________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatrth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie
व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥५४२॥
कुंथुस्स य जाव कजति । से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ जाव कजइ ?, गोयमा! अविरतिं पडुच्च, से तेणटेणं जाव कजह (सूत्रं २९६)॥
७ शतके [प्र०] हे भगवन् ! खरेखर हाथी अने कुंथुने अप्रत्याख्यान क्रिया समान होय ? [उ०] हा, गौतम ! हाथी अने कुन्थुने यावत् |
| उद्देशः ८ अप्रत्याख्यान क्रिया समान होय छे. [प्र.] हे भगवन् ! शा हेतुथी एम कहो छो के हाथी अने कुन्थुने समान अप्रत्याख्यान क्रिया | ॥५४२।। होय ? [उ०] हे गौतम ! अविरतिने आश्रयी, ते हेतुथी यावत् हाथी अने कुंथुने समान अप्रत्याख्यान क्रिया होय. ।। २९६॥
आहाकम्मं णं भंते ! भुजमाणे किं बंधह? किं पकरेइ ? किं चिणाइ? किं उवचिणाइ ? एवं जहा पढमे सए नवमे उद्देसए तहा भाणियव्वं जाव सासए पंडिए, पंडियत्तं असासयं, सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति ॥ (सूत्रं २९७) सत्तमसयस्स अट्ठमो उद्देसो संमत्तो॥७-८॥
[प्र०] हे भगवन् ! आधाकर्म आहारने खानार (साधु) शुं बांधे, शुं करे, शेनो चय करे अने शेनो उपचय करे ? [उ०] जेम प्रथम शतकना नवमां उद्देशकमां का छे ए प्रमाणे यावत् पंडित शाश्वत छे, पण पंडितपणुं अशाश्वत छे' त्यांमुधी कहे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे एम कही यावत् विचरे छे. ॥ २९७॥
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीस्त्रना सातमा शतकमां आठमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण ययो.
For Private and Personal Use Only