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प्रज्ञप्तिः ॥५०४॥
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विरतिरहित, जेणे पापकर्मनो त्याग के प्रत्याख्यान कर्य नथी एवो, सक्रिय कर्मबन्धसहित, संवररहित, एकान्त दण्ड एटले हिंसा करनार अने एकान्त अज्ञ छे. सर्व प्राणोमां यावत् 'सर्व सत्वोमां प्रत्याख्यान कयु छे' ए प्रमाणे बोलनार जेने आq ज्ञान थयु होय के "आ
४७ शतके जीवो के, आ अजीयो छ, आ त्रसो छ, आ स्थावरो छे,"-तेने सर्व प्राणोमां यावत् सर्व सत्वोमां प्रत्याख्यान कयुं छे' ए प्रमाणे
लउद्देशः २ बोलनारने-सुप्रत्याख्यान थाय, दुष्प्रत्याख्यान न थाय. ए प्रमाणे खरेखर ते सुप्रत्याख्यानी 'सर्व प्राणोमां यावत् सर्व सत्वोमां ५०४॥ प्रत्याख्यान कथु छे' एम चोलतो सत्य भाषा बोले डे, मृषा भाषा बोलतो नथी. ए रीते ते सुप्रत्याख्यानी, सत्यभापी, सर्व प्राणोमां यावत् सर्व सत्वोमां त्रिविधे त्रिविधे संयत, विरति युक्त, जेणे पापकर्मनो घात ने प्रत्याख्यान कयुं छे एवो, अक्रिय-कर्मबंधरहित, संवरयुक्त एकान्त पंडित पण हे. हे गौतम ! ते हेतुथी एम कहेवाय छे के यावत् कदाच दुष्प्रत्याख्यान थाय. ॥ २७० ।।
कतिविहे णं भंते ! पचक्खाणे पन्नत्ते ?, गोयमा ! दुविहे पचक्खाणे पन्नत्ते, तंजहा-मूलगुणपञ्चक्खाणे य उत्तरगुणपञ्चक्खाणे य । मूलगुणपञ्चक्खाणे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते?, गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-सव्वमूलगुणपञ्चक्खाणे य देसमूलगुणपच्चक्खाणे य, सव्वमूलगुणपञ्चक्खाणे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्त ?, गोयमा ! पंचविहे पन्नत्त, तंजहा-सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं जाव सब्वाओ परिग्गहाओ चेरमणं । देसमूलगुणपञ्चक्खाणे णं भंते ! कइविहे पन्नत्त, गोयमा ! पंचविहे पन्नते, तंजहा-धूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं जाव चलाओ परिग्गहाओ वेरमणं। उत्तरगुणपञ्चक्खाणे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्त ?, गोयमा! दुविहे पन्नत्त, तंजहा-सव्वुत्तरगुणपच्चखाणे य देसुत्तरगुणपञ्चक्खाणे य, सव्वुत्तरगुणपञ्चक्रवाणे णं भंते ! कतिविहे
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