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व्याख्याप्रज्ञप्ति
६ शतके उद्देशः३ ॥४४०॥
॥४४०॥
जीव सिद्धना जीव नथी बांधता. [प्र.] हे भगवन् ! शु चरम जीव के अचरम जीव ज्ञानावरणीय कर्म बांधे ? [उ०] हे गौतम ! ४ाए बने जीव आठे फर्मप्रकृतिओने भजनाए बांधे. ॥ २३६ ॥ । एएसिणं भते ! जीवाणं इथिवेदगाणं पुरिस वेदगाणं नपुंसगवेदगाणं अवेयगाण य कयरे २ अप्पा वा ४?,
गोयमा ! मब्बत्थोवा जीवा पुरिसवेदगा, इथिवेदगा संखेजगुणा, अवेदगा अर्णतगुणा, नपुंसगवेदगा अणंत| गुणा॥ एएसिं सव्वेसिं पदाणं अप्पबहुगाई उच्चारेयब्वाइं जाव सम्वत्थोवा जीवा अचरिमा,चरिमा अणंतगुणा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति (सूत्रं २३७) ॥ छट्ठसा तइओ उद्देसो संमत्तो॥६-३॥
[प्र०] हे भगवन् ! स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक, नपुंसकवेदक अंने अवेदक, ए बधा जीवोमां क्या क्या जीव, कोना कोनाथी अल्प, बहु, तुल्य अने विशेषाधिक छ ? [उ०] हे गौतम ! सौथी थोडा पुरुषवेदक जीवो छे, तेनाथी संख्येयगुण स्त्रीवेदक हे, अवेदक अनंतगुण छे अने नपुंसकवेदक अनंतगुण है. ए बधा पदोनां अल्पबहुत्वो कहेवां यावत् सौथी थोडा अचरम जीवो छ भने चरम जीवो अनंतगुण छे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन ! ते ए प्रमाणे छे. एम कही यावद विचरे छे. ॥ २३७ ।।
भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीसूत्रना छट्ठा शतकमां त्रीजा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
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