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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥४९॥
७ शतके उद्देशः १ ॥४९॥
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होय, बीजे समये कदाच आहारक होय अने कदाच अनाहारक होय, त्रीजे समये कदाच आहारक होय अने कदाच अनाहारक होय, | परन्तु चोथे समये अवश्य आहारक होय, ए प्रमाणे (नारक इत्यादि चोवीस) दंडक (पाठ) कहेवा. सामान्य जीवो अने एकेन्द्रियो मा चोथे समये आहारक होय छे, अने (एकेन्द्रिय शिवाय) बाकीना जीवो श्रीजे समये आहारक होय छे. [प्र.] हे भगवन् ! जीव कये
समये सौथी अल्प आहारवाळो होय छे? [उ०] हे गौतम ! उत्पन्न थतां प्रथम समये अने भवने (जीवितने) छेल्ले समये आ समये | जीव सोथी अल्प आहारवाळो होय छे. ए प्रमाणे वैमानिक सुधी दंडक कहेवो. ।। २५९ ॥
किंसंठिए णं भंते! लोए पन्नत्त, गोयमा! सुपइट्ठगसंठिए लोए पन्नत्ते, हेट्ठा विच्छिन्ने जाव उप्पि उड्ढंमुईगागारसंठिए, तसिं च णं मासयंसि लोगंसि हेट्ठा विच्छिन्नंसि जाव उप्पिं उड्डेमुइंगागारसंठियंसि उप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली जीवेवि जाणइ पासइ अजीवेवि जाणइ पासइ तओ पच्छा सिज्झति जाव अंतं करेइ ।। (सूत्रं २६०)॥
[प्र०] हे भगवन् ! लोकनुं संस्थान (आकार ) केवा प्रकारे का छे ? [उ०] हे गौतम ! लोक सुप्रतिष्ठक शरावना आकार जेवो कहेलो छे. ते नीचे विस्तीर्ण-पहोलो यावत् उपर ऊर्ध्व (उभा) मृदंगना आकारे संस्थित है. नीचे विस्तीर्ण यावत् उपर ऊर्ध्व मृदंगना आकारे रहेला ते शाश्वत लोकमां उत्पन्न थयेला ज्ञान अने दर्शनने धारण करनार अरिहंत जिन केवलज्ञानी जीवोने पण जाणे छे अने जूए छे, अजीवोने पण जाणे छे अने जूए छे, त्यारपछी सिद्ध थाय छे, यावत् (सर्व दुःखोनो) अंत करे छे. ॥२६॥
समणोवासगस्स णं भंते ! सामाइयकडस्स समणोवासए अच्छमाणस्स तस्स णं भंते ! किं ईरियावहिया
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