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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४३॥
शतके उद्देशः३ ॥४३१॥
भंते ! किं सादीए सपजवसिए चउभंगो, गोयमा ! वत्थे सादीए सपजवसिए, अवसेसा तिन्निवि पडिसेहेयव्वा । जहा णं भंते ! वत्थे सादीए सपज्जवसिए, नो सादीए अपज्ज., नो अणादीए सप०, नो अनादीए अपज्जवसिए, तहा णं जीवाणं किं सादीया सपजसिया ? चउभंगो पुच्छा, गोयमा! अत्थेगतिया सादीया सपज्जवसिया चत्तारिवि भाणियब्बा । से केणटेणं० १, गोयमा ! नेरतिया तिरिक्खजोणिया मणुस्मा देवा गतिरागतिं पडुच्च सादीया सपजवसिया,सिद्धी(सिद्धा)गतिं पडुच्च सादीया अपज्जवसिया,भवसिद्धिया लद्धिं पडुच्च अणादीया मपजवसिया, अभवसिद्धिया संसारं पडुच्च अणादीया अपज्जवमिया, से तेणटेणं०॥ (सूत्रं २३४) ।
[प्र०] हे भगवन् ! वस्त्रने जे पुद्गलोनो उपचय थयो छे, ते शुं सादि सांत छे ? सादि अनंत छ ? अनादि सांत छे के अनादि अनंत छे ? [उ०] हे गौतम ! वस्रने जे पुद्गलोनो उपचय थयो छे, ते सादि सांत छे पण सादि अपर्यवसित-अनंत नथी, | तेमज अनादि सांत नथी धने अनादि अनंत नथी. [प्र०] हे भगवन् ! जेम वस्त्रनो पुद्गलोपचय मादि सांत ले पण सादि अनंत,
अनादि सांत के अनादि अनंत नथी तेम जीवोना कर्मोपचय माटे पण पृच्छा-प्रश्न करवी अर्थात् जीवोनो कर्मोपचय पण शुं सादि | सांत के ? सादि अनंत छे, अनादि सांत के के अनादि अनंत के ? [उ०] हे गौतम ! केटलाक जीवोनो कर्मोपचय सादि सांत छे, केटलाक जीवोनो कर्मोपचय अनादि सांत छे अने केटलाक जीवोनो कर्मोपचय अनादि अनंत २. पण जोवोनो कर्मोपचय सादि अपर्यवसित-अनंत नथी. [प्र०] हे भगवन् ! ते शा हेतुथी ? [उ.] हे गौतम ! ऐर्यापथना बंधकनो कर्मोपचय सादि सांत छ, भवसिद्धिक जीवनो कर्मोपचय अनादि सांत छे, अभवसिद्धिकनो कर्मोपचय अनादि अनंत छे ते हेतुथी हे गौतम ! तेम का छे.
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