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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥४६४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुधी जाय अने लोकांतने प्राप्त करे. [प्र० ] हे भगवन् ! ते त्यां जइनेज आहार करे ? परिणमावे ? अने शरीर ने बांधे ? [अ०] हे गौतम! केटलाक त्यां जइनेज आहार करे, परिणमावे अने शरीरने बांधे - तैयार करे, अने केटलाक त्यांथी पाछावळे छे अने पाछा वळी अहिं शीघ्र आवे छे अने फरीवार मारणांतिक समुद्घातथी समवहत थाय छे, समवहत थइ मंदर पर्वतनी पूर्वे अंगुलनो असंख्य भागमात्र, संख्येय भागमात्र, वालाग्र, बालाग्र पृथक्त्व (बेथी न वालाग्र) ए प्रमाणे लिक्षा, यूका, यव, अंगुल यावत् क्रोडयोजन, कोडाकोडी योजन, संख्येयहजार योजन अने असंख्येयहजार योजने अथवा लोकांतमां एक प्रदेशिक श्रेणिने मूकीने असंख्येयलाख पृथिवीकायिकना आवासभांना कोइ पृथिवीकायना आवासमां पृथिवीकायपणे उत्पन्न थाय अने पछी आहार करे, परिण मावे अने शरीरने बांधे जेम मंदर पर्वतनी पूर्व दिशा परत्वे कछु आलापक कह्यो तेम ए प्रमाणे दक्षिणे, पश्चिमे, उत्तरे, ऊर्ध्व अने अधोदिशा माटे पण जाणवुं जेम पृथिवीकायिको माटे कछु तेम सर्व एकेंद्रियो माटे एक एकना छ आलापक कहेवा. जीणं भंते! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहरत्ता जे भविए असंखेजेस बेंदियावाससयसहस्सेसु अण्णयरंसि बेंदियावासंसि बेइंदियत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते! तस्थगए चेव जहा नेरइया, एवं जाव अणुत्तरोबवाइया । जीवे णं भंते! मारणंतियसमुग्धारणं समोहए २ जे भविए एवं पंचसु अणुत्तरेसु महतिमहालएस महाविमाणेषु अन्नयरंसि अणुत्तरविमाणंसि अणुत्तरोववाइयदेवत्ताए उववज्जित्तए, सेणं भंते ! तत्थगए चैव जाव आहारेज वा परिणामेज्ज वा सरीरं वा बंधेज्ज १० । सेवं भते । सेवं भते ! | ( सू २४४) | पुढविउद्देसो समत्तो ।। ६-६ ॥ For Private and Personal Use Only ६ शतके उद्देशः ६ ॥४६४॥
SR No.020107
Book TitleBhagvati Sutram Part 02
Original Sutra AuthorSudharmaswami
Author
PublisherHiralal Hansraj
Publication Year1937
Total Pages248
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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