिणाम छे. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णराजिमां सर्व प्राणो, भूतो, जीवो अने सच्चो पूर्व उत्पन्न थियेला छे ? [उ०] हे गौतम ! अनेकवार अथवा अनंतवार उत्पन्न थया छे, पण बादर अप्कायपणे, बादर अग्निकायपणे, अने बादर | वनस्पतिकायिकपणे उत्पन्न थया नथी. ॥ २४१ ॥ ____ एतेसि णं अट्ठण्हं कण्हराईणं अट्ठसु उवासंतरेसु अट्ट लोगंतियविमाणा पण्णत्ता, तंजहा-१अची२अचिमाली | ३वइरोयणे४पभकरे चंदाभेसूरामे सुक्काभेटसुपतिवाभे९मज्झे रिट्ठाभ। कहि णं भंते!अचीविमाणे प०?,गोयमा! उत्तरपुरच्छिमेणं, कहि णं भंते ! अचिमालीविमाणे प०१, गोयमा! पुरच्छिमेणं, एवं परिवाडीए नेयव्वं जाव कहि णं भंते ! रितु विमाणे पण्णत्ते?, गोयमा ! बहुमज्झदेसभागे। एएमु णं अट्ठसु लोगंतियविमाणेसु अट्ठ विहा लोगतियदेवा परिवसंति, तंजहा-सारस्सयमाइच्चा वण्ही वरुणा य गहतोया य। तुसिया अव्वाबाहा अग्गिच्चा चेव रिट्ठा य॥४४॥ कहि णं भंते ! सारस्सया देवा परिवसंति ?, गोयमा! अच्चिविमाणे परिवसंति,
कहिणं भंते ! आदिच्चा देवा परिवसति?, गोधमा! अचिमालिविमाणे, एवं नेयव्वं जहाणुपुब्बीए जाव ४ कहि णं भंते ! रिट्ठा देवा परिवसति ?, गोयमा! रिट्ठविमाणे ॥
ए आठ कृष्णराजिओना आठ अवकाशान्तरमा आठ लोकांतिक विमानो (आवेलां ) कह्यां छे. ते जेमके; १ अर्ची, २ अर्चिमाली, ३ वैरोचन, ४ प्रभंकर, ५ चन्द्राभ, ६ सूर्याभ, ७ शुक्राभ, आठमु सुप्रतिष्टाभ अने वचमा रिटाभ विमान छे. [म.] हे भगवन् ! अर्ची विमान क्या कह्यु छ ? [उ०] हे गौतम ! उत्तरनी अने पूर्वनी बचे अर्ची विमान का छे. [प्र०] हे भगवन् !
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Bi६ शतके
न्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४५॥
| उद्देश ४५९॥
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अर्चिमाली विमान क्या कह्यु छ ? [उ.] हे गौतम ! पूर्वमां अर्चिमाली विमान कह्यं छे? ए प्रमाणे क्रमथी अधां विमानो माटे जाणवू यावत्- [प्र०] हे भगवन् ! रिष्टविमान क्यां कहां छे? [उ०] हे गौतम ! बहुमध्यभागमा रिटविमान कहुं छे, ए आठे लोकांतिक विमानोमा आठ जातना लोकांतिक देवो रहे छे, ते जेमके, १ सारस्वत, २ आदित्य, ३ वहि, ४ वरुण, ५ गदेतोय, ६ तुषित, ७ अव्याबाध, अने ८ आग्नेय तथा वचमा रिष्ट देव छे. [म.] हे भगवन् ! सारस्वत देवो क्यां रहे छे ? [उ०] हे गौतम ! सारस्वत देवो अर्ची विमानमा रहे छे. [प्र०] हे भगवन् ! आदित्य देवो क्या रहे छे ? [उ०] हे गौतम ! आदित्य देवो अर्चिमालि विमानमा रहे छे. ए प्रमाणे यथानुपूर्वोए यावत् रिष्टविमान सुधी जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! रिष्ट देवो क्यां रहे छ ? [उ.] हे गौतम ! रिष्ट देवो रिष्ट विमानमा रहे छे.
सारस्सयमाइचाणं भंते ! देवाणं कति देवा कतिदेवसया पण्णत्ता?,गोयमा सत्त देवा सत्त देवमया परिवारो पण्णत्तो, वण्हीवरुणाणं देवाणं चउद्दस देवा चउद्दस देवसहस्सा परिवारोपण्णत्तो, गद्दतोयतुसियाणं देवाणं सत्त देवा सत्त देवसहस्सा पण्णत्ता,अवसेमाणं नव देवा नव देवमया पण्णत्ता, पढमजुगलम्मि सत्त उसयाणि बीयमि |चोइससहस्सा। तहए सत्तसहस्सा नव चेव सयाणि सेसेसु॥४५||लोगतिगविमाणाण भंते! किंपतिट्टिया पण्णत्ता, | गोयमा ! वाउपइडिया तदुभयपतिट्ठिया पण्णत्ता, एवं नेयव्वं ॥ 'विमाणाणं पतिहाणं बाहल्लुच्चत्तमेव संटाणं।' बंभलोयवत्तव्वया नेयव्वा (जहा जीवाभिगमे देवुद्देसए ) जाव हंता गोयपा ! असतिं अदुवा अणंतखुत्तो। नो चेव णं देवित्ताए। लोगंतियविमाणेसु णं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता , गोयमा ! अट्ठ
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व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥४६॥
ACCI
६ शतके उद्देशः ५ ॥४६०॥
|सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । लोगंतियविमाणेहिंतो णं भंते ! केवतियं अबाहाए लोगते पण्णत्ते ?, गोयमा Kा असंखेज्जाई जोयणसहस्साई अवाहाए लोगते पण्णत्ते । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ६-५॥ (सूत्रं २४२)॥
[प्र.] हे भगवन् ! सारस्वत अने आदित्य, ए बे देवोनो केटला देवो अने केटला देवना सेंकडाओ परिवार कयो छे ? [उ.] हे गौतम ! सात देवो अने देवना सात सेंकडाओ एटले सातसो देवो, सारस्वत अने आदित्य देवोनो परिवार छे, वहिन अने वरुण ए बे देवोनो चौद देव अने चौदहजार देव परिवार कह्यो छे, गर्दतोय अने तुपित ए बे देवोनो सात देव अने सात हजार देव | परिवार कह्यो छे, अने बाकीना देवोनो नव देव अने नवसो देव परिवार कह्यो छे. परिवारनी (संख्याने सूचवनारी गाथा कहे छेः) प्रथम युगलमा सातसोनो परिवार छे. बीजामां चौदहजारनो परिवार छे. त्रीजामा सातहजारनो परिवार छे अने चाकीनामां नवसोनो परिवार छे. [प्र०] हे भगवन् ! लोकांतिक विमानो क्यां प्रतिष्ठित छे एटले लोकांतिक विमानो कोने आधारे छ? [उ०] हे गौतम! लोकांतिक विमानो वायुप्रतिष्ठित छे, ए प्रमाणे विमानन प्रतिष्ठान, विमानोर्नु बाहुल्य, विमानोनी उंचाइ अने विमानोनुं संस्थान जेम 'जीवाभिगम' सूत्रमा देव उद्देशकमां ब्रह्मलोकनी वक्तव्यता कही छे तेम अहिं जाणवू यावत् हा, गौतम ! अहिं अनंतवार पूर्वे जीवो उत्पन्न थया छे, पण लोकांतिक विमानोमां देवपणे अनंतवार नथी उत्पन्न थया. [प्र.] हे भगवन् ! लोकांतिक विमानोमां केटला काळनी स्थिति कही छे ? [उ.] हे गौतम ! लोकांतिक विमानोमां आठ सागरोपमनी स्थिति कही छे. [प्र०] हे भगवन ! लोकांतिक विमानोथी केटले अंतरे लोकांत कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम! असंख्य हजार योजनने अंतरे लोकांतिक विमानोथी लोकांत कह्यो छे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, ते ए प्रमाणे छे. एम कही यावत् विहरे छे. ॥ २४२॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना छटा शतकमां पांचमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
तेक विमानोबाजारनो परिवारवार कयो छ. पर
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४६॥
.६ शतके उद्देशः ॥४६॥
उद्देशक ६. पंचम उद्देशकमां विमान वगैरेने लगती हकीकत कही छे. हवे आ छट्ठा उद्देशकमां पण एज आतनी हकीकत कहेवानी छे.
कति णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-रयणप्पभा जाव तमतमा, रयणप्पभादीणं आवासा भाणियब्वा(जाव)अहेसत्तमाए, एवं जे जत्तिया आवासा ते भाणियब्वा जाव कति णं भंते ! अणुत्तरविमाणा पण्णचा?, गोयमा ! पंच अणुत्तरविमाणा पण्णत्ता, तंजहा-विजए जाव सब्वट्ठसिद्धे ॥ (सूत्रं २४३ ) ॥
[प्र०] हे भगवन् ! पृथ्वीओ केटली कही छ ? [उ०] हे गौतम ! सात पृथ्वीओ कही छे, ते जेमके, रत्नप्रभा यावत् तमतमाप्रभा, रत्नप्रभा वगेरे पृथ्वीथी शरु करी यावत् अधःसप्तमी पृथ्वी सुधीना जे पृथ्वीना जेटला आवासो होय यावत् सेटला कहेवा यावत्- [प्र०] हे भगवन् ! अनुत्तरविमानो केटलां कह्यां छे ? [उ०] हे गौतम ! पांच अनुत्तर विमानो कह्यां छे, ते जेमके, | विजय यावत् सर्वार्थसिद्ध. ॥ २४३ ॥ | जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहए समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए |
तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु अन्नयरंसि निरयावासंसि नेरइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! | तत्थगते चेव आहारेज वा परिणामेज वा सरीरं वा पंधेजा?, गोयमा ! अत्थेगतिए तत्थगए चेव
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४६२॥
६ शतके उद्देश६ ॥४६२॥
आहारेज वा परिणामेज वा सरीरं वा बंधेज वा, अत्थेगतिए तओ पडिनियत्तति, ततो पडिनियत्तित्ता इहमागच्छति २ दोचंपि मारणंतियसमुग्घाएणं समोहणइ २ इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु अन्नयरंसि निरयावाससि नेरइयत्ताए उववज्जित्तए, ततो पच्छा आहारेज वा परि
णामेज वा सरीरं वा बंधेजा, एवं जाव अहेसत्तमा पुढवी। 3. [प्र०] हे भगवन् ! जे जीव मारणांतिक समुद्घातथी समवहत थयो अने समवहत थइ आ रत्नप्रभा पृथ्वीना त्रीशलाख निरयाहै वासमांना कोइपण एक निरयावासमां नैरयिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते जीव हे भगवन् ! त्यां जइने जे आहार करे ? ते
आहारने परिणमावे अने शरीरने बांधे ? [उ०] हे गौतम ! केटलाक जीव त्यां जइनेज आहार करे, परिणमावे अने शरीरने बांधे || अने केटलाक जीव त्यांथी पाछा वळे छे, पाछा वळीने अहिं आवे छे अने अहिं आवी फरीवार मारणांतिक समुद्घातवडे समवहत | थाय छे, समवहत थइ आ रत्नप्रभा पृथ्वीना त्रीशलाख निरयावासमाना कोइपण एक निरयावासमां नैरयिकपणे उत्पन्न थाय छे अने त्यारपछी आहार करे छे, परिणमावे छे अने शरीरने बांधे छे, ए प्रमाणे यावत् अधःसप्तमी पृथ्वी सुधी जाणवू.
जीवे णं भंते! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहए २ जे भविए चउसट्ठीए असुरकुमारावाससयसहस्सेतु अन्नयरंसि | | असुरकुमारावाससि असुरकुमारत्ताए उववज्जित्तए जहा नेरच्या तहा भाणियव्वा जाव थणियकुमारा।जीवेणं भंते! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहए २जे भविएअसंखेजसु पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु अण्णयरंसि पुढ विकाइयावासंसि पुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते! मंदरस्स पब्वयस्स पुरच्छिमेणं केवतियं गच्छेजा केवतियं पाउ
स्क
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व्याख्या
६ शतके उद्देशः६ ॥४६॥
प्रज्ञप्तिः
॥४६३॥
SUGARCAMERACTERS
णेजा?, गोयमा! लोयंतं गच्छेजा लोयतं पाउणिज्जा,से णं भंते तत्थगए चेव आहारेज वा परिणामेज वा सरीरं | वा बंधेजा ?, गोयमा! अत्थेगतिए तत्थगए चेव आहारेज वा परिणामेज वा सरीरं वा बंधन, अत्थेगतिए तओ पडिनियत्ततिरत्ता इह हव्वमागच्छइरत्ता दोचपि मारणंतियमुग्घाएणं समोहणतिरचा मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमेणं अंगुलस्स असंखेज भागमेत्तं वा संखेजतिभागमेत्तं वा वालयं वा वालग्गपुहुत्तं वा एवं लिक्खं जूयं जवं अंगुलं जाव जोयणकोडिं वा जोयणकोडाकोडिं वा संखेजेसु वा असंखेजेसु वा जोयणसहस्सेसु लोगते वा एगपदेसियं सेटिं मोत्तूण असंखेनेसु पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु अन्नयरंसि पुढविकाइयावासंसि पुढवि काइयत्ताए उववजेत्ता तओ पच्छा आहारेज वा परिणामेज वा सरीरं वा बंधेजा, जहा पुरच्छिमेणं मंदरस्स पव्वयस्स आलावओ भणिओ एवं दाहिणेणं पञ्चत्थिमेणं उत्तरेणं उड्ढे अहे, जहा पुढविकाइया तहा | एगिदियाणं सब्वेसिं एक्केकस्स छ आलावया भाणियव्या।
[प्र०] हे भगवन् ! मारणांतिक समुद्घातथी समवहत थयेलो जे जीव असुरकुमारोना चोसठलाख आवासोमांना कोइपण एक | असुरकुमारावासमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते जीव हे भगवन् ! त्यां जइनेज आहार करे ? ते आहारने परिणमावे ? अने शरीरने बांधे ? [उ०] जेम नैरयिको संबंधे कहूं तेम असुरकुमारो माटे यावत् स्तनितकुमारो मुधी कहेवू. [प्र.] हे भगवन् ! मारणांतिक समुद्घातवडे समवहत थइने जे जीव असंख्येय लाख पृथिवीकायना आवासमांना अन्यतर पृथिवीकायना आवासमां पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते जीव हे भगवन् ! मंदर पर्वतनी पूर्व केटलं जाय अने केटलं प्राप्त करे ? [उ०] हे गौतम! लोकांत
9545454-%%%%
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥४६४॥
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सुधी जाय अने लोकांतने प्राप्त करे. [प्र० ] हे भगवन् ! ते त्यां जइनेज आहार करे ? परिणमावे ? अने शरीर ने बांधे ? [अ०] हे गौतम! केटलाक त्यां जइनेज आहार करे, परिणमावे अने शरीरने बांधे - तैयार करे, अने केटलाक त्यांथी पाछावळे छे अने पाछा वळी अहिं शीघ्र आवे छे अने फरीवार मारणांतिक समुद्घातथी समवहत थाय छे, समवहत थइ मंदर पर्वतनी पूर्वे अंगुलनो असंख्य भागमात्र, संख्येय भागमात्र, वालाग्र, बालाग्र पृथक्त्व (बेथी न वालाग्र) ए प्रमाणे लिक्षा, यूका, यव, अंगुल यावत् क्रोडयोजन, कोडाकोडी योजन, संख्येयहजार योजन अने असंख्येयहजार योजने अथवा लोकांतमां एक प्रदेशिक श्रेणिने मूकीने असंख्येयलाख पृथिवीकायिकना आवासभांना कोइ पृथिवीकायना आवासमां पृथिवीकायपणे उत्पन्न थाय अने पछी आहार करे, परिण मावे अने शरीरने बांधे जेम मंदर पर्वतनी पूर्व दिशा परत्वे कछु आलापक कह्यो तेम ए प्रमाणे दक्षिणे, पश्चिमे, उत्तरे, ऊर्ध्व अने अधोदिशा माटे पण जाणवुं जेम पृथिवीकायिको माटे कछु तेम सर्व एकेंद्रियो माटे एक एकना छ आलापक कहेवा.
जीणं भंते! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहरत्ता जे भविए असंखेजेस बेंदियावाससयसहस्सेसु अण्णयरंसि बेंदियावासंसि बेइंदियत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते! तस्थगए चेव जहा नेरइया, एवं जाव अणुत्तरोबवाइया । जीवे णं भंते! मारणंतियसमुग्धारणं समोहए २ जे भविए एवं पंचसु अणुत्तरेसु महतिमहालएस महाविमाणेषु अन्नयरंसि अणुत्तरविमाणंसि अणुत्तरोववाइयदेवत्ताए उववज्जित्तए, सेणं भंते ! तत्थगए चैव जाव आहारेज वा परिणामेज्ज वा सरीरं वा बंधेज्ज १० । सेवं भते । सेवं भते ! | ( सू २४४) | पुढविउद्देसो समत्तो ।। ६-६ ॥
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६ शतके
उद्देशः ६
॥४६४॥
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SHRS
व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४६५॥
४।६ शनके
उद्देशः७ ॥४६॥
ACMS
[प्र०] हे भगवन् ! मारणांतिक समुद्घातथी समवहत थइ जे जीव असंख्येयलाख बेइंद्रियोना आवासमांना कोई एक बेइंद्रि| यावासमां बेइंद्रियपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते जीव, हे भगवन् ! त्यां जइनेज आहार करे ? तेने परिणमावे ? अने शरीरने तैयार ६ करे ? [उ.] हे गौतम ! जेम नैरयि को कह्या देम वेइंद्रियथी मांडी अनुत्तरोपपातिक विमान सुधीना सर्व जीवो कहेवा. [प्र०] हे
भगवन् ! मारणांतिक समुद्घातथी समवहत थइ जे जीव मोटामा मोटा महाविमानरूप पांच अनुत्तरविभागोमांना कोइ एक अनुत्तर विमानमा अनुत्तरोपपातिक देवपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे, ते जीव हे भगवन् ! त्यां जइनेज आहार करे ? परिणमावे अने शरीरने तैयार करे ? [उ०] हे गौतम ! तेज कहे, यावत् आहार करे, परिणमावे अने शरीरने तैयार करे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छ. हे भगवन ! ते ए प्रमाणे छे. ॥ २४४ ॥ भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमत्रना छटा शतकमां छटा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
उद्देशक ७. छहा उद्देशकमां जीवनी वक्तव्यता कही छे, सातमा उद्देशकमां तो एक प्रकारना जीवनी योनिने लगती वक्तव्यता कहेवानी छे. ___ अह णं भंते ! सालीणं वीहीणं गोधूमाणं जवाणं जवजवाणं एएसि णं धन्नाण कोट्ठाउत्ताणं पल्लाउत्ताणं मंचाउत्ताणं मालाउत्ताणं उल्लित्ताणं लित्ताणं पिहियाणं मुहियाणं लंछियाणं केवतियं कालं जोणी संचिट्ठइ?, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्त उक्कोसेणं तिन्नि संवच्छराई, तेण परं जोणी पमिलायइ, तेण परं जोणी प. विद्धंसइ, तेण परं बीए अबीए भवति, तेण परं जोणीवोच्छेदे पन्नत्ते समणाउसो! । अह भंते ! कलायमसूर
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तिलमुग्गमासनिप्फावकुलत्थआलिसंदगसतीणपलिमंथगमादीणं एएसि णं धन्नाणं जहा सालीणं तहा एयाव्याख्या णवि, नवरं पंच संवच्छराई, सेसं तं चेव । अह भंते ! अयसिकुसुंभगकोद्दवकंगुवरगरालगकोदूसगसणसरिस
४६ शतके प्रज्ञप्तिः द्रवमूलगबीयमादीणं एएसिणं धन्नाणं०, एयाणिवि तहेव, नवरं सत्त संवच्छराई, सेसं तं चेव ॥ (सूत्रं २४५)।
उद्देश ७ ॥४६६॥ [प्र०] हे भगवन् ! शाली, बीहि, गोधूम, यव अने यवयव, ए बधां धान्यो कोठलामा होय, वांसडाना पाला-डालामां होय, ||॥४६६॥
मांचामां होय, मालमां होय, छाणथी उल्लिप्त होय, लिप्त होय, ढांकेला होय, माटी वगेरे वडे मुद्रित-महोरवाळां चांदेला होय अने लांछित करेलां होय, तो तेओनी योनि-अंकुरनी उत्पत्तिमां हेतुभूत शक्ति केटला काळ सुधी कायम रहे ? [उ.] हे गौतम ! तेओनी योनि, ओछामा ओर्छ अन्तमुहूर्त सुधी कायम रहे अने वधारेमां वधारे त्रण वरस सुधी कायम रहे ? त्यारबाद ते योनि ४ म्लान थाय छे, प्रविध्वंस पामे छे, पछी ते बीज अवीज थाय छे अने त्यारबाद हे श्रमणायुष्मन् ! ते योनिनो व्युच्छेद थयो कहे
बाय छे. [प्र०] हे भगवन् ! कलाय, ममूर, तल, मग, अडद, बाल, कळ्थी, एक जातना चोया, तुवेर अने गोळ चणा एओ वां धान्यो पूर्वोक्त विशेषणवाळां होय तो ते धान्योनी योनि केटला काळ सुधी कायम रहे ! [उ०] हे गौतम ! जेम शालीओ माटे का तेम ए धान्योने माटे पण जाणवू, विशेष ए के, पांच वरस जाणवां, बाकीनुं तेज प्रमाणे जाणवू. [प्र०] हवे हे भगवन् ! अलसी, कुसुंभ, कोदवा, कांग, वरट-बंटी, एक प्रकारनी कांग, एक प्रकारना कोद्रवा, शण, सरसव अने एक जातनां शाकनां वीआं ए पूर्वोक्त विशेषणवाळा धान्योनी योनि केटला काळ सुधी साबीत रहे ? [उ०] हे गौतम! एओने माटे पण तेमज जाणवू, विशेष ए के, सात वरस जाणवां, बाकीनुं तेज जाणवू. ॥ २४५ ॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
६ शतके उद्देशः७ ॥४६७॥
॥४६७||
ARCHURCHAEOSSOCIA
एगमेगस्स णं भंते ! मुहत्तस्म केवतिया ऊसामद्धा वियाहिया?, गोयमा! असंखेजाणं समयाणं समुद| यसमितिसमागमेणं सा एगा आवलियत्ति पवुच्चइ, संखेजा आवलिया ऊसासो, संखेजा आवलिया निस्सासो-हवस्म अणवगल्लस्स, निरुवकिट्ठस्म जंतुणो। एगे ऊसासनीसासे, एस पाणुत्ति बुचति ॥४६ ॥ | सत्त पाणि से थोवे, सत्त थोराई से लवे । लवाणं सत्तहत्तरिए, एस मुहुत्ते वियाहिए ॥४७॥ तिन्नि सहस्सा 13 मत्त य सयाई तेवत्तरिं च ऊसासा । एस मुहुत्तो दिट्ठो सव्वेहिं अर्थतनाणीहिं ॥४८॥ एएणं मुहुत्तपमाणेणं तीसमुहत्तो अहोरत्तो, पन्नरस अहोरत्ता पक्खो, दो पक्खा मासे, दो मासा उऊ, तिन्नि उउए अयणे, दो अयणे संवच्छरे, पंचसंवच्छरिए जुगे, वीस जुगाई वाससयं, दस वाससयाई वाससहस्म, सयं वाससहस्साई वाससयसहस्सं, चउरासीति वाससयसहस्साणि से एगे पुब्बंगे, चउरासीती पुब्वंगसयसहस्माई से एगे पुब्बे, [एवं पुब्वे २ तुडिए २ अडडे २ अववे २ हहए २ उप्पले २ पउमे२ नलिणे२ अच्छणिउरे २ अउए २ पउए य २ नउए य २ चुलिया २ सीसपहेलिया २ एताव ताव गणिए एताव ताव गणियस्स विसए,तेण परं ओवमिए।
प्र०] हे भगवन ! एक एक मुहूर्तना केटला उच्छ्वासाद्धा कह्या छ ? [उ.] हे गौतम ! असंख्येय समयना समुदायनी समि| तिना समागमथी जेटलो काळ थाय ते एक आवलिका कहेवाय छे अने संख्येय आवलिकानो एक उच्छ्वास, संख्येय आवलिकानो एक निःश्वास, 'तुष्ट' अनवकल्य-घडपण विनाना अने व्याधिरहित एक जंतुनो एक उच्छ्वास अने निःश्वास ते एक प्राण कहेवाय के.' 'सात प्राण ते स्तोक कहेवाय छे, सात स्तोक ते लव कहेवाय हे, सत्योतेर (७७) लव, ते एक मुहूर्त कहेवाय छे,' ३७७३
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६ शतके
व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४६८॥
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'उच्छ्वास, ए एक मुहूर्त, एम अनंतज्ञानिओए दीठं छे.' ए मुहूर्त प्रमाणे त्रीश मुहूर्तनो एक अहोरात्र थाय छे, पंदर अहोरात्रनो
एक पक्ष थाय छे. वे पक्षनो एक मास थाय छे, बे मासनो एक ऋतु थाय छे अने त्रण एक ऋतुर्नु एक अयन थाय छे, वे अयनद एक संवत्सर थाय छ, पांच संवत्सरनुं एक युग थाय छे, वीश युगमा १०० वरस थाय छे दशसो वरसना एकहजार वर्ष थाय छे,
| उद्देशः७ *सोहजार वर्षनां एक लाख वरस थाय छे चोरासीलाख वर्ष, ते एक पूर्वांग थाय छे, चोरासीलाग्य पूर्वांग, ते एक पूर्व थाय छे-ए ॥४६८॥ ४. प्रमाणे त्रुटितांग, त्रुटित, अडडांग, अडड, अवांग अवब, हहुआंग, हुहुअ, उत्पलांग, उत्पल, पांग, पद्म, नलिनांग, नलिन,
अर्थनिउरांग. अर्थनिउर, अयुतांग, अयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, नयुतांग, नयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग अने शीर्षप्रहेलिका; | अहिं सुधी गणित छे अहिं सुधी गणितनो विषय छे अने त्यारबाद औपमिक एटले अमुक संख्यावडे नहि पण मात्र उपमावडे जे ४ जणावी-जाणी शकाय एवो काल छे..
से किं तं ओवमिए ?, २ दुविहे पण्णते, तंजहा-पलिओवमे य सागरोवमे य, से किं तं पलिओवमे? 13 से किं तं सागरोवमें ? ॥ सत्येण सुतिक्खेणवि छेत्तुं भेत्तुं च जं किर न सका। तं परमाणु सिद्धा वयंति आदि पमाणाणं ॥ ४९ ॥ अणंताणं परमाणुपोग्गलाणं समुदयसमितिसमागमेणं सा एगा उस्सण्हसण्डियाति वा सहसण्हियाति वा उड्ढरेणूति वा तमरेणूति वा रहरेणूति वा वालग्गेइ वा लिक्खाति वा ज़्याति वा जवमज्झेति वा अंगुलेति वा, अट्ट उस्सण्हसण्हियाओ सा एगा सहसण्हिया, अट्ट सण्हसण्हियाओ सा एगा उड्ढरेणू, अट्ठ उड्ढरेणूओ सा एगा तसरेणू, अट्ठ तसरेणूओ सा एगा रहरेणू, अढ रहरेणूओ से।
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४६९॥
६ शतके उद्देश:७ ॥४६९॥
| एगे देवकुरुउत्तरकुरुगाणं मणूसाणं वालग्गे, एवं हरिवासरम्मगहेमवएरन्नवयाणं, पुव्वविदेहाणं मणूसाणं Pा अट्ट वालग्गा मा एगा लिक्खा, अट्ट लिक्खाओ सा एगा ज़्या, अट्ठ ज्याओ से एगे जवमज्झे, अट्ट जवम8| ज्झाओ से एगे अंगुले, एएणं अंगुल पमाणेणं छ अंगुलाणि पादो बारस अंगुलाई विहत्थी चउव्वीसं अंगुलाई
| रयणी अडयालीसं अंगुलाई कुच्छी छन्नउतिअंगुलाणि से एगे दंडेति वा धणूति वा जूएति वा नालियाति |वा अक्खेति वा मुसलेति वा, एएणं धणुप्पपाणेणं दो धणुसहस्माई गाउयं चत्तारि गाउयाई जोयणं, एएण जोयणप्पमाणेणं जे पल्ले जोयणं आयामविखंभेणं जोयणं उड्ढे उच्चत्तेणं तं तिउणं सविसेसं परिरएणं, सेणं एगाहियबेयाहियतेयाहिय उकोसं सत्तरत्तप्परूढाणं संमट्टे संनिचिए भरिए बालग्गकोडीगं[ते], से णं वालग्गे | नो अग्गी दहेजा नो वाऊ हरेजा नो कुत्थेजा नो परिविद्धं सेजा नो पूतित्ताए हव्वमागन्छेजा, ततो णं वास| सए २ पगमेगं वालग्गं अवहाय जावतिएणं कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निम्मले निहिए निल्लेवे अवहडे विसुद्धे भवति से तं पलिओवमे । | प्र०] हे भगवन् ! ते औपमिक शुं कहेवाय ? [उ०] हे गौतम ! ते औपमिक वे प्रकारनु का छे, ते जेमके, एक पल्योपम | अने बीजें सागरोपम. [प्र०] हे भगवन् ! पल्योपम ते शुं कहे वाय ? अने सागरोपम ते शुं कहवाय? [उ०] हे गौतम ! 'सुतीक्ष्ण | शस्त्र वडे पण जेने छेदी, भेदी न शकाय, ते परम अणुने केवलिओ सर्व प्रमाणोनी आदिभूत प्रमाण कहे छे' अनंत परमाणुओना | समुदायनी समितिओना समागमवडे ते एक उच्छलक्ष्णश्लक्ष्णिका, ऊर्ध्वरेणु, त्रसरेणु, रथरेणु, वालाग्र, लिक्षा, यूका, यवमध्य अने
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4-30
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४७०॥
६ शतके অন্বয়ঃ৩ ॥४७०॥
*
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अंगुल थाय हे, ज्यारे आठ उच्छ्लक्ष्ण श्लक्षिणका मळे त्यारे ते एक श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका थाय, आठ श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका मळे त्यारे ते एक ऊर्ध्वरेणु; आठ ऊर्वरेणु मळे त्यारे ते एक त्रसरेणु, आठ त्रसरेणु मळे त्यारे ते एक रथरेणु अने आठ रथरेणु मळे त्यारे ते देवकुरुना अने उत्तरकुरुना मनुष्योनुं एक वालाग्र थाय छे. ए प्रमाणे देवकुरुना अने उत्तरकुरुना मनुष्यना आठ वालाग्र ते हरिवर्षना अने रम्यक्नां मनुष्यनो एक वालाग्र, हरिवर्षना अने रम्यकना मनुष्यनां आठ बालाग्र ते हैमवतना अने ऐरवतना मनुष्यनो एक वालाग्र अने हैमवतना अने ऐरवतना मनुष्यनां आठ वालाग्र ते पूर्वावदेहना मनुष्यनो एक वालाग्र, पूर्वावदेहना मनुष्योनां आठ कलाग्र ते एक लिक्षा, आठ लिक्षा ते एक यूवा, आट यूवा ते एक यवमध्य आठ यवमध्य ते एक अंगुल, ए अंगुलना प्रमाणे छ अंगुलनो
एक पाद, बार अंगुलनी एक वितस्ति-वेंत चोवीस अंगुलनी एक रत्नि-हाथ अडतालीश अंगुलनी एक कुक्षि, छन्नु अंगुलनो |एक दंड, धनुष, युग, नालिका, अक्ष अथवा मुसल थाय, ए धनुषना प्रमाणे बेहजार धनुष्यनो एक गाउ थाय, चार गाउनुं| | एक योजन थाय, ए योजनना प्रमाणे जे पल्य, आयामवडे अने विष्कंभवडे एक योजन होय, उंचाइमां एक योजन होय अने
जेनो परिधि सविशेष त्रिगुण-त्रण योजन होय, ते पल्यमा एक दिवसना उगेला, बे दिनसना उगेला, त्रण दिबसना उगेला अने बधारेमा वधारे सात रातना उगेला क्रोडो वालाग्रो, कांठा मुधी भर्या होय, संनिचित कर्या होय, खूब भर्या होय अने ते वालाग्रो एवी रीते भर्या होय के जेने अग्नि न बाळे, वायु न हरे, जेओ कोहाइ न जाय, नाश न पामे अने जेओ कोइ दिवस सडे नहिं, 18 त्यारवाद ते प्रकारे वालाग्रना भरेला ते पल्यमांथी सो सो वरसे एक एक वालाग्रने काढवामां आवे, एवी रीते ज्यारे-जेटले काळे ते पल्य क्षीण थाय, निरज थाय, निर्मल थाय, निष्ठित थाय, निर्लेप थाय, अपहृत थाय अने विशुद्ध थाय त्यारे ते काळ पल्योपम
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व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥४७१॥
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काळ कडेवाय. सागरोपमनुं प्रमाण दर्शाववा गाथा कहे . गाहा-एएमि पल्लाणं कोडाकोडी हवेज दसगुणिया । तं सागरोव मस्स उ एकस्स भवे परीमाणं ॥ ५० ॥
४६शनके एएणं मागरोवमपमाणेणं चत्तारि मागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुममसुममा१ तिन्नि मागरोवमकोडाकोडीओ
उद्देशः७ कालो सुममा२ दो मागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसम दूसमा ३ एगा मागरोवमकोडाकोडीओ बायालीसाए
॥४७॥ वाममहस्सेहिं ऊणिया कालो दूममसुममा४ एकवीसं वामसहस्साई कालो दममा ५ एकवीसं वाससहस्माई कालो दूसमदूसमा ६ । पुणरवि उस्सप्पिणीए एकवीसं वामसहस्साई कालो दृममदूसमा एक्कवीसं वाससहस्साई जाव चत्तारि मागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमसुसमा, दम सागरोबमकोडाकोडीओ कालो ओसप्पिणी, दस सागरोपमकोडाकोडीओ कालो उस्सपिणी, वीस सागरोवमकोडाकोडीओ कालो ओसप्पिणी |य उस्सप्पिणी य ॥ ( सूत्रं २४६)॥
एवा कोटाकोटी पल्योपमने ज्यारे दसगणा करीए त्यारे ते काळनं प्रमाण. एक सागरोपम थाय ने.' ए सागरोपम प्रमाणे चार कोडाकोडि सागरोपम काल से एक सुपमसुषमा कहेवाय, त्रण कोडाकोडि सागरोपम काळ ते एक सुषमा कहेवाय, कोडाकोडि सागरोपम काळ ते एक मुपमदुःषमा कडेवाय, जेमां बेताळीश हजार वरम ऊणांछे एवो एक कोडाकोडि सागरोपम काळ ते एक दुपमसुषमा कहेवाय, एकवीशहजार वरस काळ ते दुःषमा कहेवाय, एकवीशहजार वरस काळ ते दुःषमदुःपमा कडेवाय, वळी पण | उत्सर्पिणीमा एकवीशहजार वरस काळ ते दुःषमदुःपमा कहेवाय, एकवीशहजार बरस यावत् चार कोडाकोडी सागरोपम काल ते
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४७२॥
ACTERASACH
सुषमसुषमा, दस कोडाकोडी सागरोपम काळ ते अवसर्पिणीकाळ, दस कोडाकोडी सागरोपम काळ ते उत्सर्पिणी काळ अने वीश # कोडाकोडी सागरोपम काळ ते अवसर्पिणी अने उत्सर्पिणी काळ. ॥ २४६ ॥
४६ शतके जंबुद्दीवेणं भंते! दीवे इमीसे ओसप्पिणीए सुसमसुममाए समाए उत्तमकट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए
उद्देश: आगारभावपडोयारे होत्था?,गोयमा! बहुसमरमणिजे भूमिमागे होत्था, से जहाणामए-आलिंगपुक्खरेति वा ॥४७२।। एवं उत्तरकुरुवत्तव्यया नेयब्वा जाव आसयंति मयंति, तीसे णं समाए भारहे वासे तत्थ २ देसे २ तहिंश्यहवे
ओराला कुद्दाला जाव कुसविकुसविसुद्धक्खमूला जाव छविहा मणुस्मा अणुमज्जित्था पण्णत्ता,तं०-पम्हगंधा १ मियगंधा २ अममा ३ तेयली ४ सिंहा ५ मणिचारि ६ । सेवं भंते ! सेवं भते ! (सूत्रं २४७)॥६-७॥
[प्र.] हे भगवन् ! जंबूद्वीप नामना द्वीपमा उत्तमार्थ प्राप्त आ अवसर्पिणीमां-सुषमसुषमा काळमां भारत वपेना के आकार भावप्रत्यवतार-आकारोना अने पदार्थोना आविर्भावो हता? [उ०] हे गौतम ! भूमिभाग बहुसम होवाथी रमणीय हतो. ते जेमके, आलिंगपुष्कर-मुरजना मुख पुट होय तेवो भारतवर्षनो भूमिभाग हतो.ए प्रमाणे अहिं भारतवर्ष परत्वे उत्तरकुरुनी वक्तव्यता जाणवी यावत् बेसे छ, मुवे छ, ते काळमां भारतवर्षमां ते ते देशोमां त्यां त्यां स्थळे घणा मोटा उद्दालक यावत् कुश अने विकुशथी विशुद्ध वृक्षमूलो यावत् छ प्रकारना माणसो हता, ते जेमके, १ पद्म समान गंधवाळा, २ कस्तूरी समान गंधवाळा, ३ ममत्व विनाना, ४ तेजस्वी अने रूपाळा, ५ सहनशील तथा ६ शनश्वारी-उतावळ विनाना ए प्रमाणे छ प्रकारना मनुष्यो हता. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे एम कही यावत विहरे छे. ॥ २४७॥
भगवत् सुधर्मखामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना छट्ठा शतकमा सातमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४७३॥
६ शतके उद्देशः८ ॥४७३॥
उद्देशक ८. आगळ आवेला सातमा उद्देशकमां भारत वर्षनुं स्वरूप जणावेलु छे, हवे आ शरु थता आठमा उद्देशकमां पृथिवीओनु स्वरूप कहेवावानुं छे.
