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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४८८॥
६ शतके उद्देशः१. ॥४८८॥
AAKANKAR
ग्रहण करी आहरे छे? के अनंतरक्षेत्रावगाढ पुद्गलोने आत्मद्वारा ग्रहण करी आहरे छ ? के परंपर क्षेत्रावगाढ पुद्गलोने आत्मद्वारा | ग्रहण करी आहरे छे ? [उ०] हे गौतम ! आत्मशरीर क्षेत्रावगाढ पुद्गलोने आत्मद्वारा ग्रहण करी आहरे छे अने अनंतरक्षेत्रावगाढ | पुद्गलोने आत्मद्वारा ग्रहण करी आहरता नथी, तेमज परंपर क्षेत्रावगाढ पुद्गलोने आत्मद्वारा ग्रहण करी आहरता नथी. जेम 'नर|यिको परत्वे का यावत् वैमानिको सुधी दंडक कहेवो. ॥ २५७।। | केवली णं भंते! आयाणेहिं जाणति पासति?, गोयमा! नो तिणढे। से केणटेणं?, गोयमा! केवली णं पुरच्छि| मेणं मियंपि जाणइ अमियंपि जाणइ जाव निब्बुडे सणे केवलिस्स,से तेणटेणं० गाहा-जीवाण सुहं दुक्खं जीवे
जीवति तहेव भविया य । एगंतदुक्खवेयण अत्तमाया य केवली ॥ ५२ ॥ सेवं भंते ! सेवं भंते ! (सूत्र २५८)। | [प्र०] हे भगवन् ! केवलिओ इंद्रियद्वारा जाणे? जूए ? [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी. [प्र०] हे भगवन् ! ते शा
हेतुथी ? [उ.] हे गौतम ! केवली पूर्वमा मितने पण जाणे अने अमितने पण जाणे यावत् केवलिनुं दर्शन निवृत छ, ते हेतुथी | एम छे. गाथाः-जीवोनुं सुख दुःख, जीव, जीवनुं प्राणधारण. तेमज भन्यो, एकांत दुखवेदना, आत्मद्वारा पुद्गलोनुं ग्रहण अने केवली (आटला विषय संबंधे आ दशम उद्देशामां विचार कर्यो छे.) हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे. एम कही यावत् विहरे छे. ॥ २५८ ॥ भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना छट्ठा शतकमां दशमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
इति श्रीमद् भगवतीसूत्रे षष्ठं शतं समाप्तम्
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