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व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥३४८॥
. लवणे णं भंते ! समुद्दे केवतियं चक्कवालविक्खंभेणं पन्नत्ते?, एवं नेगव्वं जाव लोगहिती लोगाणुभावे, सेवं भंते ! २ त्ति भगवं जाव विहरइ ।। (मूत्रं १८१)॥ पञ्चमशते द्वितीयः ॥५-२ ।।
[प्र०] हे भगवन् ! लवणसमुद्रनो चकवाल विष्कंभ केटलो कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम! ए प्रमाणे-पूर्व कह्या प्रमाणे जाणवू ए प्रमाणे यावत्-लोकस्थिति, लोकानुभाव, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे एम कही यावत्-विहरे छे.
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमूत्रना पांचमा शतकमां बीजा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
५ शतके उद्देशः३ ॥३४८॥
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उद्देशक ३. आगळना प्रकरणमां वायुकाय संबंधे चिंतन कयु छे अने हवे वनस्पतिकाय विगेरेना शरीर संबंधी चिंतन करतां जणावे छ के:
अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमातिक्खंति भा० प० एवं प० से जहानामए जालगंठिया सिया आणुपुव्विगढिया अणंतरगढिया परंपरगढिया अन्नमन्नगढिया अन्नमन्नगुरुयत्ताए अन्नमन्नभारियत्ताए अन्नमन्नगुरुयसं| भारियत्ताए अण्णमण्णघडत्ताए जाव चिटुंति, एवामेव बहूणं जीवाणं बहूसु आजातिसयसहस्सेसु बहूई
आउयसहस्साई आणुपुब्विगढियाइं जाव चिट्ठति, एगेऽविय णं जीवे एगेणं समएणं दो आउयाइं पडिसंवेदयति, तंजहा-इहभवियाउयं च परभषियाउयं च, जं समयं इहभवियाउयं पडिसंवेदेइ तं समयं परभ
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