कइ णं भंते ! पुढवीओ पन्नत्ताओ?, गोयमा ! अट्ट पुढवीओ पण्णताओ, तंजहा-रयणप्पभा जाव ईमी| पन्भारा । अत्थि ण भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे गेहाति वा गेहावणाति वा?, गोयमा! णो तिणट्टे समटे । अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए अहे गामाति वा जाव संनिवेसाति वा?, नो तिणढे समडे । अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे उराला बलाहया संसेयंति संमुच्छंति वासं वासंति?, हंता अस्थि, तिन्निवि पकरेति, देवोवि पकरेति असुरोवि प० नागोवि प० । अस्थि णं भते ! इमीसे रयण बादरे थगियसद्दे ?, हंता अत्थि, तिन्निवि पकरेति । अत्थि णं भंते ! इमीसे रयण अहे बादरे अगणिकाए ?, गोयना ! नो विणढे समढे, नन्नत्थ विग्गहगतिसनावन्नएणं । अस्थि णं भंते ! इमीसे रपण. अहे चंदिम जाव तारारूवा?, नो तिणढे समझे। अस्थि ण भंते ! इमीसे रयणप्पभाग पुढवीए. चंदाभाति वा २?, णो हट्टे समढे, गवं दोचाणवि पुढवीए भाणियब्वं, एवं तच्चाएवि भाणियचं, नवरं देवोवि पकरेति अमरोवि पकरेति, णो णागो पकरेति, चउत्थाएवि एवं, नवरं देवो एक्को पकरेति, नो असुरो नो नागो पकरेति, एवं हेडिल्लासु सव्वासु देवो एक्को पकरेति ।
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥४७४ ॥
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[प्र० ] हे भगवन् ! केटली पृथिवीओ कही छे ? [अ०] हे गौतम! आठ पृथिवीओ कही ले, ते जेमके, रत्नप्रभा यावत् ईपमाग्भारा. [प्र० ] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीनी नीचे गृहो के गृहापणी छे ? [ उ० ] हे गौतम ! ते अर्थ समर्थ नथी. [ प्र० ] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीनी नीचे ग्रामो यावत् संनिवेशो के ? [उ०] हे गौतम! ते अर्थ समर्थ नथी. [प्र० ] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीनी नीचे मोटा मेघो संस्वेदे छे, सम्मूछे छे, वरसाद बरसे छे ? [ उ० ] हा, बरसे छे, ते वरसादने त्रणे पण करे छे देव पण करे छे, असुर पण करे छे, नाग पण करे छे. [प्र०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीमां बादर स्तनित शब्दो छ ? [उ०] हे गौतम! हा, ते शब्दने त्रणे पण करे छे. [प्र० ] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीमां नीचे बादर अनिकाय छे ? [ उ० ] हे गौतम! ए अर्थ समर्थ नथी, अने ए निषेध विग्रहगतिसमापन्नक जीवो सिवाय बीजा जीवो परत्वे जाणवो. [प्र० ] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीमां नीचे चंद्र यावत् तारारूपो के ? [अ०] हे गौतम! ए अर्थ समर्थ नथी. [प्र०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा | पृथिवीमां नीचे चंद्राभा, सूर्याभा वगेरे छे ? [उ०] हे गौतम! ए अर्थ समर्थ नथी, ए प्रमाणे बीजी पृथिवीमां कहे, ए प्रमाणे त्रीजीमां पण कहेतुं, विशेष ए के, त्रीजी पृथिवीमां देव पण करे, असुर पण करे अने नाग न करे. चोथी पृथिवीमां पण एमज कहे. विशेष ए के, त्यां एकलो देव करे पण असुरकुमार के नागकुमार कोइ न करे, ए प्रमाणे बधी नीचेनी पृथिवीओम एकलो देव करे छे.
अस्थि णं भंते ! सोहम्मीसाणाणं कप्पाणं अहे गेहाइ वा २ १, नो इणट्ठे समट्टे । अस्थि णं भंते ! उराला बलाहया?, हंता अस्थि, देवो पकरेति, असुरोवि पकरेइ, नो नाओ पकरेइ, एवं थणियसद्देवि । अत्थि णं भंते !
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६ शतके उद्देशः ८
॥४७४॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४७५॥
६ शतके उद्देशः८ ॥४७५॥
वायरे पुढविकाए बादरे अगणिकाए?, णो इणट्टे समद्दे, नण्णस्थ विग्गहगतिसमावन्नएणं । अस्थि णं भंते ! चंदिम०?, णो तिणढे समझे । अत्थि णं भंते ! गामाइ वा?, णो तिणटे सः। अत्थि णं भंते ! चंदाभाति वा ?, गोयमा ! णो तिणढे समटे । एवं मणकुमारमाहिंदेसु, नवरं देवो एगो पकरेति । एवं बंभलोएवि । एवं बंभलोगस्स उवरिं, सवहिं देवो पकरेति, पुच्छियब्बो य, बारे आउकाए बायरे अगणिकाए बायरे वणस्सइकाए
अन्नं तं चेव ॥ गाहा-तमुकाए कप्पपणए अगणी पुढवी य अगणि पुढवीसु । आऊतेऊवणस्सइ कप्पुवरिमकण्हराईसु ॥५१॥ (सूत्रं २४८)॥
[प्र.] हे भगवन् ! सौधर्मकल्पनी अने ईशानकल्पनी नीचे गृहो, गृहापणो छ ? [उ.] हे गौतम ! ते अर्थ समर्थ नथी. [प्र.] | हे भगवन् ! सौधर्मकल्पनी अने ईशानकल्पनी नीचे मोटा मेघो छ ? [उ०] हा, गौतम ! मोटा मेघो छे, अने ते मेघोने देव करे, अमर पण करे, पण नाग न करे, ए प्रमाणे स्तनित शब्द परत्वे पण जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! त्यां वादर पृथिवीकाय तथा बादर अग्निकाय छे ? [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी अने आ निषेध विग्रहगतिसमापन्न सिवायना वीजा माटे जाणवो. [प्र०] हे भगवन् ! त्यां चंद्र वगेरे छे? [उ.] हे गौतम ! आ अर्थ समर्थ नथी. [प्र०] हे भगवन् ! त्यां ग्रामादि छे ? [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी. [प्र०] भगवन् ! त्यां चद्रनो प्रकाश वगेरे छे ? [उ०] हे गौतम! ए अर्थ समर्थ नथी, ए प्रमाणे सनत्कुमार अने माहेंद देवलोकमां जाणवू, विशेष ए के, त्यां एकलो देव करे छे, ए प्रमाणे ब्रह्मलोकमां पण जाणवू, ए प्रमाणे ब्रह्मलोकनी उपर सर्वस्थळे देव करे छे तथा बधा ठेकाणे बादर अप्काय, बादर अग्निकाय अने बादर वनस्पतिकाय संबंधे प्रश्न करवो. वीजें तेज
ल्पनी अने ईशानमाण स्तनित शब्द परत्न निषेध विग्रहगतिसमापन्न ! त्यां ग्रामादि
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४७६॥
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प्रमाणे छे पूर्व प्रमाणे छे. गाथाः-तमस्कायमा अने पांच कल्पमा अग्नि अने पृथिवी संबंधे प्रश्न, पृथिवीओमा अग्नि संबंधे प्रश्न अने पांच कल्पनी उपर रहेलां स्थानोमां तथा कृष्णराजिमां अप्काय, तेजस्काय अने वनस्पतिकाय संबंधे प्रश्न करवो. ॥ २४८ ॥
४६ शतके हा कतिविहे ण भंते ! आउयबंधए पन्नत्ते?, गोयमा ! छव्विहा आउयबंधा पन्नत्ता, तंजहा-जातिनामनिह- उद्देशः८ त्ताउए १ गतिनामनिहत्ताउए २ ठितिनामनिहत्ताउए ३ ओगाहणानामनिहत्ताउए ४ पएसनामनिहत्ताउए ॥४७६॥ ५ अणुभागनामनिहत्ताउए ६ दंडओ जाव वेमाणियाणं ॥जीवा ण भंते ! किं जाइनामनिहत्ता जाव अणुभागनिहत्ता ?, गोयमा ! जातिनामनिहत्तावि जाव अणुभागनामनिहत्तावि, दंडओ जाव वेमाणियाणं । जीवा णं भंते ! किं जाइनामनिहत्ताउया जाव अणुभागनामनिहत्ताउया ?, गोयमा ! जाइनामनिहत्ताउ| यावि जाव अणुभागनामनिहत्ताउयावि, दंडओ जाव वेमाणियाणं । एवं एए दुवालस दंडगा भाणियब्वा । जीवा णं भंते ! किं जातिनामनिहत्ता १ जाइनामनिहत्ताउया २१, १२ । जीवा णं भंते ! किं जाइनामनिउत्ता जातिनामनिउत्ताउया ४ जाइगोयनिहत्ता ५ जाइगोयनिहत्ताउया ६ जातिगोयनिउत्ता ७ जाइगोयनिउत्ताउया ८ जाइणामगोयनिहत्ता ९ जाइणामगोयनिहत्ताउया१. जाइणामगोयनिउत्ता ११ ? जीवा णं भंते ! किं जाइनामगोयनिउत्ताउया १२ जाव अणुभागनामगोयनिउत्ताउया?, गोयमा ! जाइनामगोयनिउत्ताउयावि जाव अणुभागनामगोयनिउत्ताउयावि, दंडओ जाव वेमाणियाणं ॥ (सूत्रं २४९) ।
[प्र०] हे भगवन् ! आयुष्यनो बंध केटला प्रकारनो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! आयुष्यनो बंध छ प्रकारनो कह्यो छे, ते
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४७७॥
जेमके, १ जातिनामनिधत्तायु, २ गतिनामनिधत्तायु, ३ स्थितिनामनिघत्तायु, ४ अवगाहनानामनिधतायु, ५ प्रदेशनामनिधत्तायु अने ६ अनुभागनामनिधत्तायु, यावत् वैमानिको सुधी दंडक कहेवो. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवो जातिनामनिधत्त छ यावत् अनुभाग
६ शतके नामनिधत्त छे ? [उ०] हे गौतम ! जातिनामनिधत्त पण छे यावत् अनुभागनामनिधत्त पण छे, आ दंडक यावत वैमानिक सुधी
उद्देशः८ द कहेवो. [प्र.] हे भगवन् ! शुं जीवो जातिनामनिधत्तायुप छे यावत् अनुभागनामनिधत्तायुष छे ? [उ०] हे गौतम ! जातिनामनिध-8॥४७७।। त्तायुष पण छे यावत् अनुभागनामनिधत्तायुष पण छे, आ दंडक यावत् वैमानिको सुधी कहेवो, ए बार दडक आ प्रमाणे कहेवाःप्र०] हे भगवन् ! जीवो शुं १ जातिनामनिधत्त छ, २ जातिनामनिधत्तायुष्क छ, ३ जातिनामनियुक्त छे, ४ जातिनामनियुक्तायुष्क छ, ५ जातिगोत्रनिधत्त छे, ६ जातिगोत्रनिधत्तायुष्क छे, ७ जातिगोत्रनियुक्त छ, ८ जातिगोत्रनियुक्तायुष्क छे, ९ जातिनामगोत्रनिधत्त छ, १० जातिनामगोत्रनिधत्तायुष्क छे, ११ जातिनामगोत्रनियुक्त छे के १२ जातिनामगोत्रनियुक्तायुष्क छ यावत्अनुभागनामगोत्रनियुक्तायुष्क छ ? [उ.] हे गौतम ! जातिनामगोत्रनियुक्तायुष्क पण छे, यावत् अनुभागनामगोत्रनियुक्तायुष्क पण छे, यावत् वैमानिक सुधी दंडक कहेवो. ॥ २४९ ॥
लवणे णं भंते ! समुद्दे किं उस्सिओदए पत्थडोदए खुभियजले अखुभियजले ?, गोयमा! लवणे णं समुद्दे | उस्सिओदए, नो पत्थडोदए, खुभियजले, नो अखुभियजले, एत्तो आढत्त जहा जीवाभिगमे जाव से तेण. गोयमा ! बाहिरया णं दीवममुद्दा पुन्ना पुन्नप्पमाणा वोलट्टमाणा बोसदृमाणा समभरघडताए चिट्ठति संठाणओ एगविहिविहाणा वित्थरओ अणेगविहिविहाणा दुगुणादुगुणप्पमाणओ जाव अस्सि तिरियलोए
ॐॐॐॐ4%%%%
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४७८॥
६ शतके उद्देशः८ ॥४७८॥
असंखेजा दीवसमुद्दा सयंभुरमणपज्जवसाणा पन्नत्ता समणाउसो!। दीवसमुद्दा णं भंते! केवतिया नामधेजेहिं पन्नत्ता, गोयमा ! जावतिया लोए सुभा नामा सुभा रूवा सुभा गंधा सुभा रसा सुभा फासा एवतिया णं दीवसमुद्दा नामधेजेहिं पन्नत्ता, एवं नेयव्वा सुभा नामा उद्धारो परिणामो सव्वजीवा णं। सेवं
भंते ! सेवं भंते ! (सूत्रं २५०)॥६-८॥ छट्ठसयस्स अट्ठमो उद्देसो संमत्तो ।। ४. [प्र०] हे भगवन् ! शुं लवणसमुद्र उच्छळता पाणीवाळो छे, समजळबाळो छे, क्षुब्धपाणीवाळो छे के अक्षुब्धपाणीवाळो छ ?
[उ०] हे गौतम ! लवणसमुद्र उच्छळता पाणीवाळो छ पण समजळवाळो नथी अने क्षुब्धपाणिवालो छे पण अक्षुब्ध पाणीवाळो नथी, अहिंथी शरु करी जेम जीवाभिगम मुत्रमा का छे तेम जाणवू यावत् ते हेतुथी हे गौतम ! बहारना समुद्रो पूर्ण, पूर्णप्रमाणवाळा, बोलट्टता, छलकता अने समभर घटपणे रहे छे, संस्थानथी एक प्रकारना स्वरूपवाळा छे, विस्तारथी अनेक प्रकारना स्वरूपवाळा छे, द्विगुण, द्विगुण प्रमाण यावत् आ तिर्यग्लोकमा असंख्येय द्वीप समुद्रो, खयंभूरमण समुद्रना अवसान दावाळा हे श्रमणायुष्मन् ! कह्या छ ? [म.] हे भगवन् ! द्वीपोनां अने समुद्रोनां केटला नामधेय कहां छे ? [उ०] हे गौतम ! लोकमां जेटलां शुभ नाम, शुभ रूप, शुभ गध, शुभ रस अने शुभ स्पर्श छे एटला, द्वीपोनां अने समुद्रोनां नाम कयां छे, ए प्रमाणे शुभ नामो जाणवां, उद्धार जाणवो, परिणाम जाणवो अने सर्व जीवोनो द्वीपोमां अने समुद्रोमा उत्पाद जाणवो. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे एम कही यावत् विहरे छे. ।। २५० ॥
भगवत् सुधर्मखामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमूत्रना छट्ठा शतकमां आठमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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व्याख्या
प्रज्ञप्ति
का ६ शतके
उद्देशः९ ॥४७९।।
॥४७९॥
उद्देशक ९. जीवो जे जूदे जूदे रूपे भिन्न भिन्न गतिमां उपज्या करे छे तेनुं कारण तो तेओए करेलो कर्मबंध छे, माटे हवे आ नवमा उद्देशकमां ए कर्मबंध संबंधे निरूपण करवानुं छे.
जीवे णं भंते ! णाणावरणि कम्मं बंधमाणे कति कम्मप्पगडीओ बंधति ?, गोयमा ! सत्तविहबंधए वा | अट्ठविहबंधए वा छव्विहबंधए वा, बंधुद्देसो पन्नवणाए नेयम्वो ॥ (सूत्रं २५१)॥
[प्र०] हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्मने बांधतो जीव केटली कर्मप्रकृतिओने बांधे ? [उ०] हे गौतम ! सात प्रकारे बांधे छे, आठ प्रकारे बांधे छे अने छ प्रकारे पण बांधे छे, अहिं 'प्रज्ञापना' उपांगमां कहेलो बंध उद्देशक जाणवो. ॥ २५१ ।।
देवे भंते ! महिड्डीए जाव महाणुभाए बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगवन्नं एगरूवं विउव्वित्तए ?, गोयमा! नो तिणढे० । देवे णं भंते ! बाहिरण पोग्गले परियाइत्ता पभू?, हता पभू. से णं भंते ! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउब्वति तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुव्वति अन्नत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वति ? गोयमा ! नो इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वति, तत्थगए पोग्गले परिपाइत्ता विकुम्वति, नो अन्नत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउब्वति, एवं एएणं गमेणं जाव एगवन्नं | एगरूवं १ एगवणं अणेगरूवं २ अणेगवन्नं एगरुवं ३ अणेगवन्नं अणेगा | रूवं ४ चउभंगो । देवेणं भंते ! महिड्ढीए जाव महाणुभागे बाहिरए
॥पंचवर्णना
भांगा 10 १२ गंधनो ।
रसना 10
स्पर्शना
एवं १०
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४८॥
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| पोग्गले अपरियाइत्ता पभू कालयं पोग्गलं नीलगपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए नीलगं पोग्गलं वा कालगपोल: ग्गलत्ताए परिणामेत्तए ?, गोयमा! नो तिणढे समढे, परियाइत्ता पभू। से णं भंते ! किं इहगए
18|६ शतके पोग्गले तं चेव नवरं परिणामेतित्ति भाणियब्वं, एवं कालगपोग्गलं लोहियपोग्गलत्ताए, एवं कालएणं
उद्देशः९ जाव सुकिल्लं, एवं णीलएण जाव सुकिल्लं, एवं लोहियपोग्गलं जाव सुक्कि ल्लत्ताए, एवं हालिद्दएणं जाव सुकिल्लं, ॥४८०॥ तंजहा-एवं एयाए परिवाडीए गंधरसफास. कक्खडफासपोग्गलं मउयफासपोग्गलत्ताए २ एवं दो दो गरुयलहुय २ सीयउसिण २ गिद्धलुक्ख २, वन्नाइ सम्वत्थ परिणामेइ, आलावगा य दो दो.पोग्गले अपरियाइत्ता परियाइत्ता ॥ (सूत्रं २५२)॥ | [प्र०] हे भगवन् ! महर्धिक यावत् महानुभागवानी देव बहारनां पुद्गलोने ग्रहण कर्या सिवाय एकवर्णवाळा अने एक आकार-13 वाळा खशरीर वगेरेनुं विकुर्वण करवा समर्थ छे ? [उ०] हे गौतम ! आ अर्थ समर्थ नथी. [प्र०] हे भगवन् ! ते देव बहारनां पुद्गलोने ग्रहण करीने तेम करवा समर्थ छ ? [उ०] हे गौतम! हा, समर्थ छे. [प्र०] हे भगवन् ! ते देव शुं इहगत-अहिं रहेलां| पुद्गलोनुं ग्रहण करीने विकुर्वण करे छे? तत्रगत-त्यां देवलोकमा रहेला पुद्गलोर्नु ग्रहण करीने विकुर्वण करे छे ? के अन्यत्रगतकोई बीजे ठेकाणे रहेलां पुद्गलोनुं ग्रहण करीने विकुर्वण करे ? [उ०] हे गौतम ! अहिं रहेलां पुद्गलोनुं ग्रहण करीने विकुर्वण करतो नथी अने बीजे ठेकाणे रहेलां पुद्गलोनुं ग्रहण करीने विकुर्वण करतो नथी त्यां देवलोकमा रहेलां पुद्गलोनुं ग्रहण करीने विकुर्वण करे छे. ए प्रमाणे ए गमवडे यावत् १ एकवर्णवाला एक आकारने, २ एकवर्णवाळा अनेक आकारने, ३ अनेकवर्णवाळा
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व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥४८॥
६ शतके उद्देशः९ ॥४८॥
SARAMES
एक आकारने अने ४ अनेकवर्णवाळा अनेक आकारने विकुर्वित करवा शक्त छे ए प्रमाणे चार भांगा जाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! महर्धिक यावत् महानुभागवालो देव बहारनां पुद्गलोने ग्रहण कर्या सिवाय काळा पूगलने नीलपुद्गलपणे परिणमाववा अने नीलपुद्गलने काळापुद्गलपणे परिणमावबा समर्थ छे ? [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नधी, पण पुद्गलोनुं ग्रहण करीने तेम करवा समर्थ छे. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते देव इहगतादिपुद्गलोने ग्रहण करीने तेम करवा समर्थ छे ? [उ०] हे गौतम ! पूर्व प्रमाणे तेज समजवु, विशेष ए के 'विकुर्वे छे' ने बदले 'परिणमावे छ' एम कहेवू, ए प्रमाणे काळा पुद्गलने लालपुद्गलपणे, ए प्रमाणे काळा
पुद्गलनी साथे यावत् शुक्ल, ए प्रमाणे नीलनी साथे यावत् शुक्ल, ए प्रमाणे लालपुद्गलने यावत् शुक्लपणे, ए प्रमाणे हारिद्रपुद्गल &ा साथे यावत् शुक्ल, ते ए प्रमाणे ए क्रमवडे गंध रस अने स्पर्श संबंधे समजबुं यावत् कर्कश स्पर्शवाळा, कोमळ स्पर्शवाळा पुद्गलपणे
परिणमावे. ए प्रमाणे वे बे विरुद्ध गुणोने गुरुक अने लघुक, शीत अने उष्ण, स्निग्ध अने रूक्ष वर्णादिने सर्वत्र 'परिणमावे' छे. परिणमावे छे ए क्रियाना अहीं बबे आलापक कहेवा; एक तो पुद्गलोनुं ग्रहण करीने परिणमावे छे, अने बीजो पुद्गलोनुं ग्रहण
नहि करीने नथी परिणमावतो. ॥ २५२ ॥ । अविसुद्धलेसेणं भंते ! देवे असमोहएणं अप्पाणएणं अविसुद्धलेसं देवं देविं अन्नयरं जाणति पामति १? णो तिणढे समढे, एवं अविसुद्धलेसे असमोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेसं देवं ३, २। अविसुद्धलेसे समोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं ३, ३ । अविसुद्धलेसे देवे ममोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेसं देवं ३, ४ । अविसुद्धलेसे समोहयासमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं ३, ५ । अविसुद्धलेसे समोहया० विसुद्धलेसं देवं ३,
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॥
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६ शतके & उद्देशः ९
॥४८२।।
६॥ विसुद्धलेसे असमो० अविसुद्धलेसं देवं ३, १ । विसुद्धलेसे असमोहएणं विसुद्धलेसं देवं ३, २ । विसुद्धलेसे व्याख्या
भंते ! देवे समोहएणं अविसुद्धलेसं देवं ३ जाणइ ?, हंता जाणह०, एव विसुद्ध. समो० विसुद्धलेसं देवं ३ प्रज्ञप्तिः
हजाणइ १, हंता जाणइ ४ । विसुद्धलेसे ममोहयासमोहएणं अविसुद्धलेसं देवं ३, ५ । विसुद्धलेसे समोहयासमो॥४८२॥ हएणं विसुद्धलेसं देवं ३, ६ । एवं हेडिल्लएहिं अट्ठहिं न जाणइ न पासइ, उवरिल्लएहिं चउहिं जाणइ पासइ ।
सेवं भंते ! सेवं भंते ! ॥ (सूत्रं २५३) छट्ठसए नवमी उद्देसो संमत्तो ।। ६-९॥
[प्र०] हे भगवन् ! अविशुद्ध लेश्यावाळो देव अनुपयुक्त आत्मावडे अविशुद्ध लेश्यावाळा देवने, वा देवीने, वा अन्यतरने ते मांना एकने जाणे छे ? जूए छे ? [उ०) हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी. ए प्रमाणे २ अशुद्ध लेश्यावालो देव अनुपयुक्त आत्मा
वडे विशुद्ध लेश्यावाला देवने, देवीने, वा अन्यतरने जाणे, ज्ए ? ३ अविशुद्धलेश्यावाळो देव उपर्युक्त आत्मावडे अविशुद्ध लेश्यादवाळा देवने इत्यादि, ४ अविशुद्ध लेश्यावाळो देव उपयुक्त आत्मावडे विशुद्ध लेश्यावाळा देवने इत्यादि, ५ अविशुद्ध लेश्यावाळो
देव उपयुक्तानुपयुक्त आत्मावडे अविशुद्ध लेश्यावाळा देवने इत्यादि, ६ अविशुद्ध लेश्यावाळो उपयुक्तापयुक्त आत्मावडे विशुद्ध लेश्यावाला देवने इत्यादि, ७ विशुद्ध लेश्यावाळो अनुपयुक्त आत्मावडे अविशुद्ध लेश्यावाळा देवने इत्यादि, ८ विशुद्ध लेश्यावाळो अनुपयुक्त आत्मावडे विशुद्ध लेश्यावाळा देवने इत्यादि. [प्र.] हे भगवन् ! विशुद्ध लेश्यावाळो देव उपयुक्त आत्मावडे अविशुद्ध लेश्यावाळा देव वगेरेने जाणे? [उ०] हे गौतम ! हा, जाणे. [प्र.] ए प्रमाणे, हे भगवन् ! १० विशुद्ध लेश्यावालो देव उपयुक्त आत्मावडे विशुद्ध लेश्यावाळा देव वगेरेने जाणे? [उ०] हे गौतम ! हा, जाणे. [प्र०] ११ विशुद्ध लेश्यावाळो, देव उपयुक्तानुप
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व्याख्या
युक्त आत्मावडे अविशुद्ध लेश्यावाळा देव विगेरेने इत्यादि, तथा १२ विशुद्ध लेश्यावाळो देव उपयुक्तानुपयुक्त आत्मावडे विशुद्ध
लेश्यावाळा देव वगेरेने जाणे? जूए ? [उ०] ए प्रमाणे नीचला आठ एटले शरुआतना आठ भांगावडे जाणे नहि, अने जूए प्रज्ञप्ति
| नहि अने उपरना चार एटले पाछळना चार भांगावडे जाणे अने जूए. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छ | ॥४८३|| दएम कही यावत् विहरे हे. ॥ २५३ ॥
___भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना छट्ठा शतकमां नवमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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६ शतके उद्देश:१० ॥४८३॥
उद्देशक १०. आगळना नवमा उद्देशकमां अविशुद्धलेश्यावाळाने ज्ञाननो अभाव कह्यो छे, हवे आ दशम उद्देशकमां पण तेज ज्ञानना अभा. | वने लगती वातने दर्शावता आ सूत्र कहे छे.
अन्नउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति जाव परूवेंति जावतिया रायगिहे नयरे जीवा एवइयाणं जीवाणं नो चक्किया केइ सुहं वा दुहं वा जाव कोलट्ठिगमायमवि निष्फावमायमवि कलममायमवि मासमायमपि मुग्गमायमवि जूयामायमवि लिक्खामायमवि अभिनिवत्ता उबदसित्तए, से कहमेयं भंते ! एवं ?, गोयमा ! जन्नं ते अन्नउत्थिया एबमाइक्खंति जाव मिच्छं ते एवमासु, अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि-सव्वलोएविय सव्वजीवाणं णो चकिया कोई सुहं वा तं चेव जाव उवदंसित्तए । से केण?णं?, गोयमा!
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ब्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४८४॥
|६ शतके उद्देशः१० ॥४८४||
अयन्नं जंबुद्दीवे २ जाव विसेसाहिए परिक्खेवेणं पन्नत्ते, देवे णं महिडढीए जाव महाणुभागे एगं महं सविले. वणं गंधसमुग्गगं गहाय तं अवद्दालेति तं अवद्दालेत्ता जाव इणामेव कद्दु केवलकप्पं जंबुद्दीवं २ तीहिं अच्छरानिवाएहिं तिसत्तखुत्तो अणुपरियहित्ताणं हव्वमागच्छेना, से नूर्ण गोयमा ! से केवलकप्पे जंबुद्दीवे २ तेहिं
घाणपोग्गलेहिं फुडे ?, हंता फुडे, चकिया णं गोयमा! केति तेसिं घाणपोग्गलाणं कोलट्ठियामायमवि जाव ४ उवदंसित्ता ?, णो तिणढे समढे, से तेण?णं जाव उवदंसेत्तए । ( सूत्रं २५४)॥ हा [म.] हे भगवन् ! अन्यतीथिको ए प्रमाणे कहे छे यावत् प्ररूपे छे, के राजगृह नगरमा जेटला जीवो छे, एटला जीवोने
कोई बोरना ठळीया जेटलं पण, बाळ जेटलं पण, कलाय के चोखा जेटलं पण, अडद जेटलं पण, मग जेटलं पण, जू जेटलं पण ४ अने लीख जेटलं पण सुख या दुःख काढीने देखाडवा समर्थ नथी, हे भगवन् ! ए ते केवी रीते एम होइ शके ? [उ०] हे गौतम !
