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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
६ शतके उद्देशः४ ॥४४६॥
॥४४६॥
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भांगा जाणवा, जेम औधिक कह्या तेम तैजस अने कार्मण ( शरीरवाळा जीवो) जाणवा. अशरीरी-जीव अने सिद्ध माटे त्रण भांगा जाणवा. आहारपर्याप्तिमां, शरीरपर्याप्तिमा, इन्द्रियपर्याप्तिमा अने आनप्राणपर्याप्तिमा जीव अने एकेन्द्रिय वर्जी त्रण भांगा जाणवा. जेम संज्ञी जीवो कद्या तेम भाषा अने मनःपर्याप्ति संबंधे जाणवू, जेम अनाहारक जीवो कह्या तेम आहार पर्याप्ति विनाना जीवो विषे समजवू. शरीरनी अपर्याप्तिमां, इंद्रियनी अपर्याप्तिमां अने आणप्राणनी अपर्याप्तिमा जीव अने एकेंद्रिय वर्जी त्रण मांगा ६ जाणवा. नैरयिक, देव अने मनुष्योमा छ भांगा जाणवा. भाषानी अपर्याप्तिमा अने मननी अपर्याप्तिमा जीवादिक त्रण मांगा दी जाणवा. नैरयिक, देव अने मनुष्योमा छ भांगा जाणवा. संग्रहगाथा आ प्रमाणे छे:-सप्रदेशो, आहारक, भव्य, संज्ञी, लेश्या, दृष्टि, संयत, कषाय, ज्ञान, योग, उपयोग, वेद, शरीर अने पर्याप्ति ए द्वारो छे. ।। २३८॥
जीवा णं भंते ! किं पञ्चक्खाणी अपच्चक्खाणी पञ्चक्खाणापच्चक्खाणी ?, गोयमा ! जीवा पच्चक्खाणीवि अपञ्चक्खाणीवि पञ्चक्खाणापञ्चक्खाणीवि । सव्वजीवाणं एवं पुच्छा, गोयमा! नेरइया अपञ्चक्खाणी जाव चउरिंदिया. सेसा दो पडिसेहेयब्वा, पंचेंदियतिरिक्खजोणिया नो पच्चक्खाणी अपञ्चक्खाणीवि पञ्चक्खाणापञ्चक्खाणोवि, मणुस्सा तिन्निवि, सेसा जहा नेरतिया ॥ जीवा णं भंते! किं पच्चक्खाणं जाणंति, अपच्च| क्खाणं जाणंति, पञ्चक्खाणापच्चक्खाणं जाणंति ?, गोयमा ! जे पंचेंदिया ते तिन्निवि जाणंति, अवसेसा पच्च|क्खाणं न जाणंति ३ ॥ जीवा णं भंते ! किं पच्चक्खाणं कुव्वंति अपञ्चकखाणं कुवंति पचक्खाणापच्चक्खाणं कुवंति ?, जहा ओहिया तहा कुब्वणा || जीवा णं भंते ! किं पञ्चक्खाणनिब्बत्तियाउया अपञ्चक्खाणणिक
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