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व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥४४७॥
६ शतके उद्देशः४ ॥४४७॥
| पञ्चक्खाणापञ्चक्खाणनि?, गोयमा! जीवा य वेमाणिया य पञ्चक्खाणणिव्वत्तियाउया तिन्निवि, अव| सेसा अपच्चक्खाणनिव्वत्तियाउया ॥ पञ्चक्खाणं १ जाणइ २ कुन्वति३ तिन्नेव आउनिव्वत्ती ४। सपदेसुद्देसंमि य एमेए दंडगा चउरो॥ ४२ ॥ (सूत्रं २३९) ॥ सेवं भंते ! सेवं भंते । त्ति छठे सए चउत्थो उद्दसो।। ६-४ ॥
[प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवो प्रत्याख्यानी छ ? अप्रत्यख्यानी छ ? के प्रत्याख्यानप्रत्याख्यानी छ ? [उ.] हे गौतम ! जीवो | प्रत्याख्यानी पण छे, अप्रत्याख्यानी पण छे अने प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी पण छे. [प्र०] ए प्रमाणे बधा जीवो माटे प्रश्न करवो? [उ.] हे गौतम ! नैरयिको अप्रत्याख्यानी छे, ए प्रमाणे यावत् चररिद्रिय सुधीना जीवो अप्रत्याख्यानी कहेवा अर्थात् तेओने माटे बाकीना बे-प्रत्याख्यानी अने प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी-भांगा प्रतिषेधवा, पंचेद्रियतिर्यंचयोनिको प्रत्याख्यानी नथी पण अप्रत्याख्यानी छे अने प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी छे अने मनुष्योने त्रणे भांगा होय छे तथा बाकीना जीवो, जेम नैरयिको कह्या तेम कहेवा. [प्र.] हे भगवन् ! शुं जीवो प्रत्याख्यानने जाणे छे अप्रत्याख्यानने जाणे छ ? के प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानने जाणे छे ? [उ०] हे गौतम ! जे पंचेंद्रियो छे ते त्रणेने पण जाणे छे, बाकीना जीवो प्रत्याख्यानने जाणता नथी. अप्रत्याख्यानने जाणता नथी अने(प्रन्याख्याना| प्रत्याख्यानने जाणता नथी.) [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवो प्रत्याख्यानने करे छे ? अप्रत्याख्यानने करे छे ? के प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानने करे छे ? [उ०] हे गौतम ! जेम औधिक दंडक कह्यो तेम प्रत्याख्याननी क्रिया-प्रत्याख्याननुं करवू पण जाणी लेबु. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीयो प्रत्याख्यानथी निवर्तित आयुष्यवाला छे एटले शुं जीवोनुं आयुष्य प्रत्याख्यानथी बंधाय छ ? अप्रत्याख्यानथी बंधाय छ ? के प्रत्यारयानाप्रत्याख्यानथी बंधाय छे ? [उ०] हे गौतम ! जीवो अने वैमानिको प्रत्याख्यानथी निवर्तितः ।
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