ते अन्यतीथिको जे ए प्रमाणे कहे छे, यावत् प्ररूपे छे से ए प्रमाणे मिथ्या, खोटुं कहे छे, हे गौतम ! हुं वळी आ प्रमाणे कहुं यावत् प्ररूपुं हुं के सर्व लोकमां पण सर्व जीवोने कोइ मुख वा दुःख तेज यावत् काढीने दर्शाववा समर्थ नथी. [प्र०] हे भगवन् ! ते शा हेतुथी ? [उ०] हे गौतम ! आ जंबूद्वीप नामनो द्वीप यावत् परिक्षेपवडे विशेषाधिक कह्यो छे, महर्धिक यावत् महानुभाववाळो देव, एक, मोटो, विलेपनवालो गंधवाळा द्रव्यनो डाबडो लइने उघाडे अने तेने उघाडी यावत् 'आ जाउं छु' एम कही संपूर्ण | जंत्रद्वीपने त्रण चपटीवडे २१ बार फरी पाछो शीघ्र पाछो आवे, हे गौतम ! ते संपूर्ण जंबूद्वीप नामनो द्वीप, (ते देवनी आवी शीघ्रगतिथी ऊडेलां) ते गंध पुद्गलोना स्पर्शवाळो थयो के नहि ? हा, स्पर्शवाळो थयो, हे गौतम ! कोइ ते गंधयुद्गलोने बोरना
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४८५॥
६ शतके उद्देशः१० ॥४८५॥
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SAMOSAMUSEUCCES
ठळीया जेटला पण यावत् दर्शावया समर्थ छे ? ए अर्थ समर्थ नथी. ते हेतुथी सुखादिने पण यावत् दर्शाववा समर्थ नथी. ॥२५४
जीवे णं भंते! जीवे २जीवे ?, गोयमा ! जीचे ताव नियमा जीवे, जीवेवि नियमा जीवे । जीवे णं भंते ! नेरइए नेरइए जीवे ?, गोयमा ! नेरइए ताव नियमा जीवे, जीवे पुण सिय नेरइए सिय अनेरइए, जीवे णं भंते ! असुरकुमारे असुरकुमारे जीवे?, गोयमा! असुरकुमारे ताव नियमा जीवे, जीवे पुण सिय असुरकुमारे सिय है णो असुरकुमारे, एवं दंडओ भाणियब्बो जाव वेमाणियाणं । जीवति भंते ! जीवे जीवे जीवति', गोयमा! जीवति ताव नियमा जीवे, जीवे पुण सिय जीवति सिय नो जीवति, जीवति भंते ! नेरइए २ जीवति ?, |गोयमा! नेरइए ताव नियमा जीवति २ पुण सिय नेरइए सिय अनेरहए, एवं दंडओ नेयब्वो जाव वेमाणियाणं । भवसिद्धीए ण भंते ! नेरइए २ भवसिद्धीए ?, गोयमा! भवसिद्धीए सिय नेरइए सिय अनेरहए, नेरइएविय सिय भवसिद्धीए सिय अभवसिद्धीए, एवं दंडओ जाव वेमाणियाणं ॥ (सूत्रं २५५)॥
[प्र०] हे भगवन् ! शुं जीव जीव ( चैतन्य ) छे ? के चैतन्य जीव छ ? [उ.] हे गौतम! जीव नियमे चैतन्य जीव छे अने जीव चैतन्य पण नियमे जीव छे. [प्र.] हे भगवन् ! जीव नैरयिक छ ? के नैरयिक जीव छे ? [उ.] हे गौतम ! नैरयिक तो नियमे |जीव छे अने जीव तो नैरयिक पण होय तथा अनैरयिक पण होय. [प्र.] हे भगवन् ! जीव असुरकुमार छे? के असुरकुमार जीव
छ [उ०] हे गौतम ! असुरकुमार तो नियमे जीव छे अने जीव तो अमुरकुमार पण होय तथा अमुरकुमार न पण होय. ए प्रमाणे यावत् वैमानिक सुधी दंडक कहेवो. [प्र.] हे भगवन् ! जीवे प्राणधारण करे ते जीव कहेवाय ? के जीव होय ते प्राणधारण करे ?*
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४८६॥
BHASHAA
६ शतके उद्देश:१० ॥४८६॥
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| [उ०] हे गौतम! प्राणधारण ते नियमे जीव कहेवाय अने जे जीव होय ते प्राणधारण करे पण खरो अने न पण करे. [प्र०] | हे भगवन् ! प्राणधारण करे ते नैरयिक कहेवाय ? के नैरयिक होय ते प्राणधारण करे ? [उ०] हे गौतम ! नैरयिक तो नियमे | प्राण धारण करे अने प्राण धारण करनार तो नैरयिक पण होय अने अनैरयिक पण होय, ए प्रमाणे यावत् वैमानिक सुधी दंडक कहेवो. [प्र०] हे भगवन् ! भवसिद्धिक नैरयिक होय ? के नैरयिक भवसिद्धिक होय ? [उ०] हे गौतम ! भवसिद्धिक नैरयिक पण होय अने अनैरयिक पण होय तथा नैरयिक भवसिद्धिक पण होय अने अभवसिद्धिक पण होय. ए प्रमाणे यावत् वैमानिक | सुधी दंडक कहेवो. ॥ २५५॥ | अन्नउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति जाव परूवेंति एवं खलु सव्वे पाणा भूया जीवा सत्ता एगंतदुक्खं
वेयणं वेयंति, से कहमेयं भंते! एवं ?, गोयमा ! जन्नं ते अन्नउत्थिया जाव मिच्छं ते एवमासु, अहं पुण | गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता एगंतदुक्खं वेयणं वेयंति, आहच्च सायं, अत्थेगतिया पाणा भूया जीवा सत्ता एगंतसायं वेयणं वेयंति, आहच्च अस्सायं वेयर्ण वेयंति, अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता वेमायाए वेयणं वेयंति, आहच सायमसायं । से केणटेणं०?, गोयमा! नेरइया | एगंतदुक्खं वेयणं वेयंति [आहच्च सायमसायं] आहच सायं, भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिया एगंतसायं वेदणं वेयंति, आहच असायं, पुढविकाइया जाव मणुस्सा वेमायाए वेयणं वेयंति, आहच सायमसायं, से तेण?णं. ॥ (सूत्र २५६)॥
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व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥४८७||
[प्र०] हे भगवन् ! अन्यतीथिको ए प्रमाणे कहे हे यावत् प्ररूपे छे के, ए प्रमाणे निश्चित छे के, सर्व, प्राणो, भूतो, जीवो अने सत्वो, एकांत दुःखरूप वेदनाने वेदे छे, हे भगवन् ! ते ए एवी रीते केम होय ? [उ०] हे गौतम ! ते अन्यतीर्थिको जे काइ 15६ शतके यावत् कहे छे ते ए प्रमाणे मिथ्या कहे छे, हे गौतम ! वळी, हुं आ प्रमाणे कहुं छु यावत् प्ररूपुंछ के, केटलाक प्राणो, भूतो,
उद्देश:१० जीवो अने सच्चो एकांत दुःखरूप वेदनाने वेदे छे अने कदाचित् सुखने वेदे छे, तथा केटलाक प्राणो, भूतो, जीवो अने सत्त्वो |॥४८७॥ एकांत सुखरूप वेदनाने वेदे के अने कदाचित् दुःखने वेदे छे, वळी, केटलाक पाणो, भूतो, जीवो अने सच्चो विविध प्रकारे वेदनाने वेदे छे एटले छे कदाचित् सुखने अने कदाचित् दुःखने वेदे छे. [प्र०] हे भगवन् ! ते शा हेतुथी ? [उ०] हे गौतम ! नैरयिको एकांत दुःखरूप वेदनाने वेदे , अने कदाचित् सुखने वेदे छे, भवनपतिओ, वानव्यंतरो, ज्योतिष्को अने वैमानिको एकांत मुखरूप वेदनाने वेदे छे अने कदाचित् दुःखने वेदे छे. पृथिवीकायथी मांडी यावत् मनुष्यो सुधीना जीवो विविध प्रकारे वेदनाने | वेदे छे एटले कदाचित् सुखने अने दुःखने वेदे छे, ते हेतुथी पूर्व प्रमाणे कयुं छे. ।। २५६ ।।
नेरइया णं भंते ! जे पोग्गले अत्तमायाए आहारेति ते किं आयसरीरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति अणंतरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति परंपरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति !, गोयमा ! आयसरीरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति, नो अणतरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए | आहारेंति, नो परंपरखेत्तोगाढे० जहा नेरइया तहा जाव वेमाणियाणं दंडओ। (सूत्रं २५७)
[प्र०] हे भगवन् ! नैरयिको आत्मद्वारा ग्रहण करी जे पुद्गलोने आहरे छे ते शुं आत्मशरीर क्षेत्रावगाढ पुद्गलोने आत्मद्वारा
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४८८॥
६ शतके उद्देशः१. ॥४८८॥
AAKANKAR
ग्रहण करी आहरे छे? के अनंतरक्षेत्रावगाढ पुद्गलोने आत्मद्वारा ग्रहण करी आहरे छ ? के परंपर क्षेत्रावगाढ पुद्गलोने आत्मद्वारा | ग्रहण करी आहरे छे ? [उ०] हे गौतम ! आत्मशरीर क्षेत्रावगाढ पुद्गलोने आत्मद्वारा ग्रहण करी आहरे छे अने अनंतरक्षेत्रावगाढ | पुद्गलोने आत्मद्वारा ग्रहण करी आहरता नथी, तेमज परंपर क्षेत्रावगाढ पुद्गलोने आत्मद्वारा ग्रहण करी आहरता नथी. जेम 'नर|यिको परत्वे का यावत् वैमानिको सुधी दंडक कहेवो. ॥ २५७।। | केवली णं भंते! आयाणेहिं जाणति पासति?, गोयमा! नो तिणढे। से केणटेणं?, गोयमा! केवली णं पुरच्छि| मेणं मियंपि जाणइ अमियंपि जाणइ जाव निब्बुडे सणे केवलिस्स,से तेणटेणं० गाहा-जीवाण सुहं दुक्खं जीवे
जीवति तहेव भविया य । एगंतदुक्खवेयण अत्तमाया य केवली ॥ ५२ ॥ सेवं भंते ! सेवं भंते ! (सूत्र २५८)। | [प्र०] हे भगवन् ! केवलिओ इंद्रियद्वारा जाणे? जूए ? [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी. [प्र०] हे भगवन् ! ते शा
हेतुथी ? [उ.] हे गौतम ! केवली पूर्वमा मितने पण जाणे अने अमितने पण जाणे यावत् केवलिनुं दर्शन निवृत छ, ते हेतुथी | एम छे. गाथाः-जीवोनुं सुख दुःख, जीव, जीवनुं प्राणधारण. तेमज भन्यो, एकांत दुखवेदना, आत्मद्वारा पुद्गलोनुं ग्रहण अने केवली (आटला विषय संबंधे आ दशम उद्देशामां विचार कर्यो छे.) हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे. एम कही यावत् विहरे छे. ॥ २५८ ॥ भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना छट्ठा शतकमां दशमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
इति श्रीमद् भगवतीसूत्रे षष्ठं शतं समाप्तम्
+ACACHECCANACOCON
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व्याख्या
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॥ अथ सप्तम शतकम् ॥
उद्देशक १.
प्रज्ञप्ति
%
७ शतके उद्देशः१ ॥४८९॥
000
॥४८९॥
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CRECR54444444HC-NCRECC
आहार १ विरति २ थावर ३ जीवा ४ पक्खी ५ य आउ ६ अणगारे ।
छउमत्थ ८ असंवुड ९ अन्नउत्थि १० दस सत्तमंमि सए ॥ ५३॥ १ आहार, २ विरति, ३ स्थावर, ४ जीव, ५ पक्षी, ६ आयुष्, ७ अनगार, ८ छमस्थ, ९ असंवृत, अने १० अन्यतीथिक ए संबन्धे सातमा शतकमा दश उद्देशको छे.
तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वदासी-जीवे गं भंते ! कं समयमणाहारए भवइ ?, गोयमा ! पढमे | समए सिय आहारए सिय अणाहारए बितिए समए सिय आहारए सिय अणाहारए ततिए समए सिय
आहारए सिय अणाहारए, चउत्थे समए नियमा आहारए, एवं दंडओ, जीवा य एगिदिया य चउत्थे समए, सेसा ततिए समए । जीवे ण भंते ! के समयं सव्वप्पाहारए भवति?, गोयमा! पढमसमयोववन्नए वा चरमसमए भवत्थे वा एत्थ ण जीवे ण सव्वप्पाहारए भवइ, दंडओ भाणियव्वो जाव वेमाणियाणं ॥ (मत्र २५९)।
[प्र०] ते काले ते समये (गौतम इन्द्रभूति) अनगार ए प्रमाणे बोल्या हे भगवन् ! जीव (परभवमा जता) कये समये अनाहारक (आहार नहि करनार) होय ? [उ.] हे गौतम ! (परभवमा) प्रथम समये जीव कदाच आहारक होय अने कदाच अनाहारक
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४९॥
७ शतके उद्देशः १ ॥४९॥
1-94--0454
होय, बीजे समये कदाच आहारक होय अने कदाच अनाहारक होय, त्रीजे समये कदाच आहारक होय अने कदाच अनाहारक होय, | परन्तु चोथे समये अवश्य आहारक होय, ए प्रमाणे (नारक इत्यादि चोवीस) दंडक (पाठ) कहेवा. सामान्य जीवो अने एकेन्द्रियो मा चोथे समये आहारक होय छे, अने (एकेन्द्रिय शिवाय) बाकीना जीवो श्रीजे समये आहारक होय छे. [प्र.] हे भगवन् ! जीव कये
समये सौथी अल्प आहारवाळो होय छे? [उ०] हे गौतम ! उत्पन्न थतां प्रथम समये अने भवने (जीवितने) छेल्ले समये आ समये | जीव सोथी अल्प आहारवाळो होय छे. ए प्रमाणे वैमानिक सुधी दंडक कहेवो. ।। २५९ ॥
किंसंठिए णं भंते! लोए पन्नत्त, गोयमा! सुपइट्ठगसंठिए लोए पन्नत्ते, हेट्ठा विच्छिन्ने जाव उप्पि उड्ढंमुईगागारसंठिए, तसिं च णं मासयंसि लोगंसि हेट्ठा विच्छिन्नंसि जाव उप्पिं उड्डेमुइंगागारसंठियंसि उप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली जीवेवि जाणइ पासइ अजीवेवि जाणइ पासइ तओ पच्छा सिज्झति जाव अंतं करेइ ।। (सूत्रं २६०)॥
[प्र०] हे भगवन् ! लोकनुं संस्थान (आकार ) केवा प्रकारे का छे ? [उ०] हे गौतम ! लोक सुप्रतिष्ठक शरावना आकार जेवो कहेलो छे. ते नीचे विस्तीर्ण-पहोलो यावत् उपर ऊर्ध्व (उभा) मृदंगना आकारे संस्थित है. नीचे विस्तीर्ण यावत् उपर ऊर्ध्व मृदंगना आकारे रहेला ते शाश्वत लोकमां उत्पन्न थयेला ज्ञान अने दर्शनने धारण करनार अरिहंत जिन केवलज्ञानी जीवोने पण जाणे छे अने जूए छे, अजीवोने पण जाणे छे अने जूए छे, त्यारपछी सिद्ध थाय छे, यावत् (सर्व दुःखोनो) अंत करे छे. ॥२६॥
समणोवासगस्स णं भंते ! सामाइयकडस्स समणोवासए अच्छमाणस्स तस्स णं भंते ! किं ईरियावहिया
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व्याख्या-1 प्रज्ञप्तिः ॥४९॥
REACHERE ARROCKS
किरिया कज्जइ ? संपराइया किरिया कजई ?, गोयमा! समणोवासयस्स णं सामाइयकडस्स समणोवासए अच्छमाणस्म आया अहिगरणीभवइ, आयाहिगरणवत्तियं च णं तस्म नो ईरियावहिया किरिया कजइ,
का७ शतके संपराइया किरिया कजइ, से तेणटेणं जाव संपराइया ।। (सूत्रं २६१)
उद्देशः१ [प्र०] हे भगवन् ! श्रमणना उपाश्रयमा रहीने सामायिक करनार श्रमणोपासकने (श्रावकने) शुं ऐपिथिकी क्रिया लागे के
॥४९॥ सांपरायिकी क्रिया लागे ? [उ०] हे गौतम ! ऐर्यापथिकी क्रिया न लागे, पण साम्परायिकी क्रिया लागे. [प्र.] हे भगवन् ! शा हेतुथी यावत् सांपरायिकी क्रिया लागे ? [उ.] हे गौतम ! श्रमणना उपाश्रयमा रही सामायिक करनार श्रावकनो आत्मा अधिकरण (कषायना साधनो) युक्त छे, तेथी तेने आत्माना (पोताना) अधिकरण निमित्ते ऐर्यापथिकी क्रिया न लागे, पण सांपरायिकी क्रिया लागे, ते हेतुथी यावत् सांपरायिकी क्रिया लागे छे. ॥ २६१ ॥
समणोवासगस्स णं भंते ! पुवामेव तसपाणसमारंभे पञ्चक्खाए भवति, पुढविसमारंभ अपचक्रवाए भवइ,से य पुढविं खणमाणे अण्णयरं तसं पाणं विहिंसेज्जा से णं भंते ! तं वयं अतिचरति', णो तिणढे समहे, नो खलु से तस्स अतिवायाए आउट्टति । समणोवासयस्स णं भंते! पुवामेव वणस्सइसमारंभे पचक्खाए, से य पुढविं खणमाणे अन्नयरस्स रुक्खस्स मूलं छिदेज्जा से णं भंते! तं वयं अतिचरति !, णो तिणटे समढे, नो खलु नस्स अइवायाए आउद्दति ॥ (सूत्रं २६२)।
[प्र.] हे भगवन् ! जे श्रमणोपासकने पूर्व त्रसजीवोना वचनुं प्रत्याख्यान होय अने पृथ्वीकायना वधनुं प्रत्याख्यान न होय,
ॐॐ4% A5
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C
व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४९२॥
७ शतके उद्देशः १ ॥४९२॥
ते पृथ्वीने खोदता जो कोई त्रस जीवनी हिंसा करे तो हे भगवन् ! तेने ते व्रतमा अतिचार लागे? [उ.] हे गौतम ! ए अर्थ योग्य नथी. कारण के ते (श्रावक) तेनो वध करवा प्रवृत्ति करतो नथी. [म.] हे भगवन् ! श्रमणोपासके पूर्वे वनस्पतिना वधनुं प्रत्याख्यान कयु होय, ते पृथिवीने खोदता कोई एक वृक्षना मूळने छेदी नांखे तो तेने ते व्रतनो अतिचार लागे? [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ योग्य नथी. कारण के ते तेना (वनस्पतिना) वध माटे प्रवृति करतो नथी. ॥ २६२ ॥
समणोवासए णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएसणिज्जणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलामेमाणे किं लब्भइ?, गोयमा! समणोवासए णं तहारूवं समणं वा जाव पडिलाभेमाणे तहारूवस्स | समणस्स वा माहणस्स वा समाहिं उप्पाएति, समाहिकारए णं तमेव समाहिं पडिलभइ। समणोवासए णं भंते ! तहारूवं समणं वा जाव पडिलामेमाणे किं चयति?, गोयमा ! जीवियं चयति दुच्चयं चयति दुक्करं करेति दुल्लहं लहर बोहिं बुज्झइ तओ पच्छा सिज्झति जाव अंतं करेति (सूत्रं २६३)
[प्र०] हे भगवन् ! तेवा प्रकारना (उत्तम ) श्रमण या ब्राह्मणने प्रामुक (अचित्त-निर्जीव) अने एषणीय (दोपरहित इच्छवा योग्य) अशन, पान, खादिम अने स्वादिम आहारवडे प्रतिलाभता-सत्कार करता श्रमणोपासकने शो लाभ थाय ? [उ०] हे गौतम ! तेवा प्रकारना श्रमण या ब्राह्मणने यावत् प्रतिलाभतो श्रमणोपासक तेवा प्रकारना श्रमण या ब्राह्मणने समाधि उत्पन्न करे छे, अने समाधि करनार (श्रावक ) ते समाधिने प्राप्त करे छे. [प्र०] हे भगवन् ! तथारूप श्रमणने यावत् पतिलाभतो श्रमणोपासक शेनो त्याग करे? [उ०] हे गौतम ! जीवितनो (जीवननिर्वाहना कारणभूत अन्नादिनो) त्याग करे, दुस्त्यज वस्तुनो त्याग करे, बोधि
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥४९३॥
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सम्यग्दर्शननो अनुभव करे, त्यारपछी सिद्ध थाय, यावत् ( सर्व दुःखनो ) अंत करे. ॥ २६३ ॥
अत्थि णं भंते! अकम्मस्स गती पन्नायति ?, हंता अस्थि ॥ कहन्नं भंते ! अकम्मस्स गती पन्नायति ?, गोयमा ! निस्संगयाए निरंगणयाए गतिपरिणामेणं बंधणछेयणयाए निरंधणयाए पुव्वपओगेणं अकम्मस्स गती पन्नता ॥ कहनं भंते! निस्संगयाए निरंगणयाए गइपरिणामेणं बंधणछेयणयाए निरंधणयाए पुत्र्वप्पओगेणं अकम्मस्स गती पन्नायति ?, से जहानामए - केइ पुरिसे सुकं तु निच्छिडुं निरुवहति आणुपुच्चीए परिकम्मेमाणे २ दमेहि य कुसेहि य वेढेइ २ अट्टहिं महियालेवेहिं लिंपइ २ उण्हे दलयति भूर्ति २ सुक्कं समाणं अत्थाहमतारमपोरिसिसि उदगंसि पक्खिवेज्जा, से नूणं गोयमा ! से तुंबे तेसिं अट्टहं महियालेवाणं गुरुयत्ताए भारिमत्ताए गुरुसंभारियत्ताए सलिलतलमतिवत्ता अहे घरतिलपाणे भवइ ?, हंता भवइ, अहे णं से तुंबे अट्टण्हं महियालेवाणं परिक्खएणं धरणितलमतिवत्ता उपि सलिलतल इट्ठाणे भवइ ?, हंता भवइ, एवं खलु गोयमा ! निस्संगयाए निरंगणयाए गइपरिणामेणं अकम्मस्स गई पन्नायति ।
[0] हे भगवन् ! कर्मरहित जीवनी गति स्वीकाराय ? [उ० ] हे गौतम! हा, स्वीकाराय. [प्र० ] हे भगवन् ! कर्मरहित जीवनी गति केवी रीते स्वीकाराय ? [अ०] हे गौतम! निःसंगपणाथी, नीरागपणाथी, गतिना परिणामथी, बंधननो छेद थवाथी, निरिधन थवाथी - कर्मरूप इन्धनथीमुक्त थवाथी अने पूर्वप्रयोगथी कर्मरहित जीवनी गति स्वीकाराय है. [प्र० ] हे भगवन् ! निःसं
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७ शतके उद्देशः १ ॥४९३ ॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४९४॥
७ शतके &उद्देशः१
॥४९ ॥
NARAAKAA
गपणाथी, नीरागपणाथी अने गतिना परिणामथी कर्मरहित जीवनी गति शी रीते स्वीकाराय ? [उ०] हे गौतम ! जेम कोई एक पुरुष छिद्र विनाना, नहि भांगेला मुका तुंबडाने क्रमपूर्वक अत्यंत संस्कार करीने डाभ अने कुश वडे वींटे, त्यारपछी तेने माटीन। आठ लेपथी लींपे, लीपीने तापमां सुकवे, ज्यारे ते तुंबडं अत्यंत मुकाय त्यारे ताग विनाना अने न तरी शकाय तेवा पुरुषप्रमाणथी अधिक (उंडा) पाणीमां तेने नांखे, हे गौतम ! खरेखर ते तुंबटुं माटीना आठ लेप बडे गुरु थयेलं होबाथी, भारे थवाथी अने अधिक वजनवाळु होवाथी पाणीना उपरना तळीआने छोटी नीचे पृथिवीने तळीए जइ वेसे? हा बेसे. हवे ते माटीना आठ लेपनो | क्षय थाय त्यारे ते तुंबडं पृथिवीना तळने छोडी पाणीना तळ उपर आवीने रहे? हा रहे. ए प्रमाणे हे गौतम ! निःसंगपणाथी, नीरागपणाथी अने गतिना परिणामथी कर्मरहित जीवनी गति स्वीकाराय छे.
कहन्नं भंते ! बंधणछेदणयाए अकम्मस्स गई पन्नत्ता ?, गोयमा! से जहानामए-कलसिंबलियाइ दावा मुग्गसिंबलियाइ वा माससिंपलियाइ वा सिंबलिसिंबलियाइ वा एरंडमिंजियाइ वा उण्हे दिन्ना | सुक्का समाणी फुडित्ता णं एगंतमंतं गच्छद, एवं खलु गोयमा ! । कहनं भंते ! निरंधणयाए अकम्मस्स गती १, गोयमा ! से जहानामए-धूमस्स इंधणविप्पमुक्कस्स उड्ढे वीससाए निवाघाएणं, गती पवत्तति, एवं खलु गोयमा! । कहन्नं भंते! पुवप्पओगेणं अकम्मस्स गती षन्नत्ता ?, गोयमा ! से जहानामए-कंडस्स कोदंडविप्पमुक्कस्स लक्खाभिमुही निव्वाघाएणं गती पवत्तइ, एवं खलु गोयमा! नीसंगयाए निरंगणयाए जाव पुव्वप्पओगेणं अकम्मस्स गती पण्णत्ता ।। (सूत्रं २६४)॥
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व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥४९५॥
KAKKAKKARAKActors
[प्र०] हे भगवन् ! बंधननो छेद थवाथी कर्मरहित जीवनी गति शी रीते स्वीकाराय ? [उ.] हे गौतम ! जेम कोई एक वटाणानी शिंग, मगनी शिंग, अडदनी शिंग, सिंबलीनी (शेमळानी) शिंग अने एरंडानुं फल तडके मुक्या होय अने सुकाय त्यारे ते ७ शतके फुटीने (तेमांना वीज) पृथिवीनी एक बाजुए जाय; ए प्रमाणे हे गौतम! बंधननो छेद थवाथी कर्मरहित जीवनी गति स्वीकाराय हे. उदशः १ [प्र०] हे भगवन् ! निरिंधन ( कर्मरूप इन्धनथी मुक्त) थवाथी कर्मरहित जीवनी गति शी रीते स्वीकाराय ? [उ०] हे गौतम!8॥४९॥ इन्धनधी छूटेला धूमनी गति स्वाभाविक रीते प्रतिवन्ध शिवाय उंचे प्रवर्ते छे. ए प्रमाणे हे गौतम! [ निरिधनपणाथी-कर्मरूप इन्धनथी मुक्त थवाथी कर्मरहित जीवनी गति प्रवर्ते छे. ] [प्र०] हे भगवन् ! पूर्वना प्रयोगथी कमरहित जीवनी गति शी रीते खीकाराय ? [उ०] हे गौतम ! जेम कोइ एक धनुषधी छूटेला बाणनी गति प्रतिबन्ध शिवाय लक्ष्यना सन्मुख प्रवर्ते ठे, तेम हे
गौतम ! पूर्वप्रयोगथी कर्मरहित जीवनी गति स्वीकाराय छे, हे गौतम ! ए प्रमाणे निःसंगताथी, नीरागताथी, यावत् पूर्वप्रयोगथी 8 कर्मरहित जीवनी गति स्वीकाराय छे. ॥२६४ ॥
दुक्खी भंते ! दुक्खेणं फुडे अदुक्खी दुक्खेणं फुडे ?, गोयमा ! दुक्खी दुक्खेणं फुडे, नो अदुक्खी दु. क्षेणं फुडे । दुक्खी णं भंते ! नेरतिए दुक्खेण फुडे अदुक्खी नेरतिए दुक्खेणं फुडे ?, गोयमा! दुक्खी नेरइए दुक्खेणं फुडे, नो अदुक्खी नेरतिए दुक्खेणं फुडे, एवं दंडओ जाव वेमाणियाणं, एवं पंच दंडगा नेयव्वा, दुक्खी दुक्खेणं फुडे १ दुक्खी दुक्खं परियायइ २ दुक्खी दुक्ख उदीरेइ ३ दुक्खी दुक्ख वेदेति ४ दुक्खी दुक्खं निजरेति ५॥ (सूत्रं २६५)॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४९६॥
| ७ शतके उद्देशः१ ॥४९६॥
[प्र०] हे भगवन् ! दुःखी जीव दुःखथी व्याप्त बद्ध होय के अदुःखी-दुःखरहित जीव दुःखथी व्याप्त होय ? [उ०] हे गौतम, दुःखी जीव दुःखथी व्याप्त होय, पण दुःखरहित जीव दुःखथी व्याप्त न होय. [म.] हे भगवन् ! दुःखी नारक दुःखथी व्याप्त | होय के अदुःखी नारक दुःखथी व्याप्त होय ? [उ०] हे गौतम! दुःखी नारक दुःखथी व्याप्त होय, पण दुःखरहित नारक दुःखथी व्याप्त न होय. ए प्रमाणे यावत् वैमानिकने विषे दंडक कडेवो. ए प्रमाणे पांच दंडक जाणवा-१ दुःखी दुःखथी व्याप्त छे, २ दुःखी दुःखने ग्रहण करे छे, ३ दुःखी दुःखने उदीरे छे, ४ दुःखी दुःखने वेदे छे, ५ दुःखी दुःखनी निर्जरा करे छे. ॥ २६५ ॥
अणगारस्स णं भंते ! अणाउत्तं गच्छमाणस्स वा चिट्ठमाणस्स वा निसियमाणस्स(वा) तुयदृमाणस्स वा अणाउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं गेण्हमाणस्स वा निक्खिवमाणस्स वा तस्स णं भंते ! किं इरियावयिा किरिया कजइ? संपराइया किरिया कजइ ?, गो! नो ईरियावहिया किरिया कजति, संपराइया किरिया कजति । से केण?णं.?, गोयमा ! जस्स णं कोहमाणमायालोमा वोच्छिन्ना भवंति तस्स णं ईरियावहिया किरिया कन्जइ, नो संपराइया किरिया कजइ, जस्स णं कोहमाणमायालोभा अवोच्छिन्ना भवंति | तस्स णं संपरायकिरिया कजइ, नो ईरियावहिया, अहासुत्तं रीयमाणस्स ईरियावहिया किरिया कन्जइ, उस्सुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जइ, से ण उस्सुत्तमेव रिपति, से तेणटेणं०॥ (सूत्रं २६६)॥
[प्र०] हे भगवन् ! उपयोग (आत्मजागृति, सावधानता) शिवाय गमन करता, उभा रहेता, बेसता अने सूता, तेमज उपयोग शिवाय वस्त्र, पात्र, काम्बल अने पादरोंच्छनक (रजोहरण) ने ग्रहण करता ने मुकता अनगार (साधु) ने हे भगवन् ! ऐर्यापथिकी
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क्रिया लागे के सांपरायिकी क्रिया लागे? [उ०] हे गौतम ! ऐर्यापथिकी क्रिया न लागे, पण सांपरायिकी क्रिया लागे. [प्र.] हे व्याख्या- भगवन् ! शा हेतुथी? [उ०] हे गौतम ! जेना क्रोध, मान माया अने लोभ व्युच्छिन्न-क्षीण थया के तेने ऐपिथिकी क्रिया लागे
का शतके प्रज्ञप्तिः छे, पण सांपरायिकी क्रिया लागती नथी. जेना क्रोध, मान, माया अने लोभ व्युच्छिन्न थया नथी तेने सांपरायिकी क्रिया लागे
| उद्देशः१ ॥४९७॥
छे, पण ऐर्यापथिकी क्रिया लागती नथी. सूत्रने अनुसारे वर्त्तता साधुने ऐपिथिकी क्रिया लागे छे, अने मूत्रविरुद्ध वर्तनारने सांप ला॥४९७॥ रायिकी क्रिया लागे छे, ते उपयोगरहित साधु मूत्र विरुद्ध वर्ते छे ते माटे हे गौतम ! तेने सांपरायिकी क्रिया लागे हे. ॥२६६॥
__ अह भंते! सइंगालस्स सधूमस्स संजोयणादोसदुस्स पाणभोयणस्स के अढे पण्णत्ते!, गायमा! जे णं निग्गंथे हैवा निग्गंधी वा फासुएसणिजं असणपाण ४ पडिगाहित्ता मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववन्ने आहारं आहारेति,
एस णं गोयमा! मइंगाले पाणभोयणे, जे णं निग्गंथे वा निगंथी वा फासुगमणिजं अमणपाण४ पडिगाहित्ता महया २ अप्पत्तियकोहकिलामं करेमाणे आहारमाहारेइ एस णं गोयमा ! सधूमे पाणभोयणे, जे णं निग्गंथे वा २ जाव पडिगाहेत्ता गुणुप्पायण हे अन्नदव्वेण सद्धिं संजोएत्ता आहारमाहारेइ एस णं गोयमा ! संजोयणादोसदुहे पाणभोयणे, एस णं गोयमा ! सइंगालस्स सधृमस्स संजोयणादोसदुदृस्स पाणभोयणस्स अट्टे पन्नत्त । अह भंते ! वीतिगालस्स वीयधूमस्स संजोयणादोमविप्पमुकस्स पाणभोयणस्म के अहे पन्नत्ते ?, गोयमा ! जे णं णिग्गंथो वा जाव पडिगाहेत्ता अमुच्छिए जाव आहारेति एस णं गोयमा! वीतिंगाले पाणभोयणे, जे णं निग्गंथे वा निग्गंधी वा जाव पडिगाहेत्ता णो महया अप्पत्तियं जाच आहारेइ एस णं गोयमा!
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७ शतके उद्देशः१ ॥४९८॥
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वीयधूमे पाणभोयणे, जे णं निग्गंथे वा निग्गंधी वा जाव पडिगाहेत्ता जहालद्धं तहा आहारमाहारेइ एस व्याख्या
kणं गोयमा ! संजोयणादोसविप्पमुक पाणभोयणे, एस णं गोयमा! वीतिगालस्म वीयधूमस्स संजोयणादोसविप्रज्ञप्तिः दाप्पमुकस्स पाणभोषणस्स अट्टे पन्नत्त।। (सूत्रं २६७) ।। ॥४९८॥ का [प्र०] हे भगवन् ! अंगारदोषसहित अने धूमदोषसहित संयोजनादोषवडे दुष्ट पानभोजननो शो अर्थ कह्यो छे ? [उ०] हे*
गौतम ! कोइ निर्धन्थ-साधु या साध्वी प्रामुक अने एपणीय अशन, पान, खादिम अने खादिम आहारने ग्रहण करी मूञ्छित, गृद्ध, ग्रथित अने आसक्त थइने आहार करे तो हे गौतम ! ए अंगारदोषसहित पानभोजन कहेवाय. बळी जे जे कोइ साधु या साध्वी पामुक एपणीय अशन, पान, खादिम अने स्वादिम आहारने ग्रहण करी अत्यंत अप्रीतिपूर्वक क्रोधथी खिन्न थइने आहार करे तो हे गौतम ! ए धमदोषसहित पानभोजन कहेवाय. कोइ साधु या साध्वी यावत् [आहारने] ग्रहण करीने गुण (स्वाद) उत्पन्न करवा माटे बीजा पदार्थ साये संयोग करीने आहार करे तो हे गौतम ! ए संयोजनादोषवडे दुष्ट पानभोजन कहेवाय. हे गौतम! ए प्रकारे अंगारदोष, धूमदोष अने संयोजनादोषयी दुष्ट पानभोजननो अर्थ कह्यो. [प्र०] हे भगवन् ! हवे अंगारदोषरहित, धूमदोषरहित अने संयोजनादोषरहित पानभोजननो शो अर्थ कह्यो ? [उ०] हे गौतम? जे कोई निर्ग्रन्थ (के निर्ग्रन्थी) यावत् (आहारने) ग्रहण करीने मूर्छारहित यावत् आहार करे, तो हे गौतम ! अंगारदोषरहित पानभोजन कहेवाय. वळी जे कोइ निग्रन्थ के निग्रन्थी यावत् ग्रहण करीने अत्यन्त अप्रीतिपूर्वक यावत् आहार न करे, हे गौतम ! ए धृमदोषरहित पानभोजन कहेवाय. जे कोइ निर्ग्रन्थ के निर्ग्रन्थी यावत् ग्रहण करीने जेवो प्राप्त थाय तेवोज आहार करे (परन्तु खाद माटे वीजा साथे संयोग न करे,) हे मौतम! ए संयोजनादोप
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥४९९॥
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रहित पानभोजन कडेवाय, आ अंगारदोपरहितः धूमदोषरहित अने संयोजनादोषरहित पानभोजननो अर्थ को छे. २६७॥ अह भंते! खेत्तातिकंतस्स कालातिकंतस्स मग्गातिकंतस्स पमाणा तिक्कंतस्स पाणभोयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते ?, गो० ! जे णं निग्गंथे वा निग्गंधी वा फासुएसणिज्जं णं असणं ४ अणुग्गए सूरिए पडिग्गाहित्ता उग्गए सरिए आहारमाहारेति एस णं गोयमा ! वित्तातिकंते पाणभोयणे, जेणं निग्गंथो वा २ जाव साइमं पढमाए पोरिसीए पडिग्गाहेत्ता पच्छिम पोरिसिं उवायणावेत्ता आहारं आहारेंइ एस णं गोयमा ! कालातिक्कंते पाणभोयणे, जे णं निग्गंधो वा २ जाव साइमं पडिगाहित्ता परं अद्धजोयण| मेराए वीइकमावइत्ता आहारमाहारेड एस णं गोयमा ! मग्गातिकंते पाणभोयणे, जेणं निग्गंथो वा निग्गंधी वा फासुएसणिजं जाव साइमं पडिगाहित्ता परं बत्तीसाए कुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ताणं कवलाणं आहारमाहारेइ एस णं गोयमा ! पमाणाइते पाणभोयणे, अट्ठकुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे अप्पाहारे दुवाल कुक्कुडिअंडगप्पमाणमेते कवले आहारमाहारेमाणे अवड्ढोमोयरिया सोलसकुक्कुडिअडगप्पमाणमेते कवले आहारमाहारेमाणे दुभागण्पत्ते च उब्वीस कुक्कुडिअडगप्पमाणे जाव आहारमाहारेमाणे ओमोदरिए बत्तीसं कुक्कुडिअंडगमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे पमाणप्पत्ते, एत्तो एक्केणवि गासेणं ऊणगं आहारमाहारेमाणे समणे निग्गंथे नो पकामरसभोई इति वत्तव्यं सिया, एम णं गोयमा खेत्तातितस्स कालातिक्कंतस्स मग्गातिकंतस्स पमाणातिक्कंतस्स पाणभोयणस्स अट्ठे पन्नत्ते ॥ ( सूत्रं २६८ ) |
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७ शतके उद्देशः १
॥ ४९९ ।।
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५०॥
७ शतके उद्देशः१ ॥५०॥
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[प्र०] हे भगवन् ! हवे क्षेत्रातिप्रान्त, कालातिक्रान्त, मार्गातिक्रान्त अने प्रमाणातिक्रान्त पानभोजननो शो अर्थ कह्यो छे ? | [उ०] हे गौतम ! कोइ साधु या साध्वी प्रामुक अने एपणीय अशन, पान, खादिम अने स्वादिम आहारने सूर्य उग्या पहेला ग्रहण | करी सूर्य उग्या पछी खाय, हे गौतम ! ए क्षेत्रातिक्रान्त पानभोजन कहेवाय. कोइ साधु या साध्वी यावत् स्वादिम आहारने पहेला पहोरमां ग्रहण करी हेल्ला पहोर सुधी राखीने पछी तेनो आहार करे, हे गौतम ! आ कालातिकान्त पानभोजन कहेवाय. कोइ साधु या साध्वी यावत् खादिम आहारने ग्रहण करीने अर्धयोजननी मर्यादाने ओळंगी पछी खाय, हे गौतम! ए मार्गातिक्रान्त पानभोजन कहेवाय. कोइ साधु के साध्वी प्रासुक अने एषणीय यावत् स्वादिम आहारने ग्रहण करीने कुकडीना इंडा प्रमाण बत्रीशथी अधिक कवल खाय, हे गौतम! ए प्रमाषातिक्रान्त पानभोजन कहेवाय, कुकडीना इंडाप्रमाण मात्र आठ कवलनो आहार करनार साधु अल्पाहारी कहेवाय. कुकडीना इंडाप्रमाण मात्र बार कवलनो आहार करनार साधुने काइक न्यून अर्ध ऊनोदरिका कहेवाय. कुकडीना इंडाप्रमाण मात्र सोल कोळीआनो आहार करनार साधु द्विभागप्राप्त-अर्धाहारी कहेवाय. कुकडीना इंडाप्रमाण मात्र चोवीस कवलना आहार करनार साधुने ऊनोदरिका कहेवाय. कुकडीना इंडाप्रमाण मात्र बत्रीश कवलनो आहार करनार साधु पमाणमात्रप्रमाणसर भोजन करनार कहेवाय, तेथी एक पण कवल ओछो आहार करनार साधु 'प्रक्रामरसभोजी-अत्यन्त मधुरादि रसनो भोक्ता' ए प्रमाणे न कही शकाय. हे गौतम! ए प्रमाणे क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिक्रान्त, मार्गातिक्रान्त अने प्रमाणातिक्रान्त पानभोजननो अर्थ कह्यो छे. ॥ २६८॥
अह भंते ! सत्यातीयस्म सत्थपरिणामयस्स एसियस्स वेसियस्स समुदाणियस्स पाणभोयणस्स के अहे
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प्रज्ञप्ति ॥५०॥
पन्नत्ते ?, गोयमा ! जे पं निग्गंथे वा निग्गंधी वा निक्वित्तसत्थमुसले ववगयमालावन्नगविलेवणे ववगयचुयचइयचत्तदेहं जीवविप्पजढं अकयमकारियमसंकप्पियमणाहृयमकीयकडमणुट्टि नवकोडीपरिसुद्धं दसदो
२७ शतके सविष्पमुकं उग्गमुप्पायणेसणासुपरिसुद्धं वीतिंगालं वीतधूमं संजोयणादोसविप्पमुकं असुरसुरं अचवचवं अ
उद्देशः१ दुयमविलंबियं अपरिसाडी अक्खोवंजणवणाणुलेवणभूयं संयमजायामायावत्तिय संजमभारवहणट्ठयाए ₹५०१॥ बिलमिव पन्नगभूएणं अप्पाणेणं आहारमाहारेति एस णं गोयमा! सत्यातीयस्स सत्थपरिणामियस्स जाव पाणभोयणस्म अयमढे पन्नत्ते । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥ ( सूत्रं २६९) ॥ सत्तमसए पढमो उद्देसो संमत्तो ७-१॥
(प्र०] हे भगवन् ! शस्त्रातीत ( अनि वगेरे शस्त्रथी उतरेलो) शस्त्रपरिणमित (अग्नि वगेरे शस्त्रथी परिणाम पामेलो-अचित्त करायलो), एपित (एषणा दोपथी रहित ), व्येषित (विविध या विशेषतः एपणादोपथी रहित) सामुदायिक-मिक्षारूप पानभोजननो शो अर्थ कयो छे ? [उ०] हे गौतम! कोइ साधु या साध्वी जे शस्त्र अने मुशलादिरहित हे, तेम पुष्पमाला अने चन्दनना विलेपन रहित छे तेओ कृम्यादि जन्तु रहित, निर्जीव, (साधुने माटे) नहि करेल, नहि करावेल, नहि संकल्पेल, अनाहूत-आमन्त्रण रहित, नहि खरीदेल, औद्देशिक रहित, नवकोटि विशुद्ध, शंकितादि दशदोष रहित, उद्गम अने उत्पादनैपणाना दोपथी विशुद्ध, अंगारदोपरहित, धृमदोषरहित, संयोजनादोपरहित, सुरसुरके चपचप शब्द रहितपणे, बहु उतावळथी नहि तेम बहु धीमेथी नहि, (आहारना) कोइ भागने छोडया शिवाय, गाडानी धरीना मेलनी पेठे के व्रण उपरना लेपनी पेठे, केवळ संयमना निर्वाहने माटे, संयमना
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| भारने वहन करवा अर्थे जेम साप बिलमा पेसे तेम पोते आहार करे, हे गौतम ! ए शस्त्रातीत, शस्त्रपरिणामित यावत् पानभोजननो | * अर्थ को छे. हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे, एम कही गौतम ! यावत् विचरे छे. ॥ २६८ ॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना सातमा शतकमा प्रथम उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५०२॥
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७ शतके उद्देशः२ ॥५०२॥
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उद्देशक २. से नूर्ण भंते ! सब्वपाणेहिं सब्वभूपहिं सव्वजीवेहिं सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वदमाणस्स सुपञ्चक्खायं भवति? दुपच्चक्खायं भवति?, गोयमा! सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वदमाणस्स सिय सुपचक्खायं भवति, सिय दुपचक्खायं भवति, से केण?णं भते! एवं वुच्चइ सव्वपाणेहिं जाव सिय दुप्पचक्खायं भवति?, गोयमा ! जस्स ण सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वदमाणस्स णो एवं अभिसमन्नागयं भवति इमे जीवा इमे अजीवा इमे तसा इमे थावरा तस्स णं सवपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पञ्चक्वायमिति वदमाणस्स नो सुपचक्खायं भवति, दुपच्चरखायं भवति, एवं खलु से दु. पञ्चक्खाई सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पचक्खायमिति वदमाणो नो सच्च भासं भासइ, मोसं भासं भासइ, एवं खलु से मुसाबाई सव्वपाणेहिं जाव सब्वसत्तहिं तिविहं तिविहेणं असंजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतवाले यावि भवति, जस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सब्यसत्तेहिं पच्च
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व्याख्या प्रज्ञप्ति ॥५०३॥
उद्देशः२
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क्खायमिति वदमाणस्स एवं अभिसमन्नागयं भवइ--इमे जीवा इमे अजीवा इमे तसा इमे थावरा, तस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तहिं पच्चक्खायमिति वदमाणस्स सुपचक्खायं भवति, नो दुपच्चक्वायं भवति, एवं खलु से सुपच्चखाई सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वयमाणे सच्चं भासं भासइ, नो मोसं भासं भासइ, एवं खलु से सच्चवादी सब्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं तिविहं तिविहेणं संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे अकिरिए संवुडे एगंतपंडिए यावि भवति, से तेणटेणं गोममा! एवं वुच्चइ जाव सिय दुपच्चक्रवायं भवति ॥ (सूत्रं २७० )॥
[प्र०] हे भगवन् ! सर्व पाणोमां, सर्व भूतोमां जीवोमां अने सर्व सच्चोमा में (हिसान) प्रत्याख्यान कयु छे' ए प्रमाणे बोलनारने सुप्रत्याख्यान थाय के दुष्प्रत्याख्यान थाय ? [उ०] हे गौतम ! सर्व प्राणोमां यावत् सर्व सच्चोमा प्रत्याख्यान कर्यु छ' ए प्रमाणे बोलनारने कदाच सुप्रत्याख्यान थाय अने कदाच दुष्प्रत्यख्यान थाय. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के-सर्व प्राणोमां यावत् सर्व सत्वोमां यावत् कदाच दुष्प्रत्याख्यान थाय ? [उ०] हे गौतम ! सर्व प्राणोमां यावत् सर्व सत्वोमा प्रत्याख्यान
कयु के ए प्रमाणे बोलनार जेने आवा प्रकारचें ज्ञान न होय के "आ जीवो के, आ अजीवो छे, आ त्रसो छे, आ स्थावरो छे" तेनेST'सर्व प्राणोमां यावत् सर्व सत्वोमा प्रत्याख्यान कयु छे' ए प्रमाणे कहेनारने-सुप्रत्याख्यान न थाय, पण दुष्प्रत्याख्यान थाय. ए
ते खरेखर ते दुष्प्रत्याख्यानी 'सर्व प्राणिोमां यावत् सर्व सत्वोमा प्रत्याख्यान कयुं छे' एम बोलतो सत्य भाषा बोलतो नथी, | असत्य भाषा बोले छे. ए प्रमाणे ते मृषावादी सर्व प्राणोमां यावत् सर्व सत्वोमा त्रिविधे त्रिविधे असंयत-संयमरहित, अविरत
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प्रज्ञप्तिः ॥५०४॥
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विरतिरहित, जेणे पापकर्मनो त्याग के प्रत्याख्यान कर्य नथी एवो, सक्रिय कर्मबन्धसहित, संवररहित, एकान्त दण्ड एटले हिंसा करनार अने एकान्त अज्ञ छे. सर्व प्राणोमां यावत् 'सर्व सत्वोमां प्रत्याख्यान कयु छे' ए प्रमाणे बोलनार जेने आq ज्ञान थयु होय के "आ
४७ शतके जीवो के, आ अजीयो छ, आ त्रसो छ, आ स्थावरो छे,"-तेने सर्व प्राणोमां यावत् सर्व सत्वोमां प्रत्याख्यान कयुं छे' ए प्रमाणे
लउद्देशः २ बोलनारने-सुप्रत्याख्यान थाय, दुष्प्रत्याख्यान न थाय. ए प्रमाणे खरेखर ते सुप्रत्याख्यानी 'सर्व प्राणोमां यावत् सर्व सत्वोमां ५०४॥ प्रत्याख्यान कथु छे' एम चोलतो सत्य भाषा बोले डे, मृषा भाषा बोलतो नथी. ए रीते ते सुप्रत्याख्यानी, सत्यभापी, सर्व प्राणोमां यावत् सर्व सत्वोमां त्रिविधे त्रिविधे संयत, विरति युक्त, जेणे पापकर्मनो घात ने प्रत्याख्यान कयुं छे एवो, अक्रिय-कर्मबंधरहित, संवरयुक्त एकान्त पंडित पण हे. हे गौतम ! ते हेतुथी एम कहेवाय छे के यावत् कदाच दुष्प्रत्याख्यान थाय. ॥ २७० ।।
कतिविहे णं भंते ! पचक्खाणे पन्नत्ते ?, गोयमा ! दुविहे पचक्खाणे पन्नत्ते, तंजहा-मूलगुणपञ्चक्खाणे य उत्तरगुणपञ्चक्खाणे य । मूलगुणपञ्चक्खाणे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते?, गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-सव्वमूलगुणपञ्चक्खाणे य देसमूलगुणपच्चक्खाणे य, सव्वमूलगुणपञ्चक्खाणे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्त ?, गोयमा ! पंचविहे पन्नत्त, तंजहा-सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं जाव सब्वाओ परिग्गहाओ चेरमणं । देसमूलगुणपञ्चक्खाणे णं भंते ! कइविहे पन्नत्त, गोयमा ! पंचविहे पन्नते, तंजहा-धूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं जाव चलाओ परिग्गहाओ वेरमणं। उत्तरगुणपञ्चक्खाणे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्त ?, गोयमा! दुविहे पन्नत्त, तंजहा-सव्वुत्तरगुणपच्चखाणे य देसुत्तरगुणपञ्चक्खाणे य, सव्वुत्तरगुणपञ्चक्रवाणे णं भंते ! कतिविहे
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥५०५ ॥
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पन्नत्ते ?, गोयमा ! दसविहे पन्नत्ते, तंजहा अणागय १ महकतं २ कोडीसहियं ३ नियंटिय ४ चेव । सागार ५ मणागारं ६ परिमाणकडे ७ निरवसेसं ८ ॥ ५४ ॥ साकेयं ९ चेव अद्धाए १० पञ्चक्खाणं भवे दसहा । देसुत्तरगुणपञ्चवाणे णं भंते ! कहविहे पन्नत्ते ?, गोयमा ! सत्तविहे पन्नत्ते, तंजहा- दिसिव्वयं १ उपभोगपभोगपरिमाणं २ अनत्यदंडवेरमणं ३ सामाइयं ४ देसावगासियं ५ पोसहोववासो ६ अतिहिसंविभागो ७ अपच्छिममारणंतियसंलेहणासणारा हणता (सूत्रं २७१) ॥
[प्र० ] हे भगवन् ! केटला प्रकारे पच्चक्खाण कछु छे ? [अ०] हे गौतम! वे प्रकारे पच्चक्खाण कछु छे. ते आ प्रकारे-मूलगुणपच्चक्खाण अने उत्तरगुणपचक्खाण. [प्र० ] हे भगवन्! मूलगुणपच्चक्खाण केटला प्रकारनुं कछु छे ? [अ०] हे गौतम! मूलगुण प्रत्याख्यान वे प्रकारनुं क ुं छे, ते आ प्रकारे सर्वमूलगुणप्रत्याख्यान अने देशमूलगुणप्रत्याख्यान. [प्र० ] हे भगवन् ! सर्वमूलगुण प्रत्याख्यान केटला प्रकारे कथं छे ? [अ०] हे गौतम! सर्वमूलगुण प्रत्याख्यान पांच प्रकारे कछु छे; ते आ प्रमाणे- सर्व प्राणातिपातथी विराम पामवो, यावत् सर्व मृषावादथी विराम पामवो. [प्र० ] हे भगवन् ! देशमूलगुणप्रत्याख्यान केटला प्रकारे कछु छे ? [अ०] हे गौतम! देश मूलगुणप्रत्याख्यान पांच प्रकारे कछु छे; ते आ प्रमाणे- स्थूलप्राणातिपातथी विरमण यावत् स्थूलमृपावादथी विरमण. [प्र० ] हे भगवन् ! उत्तरगुणप्रत्याख्यान केटला प्रकारेकां छे? [30] हे गौतम ! उत्तरगुणप्रत्याख्यान वे प्रकारे कछु छे; ते आ प्रमाणे- सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यान अने देशोत्तरगुणप्रत्याख्यान. [ प्र० ] हे भगवन् ! सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यान केटला प्रकारे का छे? [उ०] हे गौतम! सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यान दश प्रकारे कछु ले; ते आ प्रमाणे- १ अनागत, २ अतिक्रान्त, ३ कोटिसहित ४
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७ शतके उद्देशः २ ।।५०५ ॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५०६॥
७ शतके उद्देशः २ ॥५०६॥
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नियव्रित, ५ साकार, ६ अनाकार, ७ कृतपरिमाण,८ निरवशेष, संकेत, १० अद्धा प्रत्याख्यान. ए रीते प्रत्याख्यान दश प्रकारे कधु छे. [प्र०] हे भगवन् ! देशोत्तरगुणप्रत्याख्यान केटला प्रकारे कयुछे ? [उ०] हे गौतम ! देशोत्तरगुणप्रत्याख्यान सात प्रकारे काळे, ते आ प्रमाणे-१ दिग्वत, २ उपभोगपरिमोगपरिमाण, ३ अनर्थदंडविरमण, ४ सामायिक, ५ देशावकाशिक, ६ पोषधोप| वास, ७ अतिथिसंविभाग अने अपश्चिममारणान्तिक-संलेखणाजोपणाऽऽराधना. ॥ २७१ ॥
जीवा णं भंते ! किं मूलगुणपच्चक्खाणी उत्तरगुणपच्चक्खाणी अपञ्चक्खाणी?, गोयमा ! जीवा मूलगुणपच्चक्वाणीवि उत्तरगुणपच्चक्खाणीवि अपचक्खाणीवि । नेरइया णं भंते ! किं मूलगुणपचक्खाणी० पुच्छा?, गोयमा! नेरइया नो मूलगुणपञ्चक्खाणी, नो उत्तरगुणपञ्चक्खाणी, अपञ्चक्खाणी, एवं जाव चउरिदिया, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य जहा जीवा, वाणमंइरजोइसियवेमाणिया जहा नेरइया ॥ एएसि णं भंते ! मूलगुणपञ्चक्खाणी उत्तरगुणपञ्चक्रवाणी अपचक्खाणी य कयरे २ हिंतो जाव विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा मूलगुणपञ्चक्खाणी, उत्तरगुणपञ्चक्रवाणी असंखेनगुणा, अपञ्चक्रवाणी अनंतगुणा ।
[प्र०] हे भगवन् ! जीवो शुं मूलगुणपत्याख्यानी, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी के अप्रत्याख्यानी छ ? [उ०] हे गौतम ! जीवो | मूलगुणप्रत्याख्यानी पण छे, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी पण छे अने अप्रत्याख्यानी पण छे. [प्र.] हे भगवन् ! नारक जीवो शुं मूलगुण| प्रत्याख्यानी छे ? इत्यादि प्रश्न. [उ०] हे गौतम : नारको मूलगुणप्रत्याख्यानी नथी, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी नथी, पण अप्रत्याख्यानी छे, ए प्रमाणे यावत् चरिन्द्रिय जीवो जाणवा. पंचेन्द्रिय तियेच अने मनुष्यो जेम जीवो कह्या तेम जाणवा. वानमंतर, ज्योतिष्क
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥५०७ ॥
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अने वैमानिक देवो जेम नारको कला तेम जाणवा. [प्र० ] हे भगवन् ! मूलगुणप्रत्याख्यानी, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी अने अप्रत्याख्यानी जीवोमां कोण कोनाथी यावत् विशेषाधिक छे ? [अ०] हे गौतम! मूलगुणप्रत्याख्यानी जीवो सौथी थोडा छे, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी असंख्यगुण छे, अने अप्रत्याख्यानी अनंतगुण छे.
एएसि णं भंते! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मूलगुण पञ्चक्खाणी, उत्तरगुणपञ्चक्खाणी असंखेज्जगुणा, अपचक्खाणी असंखिज्जगुणा । एएसि णं भंते! मणुस्सार्ण मूलगुणपञ्चक्खाणीणं० पुच्छा, गोयमाः सव्वत्थोवा मणुस्सा मूलगुणपञ्चकखाणी, उत्तरगुणपञ्चवाणी संखेज्जगुणा, अपच्चक्खाणी असंखेज्जगुणा । जीवा णं भंते ! किं सव्वमूलगुणपचक्खाणी देसमूलगुणपच्चक्खाखी अपञ्चकखाणी?, गोयमा ! जीवा सच्चमूलगुणपञ्चक्खाणी देसमूलगुणपञ्चक्खाणी अपचक्खाणीवि । नेरइयाणं पुच्छा, गोयमा ! नेरइया नो सव्वमूलगुणपच्चक्खाणी, नो देममूलगुणपञ्चक्खाणी, अपञ्चक्खाणी, एवं जाव चउरिंदिया । पंचिंदियतिरिक्खपुच्छा, गोयमा ! पंचिंदियतिरिक्ख० नो सब्वमूलगुणपच्चक्खाणी, देसमूलगुणपच्चक्खाणी अपञ्चखाणीवि, मणुस्सा जहा जीवा, वाणमंतरजोइसवेमाणिया जहा नेरइया ।
[प्र० ] हे भगवन् ! ए (पूर्वे कला) जीवोमां पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवोनो प्रश्न. [उ०] हे गौतम! मूलगुणप्रत्याख्यानी पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवो सर्वथी थोडा छे, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी असंख्यगुण हे, अने अप्रत्याख्यानी असंख्यगुण छे. [प्र० ] हे भगवन् ! ए | जीवोमां मूलगुअप्रत्याख्यानी वगेरे मनुष्योनो प्रश्न. [उ० ] हे गौतम ! मूलगुणप्रत्याख्यानी मनुष्यो सर्वयी थोडा हे, उत्तरगुणम
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७ शतके उद्देशः २
॥ ५०७॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥५०८ ॥
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त्याख्याननी मनुष्यो संख्यातगुण छे, अने अप्रत्याख्यानी मनुष्यो असंख्यगुण छे. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं जीवो सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी छे, देशमूलगुणप्रत्याख्यानी छे के अप्रत्याख्यानी छे ? [उ०] हे गौतम! जीवो सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी छे, देशमूलगुणप्रत्याख्यानी छे, अने अप्रत्याख्यानी पण छे. [प्र० ] नारकोनो प्रश्न. [उ०] हे गौतम! नारको सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी नथी, देशमूलगुणप्रत्याख्यानी नथी, पण अप्रत्याख्यानी छे. [प्र० ] पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवोनो प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! पंचेन्द्रियतिर्यंचो सर्वमूलगुणप्रत्यानी नथी, पण देशमूलगुणप्रत्याख्यानी छे अने अप्रत्याख्यानी छे, जेम जीवो कह्या तेम मनुष्यो जाणवा. जेम नारको कथा तेम वानमंतर, ज्योतिष्क अने वैमानिको जाणवा.
एसि णं भंते! जीवाणं सव्वमूलगुणपच्चक्खाणीणं देसमूलगुणपच्चक्खाणीणं अपञ्चक्खाणीण य कयरे२ हिंतो जाव विसेसाहिया वा?, गोपमा! सव्वत्थोवा जीवा सव्वमूलगुणपचक्खाणी, देसमूलगुणपञ्चक्खाणी असंखेज्जगुणा, अपञ्चक्खाणी अनंतगुणा एवं अप्पाबहुगाणि तिन्निवि जहा पढमिल्लए दंडए, नवरं सव्वत्थोवा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया | देसमूलगुणपञ्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी असंखेज्जगुणा । जीवा णं भंते ! किं सव्युत्तरगुणपचक्खाणी देसुत्तरगुणपञ्चक्खाणी अपञ्चक्खाणी ?, गोयमा ! जीवा सव्युत्तरगुणपञ्चक्खाणीवि तिन्निवि, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य एवं चेव, सेसा अपचक्खाणी जाव बेमाणिया । एएसि णं भंते! जीवाणं सव्युत्तरगुणपचक्खाणी अप्पा बहुगाणि तिन्निवि जहा पढमे दंडए जाव मणूसाणं ॥ जीवा णं भंते! किं संजया असंजया संजयासंजया ?, गोयमा ! जीवा संजयावि असंजयावि संजयासंजयावि तिन्निवि, एवं जहेब पन्नवणाए तहेव भाणि
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७ शतके
उद्देशः २ ||५०८ ॥
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥५०९ ॥
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si, जाव वैमाणिया, अप्पाबहुतहेब तिन्हवि भाणियच्वं ॥ जीवा णं तं । किं पञ्चवाणी अपचवाणी पञ्चवाणापचक्खाणी?, गोवमा! जीवा पच्चत्रवाणीव एवं निन्निवि, एवं मणुस्साणवि तिन्निवि, पंचिदियतिरिक्खजोणिया आइल्लविरहिया, सेसा सब्वे अपचक्खाणी जाव वैमाणिया ।
[A] हे भगवन् ! सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी, देशकलगुणप्रत्याख्यानी अने अप्रत्याख्यानी जीवोमां कोण कोनाथी यात्रत् विशेपाधिक छे ? [उ०] हे गौतम! स मिल गुणवत्याख्यानी जीवो सर्ववी थोडा हे देशमलवणवत्याख्यानी जीवो असंख्यगुण छे, अने अप्रत्याख्यानी अनंतगुण छे. ए प्रमाणे त्रणे (जीव, पंचेन्द्रिय तिर्यंच अने मनुष्यना) अलबहु वो प्रथम दंडकमा (सू० ११, १२, १३) का प्रमाणे जाणवा, परंतु सर्वथी थोडा पंचेन्द्रिय तिर्यंचो देश मूलगुणप्रत्याख्यानी ले, अने अप्रत्याख्यानी पंचेन्द्रिय तिर्यंचो असंख्यगुण है. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं जीवो सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानी हे देशोत्तरगुणप्रत्याख्यानी है, के अपत्याख्यानी ले ? [अ०] हे गौतम! जीवो सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानी विगेरे वगे प्रकारना छे. पंचेन्द्रिय तिर्यचो अने मनुष्यो ए प्रमाणे हे. बाकीना वैमानिक सुधीना जीवो अप्रत्याख्यानी हे [प्र० ] हे भगवन् ! सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानी, देशोत्तरगुणप्रत्याख्यानी अने अप्रत्याख्यानी जीवोमां कोण को नाथी यावत् विशेषाधिक के ? [उ० ] त्रणे अल्पबहुचो प्रथम दंडकां कह्या प्रमाणे यावत् मनुष्यो जाणवा. [प्र० ] हे भगवन्द ! शुं जीवो संयत छे, असंगत ले के संयतासंयत (देश संयत) छे ? [अ०] हे गौतम! जीरो संयत पण हे असंयत पण है, अने संयतासंयत पण ए त्रणे प्रकारना है. ए प्रमाणे जेम पकवणामां कां हे ते प्रमाणे यावत् वैमनिकोने अहीं कहे तेम अल्पबहुत्व पण त्रणेनुं कहें. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं जीवो प्रत्याख्यानी हे अप्र याख्यानी छे, के प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी (देश
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५१०॥
७शतके उद्देशः १ ॥५१॥
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त्याख्यानी) छे ? [उ०] हे गौतम ! जीवो प्रत्याख्यानी विगैरे त्रणे प्रकारना छे. ए प्रमाणे मनुष्यो पण त्रणे प्रकारना छे. पंचेन्द्रियतियंचयोनिको प्रथमभंगरहित छे. बाकीना वैमानिक सुधीना सर्व जीवो अप्रत्याख्यानी छे.
एएसिणं भंते! जीवाणं पचवाणीणं जाब विसेसाहिया वा?,गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा पञ्चक्रवाणी,पचक्खाणापञ्चक्खाणी असंखेजगुणा,अपच्चरवाणी अगंतगुणा,पंचेंदियतिरिक्खजोणिया सव्वथोवा पच्चखाणापञ्चक्खाणी, अपञ्चरखाणी असंखेज्जगुणा, मणुस्मा सव्वत्थोवा पचवाणी, पञ्चवाणापञ्चकवाणो संखेजगुणा, अपचक्खाणी असंखेनगुणा ।। (मत्र २७२)॥
[प्र०] हे भगवन् ! प्रत्याख्यानी विगेरे जीवोमां यावत् कोण विशेषाधिक छ ? [उ०] हे गौतम ! प्रत्याख्यानी जीवो | सौथी थोडा छे, प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी असंख्यगुण छ, अने अप्रत्याख्यानी अनंतगुण छे. देशप्रत्याख्यानी पंचेन्द्रिय तियंचो सर्वथी थोडा छे. अने अप्रत्याख्यानी असंख्यगुण छे. प्रत्याख्यानी मनुष्यो सर्वथी थोडा छे देशप्रत्याख्यानी संख्यातगुण छे, अने अप्रत्याख्यानी असंख्यगुण छे. ।। २७२ ।।
जीवा णं भंते ! किं सासया असासया ?, गोयमा ! जीवा सिय सासया, सिय असासया । से केणटेणं भंते ! एवं वुच्छह-जीवा सिय सासया सिय असासया?, गोयमा! दवट्टयाए सासया, भावट्टयाए असासया, से तेणट्टेणं गोयमा! एवं धुचह-जाव सिय असासया । नेरइया णं भंते! किं सासया असासया?, एवं जहा जीवा तहा नेरइयावि, एवं जाव वेमाणिया जाव सिय सासया सिय असासया। सेवं भंते !
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।।५११।।
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सेवं भंते ! | (सूत्रं २७३ ) | सत्तमस्स सयस्स बिडओ उद्देसो संमत्तो ॥ ७२ ॥ [प्र० ] हे भगवन् ! शुं जीनो शाश्वत के अशाश्वत छे ? [उ०] हे गौतम! जीवो कथंचित् शाश्वत छे अने कथंचित् अशावत छे. [प्र० ] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो के कथंचित् शाश्वत छे अने कथंचित् अशाश्वत छे ? [अ०] द्रव्यनी अपेक्षाए जीवो शाश्वत छे, अने पर्यायनी अपेक्षाए जीवो अशाश्वत है; ते हेतुथी एम कहुं छु के यावत् कथंचित् अशाश्वत छे. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं नारको शाश्वत छे के अशाश्वत है ? [उ०] जेम जीवो का तेम नारको पण जाणवा. ए प्रमाणे यावत् वैमानिको पण जाणवा; यावत् कथंचित् शाश्वत अने कथंचित् अशाश्वत छे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे एम कही गौतम यावत् विचरे छे. ।। २७३
Π
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवती सूत्रना सातमा शतकमां बीजा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
64
उद्देशक ३.
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वणस्सइकाइया णं भते किंकालं सव्वष्पाहारगा वा मन्त्रमहाहारगा वा भवंति ?, गोयमा ! पाउसवरि सारत्तेसु णं एत्थ णं वणस्सइकाइया सव्वमहाहारगा भवति, तदाणंतरं च णं सरए तयाणंतरं हेमंते तदानरं च णं वसंते तदाणंतरं च णं गिम्हे, गिम्हालु णं वणस्सइकाइया सवप्पाहारगा भवंति, जड़ णं भंते! गिम्हासु वणस्सइकाइया सव्वाप्पाहारगा भवंति कम्हा णं भंते! गिम्हासु बहवे वणस्सइकाइया पत्तिया पुष्किया
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७ शतके
उद्देशः ३ ।।५११॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५१२॥
७शतके उद्देशः ३ ॥५१२॥
फलिया हरियगरेरिजमाणा सिरी, अईव अईव उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिटुंति ?, गोयमा ! गिम्हासुणं यहवे उसिणजोणिया जीवा य पोग्गला य वगस्सइकाइयत्ताए वमति विउकर्मति चयंति उववज्जति, एवं खलु गोयमा ! गिम्हासु बहवे वणस्सइकाइया पत्तिया पुफिया जाव चिट्ठति ।। (सूत्रं २७४)॥
[प्र०] हे भगवन् ! वनस्पतिकायिको कया काले सौथी अल्पआहारवाळा होय छे अने कया काले सौथी महाआहारवाळा होय छे ? [उ०] हे गौतम ! प्राबृह ऋतुमा श्रावण भादवा मासमा, अने वर्षा ऋतुमां-आसो कारतक मासमां बनस्पतिकायिक जीवो सौथी महाआहारवाळा होय छे, त्यारपछी शरद् ऋतुमां, त्यारपछी हेमंत ऋतुमां, त्यारपछी वसंत ऋतुमां अने त्यारबाद श्रीष्म ऋतुमां (अनुक्रमे) अल्प आहारवाळा होय छे. ग्रीष्म ऋतुमां सर्वथी अल्पाहारवाळा होय छे. [प्र०] हे भगवन् ! जो ग्रीष्म ऋतुमां वनस्पतिकायिक जीवो सौथी अल्प आहारवाळा होय तो ते घणा वनस्पतिकायिको ग्रीष्ममा पांदडावाळा, पुष्पवाळा, फलबाळा, लीलाछम दीपता, अने बननी शोभावडे अत्यंत सुशोभित केम होय छे ? [उ.] हे गौतम ! ग्रीष्म ऋतुमा घणा उष्णयोनिवाला जीवो अने पुद्गलो वनस्पतिकायपणे उपजे छे, विशेष उपजे छे, वधेळे, विशेष धृद्धि पामे के ए कारणथी हे गौतम ! ग्रीष्म ऋतुमा | घणा बनस्पतिकायिको पांददाबाळा, पुष्पवाळा यावत होय छे. ॥ २७४ ।। __ से नूर्ण भते ! मूला मूलजीवफुडा कंदा कंदजीवफुढा जाव बीया बीयजीवफुडा?,हंता गोयपा! मूला मूलजीवफुडा जाव बीया बीयजीवफुडा । जति णं भंते ! मूला मूलजीवफुडा जाव बीया बीयजीवफुडा कम्हा णं भंते ! वणस्सइकाइया आहारेंति कम्हा परिणामेति ?, गोयमा! मृला मूलजीवफुडा पुढविजीवपडिबद्धा तम्हा
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IGI
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आहारेंति तम्हा परिणामेति,कंदा कंदजीवफुडा मृलजीवपडिबंद्धा तम्हा आहारेन्ति तम्हा परिणामेन्ति,एवं जाव | व्याख्या-18 बीया बीयजीवफुडा फलजीवपडिबद्धा तम्हा आहारेन्ति तम्हा परिणामेन्ति ॥ (सूत्रं २७५) ।।
७ शतके प्रज्ञप्ति
म०] हे भगवन! शं मूली मूलना जीवथी व्याप्त छे, कंदो कन्दना जीवथी व्याप्त छ, यावत बीजो बीजना जीवथी व्याप्त II उदशः३ ॥५१३॥ |ढ़ा[उ०] हे गौतम ! मूलो मूलना जीवथी च्याप्त छे, यावन बीजो बीजना जीवथी व्याप्त हे. [प्र०] हे भगवन् ! जो मूलो मूलना ॥५१३॥
जीनथी व्याप्त छे, यावत् बीजो बीजना जीवथी व्याप्त छे, तो वनस्पतिकायिक जीवो केवी रीते आहार करे. अने केवी रीते परिण| मावे ? [उ.] हे गौतम ! मूलो मूलना जीवथी व्याप्त ले, अने ते पृथिवीना जीव साथे संबद्ध (जोडायेला) , माटे वनस्पतिकायिक दाजीवो आहार करे छे, ए प्रमाणे यावत् बीजो बीजना जीवथी व्याप्त है, अने ते फलना जीव साथे संबद्ध व्हे, माटे ते आहार करे छे, अने तेने परिणमावे हे. ॥ २७५ ॥
अह भंते ! आलए मूलए सिंगबेरे हिरिली सिरिली सिस्सिरिली किट्टिया छीरिया छीरिविरालिया कण्हकंदे वजकंदे सूरणकंदे खेलूडे अद्दए भद्दमुत्था पिंडहलिद्दा लोही णी हू थीह थिरूगा मुग्गकन्नी अस्सकन्नी माहंडी मुसुढीजे यावन्ने तहप्पगारा सव्वे ते अणंतजीवा विविहमत्ता?, हंता गोयमा! आलुए मूलए जाव अणंतजीवा विविहसत्ता ।। (सूत्रं २७६)॥
[प्र०] हे भगवन् ! आलु (बटाटा) मूला, आदु, हिरिली, सिरिलि, सिस्सिरिलि, किट्टिका, छिरिया, छीरविदारिका, वनकंद. सूरणकंद, खेलुडा, आईभद्रमोथ, पिंडहरिद्रा, रोहिणी, हुथीहू, थिरुगा, मुद्गपर्णी, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, सीहंढी, मुसुंढी अने तेवा
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५१४॥
७ शतके उद्देशः ३ ॥५१४॥
प्रकारनी बीजी वनस्पतिओ शुं अनन्त जीववाळी अने भिन्न भिन्न जीववाळी छे ? [उ०] हे गौतम ! आलु (बटाटा) मूळा यावत् 2 अनन्त जीववाळी अने भिन्न भिन्न जीववाळी २. ॥ २७६ ।।
सिया भंते ! कण्हलेसे नेरइप अप्पकम्मतराए नीललेसे नेरइए महाकम्मतराप ?, हंता सिया, से केणतुणं एवं बुच्चइ-कण्हलेसे नेरइए अप्पकम्मतराए नीललेसे नेरइए महाकम्मतराए ?, गोयमा ! ठिति पदुच, से
तेण?णं गोयमा! जाव महाकम्मतराए । निया भंते ! नीललेसे नेरइए अप्पकम्नतराए काउलेसे नेरइए महादो कम्मतराए ?, हंता सिया, से केशट्टेणं भंते ! एवं वुचति-नीललेसे अप्पकम्मतराए काउलेले नेरइए महाक
म्मतराए ?, गोयमा ! ठितिं पडुच्च, से तेणतुणं गोयमा! जाव महाकम्मतराए । एवं असुरकुमारेवि, नवरं। ४ातेउलेसा अभहिया एवं जाच वेमाणिया, जस्म जइ लेसाओ तस्म तत्तिया भाणियवाओ, जोइसियम्स
न भन्नइ, जाव सिया भंते ? पम्हलेसे वेमाणिए अप्पकम्मतराए सुकलेसे वेमाणिए महाकम्मतराए ?, हंता |सिया, से केण?णं० सेसं जहा नेरइयस्स ज महाकम्मतराए । सूत्रं २७७ ।।
[प्र०] हे भगवन् ! कदाच कृष्णलेश्यावाळो नारक अल्पकर्मवाळो अने नीललेश्यावाळो महाकर्मवाळो होय ? [उ.] हा, गौतम ! कदाच होय. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के कृष्णलेश्यावाळो नारक अल्पकर्मवाळो अने नीललेश्यागळो नारक महाकर्मवाळो होय ? [उ०] हे गौतम ! स्थितिनी अपेक्षाए, ते हेतुथी हे गौतम ! एम कहेवाय छे के ते यावत् महाकर्मवाळो होय. प्रि०] हे भगवन् ! कदाच नीललेश्यावाळो नारक अल्पकर्मवाळो अने कापोतलेश्यावाळो नारक महाकर्मवाळो होय? [उ०]
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व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥५१५॥
७ शतके उद्देशः२
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| हा, गौतम ! कदाच होय. [म.] हे भगवन् ! शा हेतुथी ए प्रमाणे कहो छो के नीललेश्यावाळो नारक अल्पकर्मवाळो अने कापोतलेश्यावाळो नारक महाकर्मवाळो होय ? [उ०] हे गौतम ! स्थितिनी अपेक्षाए, ते हेतुथी हे गौतम! ते यावत् महाकर्मवाळो होय. ए प्रमाणे अमुरकुमारोने विपे पण जाणवू, परन्तु तेओने एक तेजोलेश्या अधिभ होय हे. ए प्रमाणे वैमानिक देवो पर्यन्त जाणवू. जेने जेटली लेश्याओ होय तेने तेटली कहेवी, पण ज्योतिष्क देवोने न कहे, यावत् [प्र.] हे भगवन् ! कदाच पद्मलेश्याबाळो | वैमानिक अल्पकर्मवाळो अने शुक्ललेश्यावाळो वैमानिक महाकर्मवाळो होय? [उ०] हे गौनम ! हा, कदाच होय. [प्र०] ते शा ४ा हेतुथी? [उ०] बाकीजें जेम नारकने को तेम जाणवू, यावत् महाकर्मवाळो होय. ।। २७७ ।।
से नूण भंते ! जा वेदणा सा निजरा जा निजरा सा वेदणा?, गोयमा ! णो तिणढे समढे, से केणडेणं भंते ! एवं बुच्चइ जा वेयणा न सा निजरा जा निजरा न सा वेयणा?, गोयमा! कम्म वेदणा णोकम्म निजरा, ४|से तेणटेणं गोयमा ! जाव न सा वेदणा । नेरइया णं भंते ! जा वेदणा सा निजरा जा निजरा सा वेयणा ?, गोयमा ! णो तिणढे समढे, से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ नेरइयाणं जा वेयणा न सा निजरा जा निजरा न सा वेयणा ?, गोयमा ! नेरइयाणं कम्म वेदणा णोकम्म निजरा, से तेणटेणं गोयमा! जाव न सा वेयणा, एवं जाव वेमाणियाणं | से नूणं भंते! वेदेंसु तं निजरिंसु जं निजरिंसु तं वेदेंसु, णो तिणद्दे समझे, से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ जं वेदेंसु नो तं निजरेंसु ज निजरिंसु नो तं वेदेंसु?, गोयमा! कम्म वेदेसु नोकम्म निजरिंसु, से तेणढेणं गोयमा ! जाव नो तं वेदेंसु, नेरइया णं भंते ! जं वेद॑सु तं निजरिंसु? एवं
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७ शतके उद्देशः ३ ॥५१६॥
नेरइयावि एवं जाव वेमाणिया । से नूणं भंते ! जे वेदेति तं निज़रति जं निजरिंति तं वेदेति ?, गोयमा! व्याख्या- दाणो तिणटे समढे, से केणढणं भंते ! एवं बुच्चइ जाव नो तं वेदेति ?, गोयमा ! कम्मं वेदेति नोकम्मं निज़रति, प्रज्ञप्तिः से तेणटेणं गोयमा ! जाव नो तं वेदेति, एवं नेरइयावि जाव वेमाणिया। ॥५१६॥ । [प्र.] हे भगवन् ! खरेखर जे वेदना ते निर्जरा, अने जे निर्जरा ते वेदना कहेबाय ? [उ.] हे गौतम ! ए अर्थ योग्य नथी.
प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के-जे वेदना ते निर्जरा ओ जे निर्जरा ते वेदना न कहेवाय ? [उ.] हे गौतम ! वेदना & कर्म छे, अने निर्जरा नोकर्म छे, ते हेतुथी यावत् ते वेदना न कहेवाय. [प्र०] हे भगवन् ! शुं नारकोने जे वेदना छे ते निर्जरा
कहेवाय, अने जे निर्जरा छे ते वेदना कहेवाय ? [उ.] हे गौतम! ए अर्थ योग्य नथी. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो ४. छो के नारकोने जे वेदना ते निर्जरा न कहेवाय ? [उ.] हे गौतम ! नारकोने वेदना छे ते कर्म छे, अने निर्जरा छे ते नो कर्म दछे, ते हेतुथी एम कहुं छु के हे गौतम ! यावत् निर्जरा ते वेदना न कहेवाय. ए प्रमाणे यावत् वैमानिको जाणवा. [40] हे
भगवन् ! शुं खरेखर जे वेद्युते निर्जयु, अने जे निर्जयु ते वेधु? [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ योग्य नथी [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहेवाय छे के जे वेद्यं ते निर्जयु नथी, जे निर्जयु ते वेडं नथी? [उ०] हे गौतम ! कर्म वेयुं अने नोकर्म निर्जयु ते हेतुथी हे गौतम ! यावत् वेधुनथी. [प्र०] हे भगवन् ! नारकोए जे वेद्युते निर्ज? [उ.] पूर्व कह्या प्रमाणे नारको पण जाणवा, यावत्
वैमानिको पण जाणवा. [प्र.] हे भगवन् ! शुं खरेखर जेने वेदे छे तेने निर्जरे छे, अने जेने निर्जरे छे तेने वेदे छे ? [उ०] हे | गौतम ! ए अर्थ योग्य नथी. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहेवाय छे के यावत् जेने वेदे छे तेने निर्जरतो नथी, जेने निर्जरे
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७ शतके उद्देशः३ ॥५१॥
छे तेने वेदतो नथी. [उ०] हे गौतम ! कर्मने वेदे छे अने नोकर्मने निर्जरे छे; ते हेतुथी हे गौतम ! एम कहेवाय छे के यावत् व्याख्या
| (निर्जरे छे) तेने वेदतो नथी. ए प्रमाणे नारको पण जाणवा, यावत् वैमानिको जाणवा. प्रज्ञप्ति 18 से नूणं भंते ! जं वेदिस्संति तं निजरिस्संति जं निजरिस्संति तं वेदिस्संति ?, गोयमा ! णो तिणहे समठे. ॥५१७॥ से केणट्टेणं जाव णो तं वेदेस्संति ?, गोयमा ! कम्मं वेदिस्संति नोकम्मं निजरिस्संति, से तेण?णं जाव नो तं
निजरिस्संति,एवं नेरइयावि जाव वेमाणिया।से गुणं भंते! जे वेदणासमए से निजरासमए जे निजरासमए से |वेदणासमए?, नो तिणढे ममढे.से केणतुणं भंते! एवं वुच्चइ जे वेयणासमए न से निजरासमए जे निजरासमए | न से वेदणासमए ?, गोयमा ! जं समयं वेदेति नो तं समयं निजरेंति, जं ममयं निजरेंति नो तं ममयं वेदेति, अन्नम्मि समए वेदेति अन्नम्मि समए निजरेंति, अन्ने से वदणासमए अन्ने से निजरासमए, से तेणटेणं जाव न से वेदणासमए न से निजरासमए । नेरइयाणं भंते ! जे वेदणाममए से निजरासमए जे निजरासमए से वेदणासमए ?, गोयमा ! णो तिणढे समढे, से केणटेणं भंते ! एवं बुचड़ नेरइयाणं जे वेदणासमए न से निज्जरासमए जे निजरासमए न से वेदणासमए ?, गोयमा ! नेरइया णं जं समयं वेदेति णोतं समयं निजरेंति जं समयं निजरंति नो तं समयं वेदेति अन्नम्मि समए वेदेति अन्नम्मि समए निजरेंति अन्ने से वेदणासमए अन्ने से निजरासमए, से तेणद्वेणं जावन से वेदणासमए एवं जाव वेमाणिया ।। (सूत्रं २७८)॥
[प्र.] हे भगवन् ! शुं जेने वेदशे तेने निर्जरशे, अने जेने निजरशे तेने वेदशे? [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ योग्य नथी. [प्र०]
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५१८॥
७ शतके उद्देशः३ ॥५१८॥
हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के यावत् तेने वेदशे नहि ? [उ.] हे गौतम ! कर्मने वेदशे अने नोकर्मने निर्जरशे, ते हेतुथी | यावत् जेने (वेदशे) तेने निर्जरशे नहि. [प्र०) हे भगवन् ! शुंजे वेदनानो समय छे ते निर्जरानो समय छे, अने जे निजरानो समय | छे ते वेदनानो समय छे ? [उ०] हे गौतम! ए अर्थ योग्य नथी. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहेवाय छे के जे वेदनानो |समय छे ते निर्जरानो समय नथी, अने जे निर्जरानो समय छे ते वेदनानो समय नथी? [उ.] हे गौतम ! जे समये वेदे के ते | समये निर्जरा करतो नथी, जे समये निर्जरा करे के ते समये वेदतो नथी, अन्य समये वेदे छे, अन्य समये निर्जरा करे छे, वेदनानो समय मित्र के अने निर्जरानो समय भिन्न छे ते हेतुथी यावत् वेदनानो समय छे ते निर्जरानो समय नथी. [प्र०] हे भगवन् ! शुं नारकोने जे वेदनानो समय छे, ते निर्जरानो समय छे, अने निर्जरानो समय छे ते वेदनानो समय छे ? [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ योग्य नथी. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा कारणथी कहो छो के नारकोने जे वेदनानो समय के ते निर्जरानो समय नथी, अने जे निर्जरानो समय छे ते वेदनानो समय नथी? [उ०] हे गौतम! नारको जे समये वेदे के ते समये निर्जरा करता नथी, अने जे समये निर्जरा करे छे ते समये वेदता नथी, अन्य समये वेदे छे अने अन्य समये निर्जरा करे के, तेओनो वेदनानो समय जूदो छ, अने निर्जरांनो समय जूदो के ते हेतुथी यावत् निर्जरानो समय ते वेदनानो समय नथी. ए प्रमाणे यावत् वैमानिकोने जाणवू. ॥२७८॥ | नेरइया ण भंते ! किं सासया असासया ?, गोयमा ! सिय सासया सिय असासया, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चए नेरइया सिय सासया सिय असासया ?, गोयमा! अब्बोच्छित्तिणयट्ठयाए सासया वोच्छित्तिणयह याए असासया, से तेणट्टेणं जाव सिय सासया सिय असासया, एवं जाव वेमाणिया जाव सिय असा
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व्याख्या प्रज्ञप्ति ॥५१९॥
SAMAC
सया । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति ॥ (सूत्रं २७९)॥ ७-३ ॥
[म.] हे भगवन् ! शुं नारको शाश्वत छ के अशाश्वत छे ? [उ०] हे गौतम ! कथंचित् शाश्वत के, अने कथंचित् अशाश्वत | पण छे? [म०] हे भगवन् ! शा कारणथी एम कहो छो के नारको कथंचित् शाश्वत छे अने कथंचित् अशाश्वत के ? [उ०] हे। गौतम ! अब्युच्छित्तिनय-(द्रव्यार्थिकनय) नी अपेक्षाए शाश्वत छे, अने व्युच्छित्तिनयनी (पर्यायनयनी) अपेक्षाए अशाश्वत हे ते | हेतुथी यावत् कथंचित् शाश्वत छे अने कथंचित् अशाश्वत छे. ए प्रमाणे यावत् वैमानिको यावत् कथंचित् अशाश्वत छे. हे भगवन् ! | ते ए प्रमाणे छे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे के एम कही गौतम यावत् विचरे . ॥ २३९॥
भगवत् सुधर्मखमीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमत्रना सातमा शतकमां त्रीजा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
७ शतके उदेशः४ ॥५१९॥
+
*
+
उद्देशक ४. रायगिहे नगरे जाव एवं वदासी-कतिविहा णं भंते ! संसारममावन्नगा जीवा पन्नत्ता?, गोयमा छविहा संसारसमावन्नगा जीवा पन्नत्ता, तंजहा-पुढविकाइया एवं जहा जीवाभिगमे जाव सम्मत्तकिरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा ॥ सेवं भंते सेवं भंतेत्ति । जीवा छब्विह पुढवी जीवाण ठिती भवहिती काए। निल्लेषण अणगारे किरिया सम्मत्तमिच्छत्ता ॥ ५५ ॥ (सत्रं २८०)॥७-४ ॥
[प्र०] राजगृह नगरमा (गौतम ) यावत् ए प्रमाणे बोल्या-हे भगवन् ! संसारी जीवो केटला प्रकारना कह्या छे ? [उ.]
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+
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥५२०॥
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हे गौतम ! संसारी जीवो छ प्रकारना कथा छे, ते आ प्रमाणे- पृथिवीकायिक विगेरे. ए प्रमाणे जेम जीवाभिगमसूत्रमां कछु छे तेम सम्यक्त्वक्रिया अने मिध्यात्व क्रिया सुधी अहीं जाण. १ जीवोना छ प्रकार २ पृथिवीना छ प्रकार, ३ पृथिवीना भेदोनी स्थिति- आयुप, ४ भवस्थिति, ५ सामान्यकाय स्थिति ६ निर्लेपना-खाली थवानो काळ. ७ अनगार संबंधी हकीकत, ८ सम्यकत्वक्रिया अने मिथ्यात्वक्रिया. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे एम कही गौतम यावत् विचरे छे. ॥ २८० ॥ भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना सातमा शतकमां चोथा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
उद्देशक ५.
रायगिहे जाव एवं वदासी - खहपरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! कतिविहे णं जोणिसंगहे पण्णत्ते ?, गोयमा । तिविहे जोणीसंगहे पण्णत्ते, तंजहा- अंडया पोयया संमुच्छिमा, एवं जहा जीवाभिगमे जाव नो चेव णं ते विमाणे वीतिवएज्जा एवंमहालयाणं गोयमा ! ते विमाणा पन्नत्ता ॥ 'जोणीसंगह लेसा दिट्टी नाणे य जोग उवओगे । उबवायठितिसमुग्धायचवणजाती कुल विहीओ ॥ ५६ ॥ सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति ( सू २८१ ) ।। ७-५ ॥
[प्र० ] राजगृह नगरमा (गौतम) यावत् ए प्रमाणे बोल्या - हे भगवन् ! खरेखर पंचेन्द्रिय तिर्यंचोनो योनिसंग्रह केटला प्रकारे को छे? [अ०] हे गौतम! तेओनो योनिसंग्रह त्रण प्रकारे को छे; ते आ प्रमाणे अंडज, पोतज अने संमूच्छिम. जेम जीवाभिगम
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७ शतके उद्देशः ५
॥५२० ॥
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प्रज्ञप्तिः
॥५२१॥
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सूत्रमां कहूं छे ते प्रमाणे यावत् 'ते विमानोने उल्लंघी न शके एटला मोटा ते विमानो कथा छे' त्यांसुधी सर्व जाणं. (१ योनिसंग्रह, २ लेश्या; ३ दृष्टि सम्यक् मिश्र अने मिध्यात्वदृष्टि, ४ ज्ञान, ५ योग, ६ उपयोग, ७ उपपात उत्पन्न थवु, ८ स्थिति - आयुष, ९ समुद्घात, १० च्यवन, ११ जातिकुलकोटी. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, एम कही गौतम यावत् विचरे छे. ॥ २८९ ॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना सातमा शतकमां पांचमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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उद्देशक ६.
रायगिहे जाव एवं वदासी-जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएस उववज्जित्तए से णं भंते! किं इहगए नेरइयाउयं पकरेति उववज्ज़माणे नेरइयाउयं पकरेह उवबन्ने नेरइयाउयं पकरेइ ?, गोयमा ! इहगए नेरइयाज्यं पकरेह, नो उववज्जमाणे नेरइयाउयं पकरेह, नो उवबन्ने नेरइयाउयं पकरेइ, एवं असुरकुमारेसुवि एवं जाव वेमाणिएसु । जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएसु उववज्जित्तए से णं भंते! किं इहगए नेरइयाउयं पडिसंवेदेति उववज्रमाणे नेरहयाउयं पडिसंवेदेति उबवन्ने नेरइयाउयं पडिसंवेदेति ?, गोयमा ! णेरइए णो इहगए नेरइयाउयं पडिसंवेदेह उबवज्रमाणे नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, उववन्नेवि नेरइयाउंय पडिसेवदेति, एवं जाव वैमाणिएसु । जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएस उववजित्तए से णं भंते! किं इहगए महावेदणे उववज्ज्रमाणे महावेदणे उबवण्णे
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७ शतके उद्देशः ६ ॥५२१॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५२२॥
७ शतके उद्देशः ६ ॥५२२॥
महावेयणे ?, गोयमा ! इहगए सिय महावेयणे सिय अप्पवेयणे उववजमाणे सिय महावेयणे सिय अप्पवेदणे, अहे णं उववन्ने भवति तओ पच्छा एगंतदुक्ख वेयर्ण वेयति, आहच सायं । . [प्र०] राजगृह नगरमां गौतम यावत् ए प्रमाणे बोल्या-हे भगवन् ! जे जीव नारकने विषे उत्पन्न थवाने योग्य छे, हे भगवन् ! ते जीव शुं आ भवमा रहीने नारकर्नु आयुष बांधे ? त्यां-नारकमां उत्पन्न थतो नारकर्नु आयुष बांधे ? के त्या उत्पन्न थइने नारकर्नु आयुष बांधे ? [उ०] हे गौतम ! आ भवमा रहीने नारकर्नु आयुष बांधे, पण त्यां उत्पन्न थता नारकर्नु आयुष न बांधे, अने उत्पन्न थइने पण नारकर्नु आयुप न बांधे, ए प्रमाणे असुरकुमारोमा अने यावत् वैमानिकोमा जाणवू. [म.] हे भगवन् ! जे जीव नारकने विषे उत्पन्न थवाने योग्य छे, हे भगवन् ! ते जीव शुं आ भवमा रही नारकर्नु आयुष वेदे, त्यां उत्पन्न थता नारकर्नु आयुष वेदे, के त्यां उत्पन्न थइने नारकर्नु आयुष वेदे? [उ०] हे गौतम ! आ भवमा रही नारकनुं आयुष न वेदे, पण उत्पन्न थता अने उत्पन्न थइने नारक आयुष वेदे. ए प्रमाणे यावत् वैमानिकोमा पण जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! जे जीव नारकमा उत्पन्न थवाने योग्य छे, हे भगवन् ! ते जीव शुं आ भवमा रहेलो महावेदनावाळो होय, त्यां उत्पन्न धता महावेदनावाळो होय, के उत्पन्न थया पछी महावेदनावाळो होय ? [उ०] हे गौतम ! कदाच ते आ भवमा रहेलो महावेदनावाळो होय के कदाच अल्पवेदनावाळो होय; कदाच उत्पन्न थता महावेदनावाो होय के कदाच अल्पवेदनावाळो होय, पण ज्यारे ते उत्पन्न थाय छे, त्यारपछी एकान्त दुःखरूप वेदनाने वेदे छे, अने क्वचित् सुखने वेदे छे.
जीवे णं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उववजित्तए पुच्छा, गोयमा! इहगए सिय महावेदणे सिय अप
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व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥५२३॥
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७ शतके उद्देशः६ ॥५२३॥
वेदणे उववज्जमाणे सिय महावेदणे सिय अप्पवेदणे, अहे णं उववन्ने भवइ तओ पच्छा एगंतसायं वेधणं वेदेति, आहच असायं, एवं जाव धणियकुमारेसु। जीवे णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु उववजित्तए पुच्छा, गोयमा! इहगए सिय महावेयणे सिय अप्पवेयणे, एवं उववजमाणेवि, अहे णं उववन्ने भवति तओ पच्छा बेमायाए वेयणं | वेयति एवं जाव मणुस्सेसु, वाणमंतरजोइसियवेमाणिएसु जहा असुरकुमारेसु ॥ (सूत्रं २८२)॥
[प्र०] हे भगवन् ! जे जीव असुरकुमारमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते संबन्धी प्रश्न. [उ.] हे गौतम! ते कदाच आ भवमा रहेलो महावेदनावाळो होय के कदाच अल्पवेदनावाळो होय; उत्पन्न थता कदाच महावेदनावाळो होय के कदाच अल्पवेदनावाळो होय; पण ज्यारे ते उत्पन्न थाय छे त्यारपछी एकान्त सुखरूप वेदनाने वेदे छे, अने कदाच दुःखने वेदे छे. ए प्रमाणे यावत् स्तनितकुमारने विषे जाणवं. [प्र०] हे भगवन् ! जे जीव पृथिवीकायमा उत्पन्न थवाने योग्य छे ते संबन्धी प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! आ भवमा रहेलो ते कदाच महावेदनाको होय के कदाच अल्पवेदनावाळो होय; ए प्रमाणे उत्पन्न थतां पण पहावेदनावालो होय के | अल्पवेदनावालो होय, पण ज्यारे ते उत्पन्न थाय छे त्यारपछी ते विविध प्रकारे वेदनाने वेदे छ. ए प्रमाणे यावत मनुष्योमा जाण. | जेम असुरकुमारोने विषे (मृ. ४) कछु तेम वानव्यंतर, ज्योतिष्क अने वैमानिक देवो विपे जाणवू. ॥ २८२ ।।
जीवा णं भंते ! किं आभोगनिव्वत्तियाउया अणाभोगनिव्वत्तियाउया ?, गोयमा ! नो आभोगनिव्वत्ति| याउया अणाभोगनिव्वत्तियाउया, एवं नेरइयावि, एवं जाव वेमाणिया ।। ( सूत्रं २८३)॥
[प्र०] हे भगवन् ! शु जीवो आभोगवी-जाणपणे आयुषनो बंध करे के अनाभोगथी-अजाणपणे आयुपनो बंध करे ? [उ०]
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७शतके | उद्देशः ६ ॥५२४॥
हे गौतम ! जीवो आभोगथी आयुषनो बन्ध न करे, पण अनाभोगथी आयुषनो बन्ध करे. ए प्रमाणे नारको पण जाणवा, यावत् व्याख्या
वैमानिको जाणवा. ॥ २८३ ॥ प्रज्ञप्तिः
हा अस्थि णं भंते ! जीवा णं कक्कसवेयणिज्जा कम्मा कज्जंति ?, [गोयमा ! हंता अत्थि, कहन्नं भंते ! जीवा ॥५२४॥ Aणं ककसवेयणिज्जा कम्मा कज्जति ?, गोयमा! पाणाइवाएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं, एवं खलु गोयमा !
जीवाणं कक्कसवेयणिज्जा कम्मा कति । अत्थि णं भंते ! नेरइयाणं ककसवेयणिज्जा कम्मा कजंति, [एवं चेव एवं जाव वेमाणियाणं । अस्थि णं भंते ! जीवा णं अकक्कसवेयणिज्जा कम्मा कजति ?, हन्ता अस्थि, कहन्नं भंते ! अककसवेयणिज्जा कम्मा कज्जति !, गोयमा ! पाणाइवायवेरमणेणं जाव परिग्गहवेरमणेणं कोहवि| वेगेणं जाव मिच्छादसणसल्लविवेगेणं, एवं खलु गोयमा! जीवाणं अकक्कसवेयणिज्जा कम्मा कजंति । अस्थि
णं भंते ! नेरइए (याणं) अकक्कसवेयणिज्जा कम्मा कजंति?, गोयमा ! णो तिणहे समहे, एवं जाव वेमाणिया, | नवरं मणुस्साणं जहा जीवाणं ॥ (सूत्र २८४) ।
[प्र०] हे भगवन् ! शुं एम छे के जीवोने कर्कशवेदनीय-दुःखपूर्वक भोगववा योग्य को बंधाय छे ? [उ०] हा, गौतम ! एम छे. [प्र.] हे भगवन् ! जीवोने कर्कशवेननीय कर्म केम बंधाय? [उ.] हे गौतम ! प्राणातिपात-जीवहिंसाथी, यावत् मिथ्या| दर्शनशल्यथी. ए प्रमाणे हे गौतम! जीवोने कर्कशवेदनीय कर्मों बंधाय छे. [प्र.] हे भगवन् ! शुं एम छे के नारकोने कर्कशवेदनीय कर्मो बंधाय ? [उ०] हे गौतम! पूर्वे करा प्रमाणे यावत् वैमानिकोने जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! शुं एम छे के जीवोने
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व्याख्या प्रज्ञप्ति ॥५२॥
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अकर्कशवेदनीय-सुखपूर्वक भोगववा योग्य कर्मो बंधाय ? [उ०] हा, गौतम ! एम .[प्र०] हे भगवन् ! जीवोने अकर्कशवेदनीय कर्मो केम बंधाय ? [उ.] हे गौतम ! प्राणातिपातविरमणथी, यावत् परिग्रहविरमणथी, क्रोधनो त्याग करवाथी. यावत् मिथ्याद
४७ शतके शेनशल्यनो त्याग करवाथी. ए प्रमाणे हे गौतम ! जीवोने अकर्कशवेदनीय को बंधाय. [प्र.] हे भगवन् ! शुं नारकोने अकर्कश
उद्देशः६ वेदनीय कर्मो बंधाय? [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ योग्य नथी. ए प्रमाणे यावत् वैमानिकोने जाणवू, परंतु मनुष्योने जेम जीवोने
|५२५॥ (सू.११) का तेम जाणवू. ॥ २८४ ।।
अस्थि णं भंते! जीवाणं सायावेयणिज्जा कम्मा कजंति?, हंता अत्थि,कहन्नं भंते जीवाणं साताबेयणिज्जा कम्मा | कजंति?, गोयमा! पाणाणुकंपाए भूयाणुकंपाए जीवाणुकंपाए सत्ताणुकंपाए बहणं पाणाणं जाव सत्ताणं अदुक्वणयाए असोयणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए अपिट्टणयाए अपरियावणयाए एवं खलु गोयमा! जीवाणं सायावेयणिज्जा कम्मा कजंति,एवं नेरइयाणवि,एवं जाव वेमाणियाणं। अस्थि णं भंते! जीवाणं अस्सायवेयणिज्जा कम्मा कति?, हंता अस्थि । कहन्नं भंते! जीवाणं अस्सायावेयणिज्जा कम्मा कजंति?, गोयमा! परदुक्खणयाए परसोयणयाग परजूरणयाए परतिप्पणयाए परपिट्टणयाए परपरियावणयाए बहूर्ण पाणाणं जाव सत्ताणं दुक्खणयाए सोयणयाए जाव परियावणयाए एवं खलु गोयमा ! जीवाणं अस्सायावेयणिज्जा कम्मा कजंति, एवं नेरइयाणवि, एवं जाव वेमाणियाणं ( सूत्रं २८५)॥
[प्र.] हे भगवन् ! शु एम ले के जीवोने सातावेदनीय कर्म बंधाय ? [उ.] हा, गौतम! एम. [प्र०] हे भगवन् ! जीवोने
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५२६॥
७ शतके उद्देशः ६ ॥५२६॥
सातावेदनीय कर्म केम बंधाय ? [उ०] हे गौतम! प्राणोने विषे अनुकंपाथी, भूतोने विषे अनुकंपाथी, जीवोने विषे अनुकंपाथी, 2 सत्त्वोने विषे अनुकंपाथी, घणा प्राणोने यावत् सच्चोने दुःख न देवाथी, शोक नहि उपजाववाथी, खेद नहि उत्पन्न करवाथी, वेदना न करवाथी, नहि मारवाथी तेम परिताप नहि उपजाववाथी. ए प्रमाणे हे गौतम! जीवो सातावेदनीय कर्मो बांधे छे. ए प्रमाणे नारकोने पण जाणवू; यावत् वैमानिकोने जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! शुं एम छे के जीवोने असातावेदनीय कर्मो बंधाय ? [उ०] हा, गौतम ! एम छे. [प्र०] हे भगवन् ! जीवोने असातावेदनीय कर्म केम बंधाय ? [उ०] हे गौतम ! वीजाने दुःख देवाथी, वीजाने शोक उपजाववाथी, बीजाने खेद उत्पन्न करवाथी, बीजाने पीडा करवाथी, बीजाने मारवाथी, बीजाने परिताप उत्पन्न करवाथी, तेम घणां प्राणोने यावत् सत्वोने दुःख देवाथी, शोक उपजाववाथी, यावत् परिताप उत्पन्न करवाथी, ए प्रमाणे हे गौतम ! जीवोने असातावेदनीय कर्म बंधाय छे. ए प्रमाणे नारकोने, यावत् वैमानिकोने जाणवू. ॥ २८५ ।।
जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए दूसमदूसमाए समाए उत्तमकट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सति ?, गोयमा! कालो भविस्सइ हाहाभूए भंभाभूए कोलाहलन्भूए, समयाणुभावेण य णं खरफरुसधूलिमहला दुब्विसहा वाउला भयंकरा वाया संवगा य वाइंति, इह अभिक्खं धूमाईति य दिसा समंता रउस्सला रेणुकलुसतमपडलनिरालोगा समयलुक्खयाए य णं अहियं चंदा सीयं मोच्छति अहियं सूरिया तवइस्संति अदुत्तरं च णं अभिक्खणं वहवे अरसमेहा विरसमेहा खारमेहा खट्टमेहा | अग्गिमेहा विज्जुमेहा विसमेहा असणिमेहा अपियणिज्जोदगा वाहिरोगवेदणोदीरणापरिणामसलिला अमणुन्न
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व्याख्याः प्रज्ञप्ति ॥५२७॥
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पाणियगा चंडानिलपहयतिक्खधारानिवायपउवासं वासिहिंति। जेणं भारहे वासे गामागरनगरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमागयं जणवयं चउप्पयगवेलगए खयरे य पक्खिसंघेगामारनपयारनिरए तसे य पाणे बहुप्प
४७ शतके गारेरुत्वगुच्छगुम्मलयवल्लितणपब्वगहरितोसहिपवालंकुरमादीए य तणवणस्सइकाइए विद्धंसेहिंति पव्वयगिरि
| उद्देशः६ डोंगरउच्छलभट्टिमादीए वेयड्ढगिरिवजे विरावेहिंति सलिलबिलगदुग्गविमम निण्णुन्नयाई च गंगासिंधुवज्जाई
k५२७॥ समीकरेहिनि। तीसे भंते! समाए भरहवासस्स भूमीए केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सति?, गोयमा! भूमी भविस्मति इगालब्भूया मुम्मुरभूया छारियभूया तत्तकवेल्लयभूया तत्तसमजोतिभूया धृलिबहुला रेणुबहुला पंकबहुला पणगबहुला चलणिबहुला बहणं धरणिगोयराणं मत्ताण दोनिक्कमा य भविस्मति। (सूत्रं २८६)
[प्र०] हे भगवन् ! जंबूदीप नामे द्वीपमा भारतवर्षने विषे आ अवसर्पिणीमां दुषमादुःषमा काल छट्ठो आरो ज्यारे अत्यंत उत्कट अवस्थाने प्राप्त थशे त्यारे भारतवर्षनो आकारभावप्रत्यवतार (आकार अने भावोनो आविर्भाव ) केवा प्रकारे थशे ? [उ०]] हे गौतम ! हाहाभूत (जे काळे दुःखी लोको 'हा हा' शब्द करशे) भंभाभूत (जे काळे दुःखात पशुओ 'भां भां' शब्द करशे) अने कोलाहलभूत (ज्यारे दुःखपीडीत पक्षीओ कोलाहल करशे) एवो काल थशे. कालना प्रभावथी घणा कठोर, धृळथी मेला, असह्य, अनुचित अने भयंकर वायु, तेमज संवर्तक वायु वाशे. आ काळे वारंवार चारे बाजूए धूळ उडती होवाथी रजथी मलिन अने अंधकारवडे प्रकाशरहित दिशाओ धूमाडा जेवी झांखी देखाशे. कालनी रुक्षताथी चन्द्रो अधिक शीतता आपशे अने सूर्यो अत्यंत तपशे. बळी वारंवार घणा खराब रसवाळा, विरुद्ध रसवाळा खारा, खातरसमान पाणिवाळा, (खाटा पाणिवाळा) अननी पेठे दाहक
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥५२४ ॥
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पाणिवाळा, विजळी युक्त अशनिमेघ-करा वगेरेने पाडनार (पर्वतने भेदनारा) विषमेघो-झेरी पाणिवाळा- नहि पीवालायक पाणिवाळा, (निर्वाह न थइ शके तेवा पाणिवाळा) व्याधि, रोग अने वेदना उत्पन्न करनार पाणिवाळा, मनने न रुचे तेवा पाणिवाळा मेघो तीक्ष्ण धाराना पडवा ढेव पुष्कळ वरसशे, जेथी भारत वर्षमां ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, मडंव, द्रोणमुख, पडून अने आश्रममा रहे मनुष्यो, चोपगा-गायो घेटा अने आकाशमां गमन करता पक्षिओना टोळाओ; तेमज गाम अने अरण्यमां चालता त्रस जीवो तथा बहु प्रकारना वृक्षो, गुल्मो, लताओ, वेलडीओ, घास, पर्वगो-शेरडी वगेरे, घरो वगेरे, ओषधी-शालि वगेरे, प्रवालो अने अंकुरादि तृणवनस्पतिओ नाश पामशे वैताढ्य शिवाय पर्वतो, गिरिओ डुंगरो, धूळना उंचा स्थलो, रज विनानी भूमिओ नाश पामशे. गंगा अने सिन्धु नदी सिवाय पाणीना झराओ, खाडाओ, दुर्गम अने विषम भूमिमां रहेला उंचा अने नीचा स्थलो सरखा थशे. [प्र० ] हे भगवन् ! ( ते काले ) भारतवर्षनी भूमिनो केवो आकारभावप्रत्यवतार थशे ? [उ०] हे गौतम ! ते काळे अंगार जेवी, मुर्मुर- छाणानां अनि जेबी, भस्मीभूत तपी गयेला कटाह ( कटाया ) जेवी, तापवडे अग्निना सरखी, बहुधूळवाळी बहु रजवाळी, बहु कीचडत्राळी, बहु सेवाळवाळी, घणा कादववाळी, अने पृथ्वी उपर रहेला घणा प्राणिओने चाळवं मुश्केल पडे एवी भूमि धशे ॥ २४६ ॥
तीसे णं भंते! समाए भारहे वासे मणुयाणं केरिसए आगारभावपडोयारे भविस्सति ?, गोयमा ! मणुया भविस्संति दुरूवा दुवन्ना दुगंधा दुरसा दुफासा अणिट्ठा अकंता जाव अमणामा हीणस्सरा दीणस्सरा अणिट्ठस्सरा जाव अमणामस्सरा अणादेज्जवयणपच्चायाया निल्लज्जा कूडकवडकलहवबंधवेरनिरया मज्जा
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७ शतके उद्देशः ६ ।। ५२८ ।।
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥५२९॥
७ शतके उद्देशः६
PACHHEA4-
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यातिकमप्पहाणा अकजनिच्चुजता गुरुनियोयविणयरहिया य विकलरूवा परूढनहकेसमंसुरोमा काला खरफरुसझामवन्ना फुदृसिरा कविलपलियकेसा बहुण्हारु(णी)संपिनद्धदुईसणिज्जरूवा संकुडियवलीतरंगपरिवेढियंगमंगा जरापरिणतव्व थेरगनरा पविरलपरिसडियदंतसेढी उभडघडमुहा विसमनयणा वंकनासा वंगवलीविगयभेसणमुहा कच्छूकसराभिभूया खरतिक्खनखकंडूइय विक्खयतणू दकिडिभसिंझफुडियफरुसच्छवी चित्तलंगा टोलागतिविसमसंधिबंधणउक्कुडुअद्विगविभत्तदुब्बलकुसंघयणकुप्पमाणकुसंठिया कुरुवा कुठाणासणकुसेजकुभोइणो असुहणो अणेगवाहिपरिपीलियंगमंगा खलंतवेज्झलगती निरुच्छाहा सत्तपरिवजिया विगयचिट्ठा नढतेया अभिक्रवणं सीयउण्हखरफरुसवायविज्झडिया मलिणपंसुरयगुंडियंगमंगा बहुकोहमाणमाया बहलोभा असुहदुक्खभागी ओसन्नं धम्मसण्णसम्मत्तपरिभट्ठा उक्कोसेणं रयणिप्पमाणमेत्ता सोलसवीस तिवासपरमाउसो पुत्तनत्तुपरियालपणयबहुला गंगासिंधूओ महानदीओ वेयड्ढे च पव्वयं निस्साए बावत्तरि निओदा बीयं बीयमेत्ता बिलवासिणो भविस्संति ॥
[प्र०] हे भगवन् ! ते काळे भारतवर्षमां मनुष्योनो केवो आकारभावप्रत्यवतार थशे? [उ०] हे गौतम ! खराब रूपवाळा, खराब वर्णवाळा, दुर्गधवाळा, दुष्ट रसवाळा, खराब स्पर्शवाळा, अनिष्ट, अमनोज्ञ, मनने न गमे तेवा, हीनखरवाळा, दीनस्वरवाळा, अनिष्टस्वरवाळा, यावत् मनने न गमे तेवा स्वरवाळा, जेना वचन अने जन्म अग्राह्य छे एवा, निर्लज्ज, कूड कपट कलह वध बंध अने वैरमां आसक्त, मर्यादानुं उल्लंघन करवामां मुख्य, अकार्य करवामां नित्य तत्पर, मातपितानो अवश्य करवा योग्य विनयरहित,
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७ शतके
व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५३॥
उद्देशः ६
॥५३०॥
बेडोळ रूपवाळा, जेना नख, केश, डाढी, मृछ अने रोम वधेला छे एवा,काळा, अत्यंत कठोर,श्यामवर्णवाळा, छूटा केशवाळा,धोला केशवाळा, बहु स्नायुथी बांधेल होवाने लीधे दुर्दर्शनीय रूपवाळा, जेओना प्रत्येक अंग बांका अने वलीतरंगोथी-करचलीओथी व्याप्त | छ एवा, जरापरिणत (वृद्धावस्थायुक्त) वृद्धपुरुष जेवा, छुटा अने सडी गयेला दांतनी श्रेणिवाळा, घटना जेवा भयंकर मुखवाळा भयंकर छे घाटा (डोकनी पाछळनो भाग) अने मुख जेओना एवा विषम नेत्रवाळा, वांकी नासिकावाळा, वांका अने बलिओथी विकृत थयेला, भयंकर मुखवाळा, खस अने खरजथी व्याप्त, कठण अने तीक्ष्ण नखोबडे खजवाळवाथी विकृत थयेला, दद्रु (दराज)| | किडिभ (एक जातनो कोढ) अने सिध्म (कुष्ठ विशेष, करोळीआ) वाळा, फाटी गयेल अने कठोर चामडीवाळा, विचित्रअंगवाळा, उष्ट्रादिना जेवी गतिवाळा, (खराब आकृतिवाळा) सांधाना विषम बंधनवाळा, योग्यस्थाने नहि गोठवायेला छूटा देखाता हाडकावाळा, दवेल, खरावसंघयणवाळा, खराब प्रमाणवाळा, खराब संस्थानवाळा, खराब रूपवाजा, खराब स्थान अने आसनवाळा, खराब शय्यावाळा, खराव भोजनवाळा, जेओनां प्रत्येक अंग अनेक व्याधिओथी पीडित छे एवा, स्खलनायुक्त विडलगतिवाळा, उत्साहरहित सवरहित, विकृतचेष्टाबाळा, तेजरहित, वारंवार शीत, उष्ण तीक्ष्ण अने कठोर पवनवडे व्याप्त, जेओना अंग, धूळवडे मलिन अने रजवडे व्याप्त छे एवा, बहु क्रोध, मान अने मायावाळा, बहु लोभवाळा, अशुभ दुःखना भागी, प्रायः धर्मसंज्ञा अने सम्यक्त्वधी भ्रष्ट, उत्कृष्ट एक हाथ प्रमाण शरीरवाळा, सोळ अने वीश वरसना परम आयुषवाळा, पुत्र पौत्रादि परिवारमा अत्यंत स्नेहवाळा (घणा पुत्रपौत्रादिनुं पालन करनारा) बीजना जेवा, बीजमात्र एवा (मनुष्योना) बहोंतर कुटुंबो गंगा, सिन्धु महानदीओ अने वैतात्य पर्वतनो आश्रय करीने विलमा रहेनारा थशे.
ॐॐॐॐॐ
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५३१॥
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७ शतके उद्देशः६ ॥५३१॥
ते णं भंते मणुया किमाहारमाहारेंति ?, गोयमा ! ते णं काले णं ते ण समए णं गंगासिंधूओ महा. नदीओ रहपहवित्थराओ अस्वसोयप्पयाणमेतं जलं वोझहिंति, सेवि य णं जले बहुमच्छकच्छभाइन्ने, णो चेव णं आउयवहुले भविस्सति, तए णं ते मणुया सुरुग्गमिज्णमुहुत्तंसि य सूरत्थमणमुंहुत्तसिय बिलेहिंतो २ निदाइत्ता मच्छकच्छभे थलाई गाहेहिंति सीयायवतत्तएहिं मच्छकच्छएहिं एकवीसं वाससहस्साई वित्तिं | कप्पेमाणा विहरिस्संति ॥
[प्र.] हे भगवन् ! ते ममुष्यो केवा प्रकारनो आहार करशे ? [उ०] हे गौतम ! ते काळे अने ते समये रथना मार्गप्रमाण विस्तारवाळी गंगा अने सिन्धु ए महानदीओ स्थनी धरीने पेसवाना छिद्र जेटला भागमां पाणिने बहे शे, ते पाणि घणां माछलां अने काचबा वगेरेथी भरेलं, पण तेमां घणुं पाणी नहि होय. त्यारे ते मनुष्यो सूर्य उग्या पछी एक मुहूर्तनी अंदर अने सूर्य आथम्या पछी एक मुहूर्तमा पोतपोताना बिलोयी बाहेर नीकळशे अने माछलां काचबा वगेरेने जमीनमा डाटशे, टाढ अने तडकावडे बफाइ गयेला माछलां अने काचबा क्गेरेथी एकवीशहजार वर्ष सुधी आजीविका करता तेओ (मनुष्यो) त्यां रहेशे.
ते णं भंते ! मणुया निस्सीला निग्गुणा निम्मेरा निप्पचक्वाणपोसहोववामा ओसण्णं मंसाहारा मच्छाहारा खोदाहारा कुणिमाहारा कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिंति? कहिं उववन्जिहिंति?, गोयमा ! ओसन्नं नरगतिरिक्खजोणिएसु उववजंति, ते णं भंते ! सीहा वग्घा वगा दीविया अच्छा तरच्छा परस्सरा निस्सीला तहेव जाव उववजिहिंति ?, गोयमा ! ओसन्नं नरगतिरिक्खजोणिएसु उववजिहिंति, ते णं भंते ! ढंका
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*
७ शतके
व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५३२॥
उद्देशः ७ ॥५३२॥
कंका विलका मदुगा सिही निस्सीला तहेव जाव ओसन्नं नरगतिरिक्खजोणिएसु उववजिहिंति । सेवं भंते ! | सेवं भंते ! त्ति (सूत्रं २८७)॥ सत्तमस्स सयस्स छट्टो उद्देसओ सम्मत्तो ।। ७-६ ॥
[प्र०] हे भगवन् ! शीलरहित, निर्गुण, मर्यादारहित, प्रत्याख्यान अने पोषधोपवासरहित, प्रायः मांसाहारी, मत्स्याहारी, मधनो आहार करनारा, मृत शरीरनो आहार करनारा ते मनुष्यो मरण समये काल करीने क्यां जशे ? [उ.] हे गौतम! प्रायः नारक अने तिर्यच योनिमा उत्पन्न थशे. [प्र०] हे भगवन् ! ते सिंहो, वाघो, वृको, दीपडाओ, रिंछो, तरक्षो, शरभो ते प्रमाणे निःशील एवा यावत् क्या उत्पन्न थशे ? [उ०] हे गौतम ! प्रायः नारक अने तियंचयोनिमां उत्पन्न थशे. [प्र०] हे भगवन् ! ते कागडाओ, कंको, विलको, जलवायसो, मयूरो, निःशील एवा ते प्रमाणे यावत् (क्यां उत्पन्न थशे) [उ०] प्रायः नारक अने तिर्यंच योनिमां उत्पन्न थशे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे के एम कही यावत् विचरे छे. ॥ २८७ ॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना सातमा शतकमा छट्ठा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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उद्देशक ७. संवुडस्स णं भंते ! अणगारस्म आउत्तं गच्छमाणस्स जाव आउत्तं तुयट्टमाणस्स आउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं गेण्हमाणस्स वा निक्खिवमाणस्स वा तस्स णं भंते ! किं ईरियावहिया किरिया कजइ संपराइया किरिया कन्जइ ?, गोयमा ! संवुडस्स णं अणगारस्स जाव तस्स णं ईरियावहिया किरिया कज्जा,
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
७ शतके उद्देशः७
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॥५३३॥
364
णो संपराइया किरिया कन्जइत्ति । से केणटेणं भंते ! एवं वुचइ-संवुडस्स णं जाव संपराइगा किरिया कजड़ , गोयमा! जस्म णं कोहमाणमायालोभा वोच्छिन्ना भवंति तस्म णं ईरियावहिया किरिया कज्जइ, तहेब जाव उस्सुत्तरीयमाणस्स संपराइया किरिया कजइ, से णं अहासुत्तमेव रीयइ, से तेणटेणं गोयमा ! जाव नो संपराईया किरिया कजह ।। (सूत्रं २८८)॥
[प्र०] हे भगवन् ! उपयोग ( सावधानता) पूर्वक गमन करता, यावत् उपयोगपूर्वक मूता-आलोटता के उपयोगपूर्वक वस्त्र, पात्र, कंबल अने पादप्रांछनक (रजोहरण) ने ग्रहण करता अने मृकता संवृत-संवरयुक्त साधुने शु एकपथिकी क्रिया लागे के सांपरायिकी क्रिया लागे? [उ.] हे गौतम ! संवरयुक्त यावत् ते अनगारने एर्यापथिकी क्रिया लागे, सांपरायिकी क्रिया न लागे. [प्र.] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के संवरयुक्त साधुने यावत् सांप गयिकी क्रिया न लागे? [उ.] हे गौतम ! जेना क्रोध, मान, माया अने लोभ नष्ट थया होय तेने ऐर्यापथिकी क्रिया लागे, तेमज यावत् सूत्रविरुद्ध चलनारने सांपरायिकी क्रियालागे; ते संवरयुक्त अनगार मूत्र प्रमाणे वर्ते छे, ते हेतुथी हे गौतम : तेने यावत् सांपरायिकी क्रिया न लागे. ॥२८८॥
रूवीभते. कामा अरूबी कामा?. गोयमा रूवी कामा समणाउसो,नो अरूवी कामा। सचित्ता भते! कामा अचित्ता कामा?, गोयमा सचित्तावि कामा, अचित्तावि कामा । जीवा भंते कामा अजीवा कामा?, गोयमा! जीवावि कामा,अजीवावि कामा । जीवाणं भंते! कामा अजीवाणं कामा?,गोयमा जीवाणं कामा, नो अजीवाणं कामा, कति विहा णं भंते ! कामा पन्नत्ता ?, गोयमा ! दुविहा कामा पन्नत्ता, तंजहा-सहा य रूया य । रूवी
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५३४ ॥
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भंते! भोगा अरूवी भोगा?, गोयमा! रुवी भोगा, नो अरूवी भोगा, सचित्ता भंते ! भोगा अचित्ता भोगा ?, गोयमा ! सचित्तावि भोगा, अचित्तावि भोगा, जीवा णं भंते! भोगा० ? पुच्छा, गोयमा ! जीवावि भोगा, अजीवावि भोगा, जीवाणं भंते । भोगा अजीवाणं भोगा ?, गोयमा ! जीवाणं भोगा, जो अजीवाणं भोगा, कतिविहा णं भंते ! भोगा पन्नत्ता ?, गोयमा ! तिविहा भोगा पन्नत्ता, तंजहा--गंधा रसा फासा । कतिविहा र्ण भंते! कामभोगा पन्नता ? गोयमा ! पंचविहा कामभोगा पन्नत्ता, तंजहा--सदा रूवा गंधा रसा फासा ।
[प्र० ] हे भगवन् ! कामो रूपी छे के अरूपी छे ? [अ०] हे गौतम! कामो रूपी ले, पण हे आयुषमान् श्रमण ! कामो अरूपी नथी. [प्र० ] हे भगवन् ! कामो सचित छे के अचित्त छे ? [उ०] हे गौतम! कामो सचित पण छे अने अचित्त पण हे. [प्र० ] हे भगवन् ! कामो जीव छे के अजीव छे ? [उ०] हे गौतम! कामो जीव पण छे अने अजीव पण छे. [प्र० ] हे भगवन् ! कामो जीवोने होप के अजीबोने होय छे ? [अ०] हे गौतम! कामो जीवोने होय छे, पण अजीवोने कामो होता नथी. [प्र० ] हे भगवन् ! कामो केटला प्रकारे का छे ? [उ० ] हे गौतम ! कामो वे प्रकारे कथा छे, जेमके शब्दो अने रूपो. [प्र० ] हे भगवन ! भोगो रूपीछे के अरूपी हे ? [३०] हे गौतम! भोगो रूपी छे पण अरूपी नथी. [प्र० ] हे भगवन् ! भोगो सचित छे के अचित्त छे ? [उ०] हे गौतम! भोगो सचित पग छे अने अचित्त पण छे. [ प्र० ] हे भगवन् ! भोगो जीवस्वरूप छे के अजीवस्वरूप छे ? [उ०] हे गौतम! भोगो जीवस्वरूप पण छे अने अजीवस्वरूप पण छे. [प्र० ] हे भगवन् ! भोगो जीवोने होय के अजीवोने होप ? [30] हे गौतम! भोगो जीवोने होय छे, पण अजीवोने भोगो होता नथी. [प्र० ] हे भगवन् ! भोगो केटला प्रकारना कया है ?
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७ शतके उद्देशः ७ ।।५३४।।
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व्याख्याप्रज्ञप्ति
॥५३५॥
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[उ.] हे गौतम ! भोगो त्रण प्रकारना कह्या छे; ने आ प्रमाणे-गंध, रस अने स्पर्श. [प्र०] हे भगवन् ! काम-भोग केटला प्रकारे कह्या है ? [उ०] हे गौतम ! काम अने भोग (बन्ने मळी) पांच प्रकारना कह्या छ, ने आ प्रमाणे-शब्द, रूप, रस, गंध अने स्पर्श. P७ शतके
जीवा णं भंते ! किं कामी भोगी?, गोयमा! जीवा कामीवि भोगीवि, से केणट्टेणं भंते ! एवं उद्देशः ७ | बुच्चइ जीवा कामीवि भोगीवि ?, गोयमा ! सोइंदियचविखदियाई पडच कामी, घाणिंदियजिभिदियफासिंदियाई पडुच्च भोगी, से तेगडेणं गोयमा! जाव भोगीवि । नेरइया णं भते ! किं कामी भोगी!, एवं चेव, एवं जाव धणियकुमारा । पुढ विकाइयाणे पुच्छा, गोयमा! पुढविकाइया नो कामी, भोगी, से केगडेगं जाव भोगी?, गोयमा ! फामिंदियं पडुच्च, से तेणटेणं जाव भोगी, एवं जाव वणस्मइकाइया. बेइंदिया एवं चेव, नवरं जिनिभदियफामिंदियाई पडुच्च भोगी, इंदियावि एवं चेव, नवरं घाणिदियजिभिदियफासिंदियाई पडुच्च भोगी, चउरिदियाणं पुच्छा, गोयमा ! च गरिदिया कामी वि भोगीवि, से केण?णं जाव भोगीवि ?, गोयमा ! चक्खिदि पडुच कामी, घाणिदियजिभिदियफासिंदियाई पटुच्च भोगी. से तेणटेणं जाव भोगीवि, अवसेसा जहा जीया जाव वेमाणिया ॥ एमि णं भंते ! जीवाणं कामभोगीणं नोकामीनोभोगाणं भोगीण य कयरे कपरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा ?, गोयमा! सब्बत्योवा जीवा कामभोगी, नोकामीनोभोगी अणतगुणा, भोगी अणंतगुणा ॥ (सूत्रं २८९)॥
(प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवो कामी के भोगी छे ? [उ.] हे गौतम ! जीवो कामी पण , अने भोगी पगडे. [प्र०] हे
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७ शतके उद्देशः ७ ॥५३६॥
भगवन् ! शा हेतुथी एम कहो छो के जीवो कामी पण छे अने भोगी पण छे ? [उ०] हे गौतम! श्रोत्रंद्रिय अने चक्षुने आश्रयी व्याख्या
जीवो कामी कहेवाय ले, तेम घाणेन्द्रिय, जिह्वन्द्रिय अने स्पर्शेन्दियनी अपेक्षाए जीवो भोगी कहेवाय छे; ते हेतुथी हे गौतम ! प्रज्ञप्तिः | जीवो यावत् भोगी पण छे. [प्र.] हे भगवन् ! शुं नारको कामी छे के भोगी छे ? [उ०] पूर्वे कद्या प्रमाणे जाणवू, ए प्रमाणे ॥५३६॥ स्तनितकुमारोने जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिकनो प्रश्न. [उ.] हे गौतम ! पृथिवीकायिको कामी नी, पण भोगी छे.
[[प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहो छो के पृथिवीकायिको भोगी छे ? हे गौतम ! स्पर्शेन्द्रियने आश्रयी; ते हेतुथी तेओ यावत्
भोगी हे. ए प्रमाणे यावत् वनस्पतिकायिको जाणवा, बेइन्द्रिय जीवो ए प्रमाणे जाणवा, परन्तु तेओ जिहा अने स्पर्शेन्द्रियनी अपेलक्षाए भोगी है. तेइन्द्रिय जीवो पण ए प्रमाणे जाणवा, पण घाण, जिल्हा अने स्पर्शेन्द्रियनी अपेक्षाए तेओ भोगी छे. [प्र०] चउ
रिन्द्रिय जीवोनो प्रश्न. [उ०] हे गौतम ! चउरिन्द्रिय जीवो कामी पण छे अने भोगी पण छे. [प्र०] हे भगवन् ! शा हेतुथी यावत् भोगी पण छे ? [उ०] ते चउरिन्द्रिय जीवो चक्षुनी अपेक्षाए कामी; घाण, जिला अने स्पर्शन्द्रियनी अपेक्षाए भोगी छे; ते हेतुथी | यावत् भोगी समजवा. बाकीना यावत् वैमानिक सुधीना जीवो जेम सामान्य जीवो कह्या तेम जाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! कामभोगी, नोकामी नोभोगी अने भोगी जीवोमां कया जीवो कया जीवोथी यावत् विशेषाधिक छे? [उ०] हे गौतम! कामभोगी जीवी सौथी थोडा छ, नोकामी नोभोगी जीवो अनन्तगुण छे, अने भोगी जीवो अनन्तगुण छे. ॥ २८९ ॥
छउमत्थे ण भंते ! मणूसे जे भविए अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववजित्तए, से नूर्ण भंते ! से खीणभोगी नो पभू उहाणेणं कम्मेणं बलेणं वीरिएणं पुरिसक्कारपरक्कमेणं विउलाई भोगभोगाई
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उद्देशः७
भुंजमाणे विहरित्तए ?, से नूर्ण भंते ! एयमटुं एवं वयह, गोयमा ! णो इणटे समढे, पभू णं उट्टाणेणवि व्याख्याकम्मेणवि बलेणवि वीरितणवि पुरिसक्कारपरक्कमेणवि अन्नयराई विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए,
3७ शतके प्रज्ञप्तिः
तम्हा भोगी भोगे परिचयमाणे महानिजरे महापज्जवसाणे भवइ १। आहोहिए णं भंते ! मणुस्से जे भविए ॥५३७॥ क्षन्नयरेसु देवलोएसु एवं चेव जहा छउमत्थे जाव महापज्जवसाणे भवति २। परमाहोहिए णं भंते ! मणुस्से
* ५३७॥ जे भविए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झित्तए जाव अंतं करेत्तए ?, से नूणं भंते ! से खीणभोगी सेसं जहा छउ४ मत्थस्सवि३ । केवली ण भते ! मगुस्से जे भविए तेणेव भवग्गहणेणं एवं जहा परमाहोहिए जाव महापजदवसाणे भवइ ४ ॥ (सूत्रं २९०)॥
[प्र०] हे भगवन् ! छमस्थ मनुष्य जे कोइपण देवलोकमां देवपणे उत्पन्न यवाने योग्य छे ते क्षीगभोगी-दुर्बल शरीरवाळो ५ उत्थानवडे, कर्मवडे, बलवडे, वीर्यवडे अने पुरुषाकार पराक्रमवडे विपुल एवा भोग्य भोगोने भोगववा समर्थ छे ? हे भगवन् ! खरेदाखर आ अर्थने आ प्रमाणे कहो छो? [उ.] हे गौतम ! आ अर्थ योग्य नथी. ते उत्थानवडे पण, कमाडे पण, बलबडे पण, वीर्यवडे
पण अने पुरुषाकार पराक्रमवडे पण कोइपण विपुल एवा भोग्य भोगोने भोगवा समर्थ हे, ते माटे ते भोगी भोगोनो त्याग करतो | महानिर्जरावाळो अने महापर्यवसान-महाफलवाळो थाय छे. [प्र०] हे भगवन् ! ! अबोऽवधिक-नियतक्षेत्रना अवधिज्ञानवाहोमनुष्य जे कोइपण देवलोकमां देवपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते क्षीणभोगी पुरुषाकार पराक्रमबडे विपुल भोगोने भोगवत्रा समर्थ हे ? [उ.] ए प्रमाणे छद्मस्थनी पेठे यावत् ते महापर्यवसान-महाफलवाळो थाय रे. [प्र०] हे भगतन् ! परमावधिज्ञानी मनुष्य
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः ॥ ५३८ ॥
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जे तेज भवमां सिद्ध थवाने यावत् ( सर्व दुःखोनो ) अन्त करवाने योग्य छे, हे भगवन् ! खरेखर ते क्षीणभोगी विपुल भोगोने भोगवचा समर्थ छे ? [उ०] बाकी तुं सर्व छद्मस्थनी पेठे जाणवु [प्र० ] केवलज्ञानी मनुष्य जे तेज भवमां सिद्ध थवाने यावत् (दुःखोनो) अन्त करवाने योग्य छे ते विपुल भोगोने भोगवचा समर्थ छे ? [३०] परमावधिज्ञानी पेठे जाणं, यावत् ते महापर्यवसान महाफलवाळो थाय छे. ॥ २९० ॥
जे इमे भंते ! असन्निणो पाणा, तंजहा पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया छट्ठा य एगतिया तसा, एए णं अंधा मूढा तमंपविट्ठा तमपडलमोहजालपडिच्छण्णा अकामनिकरणं वेदणं वेदंतीति वत्तव्वं सिया ?, हंता गोयमा ! जे इमे असन्निणो पाणा जाव पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया छट्टा य जाव वेदणं वेदंतीति वत्तव्वं सिया || अस्थि णं भंते! पभूवि अकामनिकरणं वेदणं वेदंति ?, हंता गोयमा ! अस्थि कहनं भंते ! पभूवि अकामनिकरणं वेदणं वेदेति १, गोयमा ! जे णं णो पभू विणा दीवेणं अंधकारंसि रुवाई पासित्तए, जे णं नो पभू पुरओ रूवाएं अणिज्झाइत्ताणं पासित्तए, जे णं नो पभू मग्गओ रूवाएं अणवयक्खित्ताणं पासित्तए, जेणं नो पभू पासओ रुवाई अणालोइत्ता णं पासित्तए, जेणं नो पभू उडूढं रुवाई अणालोएत्ताणं पासित्तए, जे णं नो पभू अहे रुवाइं अणालोयएत्ता णं पासित्तए, एस णं गोयमा ! पभूवि अकामनिकरणं वेदणं वेदेति । अस्थि णं भंते! पभूवि पकामनिकरणं वेदणं वेदेति ?, हंता अत्थि कहन्नं भंते ! पभूवि पकामनिकरणं वेदणं वेदंति ?, गोयमा ! जे णं नो पभू समुहस्स पारं गमित्तए, जे णं नो पभू समु
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व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥५३९॥
1७ शतके उद्देशः७ ॥५३९।।
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दस्स पारगयाई रूवाई पासित्तए, जे णं नो पभू देवलोगं गमित्तए, जेणं नो पभू देवलोगगयाई रूवाई पासित्तए, एस णं गोयमा ! पभूवि पकामनिकरणं वेदणं वेदेति । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ।। (सूत्रं २९१) ॥ सत्तमस्स सत्तमो उद्देसओ संमत्तो ॥ ७-७॥
प्र०] हे भगवन् ! जे आ असंज्ञी मनरहित प्राणीओ छे, जेमके, पृथिवीकायिको यावत् वनस्पतिकायिको अने छट्ठा केटलाएक (संमूर्छिम) त्रस जीवो, जेओ अंध-अज्ञानी, मूढ, अज्ञानान्धकारमा प्रवेश करेला, अज्ञानरूप आवरण अने मोहजालवडे ढंकायेला
छे तेओ अकामनिकरण-अनिच्छापूर्वक वेदना वेदे छे एम कहेवाय ? [उ०] हा, गौतम ! जे आ असंज्ञी प्राणीओ पृथिवीकायिको | यावत् वनस्पतिकायिको अने छट्ठा (संमूर्छिम त्रसो) अनिच्छापूर्वक वेदना वेदे छे एम कहेवाय. [प्र०] हे भगवन् ! शुं एम छे के समर्थ छतां (संज्ञी छतां) पण जीव अनिच्छापूर्वक वेदनाने वेदे ! हे गौतम ! हा एम छे. [प्र०] हे भगवन् ! समर्थ छतां पण जीव अनिच्छापूर्वक वेदनाने केम वेदे ! [उ.] हे गौतम ! जे समर्थ छतां अंधकारमा प्रदीप शिवाय रूपो (पदार्थो) जोवाने समर्थ नथी, जे अवलोकन कर्या शिवाय आगळ रहेला रूपो जोवाने समर्थ नथी, जे अवेक्षण कर्या विना पाछळ रहेला रूपो जोवा समर्थ नथी, जे आलोचन कर्या शिवाय उपरना रूपो जोवाने समर्थ नथी, जे आलोचन कर्या शिवाय नीचेना रूपो जोवाने समर्थ नथी; हे गौतम ! ते आ अर्थ समर्थ छतां पण अनिन्छिापूर्वक वेदनाने वेदे छे. [प्र०] हे भगवन् ! एम छे के समर्थ पण प्रकामनिकरणतीवेच्छापूर्वक वेदनाने वेदे ? [उ०] हे गौतम ! हा वेदे. [प्र०] हे भगवन् ! समर्थ छतां पण तीवेच्छापूर्वक वेदनाने केम वेदे ? [उ०] हे गौतम! जे समुद्रनो पार पामवा समर्थ नथी जे समुद्रने पार रहेला रूपो जोवा समर्थ नथी, जे देवलोकमां जवा समर्थ
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५४॥
नथी, अने जे देवलोकमां रहेला रूपोने जोवा समर्थ नथी हे गौतम ! ते समर्थ छतां पण तीवेच्छापूर्वक वेदनाने वेदे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, एम कही यावत् विचरे छे. ॥ २९१ ॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना सातमा शतकमा सातमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
BHASAB
७ शतके उद्देशः ८ ॥५४॥
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उद्देशक ८. छउमत्थे णं भंते ! मणूसे तीयमणंतं सासयं समय केवलेणं संजमेणं एवं जहा पढमसए चउत्थे उद्देमए तहा भाणियव्वं जाव अलमत्थु ।। (सूत्र २९२)॥
[प्र.] हे भगवन् ! छमस्थ मनुष्य अनंत अने शाश्वत अतीत काले केवळ संयमवडे (यावत् सिद्ध थयो ? [उ०] ए प्रमाणे जेम प्रथम शतकना चोथा उद्देशकमां का छे तेम यावत् 'अलमस्तु' पाठ सुधी कहेवु. ॥ २९२ ॥
से णूणं भंते ! हथिस्स ये कुंथुस्स य समे नेव जीवे ?, हंता गोयमा ! हथिस्स कुंथुस्स य, एवं जहा रायप्पसेणहजे जाव खुडियं वा महालिय वा से तेणटेणं गोयमा ! जाव समे चेव जीवे ( सूत्रं २९३)॥
[प्र०] हे भगवन् ! खरेखर हस्ती अने कुंथुनो जीव समान छे ? [उ.] हा, गौतम ! हस्ती अने कुंथुनो जीव समान छे. जेम | 'रायपसेणीय' सूत्रमा कयु छे ते प्रमाणे यावत् 'खुड्डियं वा महालियं वा' ए पाठ सुधी जाणवू. ॥ २९३ ।।
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व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥५४१॥
७ शतके उद्देशः८
. नेरइयाणं भंते ! पावे कम्मे जे य कडे जे य कज्जइ जे य कजिस्सइ सम्वे से दुक्खे, जे निजिने से सुहे?, हंता गोयमा ! नेरइयाणं पावे कम्मे जाव सुहे, एवं जाव वेमाणियाणं (सूत्रं २९४)॥
[प्र०] हे भगवन् ! नारकोवडे जे पापकर्म करायेलं छे. कराय के अने कराशे ते सघळु दुःखरूप ले, अने जे निर्जीण (क्षीण) ययुं ते सुखरूप छे ? [उ०] हा, गौतम! नारकोवडे जे पापकर्म करायं (ते दुःखरूप छे, अने जे निर्जीण थयु) ते यावत् सुखरूप छे, ए प्रमाणे यावत् वैमानिकोने जाणवू. ॥ २९४ ॥
कति णं भंते ! सन्नाओपन्नत्ताओ?, गोयमा ! दस सन्नाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-आहारमन्ना १ भयसन्ना २ नेहुणसन्ना ३ परिग्गहमन्ना ४ कोहसन्ना ५ माणसन्ना ६ मायासन्ना ७ लोभसन्ना ८ लोगसन्ना ९ ओहसन्ना १०, एवं जाव वेमाणियाणं । नेरइया दसविहं वेयणिज्जं पच्चणुभवमाणा विहरंति, तंजहा-सीयं उसिणं खुहं पिवासं कंडु परज्झं जरं दाहं भयं सोगं ॥ (सूत्रं २९५)॥
[प्र०] हे भगवन् ! संज्ञाओ केटली कहेली छे ? [उ०] दश संज्ञाओ कही छे. जेम, १ आहारसंज्ञा, २ भयसंज्ञा, ३ मैथुनसंज्ञा, | ४ परिग्रहसंज्ञा, ५ क्रोधसंज्ञा, ६ मानसंज्ञा, ७ मायासंज्ञा, ८ लोभसंज्ञा, ९लोकसंज्ञा, अने १० ओघसंज्ञा. ए प्रमाणे यावत् वैमानिकोने जाणवू. [प्र०] नारको दश प्रकारनी वेदनानो अनुभव करता होय छे ते आ प्रमाणे-१ शीत, २ उष्ण, ३ क्षुधा, ४ पिपासा-तरस, ५ कंडू-खरज, ६ परतन्त्रता, ७ ज्वर, ८ दाह, ९ भय, १० शोक. ।। २९५॥
से नूणं भंते ! हथिस्स य कुंथुस्स य समा चेव अपञ्चक्खाणकिरिया कजति ?, हंता गोयमा! हथिस्स य
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५४२॥
कुंथुस्स य जाव कजति । से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ जाव कजइ ?, गोयमा! अविरतिं पडुच्च, से तेणटेणं जाव कजह (सूत्रं २९६)॥
७ शतके [प्र०] हे भगवन् ! खरेखर हाथी अने कुंथुने अप्रत्याख्यान क्रिया समान होय ? [उ०] हा, गौतम ! हाथी अने कुन्थुने यावत् |
| उद्देशः ८ अप्रत्याख्यान क्रिया समान होय छे. [प्र.] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहो छो के हाथी अने कुन्थुने समान अप्रत्याख्यान क्रिया | ॥५४२।। होय ? [उ०] हे गौतम ! अविरतिने आश्रयी, ते हेतुथी यावत् हाथी अने कुंथुने समान अप्रत्याख्यान क्रिया होय. ।। २९६॥
आहाकम्मं णं भंते ! भुजमाणे किं बंधह? किं पकरेइ ? किं चिणाइ? किं उवचिणाइ ? एवं जहा पढमे सए नवमे उद्देसए तहा भाणियव्वं जाव सासए पंडिए, पंडियत्तं असासयं, सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति ॥ (सूत्रं २९७) सत्तमसयस्स अट्ठमो उद्देसो संमत्तो॥७-८॥
[प्र०] हे भगवन् ! आधाकर्म आहारने खानार (साधु) शुं बांधे, शुं करे, शेनो चय करे अने शेनो उपचय करे ? [उ०] जेम प्रथम शतकना नवमां उद्देशकमां का छे ए प्रमाणे यावत् पंडित शाश्वत छे, पण पंडितपणुं अशाश्वत छे' त्यांमुधी कहे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे एम कही यावत् विचरे छे. ॥ २९७॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीस्त्रना सातमा शतकमां आठमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण ययो.
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शतके उद्देशः९ ॥५४३।।
उदेशक ९. व्याख्या
असंवुडे णं भंते ! अणगारे वाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगवन्नं एगरूवं विउवित्तए ?, णो तिण-1 प्रज्ञप्ति
ढे समठू । असंवुडे णं भंते ! अणगारे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू एगवन्न एगरूवं जाव हंता पभू । से ॥५४३॥
&ाभंते ! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ,तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वति,अन्नत्थगए पोग्गले परिया-1
इत्ता विकुब्बइ?, गोयमा ! इहगए पोग्गले परियाइत्ता विकुब्बइ, नो तस्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुब्वइ, नो
अन्नत्थगए पोग्गले जावविकुब्वति, एवं एगवन्नं अणेगरूवं चउभंगो जहा छट्टसए नवमे उद्देसए तहा इहावि दाभाणियवं, नवरं अणगारे इहगयं इहगए चेव पोग्गले परियाइत्ता विकुब्वइ, सेसं तं चेव जाव लुक्खपोग्गलं
निद्धपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए ?, हंता पभू, से भंते ! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता जाव नो अन्नत्थगए
पोग्गले परियाइत्ता विकुन्वइ ॥ (सूत्रं २९८)॥ ना [प्र०] हे भगवन् ! असंवृत-प्रमत्त साधु बहारना पुद्गलोने ग्रहण कर्या शिवाय एकवर्णवाळ एक रूप विकुर्ववा समर्थ छे ?
उ.] हे गौतम! ए अर्थ योग्य नथी. [प्र०] हे भगवन ! असंवृत साधु बहारना पुद्गलोने ग्रहण करी एकवर्णवा- एक रूप यावत्
विकुर्ववा समर्थ छ?] [उ०] हा, समर्थ छे. [प्र०] हे भगवन् ! ते साधु शुं अहीं-मनुष्यलोकमा रहेला-पुद्गलोने ग्रहण करीने | विकुर्वे, त्यां रहेला पुद्गलोने ग्रहण करीने विकुर्वे के अन्य स्थळे रहेला पुद्गलोने ग्रहण करीने विकुर्वे ? [उ०] हे गौतम ! अहीं रहेला पुद्गलोने ग्रहण करी विकुर्वे, पण त्यां रहेला पुद्गलोने ग्रहण करी न विकुर्वे, तेम अन्यत्र रहेला पुद्गलोने ग्रहण करी यावत् |
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५४४ः
७ शतके उद्देशः ॥५४४॥
न विकु.. ए प्रमाणे एकवर्ण अने अनेकरूप-इत्यादि चतुर्भगी जेम छटा शतकना नवमा उद्देशकमां कही छे तेम अहीं पण कहेवी; | परन्तु एटलो विशेष के के अहीं रहेलो साधु अहीं रहेला पुद्गलोने ग्रहण करी विकुर्वे, चाकीनुं ते प्रमाणे यावत् 'रुक्षपुद्गलोने स्निग्धपुद्गलोपणे परिणमाववा समर्थ छे? हा, समर्थ छे; हे भगबनू ! शुं अहीं रहेला पुद्गलोने ग्रहण करी, यावत् अन्यत्र रहेला पुदगलोने ग्रहण कर्या शिवाय विकुर्वे छे'त्यांसुधी जाणवू. ॥ २९८ ॥
_ णायमेयं अरहया सुयमेयं अरहया विन्नायमेयं अरहया महासिलाकंटए संगामे २॥ महासिलाकंटए णं 8 भंते ! संगामे वट्टमाणे के जइत्था के पराजइत्था ?, गोयमा! बज्जी विदेहपुत्ते जइत्था, नवमल्लई नवलेच्छई
कासीकोमसगा अट्ठारसवि गणरायाणो पराजइत्था ॥ तए णं से कोणिए राया महासिलाकंटकं संगामं | उवट्ठियं जाणित्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ २ एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! उदाई हत्थिरायं, पडिकप्पेह हयगयरहजोहकलियं चाउरंगिणिं सेणं सन्नाहेह २त्ता मम एयमाणत्तियं खिप्पामेव पचप्पिणह । तए णं ते कोटुंबियपुरिसा कोणिएणं रन्ना एवं बुत्ता समाणा हट्टतुट्ट जाव अंजलिं कहु एवं सामी! तहत्ति आणाए बिणएणं वयणं पडिसुणंति २ खिप्पामेव छेयायरियोवएसमतिकप्पणाविकप्पेहिं सुनिउणेहिं एवं जहा उववाइए जाव भीमं संगामियं अउज्झं उदाई हस्थिरायं पडिकति हयगय जाव सन्नाति २ जेणेव कूणिए | राया तेणेव उवागच्छह, तेणेव उवागच्छइत्ता करयल• कूणियस्स रन्नो तमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति, तए णं से कूणिए राया जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छ। तेणेव उवागच्छित्ता मजणघरं अणुपविसह मजणघरं अणु
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥५४५॥
७ शतके उद्देशः९ ॥५४५॥
पविसित्ता पहाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए सन्नबद्धवम्मियकवए उप्पीलियसरासणपहिए पिणद्धगेवेजे विमलवरबद्धचिंधपढे गहियाउहप्पहरणे सकोरिंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं चउचामरवालवीतीयंगे मंगलजयसहकयालोए एवं जहा उववाइए जाव उवागच्छित्ता उदाई हत्थिरायं दुरूढे, तए णं से कृणिए राया हारोत्थयसुकयरहयवच्छे जहा उववाइए जाव सेयवरचामराहिं उधुब्वमाणीहिं उधुब्वमाणीहिं हयगयरहपवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिबुडे महया भडचडगरविंदपरिवखित्ते जेणेव महासिलाए कंटए संगामे तेणेव उवागच्छह तेणेव उवागच्छित्ता महासिलाकंटयं संगामं ओयाए, पुरओ य से सके देविंदे देवराया एग महं अभेजकवयं वहरपडिरूवगं विउवित्ताणं चिट्ठति, एवं खलु दो इंदा संगाम संगामेति, तंजहा-देविंदे य मणुइंदे य, एगहत्थिणावि णं पभू कूणिए राया पराजिणित्तए, तए णं से कूणिए राया महासिलाकंटकं संगामं संगामेमाणे नव मल्लई नव लेच्छई कासीकोसलगा अट्टारसवि गणरायाणो हयमहियपवरवीरघाइयवियडियचिंधद्धयपडागे किच्छपाणगए दिसो दिसिं पडिसेहित्था ॥
[प्र.] अर्हते जाण्यु छ, अर्हते प्रत्यक्ष कयु के. अर्हते विशेषतः जाण्यु छ के महाशिलाकंटक नामे संग्राम छे. हे भगवन् ! महाशिलाकंटक संग्राम थतो हतो त्यारे कोण जीत्या अने कोण हार्या ? [उ.] हे गौतम ! बज्जी (इन्द्र) अने विदेहपुत्र (कूणिक) जीत्या, नव मल्लकी अने नव लेच्छकी जेओ काशी अने कोशलदेशना अढार गणराजाओ हता तेओ पराजय पाम्या. त्यारपछी
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७ शतके उद्देशः२ ॥५४६॥
महाशिलाकंटक संग्राम विकुा पछी ते कूणिक राजा महाशिला कंटक नामे संग्राम उपस्थित थलो जाणी पोताना कौटुम्बिक व्याख्या
पुरुषोने बोलावे छे, बोलावीने तेओने एम का के हे देवानुप्रियो ! शीघ्र उदायि नामना पट्टहस्तीने तैयार करो, अने घोडा, हाथी, प्रज्ञप्तिः
| रथ अने योद्धाओथी युक्त चतुरंग सेनाने तैयार करो, तैयार करी मारी आज्ञा जलदी पाछी आपो. त्यारबाद ते कूणिकना एम कहे॥५४६॥
वाथी ते कौटुम्बिक पुरुषो हृष्ट तुष्ट थइ यावत् अंजली करीने हे स्वामिन् ! ए प्रमाणे 'जेवी आज्ञा' एम कहीने आज्ञा अने विनयवडे भवचननो स्वीकार करे छे. वचननो स्वीकार करीने कुशल आचार्यांना उपदेशवडे तीक्ष्णमति कल्पनाना विकल्पोथी औपपातिकमूत्रमा
कह्या प्रमाणे यावत् भयंकर अने जेनी साथे कोइ युद्ध न करी शके एवा उदायि नामना मुख्य हस्तीने तैयार करे ; घोडा हाथी इत्यादिथी युक्त यावत् [चतुरंग सेनाने तैयार करे छे.] ते सेनाने सज्ज करीने ज्यां कूणिक राजा हे त्यां तेओ आवे छे, आवीने करतल जोडीने] कृणिक राजाने ते आज्ञा पाछी आपेले. त्यारबाद ते कूणिक राजा ज्यां स्नानगृह छे त्यां तेओ आवे छे, अने आवीने स्नानगृहमा प्रवेश करे छे, त्यां प्रवेश करी न्हाइ बलिकर्म (पूजा) करी प्रायश्चित्तरूप (विनोनो नाश करनार) कौतुक (मषीतिलकादि) अने मंगलो करी सलिंकारथी विभूषित थइ, सन्नद्ध बद्ध थइ बख्तरने धारण करी वाळेला धनुदंडने ग्रहण करी, डोकमां आभूषण पहेरी, उत्तमोत्तम चिन्हपट्ट बांधी, आयुध अने प्रहरणोने धारण करी, माथे धारण कराता कोरंटक पुष्पनी माळावाळा छत्र सहित, जेनुं अंग चार चामरोना वाळ वडे बींजायलुं छे, जेना दर्शनथी मंगल अने जय शब्द थाय छे एवो (कूणिक) औपपातिकमूत्रमा कह्या प्रमाणे यावत् आवीने उदायि नामे प्रधानहस्ती उपर चढ्यो. त्यारबाद हारवडे तेनुं वक्षःस्थळ ढंकायेलु होवाथी रति उत्पन्न करतो ओपपातिकसूत्रमा कह्या प्रमाणे वारंवार वींजाता श्वेत चामरोवडे यावत् घोडा, हाथी, रथ अने उत्तम
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥५४७॥
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योद्धाओथी युक्त चतुरंग सेनानी साये परिवारयुक्त, महान् सुभटोना विस्तीर्ण समूहथी व्याप्त कूणिकराजा ज्यां महाशिलाकंटक संग्राम छे त्यां आवे छे, त्यां आवीने ते महाशिलाकंटक संग्राममां उतर्यो, तेनी आगळ देवनो इन्द्र देवनो राजा शक्र एक मोटुं वज्रना सरं अभेद्य कवच (बख्तर) विकुर्वीने उभो छे. ए प्रमाणे वे इन्द्रो संग्राम करे छे, जेमके एक देवेन्द्र अने बीजो मनुजेन्द्र हवे ते कूणिकराजा एक हाथीवडे पण शत्रुपक्षनो पराजय करवा समर्थ छे. त्यारबाद ते कूणिके महाशिलाकंटक संग्रामने करता नवमल्लकि अनेनवलेच्छक जेओ काशी अने कोशलाना अढार गणराजाओ हता, तेओना महान् योद्धाओने हण्या, घायल कर्या अने मारी नांख्या, तेओनी चिन्हयुक्त ध्वजा अने पताकाओ पाडी नांखी, अने जेओना प्राण मुश्केलीमां छे एवा तेओने [ युद्धमांथी ] चारे दिशाए नसाडी मूक्या.
से केणट्टेणं भंते! एवं वृचइ महासिलाकंदर संगामे १, गोयमा ! महासिलाकंटए णं संगामे माणे जे तत्थ आसे वा हत्थी वा जोहे वा सारही वा तणेण वा पत्तेण वा कट्ठेण वा मक्कराए वा अभिहम्मति सवे से जाणए महासिलाए अहं अभिहए म० २, से तेणट्टेणं गोयमा ! महासिलाकंदर संगामे । महासिलाकंटए णं भंते ! संगामे वट्टमाणे कति जणसयसाहस्सीओ वहियाओ १, गोयमा ! चउरासीइं जण ससाहस्सीओ वहियाओ । ते णं भंते! मणुया निस्सील जाव निपञ्चक्खाणपोसहोववासा रुट्ठा परिकुबिया समरवहिया अणुवसंता कालमासे कालं किच्चा कहिं गया कहिं उबवन्ना ?, गोयमा ! ओसन्नं नरगतिरिक्खजोणिएसु उववन्ना ॥ ( सू २९९ ) ॥
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७ शतके उद्देशः ९ 1193011
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५४८॥
७ शतके उद्देशः९ ॥५४८॥
445-5
[प्र०] हे भगवन् ! शा कारणथी एम कहेवाय छे के ते महाशिलाकंटक संग्राम के ? [उ०] हे गौतम ! ज्यारे महाशिलाकंटक संग्राम थतो हतो त्यारे ते संग्राममा जे घोडा, हाथी, योधा अने सारथीओ तृण, काष्ट, पांदडा के कांकरावती हणाय त्यारे तेओ सघळा एम जाणे के हुं महाशिलाथी हणायो, ते हेतुथी हे गौतम ! ते महाशिलाकंटक संग्राम कहेवाय छे. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यारे महाशिलाकंटक संग्राम थतो हतो त्यारे तेमां केटलालाख माणसो हणाया? [उ.] हे गौतम ! चोरासीलाख माणसो हणाया. [प्र०] हे भगवन् ! निःशील, यावत् प्रत्याख्यान अने पोषधोपवासरहित, रोषे भरायेला, गुस्से थयेला, युद्धमां घायल थयेला, अनु
पशांत एवा ते मनुष्यो कालसमये मरण पामीने क्यां गया, क्या उत्पन्न थया? [उ०] हे गौतम ! घणे भागे तेओ नारक अने हैातियंचयोनिमां उत्पन्न थया छे. ॥ २९९ ॥
णायमेयं अरहया सुयमेयं अरहया विनायमेयं अरहया रहमुसले संगामे, रहमुसले णं भंते ! संगामे वहमाणे के जइस्था के पराजहत्था ?, गोयमा! वजी विदेहपुत्ते चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया जइत्था, नव मल्लई नब लेच्छइ पराजइत्था, तए णं से कूणिए राया रहमुसलं संगाम उवट्ठियं सेसं जहा महासिलाकंटए | नवरं भृयानंदे हस्थिराया जाव रहमुलसंगामं ओयाए, पुरओ य से सके देविंदे देवराया, एवं तहेव जावचिटुंति, मग्गओ य से चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया एगं महं आयासं किढिगपडिरूवगं विउम्वित्ताणं चिट्ठइ, एवं खलु तओ इंदा संगामं संगामेंति, तंजहा-देविंदे य मणुइंदे य असुरिंदे य, एगहत्थिणावि णं पभू कूणिए राया जइत्तए, तहेव जाव दिसोदिसिं पडिसेहित्था। से केणतुणं भंते! एवं बुच्चह रहमुसले संगामे २१, गोयमा !
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व्याख्याप्रज्ञप्ति ॥५४९॥
७ शतके उद्देशः९ ||५४९॥
रहमुसले णं संगामे वट्टमाणे एगे रहे अणासए असारहिए अणारोहए समुसले महया २ जणक्खयं जणवहंा जणप्पमई जणसंवट्टकप्पं रुहिरकद्दमं करेमाणे मव्वओ समंता परिधावित्था से तेण?णं जाव रहमुसले संगामे । रहमुसले णं भंते ! संगामे वहमाणे कति जणसयमाहस्सीओ वहियाओ, गोयमा! छन्नउतिं जणसयसाहस्सीओ बहियाओ। ते णं भंते! मणुया निस्सीला जाव उववन्ना?, गोयमा! तत्थ णं दस साहस्सीओ एगाए मच्छीए कुच्छिसि उववनाओ, एगे देवलोगेसु उववन्ने, एगे सुकुले पञ्चायाए, अवसेसा ओसन्नं नरगतिरिक्खजोणिएसु उववन्ना ॥ (सूत्रं ३००)॥
[प्र०] अर्हते जाण्यु ठे, अर्हते प्रत्यक्ष कयु के, अहे ते विशेष प्रकारे जाण्यु छे के रथमुशल नामे संग्राम हे. हे भगवन् ! ज्यारे स्थमुशल नामे संग्राम थतो हतो त्यारे कोनो विजय थयो, अने कोनो पराजय थयो ? [उ०] हे गौतम ! वज्जी (इन्द्र) विदेहपुत्र (कणिक) अने अमुरेन्द्र अमुर कुमारराजा चमर एओ जीत्या; नवमल्लकि अने नव लेच्छकि राजाओ पराजय पाम्या. त्यारबाद ते कूणिकराजा रथमुशल संग्राम उपस्थित थएलो जाणी (पोताना कौटुम्बिक पुरुषोने बोलावे छे) बाकीk (सर्व वृत्तान्त) महाशिलाकंटक संग्रामनी पेठे जाणवू. परन्तु विशेष ए के के अहीं भूतानंद नामे प्रधानहस्ती छे; यावत् ते (कूणिक) रथमुसलसंग्राममा उतो. तेनी आगल देवेन्द्र देवराज शक्र हे. ए प्रमाणे पूर्वनी पेठे यावत् रहे छे. पाछळ असुरेन्द्र असुरकुमारनो राजा चमर एक मोटुं लोढार्नु किठीनना जे कवच विकुर्वीने रहेलो हे. ए प्रमाणे खरेखर त्रण इन्द्रो युद्ध करे हे. जेमके-देवेन्द्र, मनुजेन्द्र अने असुरेन्द्र. हवे | ये कणिक एक हाथीवडे पण शत्रुओनो पराजय करवा समर्थ के. यावत् तेणे पूर्व कह्या प्रमाणे (शत्रुओने ) चारे दिशाए नसाडी
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५५०॥
७ शतके उद्देशः ९ ।।५५०॥
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| मुक्या. [प्र०] हे भगवन् ! शा कारणथी ते रथमुशल संग्राम कहेवाय छे ? [उ०] हे गौतम ! ज्यारे रथमुशल संग्राम थतो हतो तात्यारे अश्वरहित, सारथिरहित, योद्धाओ रहित अने मुशलसहित एक रथ घणा जनसंहारने, जनवधने, जनप्रमर्दने, जनप्रलयने, तेम
लोहिना कीचडने करतो चारे तरफ चारे बाजुए दोडे छे; ते कारणथी यावत् ते रथमुशलसंग्राम कडेवाय छे. [म०] हे भगवन् ! ज्यारे रथमुशल संग्राम थतो हतो त्यारे केटलालाख माणसो हणाया? [उ०] हे गौतम! छन्नुलाख माणसो हणाया. [प्र०] हे भगवन् ! शीलरहित ते मनुष्यो यावत् क्यां उत्पन्न थया? [उ०] हे गौतम ! तेमां दशहजार मनुष्यो एक माछलीना उदरमा उत्पन्न थया, एक देवलोकमां उत्पन्न थयो, एक उत्तम कुलने विषे उत्पन्न थयो, अने बाकीना मनुष्यो घणेभागे नारक अने तियचयोनिमां उत्पन्न थया. ॥ ३० ॥
कम्हा णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया कूणियस्स रन्नो साहेज दलइत्था ?, गोयमा! सके देविंदे देवराया पुव्वसंगतिए,चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया परियायसंगतिए, एवं खलु गोयमा! सफे देविंदे देवराया चमरे य असुरिंदे असुरकुमारराया कूणियस्स रन्नो साहिज्जं दलइत्या ।। (सूत्रं ३०१)॥
[प्र०] हे भगवन्! देवना इन्द्र देवना राना शके अने असुरना इन्द्र असुरकुमारना राजा चमरे कूणिक राजाने केम सहाय आपी? [[उ०] हे गौतम ! देवनो इन्द्र देवनो राजा शक्र कूणिकराजानो पूर्वसंगतिक-पूर्वभवसंबन्धी मित्र-हतो, अने असुरेन्द्र असुरकुमारनो राजा चमर कूणिक राजानो पर्यायसंगतिक-तापसनी अवस्थामा मित्र-हतो, तेथी हे गौतम! ए प्रमाणे देवना इन्द्र देवना राजा शके अने असुरेन्द्र असुरकुमारना राजा चमरे कणिक राजाने सहायता आपी. ॥ ३०१ ।।
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व्याख्या
प्रज्ञप्ति
७ शतके उदेशः९
॥५५॥
AKAKIRA२-५+6
बहुजणे णं भंते! अन्नमन्नस्स एवमाइक्खंति जाव परवेति एवं खलु बहवे मणुस्सा अन्नयरेसु उच्चावएसु संगामेसु अभिमुहा चेव पहया समाणा कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, से कहमेयं भंते ! एवं ?, गोयमा! जण्णं से बहुजणो अन्नमन्नस्स एवं आइक्खति जाव उबवत्तारो भवंति जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमासु, अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव परुवेमि-एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं ममएणं वेमाली नाम नगरी होत्था, वण्णओ, तत्थ णं वेसालीए णगरीए वरुणे नामं णागनत्तुए परिवमइ अढे जाव अपरिभूए समणोवासए अभिगयजीवा
जीवे जाव पडिलामेमाणे छटुंछट्टेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरति, ताणं से #वरुणे णागनत्तुए अन्नया कयाइ रायाभिओगेणं गणाभिओगेणं बलाभियोगेणं रहमुसले संगामे आणत्ते
समाणे छट्टभत्तिए अट्ठमभत्तं अणुवति अट्ठमभत्तं अणुवर्दृत्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेह २ एवं वदासी-ग्विप्पामेव भो देवाणुपिया! चाउरघंटं आसरहं जुत्तामेव उवट्ठावेह हयगयरहपवर जाव सन्नाहेत्ता मम एयमाण
त्तियं पञ्चपिणह, तए णं ते कोडेवियपुरिसा जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सच्छत्तं मज्झयं जाव उवट्ठावेंति ही हयगयरह जाव सन्नाहेति २ जेणेव वरुणे नागनत्तुए जाव पञ्चप्पिणंति, तए णं से वरुणे नागननए जेणेव
मजणघरे तेणेव उवागच्छति जहा कूणिओ जाव पायच्छित्ते सवालंकारविभूसिए सन्नद्धबद्धे सकोरेटमल्लदामेणं जाव धरिजमाणेणं अणेगगणनायग जाव दूयसंधिपाल सद्धिं संपरिबुडे मज्जणघराओ पडिनिक्खमति
4-0
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥५५२॥
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पडनिमित्ता जेणेव बाहिरिया उबट्टाणसाला जेणेव चाउरघंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छत्ता चाउग्घंटं आसरहं दुरूहह २ हयगयरह जाव संपरिवुडे महया भडचडगर • जाव परिक्खित्ते जेणेव रहमु|सले संगामे तेणेव उवागच्छइ २ ता रहमुसलं संगामं ओयाए, तए णं से वरुणे णागणत्तुए रहमुसलं संगामं ओयाए समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हह - कप्पति मे रहमुसलं संगामं संगामेमाणस्स जे पुि पहाड़ से पडिणित्तए, अवसेसे नो कप्पतीति, अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगेण्हइ अभिगेण्हइत्ता रहमुसलं संगामं संगामेति, तए णं तस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स रहमुसलं संगामं संगामेमाणस्स एगे पुरिसे सरिसए सरिसत्तए सरिसव्वए सरिसभंडमत्तोवगरणे रहेणं पडिरहं हव्वमागए, तए णं से पुरिसे वरुणं णागणत्तयं एवं वयासी - पहण भो वरुणा ! णागणत्तुया ! प० २, तए णं से वरुणे णागणत्तुए तं पुरिसं एवं वदासीनो खलु मे कप्पर देवाणुप्पिया ! पुठिंव अहयस्स पणित्तए, तुमं चेव णं पुत्र्वं पहणाहि, तए णं से पुरिसे वरुणे णागण एणं एवं वृत्ते समाणे आसुरुते जाव मिसिमिसेमाणे धणुं परामुसह २ उसुं परामुसह उसुं परामुसिना ठाणं ठाति ठाणं ठिचा आययकन्नाययं उसुं करेइ आययकन्नाययं उसुं करेत्ता वरुणं णागणत्तुयं गाढप्पहारी करेह, तए णं से वरुणे णागनत्तए तेणं पुरिसेणं गाढप्पहारीकए समाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे धं परामुसइ धणुं परामुसित्ता उसुं परामुसह उसुं परामुसित्ता आययकन्नाययं उसुं करेइ आययकन्नाययं० २ तं पुरिसं एगाहचं कूडाहचं जीवियाओ ववरोवेइ, तए णं से वरुणे णागणतुए तेणं पुरिसेणं गाढप्पहारी
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७ शतके उद्देशः ९ ॥५५२ ।।
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व्याख्या प्रज्ञप्ति
७ शतके | उरेशः९ |॥५५३।।
C4
कए समाणे अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसकारपरकमे अधारणिजमितिकटु तुरए निगिण्हइ तुरए निगिण्हित्ता रहं परावत्तेह रहं परावत्तित्ता रहमुसलाओ संगामाओ पडिनिक्स्वमतिरएगतमंतं अवकमइ एगतमंतं अवक्कमित्ता तुरए निगिण्हइ २त्ता रहं ठवेइ २ त्ता रहाओ पञ्चोरुहइ रहाओ र रहाओ तुरए मोएइ तुरए मोएत्ता तुरए विसज्जेइ २त्ता (ग्रन्थ ४०००)२ दन्भसंथारगं संथरइ २ (पुरच्छाभिमुहे दुरूहइ दन्भसं०२) पुरच्छाभिमुहे संपलियकनिसने करयल जाव कद्द एवं वयासी-नमोत्थु णं अरिहंताणं जाव संपत्ताण, नमोत्थु णं समणस्म भगवओ महावीरस्स आइगरस्स जाव संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस्म धम्मोवदेसगस्स, वंदामि गं भगवन्तं तत्थगयं इहगए, पासउ मे से भगवं तत्थगए जाव वंदति नमसति २ एवं वयासी-पुम्विपि मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए थूलए पाणातिवाए पचखाए जावजीवाए एवं जाप धूलए परिग्गहे पचक्रवाए जावज्जीवाए, इयाणिंपिणं अरिहंतस्सेव भगवओमहावीरस्स अंतिय सव्वं पाणातिवायं पच्चरवामि जावज्जीवाए एवं जहा खंदओ जाव एयपि णं चरमेहिं ऊसासनीसासेहिं वोसिरिस्सामित्तिकदु सन्नाहपहूँ मुयह सन्नाह पदं मुइत्ता मल्लुद्धरण करेति मल्लद्धरणं करेत्ता आलोइयपडि कोते समाहिपत्ते आणुपुवीए कालगए । तए णं तस्स वरुणस्स णागनत्तुयस्स एगे पियवालवयंसए रहमुसलं संगाम संगामेमाणे एगेणे पुरिसेणं गाढप्पहारीकए समाणे अत्थामे अबले जाव अधारणिज्जमितिकटु वरुणं णागननयं रहमुसलाओ संगामाओ पडिनिखममाणं पासइ पासइत्ता तुरए निगिण्हइ तुरए निगिणिहत्ता जहा
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥ ५५४॥
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वरुणे जाव तुरए विसज्जेति पडसंथारगं दुरूह पडसंधारगं दुरूहित्ता पुरस्थाभिमुद्दे जाव अंजलि कहुँ एवं वयासी-जाई णं भंते! मम पियबालवयस्सस्स वरुणस्स नागनरायस्स सीलाई वयाई गुणाई वेरमणाई पञ्चक्खाणपोस होववासाई ताई णं ममंपि भवंतुत्तिकद्दु सन्नाहपडं मुयह २ सल्लुद्धरणं करेति सल्लुद्धरणं करेता आणुपुब्बीए कालगए, तए णं तं वरुणं णागणत्तयं कालगयं जाणित्ता अहासन्निहिएहिं वाणमंतरेहिं देवेहिं दिव्वे सुरभिगंधोदगवासे वुढे दसद्धवन्ने कुसुमे निवाडिए दिव्वे य गीयगंधव्वनिनादे कए यावि होत्था, तए णं तस्स वरुणस्स णागनत्तुयस्स तं दिव्यं देविड्ढीं दिव्वं देवज्जुतिं दिव्वं देवाणुभागं सुणित्ता य पासिता य बहू | जणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खड़ जाव परूवेति एवं खलु देवाणुप्पिया ! बहवे मणुस्सा जाव उबवत्तारो भवंति ॥ ( सूत्रं ३०२ ) ॥
[प्र० ] हे भगवन्! घणा माणसो परस्पर ए प्रमाणे कहे छे, यावत् प्ररूपणा करे छे के अनेक प्रकारना संग्रामोमांना कोइपण संग्राममां सामा (युद्ध करता) हणायेला घायल थयेला घणा मनुष्यो मरणसमये काळ करीने कोइपण देवलोकमां देवपणे उत्पन्न याय छे, हे भगवन्! ए प्रमाणे केम होय! [उ०] हे गौतम! ते बहु मनुष्यो परस्पर जे ए प्रमाणे कहे छे के यावत् तेओ देवपणे उत्पन्न थाय छे; पण जेओए ए प्रमाणे कछु छे तओए ए प्रमाणे मिथ्या कबु छे. हे गौतम! हुं तो आ प्रमाणे कहुं हुं, यावत् प्ररूपणा करूं छु. हे गौतम! ते आ प्रमाणे ते काळे अने ते समये वैशाली नामे नगरी हती. वर्णन. ते वैशाली नगरीमां वरुणनामे नागनो पौत्र रहतो हतो, ते धनवान्, यावत् जेनो पराभव न थइ शके एवो (समर्थ) हतो. ते श्रमणोनो उपासक, जीवाजीव तत्त्वने जाणनार, यावत् [ आहारादिवडे ]
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७ शतके
उद्देशः ९ | ॥५५४ ॥
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥५५५॥
७ शतके उदेशः९
प्रतिलाभतो-सत्कार करतो-निरन्तर छह छडुना तप करवावडे आत्माने वासित करतो विचरे छे. त्यारवाद ज्यारे ते नागना पौत्र वरुणने राजाना अभियोगथी (आदेशथी) गणना अभियोगथी,बलना अभियोगथी स्थमुशल संग्राममां जवा माटे आज्ञा थइ त्यारे षष्ठभक्त करनार । ते(वरूण) अष्टमभक्तने वधारे छे, अने अष्टमभक्तने वधारीने कौटुंबिक पुरुषोने बोलावे के. बोलावीने तेणे ए प्रमाणे कडु के हे देवा. नुप्रियो! चारघंटावाळा अश्वरथने सामग्रीसहित हाजर करो;अने घोडा, हाथी, रथ अने प्रवर-योद्धाओथी युक्त चतुरंग सेनाने तैयार करो यावत् तैयार करीने ए मारी आज्ञा पाछी आपो. त्यारपछी ते कौटुम्बिक पुरुषो यावत् तेनो स्वीकार करीने छत्रसहित,ध्वजासहित [रथने] शीघ्र हाजर करे घोडा, हाथी, रथ-[ अने प्रतर योद्धाओ सहित सेनाने ] यावत तैयार करे छे; तैयार करी ज्यां नागनो पौत्र वरुण के [त्यां आवी] आज्ञा पाछी आवे छे. त्यारपछी ते नागनो पौत्र वरुण ज्यां स्नानगृह छे त्यां आवे छे, आवीने कूणिकनी पेठे यावत् कौतुक (मपीतिलकादि) अने मंगलरूप प्रायश्चित करीने सर्वालंकारथी विभूषित थयेलो कवचने पहेरी बांधी, कोरंटनी माळायुक्त धारण कराता छत्रवडे सहित अनेक गणनायको यावत् दूत अने संधिपालनी साथे परिवरेलो स्नानगृहथी बहार नीकळे ले. बहार नीकळीने, ज्या बहारनी उपस्थानशाला छे, ज्यां चारघंटाघाळो अश्वरथ छे, त्यां आवीने चारघंटावाला अश्वरथ उपर चडे छे, चडीने घोडा, हाथी, रथ-[ अने प्रवर योद्धावाळी सेना ] साथे महान् सुभटोना समूहबडे यावत् विंटायेलो ज्यां रथमुसल
संग्राम छे त्यां आवे के, अने त्यां आवी ते रथमुगल संग्राममा उतया. ज्यारे नागनो पौत्र वरुण रथमुसल संग्राममा उतया त्यारे दाते आवा प्रकारना आ आभिग्रहने ग्रहण करे छे-'रथमुशल संग्राममा युद्ध करता मने जे पहेला मारे तेने मारवो कल्पे, बीजाने मारवा
कल्पे नहिं.' आवा प्रकारना आ अभिग्रहने धारण करी ते रथमुपल संग्राम करे छे. त्यारवाद रथमुसल संग्राम करता नागना पौत्र
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५५६॥
७ शतके उद्देशः९ ॥५५६।।
वरुणना स्थनी सामे तेना जेवो समानवयवाळो, समानत्वचावाळो अने समान अवशस्त्रादि उपकरणवाळो एक पुरुष रथमां बेसीने शीघ्र
आव्यो. त्यारबाद ते पुरुषे नागना पौत्र वरुणने एम कह्यु के 'हे नागना पौत्र वरुण ! तुं मने प्रहार कर.' त्यारे ते नागना पौत्र | वरुणे ते पुरुषने एम कडं के हे देवानुप्रिय ! ज्यांसुधी हुं प्रथम न हणाउं त्यांसुधी मारे प्रहार करवो न कल्पे, माटे पहेलां तुंज प्रहार कर.' ज्यारे ते नागना पौत्र वरुणे ते पुरुषने एम कात्यारे ते कुपित थएलो क्रोधाग्निथी दीपतो धनुषने ग्रहण करे छे, धनुषने ग्रहण करी बाणने ग्रहण करे छे, बाणने ग्रहण करी अमुक स्थाने रहीने तेने कानपर्यंत लांq खेंचे छे लांबु खेंचीने ते नागना पौत्र वरुणने सख्त प्रहार करे छे. त्यारबाद ते पुरुषथी सख्त घवायेल नागनो पौत्र वरुण कुपित थइ यावत् क्रोधाग्निथी दीपतो धनुषने ग्रहण करे हे, धनुपने ग्रहण करी बाणने ग्रहण करे छे, बाणने ग्रहण करी तेने कानपर्यंत लांबुं खेंचे छे, खेंचीने जे पुरुषने एक घाए पत्थरना टुकडा थाय तेम जीवितथी जूदो करे छे. हवे ते पुरुषथी सख्त धवायेल ते नागनो पौत्र वरुण शक्तिरहित, निर्बल, वीर्यरहित, पुरुषार्थ अने पराक्रमरहित थयेलो पोते 'टकी नहि शके' एम समजी घोडाओने थोभावे छे, थोभावीने स्थने पाछो फेरवे छे, रथने पाछो फरवीने रथनुशल संग्रामथी बहार नीकळे छे, बहार नीकळी एकान्त भागमा आवे छे, एकान्त भागमा आवी घोडाओने थोभावे छे, थोभावी रथने उभो राखे छे, उभो राखी रथथी उतरे छे, उतरीने रथथी घोडाओने छुटा करे छे, छुटा करी घोडाओने विसर्जित करे के विसर्जित करी डाभनो संथारो पाथरे छे, डाभनो संथारो पाथरी पूर्वदिशा सन्मुख ते डामना संथारा उपर बेसे छे. पूर्वाभिमुख पर्यकासने डाभना संथारा उपर बेसी हाथ जोडी यावत् ते नागनो पौत्र वरुण आ प्रमाणे बोल्योपूज्य अर्हतोने नमस्कार थाओ, यावत् जेओ [ सिद्धगतिने ] प्राप्त थया छे. श्रमण भगवान् महावीरने ममस्कार धाओ, जे तीर्थनी
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व्याख्या
प्रज्ञप्ति ॥५५७||
|७ शतके उरेशः९ ॥५५७।।
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आदि करनारा छे, यावत् [ सिद्धिने ] प्राप्त करवानी इच्छावाला छे; जे मारा धर्माचार्य अने धर्मना उपदेशक वे. त्यां रहेला भगवानने अहीं रहेलो हुं वांदुं छु. त्यां रहेला भगवान् मने जुओ. यावत् वंदन नमस्कार करे छे. बंदन नमस्कार करीने ते वरुण आ प्रमाणे बोल्यो-पहेलां में श्रमण भगवान महावीरनी पासे स्थूलप्राणातिपातनुं प्रत्याख्यान कयुं हतुं, ए प्रमाणे यावत् स्थूल परिग्रहनु
प्रत्याख्यान जीवनपर्यंत कयु हतुं, अत्यारे अरिहंत भगवान् महावीरनी पासे सर्व प्राणातिपातन प्रत्याख्यान यावज्जीव करूं छु. ए काप्रमाणे स्कन्दनी पेठे सर्व जाणवू. आ शरीरनो पण छेल्ला श्वासोच्छवासनी साथे त्याग करीश, एम धारी सन्नाहपट्ट-बख्तरने छोडे।
छे, बख्तरने होडीने (बाणादिना) शल्यने बहार काढे छे, बहार काढीने आलोचना लइ प्रतिक्रान्त-पडिकमी समाधिने प्राप्त थयेलो ते कालधर्म पा.यो. हवे ते नागना पौत्र वरुणनो एक प्रिय बालमित्र रथमुशल संग्राम करतो हतो, ज्यारे ते एक पुरुषथी सख्त घायल थयो, सारे ते शक्तिरहित, बलरहित यावत पोते 'टकी नहि शके' एम समजी नागना पौत्र वरुणने रथमुशल संग्रामथी बहार नीकळता जुए, जोइने ते घोडाओने थोभावे छे, थोभावीने वरुणनी पेठे यावत् घोडाओने वीसर्जित करे छे, अने पटना (वस्त्रना) संथारा उपर दो छे. संथारा उपर पूर्वदिशा सन्मुख बेसीने यावत् अंजली करीने आ प्रमाणे बोल्यो -हे भगवन ! मारा प्रिय बालमित्र नागना पौत्र वणना जे शीलवतो, गुणवतो, विरमणवतो, प्रत्याख्यान अने पोषधोपवास होय ते मने पण हो, एम कही बख्तरने छोडे छेछोडीने शल्यने काढे छे, शल्यने काढीने ते अनुक्रमे कालधर्म पाम्यो. हवे ते नागना पौत्र वरुणने मरण पामेलो जाणीने पासे रहेला वानभ्यंतर देवोए तेना उपर दिव्य अने सुगंधी गंधोदकनी दृष्टि करी, पांच वर्णना फुलो तेना उपर नांख्या, तथा | दिव्य गीत गान्धर्वनो शब्द पण कया. त्यारवाद ते नागना पौत्र वरणनी दिव्य देवर्द्धि दिव्य देवद्युति अने दिव्य देवप्रभाव
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५५८॥
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७ शतके उदेशः९ ॥५५८॥
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| सांभळीने अने जोइने घणा माणसो परस्पर एम कहे छे, यावत् प्ररूपणा करे छे के-हे देवानुप्रिय! ए प्रमाणे घणा मनुष्यो यावत् 8 देवलोकमां उत्पन्न थाय छे. ॥ २७२॥
वरुणे णं भंते ! नागनत्तुए कालमासे कालं किच्चा कहिं गए कहिं उववन्ने?, गोयमा! सोहम्मे | कप्पे अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववन्ने, तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाणि ठिती पन्नत्ता, तत्थ णं वरुणस्सवि देवस्स चत्तारि पलिओवमाई ठिती पन्नत्ता । सेज भते ! वरुणे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्वएणं जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति । वरुणस्स णं भंते ! णागणत्तुयस्स पियवालवयंसए कालमासे कालं किच्चा कहिं गए ? कहिं उववन्ने?, गोयमा! सुकुले पञ्चायाते। से णं भंते! तओहिंतो अणंतरं उव्वहित्ता कहिं गच्छिहिति कहिं उववजिहिति?, महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति । सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति ।। (मूत्रं ३०३ ) सत्तमस्म सयस्स णवमो उद्देसो सम्मत्तो ।। ७॥९॥
[प्र०] हे भगवन् ! नागनो पौत्र वरुण मरण समये मरीने क्यां गयो, क्या उत्पन्न थयो ? [उ०] हे गौतम! सौधर्म देवलोकने विषे अरुणाभ नामे विमानमा देवपणे उत्पन्न थयो छे. त्यां केटलाक देवोनी आयुषनी स्थिति चार पल्योपमनी कही छे. IX | त्यां वरुणदेवनी पण चार पल्योपमनी स्थिति कही छे. [प्र०] हे भगवन् ! ते वरुणदेव देवलोकथी आयुषनो क्षय थवाथी, भवनो क्षय थवाथी, स्थितिनो क्षय थवाथी-क्यां जशे ? [उ०] यावत् महाविदेह क्षेत्रने विषे सिद्धिने पामशे, यावत् [सर्व दुःखोनो अन्त
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥५५९॥
KG
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करशे. [प्र० ] हे भगवन् ! नागना पौत्र वरुणनो प्रिय बालमित्र मरण समये मरण पामीने क्यां गयो, क्यां उत्पन्न थयो ? [अ०] हे गौतम! ते कोइ सुकुलमां उत्पन्न थयो छे. [प्र० ] हे भगवन् ! त्यांथी मरीने तुरत ते [वरुणनो बाल मित्र ] क्यां जशे ? [अ०] हे गौतम ! ते महाविदेह क्षेत्रमां सिद्धिने पामशे, यावत् [ सर्व दुःखोनो ] अन्त करशे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, एम कही गौतम यावत् विचरे छे. ॥ ३०३ ॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमूत्रना सातमा शतकमां नवमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
उदेशक १०.
तेणें काले तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे होत्था, वन्नाओ, गुणसिलए चेइए, वन्नओ, जाव पुढविसिला पहए, वण्णओ, तस्स णं गुणसिलयस्स चेहयस्स अदूरसामंते बहवे अन्नउत्थिया परिवसंति, तंजहा कालोदाई सेलोदाई सेवालोदाई उदए नामुदए तम्मुदए अन्नवालए सेलवालए संखबालए सुहत्थी गाहावई, तए णं तेसिं अन्नउत्थियाणं भंते ! अन्नया कयाई एगयओ समुवागयाणं सन्निविद्वाणं सन्निसन्नाणं अयमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था एवं खलु समणे नायपुत्ते पंच अस्थिकाए पन्नवेति, तंजहा- धम्मत्थिकायं जाव आगासस्थिकार्य, तत्थ णं समणे नायपुत्ते चत्तारि अस्थिकाए अजीवकाए पन्नवेति, तंजहा-धम्मत्थिकार्य अधम्मत्थिकार्य आगासत्धिकार्य पोग्गलत्थिकायं, एगं च समणे णायपुत्ते जीवत्धिकार्य अरूविकार्य जीव
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७ शतके
उद्देशः १० 1194811
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७ शतके उद्देशा१० ॥५६॥
कायं पन्नवेति, तत्थ णं समणे णागपुत्ते चत्तारि अधिकार अरूविकाए पन्नवेति, तंजहा-धम्मत्धिकायं व्याख्या
अधम्मत्थिकार्य आगासस्थिकायं जीवन्धिकार्य, एगं च णं समणे णायपुत्ते पोग्गलत्थिकायं रूविकायं अजीप्रज्ञप्तिः
द्रवकायं पन्नवेति, से कहमेयं मन्ने एवं ?, तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव गुणसिलए चेइए ॥५६॥ समोसढे जाव परिसा पडिगया,
। ते काले ते समये राजगृह नामे नगर हतुं. वर्णन. गुणशील चैत्य हतुं. वर्णन. यावत् पृथिवीशिलापट्ट हतो. ते गुणशील चैत्यनी पासे थोडे दूर घणा अन्यतीथिको रहे छे. ते आ प्रमाणे-कालोदायी, शैलोदायी, सेवालोदायी, उदय, नामोदय, नदिय, अन्यपालक, शैलपालक, शंखपालक अने मुहस्ती गृहपति. त्यारपछी अन्य कोइ समये एकत्र आवेला, बेठेला, मुखपूर्वक बेठेला ते अन्यतीर्थकोनो आवा प्रकारनो आ वार्तालाप थयो-'श्रमण ज्ञातपुत्र (महावीर) पांच अस्तिकायोने प्ररूपे के. जेमके, धर्मास्तिकाय, यावत् | आकाशास्तिकाय तेमां श्रमण ज्ञातपुत्र चार अस्तिकाय अजीवकाय छे एम जणावे छे. जेम, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय अने पुद्गलास्तिकाय. एक जीवास्तिकायने श्रमण ज्ञातपुत्र अरूपी जीवकाय जणावे छे. ते पांच अस्तिकायमा श्रमण ज्ञातपुत्र | चार अस्तिकायने अरूपिकाय जणावे छे. जेम, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय अने जीवास्तिकाय. एक पुद्गलास्तिकायने श्रमण ज्ञातपुत्र रूपिकाय अने अजीवकाय जणावे छे.' ए प्रमाणे आ केम मानी शकाय? ते काले अने ते समये श्रमण भगवान महावीर यावत् गुणशिल चैत्यमां समोसर्या. यावत् परिषत (वंदन करीने) पाछी गइ.
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेहे अंतेवासी इंदभूई णाम अणगारे
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥५६१॥
4-564-4-4
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गोयमसगोत्तेणं एवं जहा विनियसए नियंडुद्देसए जाव भिक्खायरियाए अडमाणे अहापज्जत्तं भत्तपाणं पडिग्गहे पडिग्गहित्ता रायगिहाओ जाव अतुरियमचवलमसंभंत जाव रियं सोहेमाणे सोहेमाणे तेसिं अन्न उस्थियाणं अदूरसामंतेणं वीवयति, तए णं ते अन्नउत्थिया भगवं गोयमं अदूरसामंतेणं वीचमाणं पासंति पासेत्ता अन्नमन्नं सदावेंति अन्नमन्नं सहावेत्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमा कहा अविप्पकडा अयं च णं गोयमे अम्हं अदूरसामंतेणं वीइवयइ तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं गोयमं एयमहं पुच्छितएत्तिकट्टु अन्नमन्नस्स अंतिए एयमहं पडिसुति २ त्ता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छति तेणेव उवागच्छित्ता ते भगवं गोयमं एवं वयासी वएस एवं खलु गोयमा ! तव धम्मायरिए धम्मोवदेसए समणे णायपुत्ते पंच अस्थिकाए पन्नवेति, तंजा-धम्मत्थिकार्य जाव आगासत्थिकार्य, तंचेव जाव रूविकार्य अजीबकार्य पनवेति से कहमेयं भंते! गोगमा ! एवं?, तए णं से भगवं गोयमे ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-नो खलु वयं देवागुप्पिया ! अस्थिभावं नत्थित्ति वदामो, नत्थिभावं अस्थिति बदामो, अम्हे णं देवालिया ! सव्वं अस्थिभावं अस्थीति वदामो, सव्वं नत्थिभावं नत्थीति वयामो, तं चेतसा खलु तुम्भे देवाणुप्पिया ! एयमहं सयमेव पच्चुवेक्खह मयमेव० तिकड ते अन्नउत्थिए एवं वयासी एवं २, जेणेव गुणसिलए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे एवं जहा नियंडुद्देसए जाव भत्तपाणं पडिदंसेति भनपाणं पडिदंसेत्ता समणं भगवं महावीरं बंदर नमसइ २ नच्चासने जाव पज्जुवासति ।
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७ शतके उद्देशः १० ।।५६१।।
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः ॥५६२॥
७ शतके उद्देश:१० ॥५६२॥
ते काले अने ते समये श्रमण भगवान महावीरना मोटा शिष्य गौतमगोत्री इन्द्रभूति अनगार वीजा शतकना निर्गन्थोद्देशकमां कह्या प्रमाणे मिक्षाचर्याए भमता यथापर्याप्त भक्त पान ने ग्रहण करीने रामगृह नगर थकी यात्रत् त्वरारहितपणे, अचलपणे, असभ्रान्तपणे ईर्या समितिने वारंवार शोधता ते अन्यतीथिकोनी थोडे दूर जाय छे. त्यारे ते अन्यतीर्थिको भगवान् गौतमने थोडे दूर | जतां जुए छे, जोइने एक बीजाने बोलावे छे एक बीजाने बोलावीने तेओए आ प्रमाणे कयु-हे देवानुप्रियो ! आपणने आ कथा
(पंचास्तिकायनी वात) अप्रकट-अज्ञात के अने आ गौतम आपणाथी थोडे दूर जाय छे, माटे हे देवानुप्रियो ! आपणे आ अर्थ ४- गौतमने पुछवो श्रेयस्कर छे. एम कही तेओ एक बीजानी पासे ए वातनो स्वीकार करे छ; स्वीकार करीने ज्यां भगवान् गौतम | छे त्यां आवे छे, त्यां आवीने तेओए भगवान् गौतमने आ प्रमाणे का-दे गौतम ! तमारा धर्माचार्य, धर्मोप| देशक श्रमण ज्ञातपुत्र पांच अस्तिकाय प्ररूपे छे, ते आ प्रमाणे-धर्मास्तिकाय, यावत् आकाशास्तिकाय, यावत् रूपिकाय अजीवकायने | जणावे . हे पूज्य गौतम ! ए प्रमाणे शी रीते होय? त्यारे ते भगवान् गौतमे ते अन्यतीर्थिकोने ए प्रमाणे का-हे देवानुप्रियो ! अमे अस्तिभावने नास्ति (अविद्यमान) कहेता नथी,तेम नास्तिभावने अस्ति (विद्यमान) कहेता नथी. हे देवानुप्रियो ! सर्व अस्तिभावने अस्ति कहीए छीए, अने नास्तिभावने नास्ति कहीए छीए. माटे हे देवानुप्रियो ! ज्ञानवडे तमे स्वयमेव ए अर्थनो विचार करो. एप कहीने [गौतमे] ते अन्यतीथिकोने ए प्रमाणे का के ए प्रमाणे . हवे भगवान् गौतम मां गुणशिल चैत्य छे, ज्यां श्रमण भगवान् महावीर छे-त्यां आवीने निन्थिोदेशकमां वह्या प्रमाणे यावत् भक्त पानने देखाडे हे. भक्त-पानने देखाडीने श्रमण भगवान् महावीरने वंदन करे छे, नमस्कार करे हे, वांदी, नमस्कार करी बहु दूर नहि तेम बहु पासे नहि ए प्रमाणे उपासना करे छे.
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तेणं कालेणं तेणं सनपणं समणे भगवं महावीरे महाकहाडिवन्ने यावि होत्था, कालोदाई यो व्याख्या सातं देसं हवनागए, कालोद ईति समणे भगवं महावीरे कालोदाई एवं बयासी-से नूर्ण [भंते ! T७ शतके प्रज्ञप्तिः कालोदाई अन्नया कयाई एगयओ सहियाणं समृवागयाणं सन्निविट्ठाणं तहेव जाव से कहमेयं मन्ने उश:१० ॥५६३॥
एवं?, से गूणं कालोदाई अत्थे समझे ?, हंता अत्थि तं०, सच्चे णं एसमढे, कालोदाई ! अहं पंचत्यिकाल पनवेमि, तंजहा-धम्मत्यिकामं जाव पोग्गलस्थिकाय, तत्थ णं अहं चत्तारि अस्थिकाए अजीवत्थिकाए अजीवतया पन्नवेमि तहेव जाव एगं च णं अहं पोग्गलथिकायं रूविकायं पन्नवेमि, तए णं से कालोदाई समणं भगवं महावीर एवं वदासि-पयंसि णं भंते ! धम्मत्थिकायंमि अधम्मत्किायमि आगासस्थिकार्यसि
अरूविकायंसि अजीवकायंसि चकिया केइ आसइत्तए वा १ मइत्तए वा २ चिट्ठहत्तए वा ३ निसीइत्तए दवा ४ तुयद्वित्तए वा?, णो तिणढे०, कालोदाई पगंसि णं पोग्गस्विकार्यसि रूविकायंसि अजीवकार्यसि चकिया के आसइत्तए वा महत्तए वा जाच तुयहित्तए वा,
ते काले, ते समये श्रमण भगवान महावीर महाकथा प्रतिपन-(घणा माणसोने धर्मोपदेश करनामा प्रवृत ) हता. कालोदायी ते स्थळे शीघ्र आव्यो. हे कालोदायि ! प्रमाणे [बोलावीने] श्रमण भगवान् महावीरे कालोदायीने आ प्रमाणे कई-हे कालोदायि ! अन्यदा कोई दिवसे एकत्र एकठा थयेला, आवेला, वेठेला एवा तमने पूर्व कह्या प्रमाणे [पंचास्तिकाय संबन्चे विचार थयो हतो?]] यावत् ए वात ए प्रमाणे केम मानी शकाय? [एवो विचार थयो हतो?] हे कालोदायि ! खरेखर आ वात यथार्थ के. हा, यथार्थ
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः ॥५६४ ॥
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छे. हे कालोदायि ! ए बात सत्य हे. हुं पांच अस्तिकायनी प्ररूपणा करूं छं; जेमके, धर्मास्तिकाय, यावत् पुद्गलास्तिकाय. तेमां चार अस्तिकाय अजीवास्तिकायने अजीव रूपे कहुं छं. पूर्वे कला प्रमाणे यावत् एक पुद्गलास्तिकायने रूपिकाय जणानुं छं. त्यारे ते कालोदायिए श्रमण भगवान् महावीरने आ प्रमाणे क - [प्र०] हे भगवन् ! ए अरूपी अजीत्रकाय धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय अने आकाशास्तिकायमां बेसवाने, सुवाने उभो रहेवाने, नीचे बेसवाने, आळोटवाने कोड़पण शक्तिमान छे ? [उ० ] आ अर्थ योग्य नथी. परन्तु हे कालोदायि ! एक रूपी अजीवकाय पुद्गलास्तिकायमां बेसवाने, सुवाने, यावत् आळोटवाने कोड़पण शक्तिमान छे. एयंसि णं भंते! पोग्गलत्थिकार्यसि रूविकार्यसि अजीवकार्यसि जीवाणं पावा कम्मा पावकम्मफलविवा गसंजुता कजंति !, णो इणट्ठे समट्ठे कालोदाई !, एयंसि णं जीवत्धिकार्यसि अरूविकार्यसि जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्जतिः, हंता कजंति, एत्थ णं से कालोदाई संबुद्धे समणं भगवं महावीरं बंदइ नमसइ वंदित्ता नर्मसित्ता एवं वयासी - इच्छामि णं भंते! तुब्भं अंतियं धम्मं निसामेत्तए, एवं जहा खंदए तहेव पव्वइए तहेव एक्कारस अंगाई जाव विहरइ ॥ ( सूत्रं ३०४ ) ॥
[प्र० ] हे भगवन् ! ए रूपी अजीवकाय पुद्गलास्तिकायने विषे जीवोना पाप-अशुभ फल- विपाकसहित पापकर्मों लागे ? [30] हे कालोदायि ! ए अर्थ योग्य नथी. परन्तु ए अरूपी जीवकायने विषे पाप फल- विपाकसहित पापकर्मी लागे छे. अहीं कालोदायी बोध पाम्यो, ते श्रमण भगवान् महावीरने वंदन करे छे, नमस्कार करे छे; वांदीने, नमस्कार करीने तेणे आ प्रमाणे का - हे भगवन् ! हुं तमारी पासे धर्म सांभळवा इच्छु छं. ए प्रमाणे स्कन्दकनी पेठे तेणे प्रव्रज्या अंगीकार करी, अने ते प्रमाणे अगीयार अंगने [भणीने] यावत् विचरे छे. ।। ३०४ ॥
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७ शतके उद्देशः १० ॥५६४।।
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७ शतके उद्देश:१०
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तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ रायगिहाओ णयशओ गुणसिलए (या) चेइए(या) पडिनिक्वमति व्याख्या-13 बहिया जणवयविहारं विहरइ,तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नगरे गुणसिले णामं चेहए होत्था, तए णं प्रज्ञप्तिः समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ जाव समोसढे परिसा पडिगया,तए णं से कालोदाई अणगारे अन्नया कयाइ ॥५६५॥ लाजेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ समणं भगवं महावीर वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं
| वयासी-अस्थि णं भंते! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कजंति?हंता अत्थि। कहण्णं भंते! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कजति!, कालोदाई! से जहानामए केड पुरिसे मणुन्नं थालीपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाउलं विससंमिस्सं भोयणं भुजेज्जा तस्स णं भोयणस्म आवाए भद्दए भवति, तओ पच्छा परिणममाणे परि० दुरूवत्ताए दुगंधत्ताए जहा महासवर जाव भुजो २ परिणमति, एकामेव कालोदाई जीवाणं पाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्ले, तस्स णं आवाए भद्दए भवइ, तओ पच्छा विपरिणममाणे २ दुरू|वत्ताए जाव भुजो २ परिणमति, एवं खलु कालोदाई जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवाग. जाव कजंति ।
त्यारपछी अन्यदा कोइ दिवसे श्रमण भगवान महावीर राजगृहनगरयी अने गुणशिल चैत्यथी नीकळी बहार देशोमां विहार करे हे. ते काळे ते समये राजगृह नामना नगरमां गुणशिल नामनुं चैत्य हतुं. त्यां अन्यदा कोई दिवस श्रमण भगवान महावीर | यावद् समोसर्या. यावत् परिषद् पाछी गई. त्यारपछी ते कालोदायी अनगार अन्य कोइ दिवसे ज्यां भगवान महावीर छे त्यां आवे छे, त्यां आवीने श्रमण भगवान् महावीरने वंदन करे हे-नमस्कार करे छे. वंदन नमस्कार करी तेणे आ प्रमाणे कधं-[प्र.]
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५६६ ॥
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हे भगवन् ! जीवोने पापकर्मों पाप-अशुभ फल- विपाक सहित होय ? [उ०] हा होय. [प्र०] हे भगवन् ! पापकर्मो पाप - अशुभ फलविपाकसहित केम होय ? [अ०] हे कालोदायि ! जेम कोइ एक पुरुष सुन्दर, स्थालीमां रांधवावडे शुद्ध (परिपक) अढार प्रकारना दाळ शाकादि व्यंजनोथी युक्त, विपमिश्रित भोजन करे, ते भोजन शरुआतमां सारूं लागे, पण त्यारपछी ते परिणाम पामतां खराब रूपपणे, दुर्गंधपणे 'महास्रव उद्देशकमां का प्रमाणे वारंवार परिणाम पामे छे. ए प्रमाणे हे कालोदायि ! जीवोने पापकर्मो अशुभफल विपाक संयुक्त होय छे.
अस्थि णं भंते! जीवाणं कल्लाणा कम्मा कल्लाणफलविवागसंजुत्ता कांति ?, हंता अस्थि, कहन्नं भंते ! जीवाण कल्लाणा कम्मा जाय कजति ?, कालोदाई से जहानामए केइ पुरिसे मणुन्न थालीपागसुद्धं अट्ठारसबं जणाकुलं ओसहमिस्सं भोषणं भुंजेज्जा, तस्स णं भोयणस्स आवाए नो भद्दए भवइ, तओ पच्छा परिण | ममाणे २ य सुरुवत्ताए सुवन्नत्ताए जाव सुहत्ताए नो दुक्खत्ताए भुज्जो २ परिणमति, एवामेव कालोदाई ! जीवाणं पाणावायवेरमणे जाव परिग्गहवेरमणे कोह विवेगे जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगे, तस्स णं आवाए नो मद्दए भवइ, तओ पच्छा परिणममाणे २य सुबत्ताए जाव नो दुक्खत्ताए भुज्जो २ परिणमइ, एवं खलु कालोदाई ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा जाव कजंति । (सूत्रं ३०५ ) ।।
[प्र० ] हे भगवन् ! जीवोना कल्याण (शुभ) कर्मों कल्याणफलविपाक संयुक्त होय ? [उ०] हा, कालोदायि ! होय. [प्र० ] हे भगवन् ! जीवोना कल्याण कर्मों कल्याणफलविपाकसहित केम होय ? [अ०] हे कालोदायि ! जेम कोई एक पुरुष सुन्दर, स्थाली मां
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७ शतके उद्देशः १०
॥५६६॥
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७ शतके उद्देशः१० ॥५६७॥
रांधवावडे शुद्ध-परिपक, अढार प्रकार ना दाळ शाकादि] व्यंजनोथी युक्त औषधमिश्रित भोजन करे, ते भोजन प्रारंभमा सारूं न व्याख्या- लागे, त्यार पछी ज्यारे ते अत्यंत परिणाम पामे त्यारे ते सुरूपपणे, सुवर्णपणे, यावत् सुखपणे वारंवार परिणमे छे, दुखपणे प्रज्ञप्ति धा | परिणाम पामतुं नथी. ए प्रमाणे हे कालोदायि ! जीवोने प्राणातिपातविरमण, यावत् परिग्रहविरमण, क्रोधनो त्याग यावत् मिथ्या॥५६॥ीदर्शनशल्यनो त्याग प्रारंभमा सारो न लगे, पण पछी ज्यारे ते परिणाम पामे त्यारे ते सुरूपपणे यावत् वारंवार परिणमे हे, पण
दुःखरूपे परिणत थतो नथी. ए प्रमागे हे कालोदायि ! जीवोना कल्याण की कल्याण फल विपाकसंयुक्त होय . ॥ ३०५॥ ४ा दो भंते ! पुरिसा मरिसया जाव सरिसभंडम तोवगरणा अन्नमन्नणं सद्धिं अगणिकार्य समारंभनि, तत्थ साणं एगे पुरिसे अगणिकायं उज्जालेति एगे पुरिसे अगणिकायं निवावेति, एसि णं भंते ! दोण्हं पुरिसाणं | कयरे २ पुरिसे महाकम्मतराए चेव महाकिरियतराए चेव महासवतराए चेव महावेयणतराए चेव कयरे या परिसे अप्पकम्मनगए चेव जाव अपवेयणतराए चेव, जे से पुरिसे अगणिकाय उमालेइ जे वा से पुरिसे अगणिकाय निव्वावेति ?, कालोदाई ! तत्थ ण जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेड से णं पुरिसे महाकम्मतराए चेव जाव महावेयगतगए देव, तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं निम्बावेह से गं पुरिसे अप्पकम्मतराए चेव जाव अप्पवेयणतगए चेव । से केणटेणं भंते! एवं बुच्चइ-तत्य ण जे से पुरिसे जाव अप्पवेयणराए चेव ?, कालोदाई ! तत्थ ण जे से पुरिसे अगणिकायं उजालेह से णं पुरिसे बहतरागं पुढ विकायं समारंभति बहुतरागं आउक्कायं समारंभति अपतरायं तेऊकायं समारंभति बहुतरागं वाऊकायं ममारंभति बहुतरायं
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५६८॥
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७ शतके उद्देश:१० ॥५६८॥
वणस्सइकायं समारंभति बहुतरागं तसकायं समारंभति, तत्थ ण जे से पुरिसे अगणिकायं निब्यावेति से णं पुरिसे अप्पतराय पुढ विकायं ममारंभइ अप्पतराग आउकाय समारंभति बहुतरागं तेउक्कायं समारंभति अप्पतरागं वाउक्कायं समारंभइ अप्पतरागं वणस्सइकायं समारंभइ अप्पतरागं तसकायं समारंभति से तेण?ण कालोदाई ! जाव अप्पवेयगतराए चेव ॥ (सूत्रं ३०६)॥
[प्र०] हे भगवन् ! सरखा बे पुरुषो यावत् समान भांड-पात्रादिउपकरणवाळा होय, तेश्रो परस्पर साथे अग्निकायनो समारंभ| हिंसा करे, तेमां एक पुरुष अग्निकायने प्रकट करे, अने एक पुरुष तेने ओलवे, हे भगवन् ! आ वे पुरुषोमां कयो पुरुष महाकर्मनाळो महाक्रियावाळो, महाआस्रववाळो अने महावेदनावाळो होय, अने कयो पुरुष अल्पकर्मवाळो यावत अल्पवेदनावाळो होय के जे पुरुष अनिकायने प्रकटावे छे ते, के जे पुरुष अग्निकायने ओलवी नांख ते ? [उ.] हे कालोदायि ! ते वे पुरुषमा जे पुरुष अग्निकायने प्रकटावे छे, ते पुरुष महाकर्मवाळो यावत् महावेदनावालो होय, अने जे पुरुष अग्निकायने ओलवी नांखे छे ते पुरुष अल्पकर्मवाळो यावत् अल्पवेदनावाळो होय. [प्र०] हे भगवन् ! ए प्रमाणे शाथी कहो छो के ते वे पुरुषोमा जे पुरुष [ अग्निने प्रदीप्त करे छे ते महावेदनावाळी अने जे ओलवे छे ते ] यावत् अल्पवेदनावाठो होय ? [उ.] हे कालोदायि ! ते बेमा जे पुरुष अनिकायने प्रदीप्त करे छ, ते पुरुष घणा पृथिवीकायनो समारंभ करे छ, थोडा अग्निकायनो समारंभ करे छे, घणा वायुकायनो समारंभ करे छे, घणा वनस्पतिकायनो समारंभ करे , अने घणा त्रसकायनो समारंभ करे छे. तेमा जे पुरुष अग्निकायने ओलवी नांखे हे ते पुरुष थोडा पृथिवीकायनो, थोडा अप्कायनो, थोडा वायुकायनो, थोडा वनस्पतिकायनो, थोडा त्रसकायनो अने वधारे अग्निकायनो समारंभ करे छे. ते हेतुथी हे कालोदायि! यावत् अल्पवेदनावाळो होय. ।। ३०६ ॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥५६९॥
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अस्थि णं भंते ! अचित्तावि पोग्गला ओभामंति उज्जोवेति तवेंति पभासेंति !, हंता अस्थि । कयरे णं भंते ! ते अचित्तावि पोग्गला ओभासंति जाव पभासेंति ?, कालोदाई ! कुद्धस्स अणगारस्स तेयलेस्सा निमट्टा समाणी दूरं गंता दूरं निपत, देस गंता देसंनिपतड़, जहिं जहिं च णं मा निपतइ तर्हि तहिं च णं ते अचित्तानि पोग्गला ओभासंति जाव प्रभामंति, एरणं कालोदाई ! ते अचित्तावि पोग्गला ओभासंति जात्र पभाति, तए णं से कालोदाई अणगारे समण भगवं महावीरं वंदति नममति २ बहहिं चउत्थछट्ठठ्ठम | जाव अप्पाणं भावेमाणे जहा पढमसए कालासवेसियपुत्ते जाव सव्वदुक्वप्पहीणे । सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति । (सूत्रं ३०७) ७ - १० | सत्तमं सयं ममत्तं ॥ ७ ॥
[[प्र० ] हे भगवन् ! एम के के अचित्त पण पुद्गलो अवभास करे, उद्योत करे, तपे प्रकाश करे ? [अ०] हे कालोदायि ! हा एम छे. (प्र० ] हे भगवन् ! अचित्त छतां पण कया पुद्गलो अवभास करे, यावत् प्रकाश करे ? [30] हे कालोदायि ! क्रोधायमान थयेला साधुनी तेजोलेश्या नीकळीने दूर जड़ने दूर पडे हे देशमां (जवा योग्य स्थाने ) जड़ने ते देशमां स्थानमां पडे हे. ज्यां ज्यां ते पडे छे त्यां त्यां अचित पुद्गलो पण अवभास करे छे, यावत्प्रकाश करे छे. ते कारणथी हे कालोदायि ! ए अचित्त पुद्गलो पण अवभास करे छे, यावत् प्रकाश करे छे. त्यार बाद ते कालोदायी अनगार श्रमण भगवान् महावीरने वंदन करे छे, नमस्कार करे छे अने घणा चतुर्थ (उपवास), पष्ठ (वे उपवास ), अष्ठम ( त्रण उपवास ) ( इत्यादि तप वडे ) यात् आत्माने वासित करता ते प्रथम शतकमा कालासवेसिय पुत्तनी पेठे यावद् सर्वदुःखथी रहित थया. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे। हे भगवन ! ते ए प्रमाणे छे एम कही गौतम यावत् विचरे छे ] ॥ ३०७ ॥ दशमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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७ शतके उद्देश : १० ॥५६९॥
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra wa kebatirth.org/ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir அஅஅஅஅஅஅஅஅஅஅஅges படைப்பு THENI - யாயா IATIRED LITE பயப்ப டாது // इति श्रीमद्भगवतीसूत्रे द्वितीयो भागः समाप्तः // இறை ப ட்டப்படிபட்ட ITI பட்டப்பா பப்பப்பப்பட்டாயம் படிப்பு பானம் Saaaaaaaaaaaaaaa For Private and Personal Use Only